Friday, July 24, 2020


।। राष्ट्र चेतना के आयाम ।।


सारतत्व – देश व राष्ट्र क्या हैं ? राष्ट्र शब्दमें ही वैभव, समृद्धि इत्यादि अर्थ अंतर्भूत हैं। यह सत्यकी अन्वेषणा, ज्ञान, श्रद्धा, पुरुषार्थ, व साझेदारीसे बनता है। राष्ट्रके संस्कार प्रत्येक देशमें अलग होंगे। भारतवर्षके संस्कार यहाँ उपजी राष्ट्रचेतनासे बने। वह चेतना आनेवाली हजारों पीढीयोंके लिये चिरंतन अविरल बनी रहे इसके लिये असिधाराव्रत चला सकें ऐसे नागरिक चाहिये । यह गरज तब भी थी जब राष्ट्रचेतना उदित हो रही थी और आज भी है। आइये, उस असिधाराको समझकर उसके व्रती बनें। और हम यह न भूलें कि हमारी भाषाओं व उनकी शब्दावलियोंके माध्यमसे ही हम राष्ट्रचेतनाको समझ सकते हैं तथा उसमें दृढ हो सकते हैं। भाषाएँ बिसरा दीं तो हमारी राष्ट्रचेतनापर भयंकर संकट होगा।
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ॐ असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्मा अमृतं गमय ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।

सहनाववतु सहनौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।।

मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्य देवोभव, अतिथी देवोभव, राष्ट्र देवोभव ।।
गुरुर्ब्रम्हा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रम्ह तस्मै श्री गुरुवे नमः।।

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्या जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।

उत्तिष्ठत, जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया
दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।

या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत् ।।
मित्रों, मैं आपके साथ कुछ संवाद करने आयी हूँ कि राष्ट्रकी चेतना क्या होती है। यह जो कुछ श्लोक मैंने उद्धृत किये हैं उनका उपयोग पूर्वकालमें भारतराष्ट्रकी चेतना बनानेमें और व्याख्यायित करनेमें हुआ है ऐसा मैं मानती हूँ। तो आईये, पहले समझते हैं कि राष्ट्र क्या है, राष्ट्रचेतना क्या है और उससे क्या नियमित होता है।
लेकिन पहले ये समझते है कि भारतदेश क्या है। वर्तमानमें यह लगभग १४० करोड जैसी प्रचंड जनशक्ति रखनेवाला लगभग ३३ लाख वर्ग किलोमीटरमें फैला हुआ भूभाग है जो सप्त महापर्वत और सप्त महानदियोंसे अलंकृत है। विश्वकी सर्वाधिक जनसंख्या रखनेवाला चीन हमसे केवल १० करोडसे आगे है और विश्वमें तिसरा स्थान रखनेवाले अमेरिकाकी जनसंख्या ३५ करोड अर्थात हमसे एक चौथाई ही है। पूरे विश्वमें ९७ भाषाओंकी जनसंख्या १ करोडसे अधिक है और इनमेंसे १६ भाषाएँ भारतकी हैं। बोलियाँ, जो कि स्थानीय ज्ञानसंग्रहका आधार है, उनकी संख्या तो ५००० से अधिक है। विश्वकी सर्वाधिक वनस्पति प्रजातियाँ और प्राणी प्रजातियाँ हमारे देश में है। सर्वाधिक सौर ऊर्जा प्राप्त करनेवाला हमारा ही देश है।
एक देश को, उसकी जनसंख्याको जब पुरुषार्थसे ज्ञान और बौद्धिक विकासकी प्राप्ती होती है, तब देशकी संज्ञासे आगे राष्ट्रकी संज्ञाकी ओर यात्राका आरंभ होता है। जब ज्ञान एवं संस्कार साझे किये जाते हैं, साझा पुरुषार्थ होता है, तब राष्ट्र बनता है। राजते इति राष्ट्रः अर्थात् जो हर प्रकारसे शोभायमान है, प्रभामय है, वैभवशाली है, वह देश राष्ट्र है। ऐसा राष्ट्र सर्वदा समष्टिगत (साझेदारीसे प्राप्त) एवं पुरुषार्थसिद्ध ही रहेगा।
ज्ञानी व्यक्ति विचारते हैं कि हमें अपनी भावी पीढीयाँ कैसी चाहियें - उनके अस्तित्वका अधिष्ठान क्या हो? फिर वैसी व्यवस्था बनानेके लिये जो साझा पुरुषार्थ प्रकट होता है उसे राष्ट्रचेतना कहते हैं। हमारे मनीषियोंने चार पुरुषार्थ बताये – धर्म अर्थ काम व मोक्ष ।
तो यह स्फटिकमणिके समान स्वच्छ है कि किसी देशमें ज्ञानका विस्तार और उसकी साझेदारी जिस प्रकार अग्रेसर होगी और उसी प्रकार उसकी राष्ट्रचेतना होगी।
ज्ञानका आदिमूल है असत् और सत् को जानना। उस परमात्माके अस्तित्वका बोध जो सृष्टिके पहले भी था, सृष्टिके दौरान भी होगा और सृष्टिके लयके बाद भी होगा, वह सत् है और प्रकारान्तरसे वही सत्य है। असत् का अर्थ है वह बोध न होना। तो अबोधतासे बोधकी ओर, असत्य से सत्य की ओर, अज्ञानके अंधेरेसे प्रकाशकी ओर ले चलनेकी प्रार्थना हम करते हैं। इसी क्रममें ज्ञानके प्रकाशसे हम अमृतकी ओर चलते है जो शांतिदायक भी है। यह प्रार्थना भारत की सांस्कृतिक चेतना की परिचायक है। यह सहस्त्रों वर्ष पुरातन है, सनातन है। सत्य, ज्ञान व अमृतत्वकी अन्वेषणा ही भारतराष्ट्रकी पहचान व अधिष्ठान है और इस पहचानकी अनुभूति ही राष्ट्रचेतना है।
जब हम भारतदेशसे अलग भारतराष्ट्रकी बात करते है तो क्यों? क्या अंतर है दोनों में? यह जो चेतना है, ज्ञानकी व सत्यकी अन्वेषणासे उत्पन्न होनेवाली यह चेतना जब जनजीवनकी साझा अन्वेषणा बनती है तब देशसे राष्ट्रका निर्माण होता है।
ऐसा राष्ट्र हमारे देशमें सहस्त्रों वर्षपूर्व उदित हुआ। वह ज्ञानकी पिपासा, वह खोज जो इस प्रार्थनामें एक व्यक्तिकी थी, वह जब संपूर्ण जनगणकी अन्वेषणाका विषय बनी, तब राष्ट्र उदय हुआ। लेकिन यह प्रवास सरल नही था। व्यक्ति व समष्टि दोनोंकी अन्वेषणा सत्य और ज्ञानके साथ जुडे इसके लिये कई अनिवार्यताएँ होती हैं। इसका पहला तत्व है साझेदारीका। इसीकारण हमारी यह प्रार्थना सहनाववतु कहती है – आओ, हम दोनों साथसाथ खायें, साथसाथ उपभोग लें, साथ रहकर अपना शौर्य और वीरता दिखायें, बुलन्दियोंको छुएँ । और सबसे महत्वपूर्ण कि यह करते हुए हमारे मनमें एक दूसरेका विद्वेष उत्पन्न न हो।
कितनी कठिन शर्त है यह। जब भी दो क्षमतावान व्यक्ति किसी ध्येयको पहुँच रहे होते हैं, तो उनमें आगे-पीछे, उन्नीस-बीस होना अत्यंत स्वाभाविक है। ऐसी स्थितिमें दूसरा व्यक्ति मुझसे आगे निकल जाये और फिर भी मेरे मनमें जलन, ईर्ष्या, मत्सर, कुढन, या विद्वेष उत्पन्न ना हो ! यह तभी संभव है जब तीन तत्वोंका अभ्यास मुझे हो। पहला कि मुझमें सत्ता लालसा न हो। दूसरा मुझे सर्वदा भान रहे कि मैं समष्टिकी ध्येयपूर्ती के लिये समर्पित हूँ। तिसरा कि मैं अपने आप में इतना संतोषी रहूँ कि दूसरेके यशसे मुझे ईर्ष्या-विद्वेष न हो, वरन् प्रसन्नता हो। यही है राष्ट्रचेतनाका चरित्र।
यह समष्टिभाव जागृत हो सके इसके लिये हमारे मनीषयोंने कई पथ्यापथ्य बताये। इनमेंसे एक पथ्य है कृतज्ञताके साथ आदरकी भावना जिसमें माता, पिता, आचार्य, अतिथी तथा राष्ट्रको सदैव देवतारूप बताया गया। इनका सम्मान करेंगे तभी पूरे राष्ट्रका विकास होगा। यहॉं अतिथी देवो भव एवं राष्ट्रदेवो भवका विशेष चिंतन आवश्यक है ।
गुरु महिमाको हमारे मनीषियोंने अति प्राचीन कालसे ही जाना था। गुरुमें ही हमारे ब्रम्हा-विष्णु-महेश वास करते है। सद्गुरु ही हमें अमृतकी राह दिखा सकता है क्यों कि वह अमृतयात्रा अनुभूतिजन्य यात्रा है जिसके साक्षात्कारके गुर बताने हेतु गुरु आवश्यक है।
गुरुद्वारा दिये गये ऐसे ज्ञानको अधोक्षज ज्ञानकी संज्ञा है। यह श्रद्धाके बिना प्राप्त नही हो सकता।
राष्ट्र उत्थानकी दिशामें सबका योगदान भी होता है और सबका उत्थान भी। लेकिन जहॉं नवनिर्माणके लिये सत्यके ज्ञानकी आवश्यकता है, वही संरक्षण हेतु अचौर्य का अस्तेयका बोध आवश्यक है। हमारे प्रथम उपनिषत् की प्रथम पंक्तियाँ हैं – ईशावास्यमिदं सर्वं....। चराचरको ईश्वरने व्याप्त कर रखा है। उसमें वह वास करता है। तुम उसे भोगो, उसका उपभोग करो – भुञ्जीथः। लेकिन कैसे? अपने परिश्रमसे। दूसरेके धनको मत ग्रहण करो। क्योंकि उपभोगके लिए जो परिश्रम तुमने किया वही तुम्हारा ईश्वरसे साक्षात्कार भी करवायेगा। उस परिश्रमके बिना, कोई साक्षात्कार संभव नही है। वह परिश्रम और वह कौशल्य है तभी योग है, तभी साक्षात्कार है। उसे पानेके लिए उठो, जागो। वरं क्या है, श्रेष्ठ क्या है, उसे जानो और उसे पानेके लिये श्रम भी करो। लेकिन वह क्षुरस्य धारा है – तलवारकी धारपर चलनेके समान हे, कठिन है वह रास्ता। लेकिन राष्ट्रभावना है तो उसी कठिन पथपर चलना है।
हमारे मनीषीयोंने राष्ट्रपुरुषकी एक उदात्त कल्पना की है। अन्वेषणा, सरंक्षण, समृध्दि और गति ये चार अंग हैं राष्ट्रपुरुषके। समाजमें जो मेधाका धनि है उसे अन्वेषणा, अध्ययन व अध्यापनका काम देकर कहा गया कि आपको अपरिग्रह रखना है – अर्थात् भोगोंका त्याग। हमारे ऋषियोंने इस बातको समझा कि अन्वेषणाके लिये आवश्यक तीव्र मेधा रखनेवाला व्यक्ति यदि धनसंचय और भोगमें प्रवृत्त हो जाये तो उसका ज्ञान समष्टि उपयोगी नही रहेगा, वह राष्ट्रोत्थानसे पहले अपने धनकी सोचेगा। ज्ञान व मेधा रखते हुए भी अपरिग्रही होना उस छुरेकी धारपर चलने जैसा है। इस व्रतको असिधाराव्रत कहा गया है।
जो समाजका संरक्षण करता है उसे हमारे मनीषियोंने सत्ताका अधिकार व दण्ड देनेका अधिकार दिया। लेकिन बहुत बडा भार भी दिया -- न्याय करनेका और प्रजाके हर नागरिकको खुश रखनेका। रामराज्यका वर्णन करते हुए रामका कथन है कि एक भी नागरिक दुखी हो और अन्यायग्रस्त हो तो राजाको अपना पद त्याग देना चाहिये। यह असिधाराप्रत है।
जो उत्तम व्यवस्थापन अर्थात पाचनसे पोषण कर सके वह राष्ट्रपुरुषका उदर है और समष्टिका वैश्य है। वह कृषि, गोपालन और व्यापार करे औऱ इस प्रकार राष्ट्रको समृद्ध करे। उसपर भी एक उत्तरदायित्व है कि हर स्थितिमें वह अपरिग्रही ब्राम्हणके योगक्षेमकी व्यवस्था अपनी ओरसे बिना अपेक्षाके करता रहे। इस प्रकार असिधाराव्रत उसके लिये भी है। इन तीनों समूहोंके कार्योंको सुचारूरूपसे चलानेमें जो जो सहायक है वही राष्ट्रपुरुषको गति देते हैं। वे कुशल कारीगरी सीखकर हर प्रकारकी सेवा देते हैं। वे सबको आदर सन्मान दें और उनके कार्योंमें सहायक बने यही उनका असिधाराव्रत है।
इस प्रकार जिसके पास जो गुण है उसीके माध्यमसे वह ऊँचाईतक पहुँचे और असिधाराव्रत निभाते हुए अपना पुरुषार्थ प्रकट करे और राष्ट्रपुरुषको वैभवशाली बनाये।
एक साक्षात्कारकी कथा हमारे भृगूपनिषत् में आती है। अपने पिता व गुरुसे मार्गदर्शित भृगुने ब्रम्ह जाननेके हेतू तपस्या की और जाना कि अन्न ब्रम्ह है। फिर क्रमशः अपने तपको अधिकाधिक बढाते हुए जाना कि प्राण ब्रम्ह है, मन ब्रम्ह है, विज्ञान ब्रम्ह है और आनन्द ब्रम्ह है। यह आनन्दब्रह्म समाजके हर व्यक्तितक पहुँचाना है।
तब भृगुने समाजका प्रबोधन किया – अन्नं न निंद्यात्, न परिचक्षीत। अन्नं बहु कुर्यात्, बहु प्राप्नुयात्। और न कञ्चनवसतौ प्रत्याचक्षीत। अर्थात् बहुत अन्न उपजाओ, उसका अच्छा भंडारण करो और घर आये किसीको भरपेट भोजनसे विमुख ना रखो। इस प्रकार समाजके प्रत्येक व्यक्तिका भरण पोषण होनेसे उनके शरीरकी रक्षा, पर्यावरणकी शुद्धतासे प्राणोंकी रक्षा, अंतःशुद्धिसे मनकी रक्षा, विवेकयुक्त बुद्धिसे विज्ञानकी रक्षा होती रहे तो मनुष्य और समाज स्थैर्य, समृद्धि व आनन्दको प्राप्त होते हैं।
समाज या देश बनता है उसके नागरिकोंसे और यह आवश्यक नही कि हर नागरिक असिधाराव्रतका पालन करे। समाजमें ऐसे भी व्यक्ति होंगे जो स्वयंको समष्टिसे ऊपर माने। यदि उनके पास ज्ञान है या बल है या धन है तो उसका प्रयोग उनके स्वयंके उपभोगके लिये करना चाहेंगे। ऐसे व्यक्ति उन्नतिकी ओर बढते हुए शीघ्रही सत्ताकी ओर चलेंगे। इस पूरी श्रृंखलाको आसुरी संपत्ति कहा गया है। दैवी संपदाकी रक्षा और आसुरी प्रवृत्तिका विनाश वारंवार होता रहा तो राष्ट्रचेतना अविरल रहेगी। इसके हेतु ही पुरुषार्थपूर्वक असिधाराव्रत निभानेके लिये हमारे मनीषियोंने कहा – उत्तिष्ठत, जाग्रत ।
ऐसे व्रतीजनोंके संबलस्वरूप जगदंबाका आवाहन किया गया है। इस विश्वको चलानेवाली विभिन्न आयामोंमें प्रकट होनेवाली वरदायिनी देवीका महत्व राष्ट्रचेतनामें कैसे अलक्षित रह सकता है? वह जो देवी है, जो विष्णुमाया है, वही हमें अपने चारों ओर दृग्गोचर हो रही है। यह सारा उसीका प्रकटन है। वह पूरी सृष्टिमें और चेतनामें अलग अलग रुपोंमे संस्थित है और प्रकट होती रहती है। कभी वह विद्या है तो कभी क्षुधा, कभी निद्रा है, तो कभी तुष्टि, कभी कीर्ति है तो कभी लक्ष्मी, कभी दया है तो कभी बुद्धि, कभी तृष्णा है तो कभी स्वधा (आपूर्ति), कभी तृप्ति है तो कभी शांति। यों कहे कि राष्ट्रवैभवमें जिन गुणोंकी आवश्यकता है वे सारे जगदंबाके ही प्रकटन हैं और उस जगदम्बाको उपासनासे जानना ही राष्ट्रचेतना है।
जब यह भारतराष्ट्र विराजेगा तब वह सर्वोच्च प्रार्थना भी सिद्ध होगी - सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत् ।। इस प्रार्थनाके माध्यमसे भारतीय मनीषियोंने कामना करी है एक सर्वमान्य और सबके हृदयंगम प्रणालीकी जो चिरंतन और शाश्वत रूपसे सबके उत्थानका कारण बने। सबको मोक्षदायी हो।
मित्रों इस प्रकार मैंने राष्ट्रतेजकी वृद्धि कर सकें ऐसे कुछ नियमोंको तुम्हारे सम्मुख रखा । ये पुरातन कालसे हमारे जनमन व संस्कृतिमें उतर चुके हैं। इन सहस्रों वर्षोंमें हमने एक विशाल चिंतन किया - उसके आदानप्रदानहेतु हमारी भाषाएँ व शब्दावलियाँ बनीं। उनसे परिचित रहेंगे तभी वह चिंतन हमारी अगली सैंकडों पीढीयोंके लिये पथदर्शक बनेगा।
यह उदाहरण समझो कि एक बार व्यक्ति कार चलानेमें माहिर हो जाये तो वह विनासायास ही कार चला लेता है। उसे प्रतिपल बहुत सोचविचारना नही पडता क्योंकि उसका संस्कार गढ चुका है। वैसे ही हमारी चिरपरिचित शब्दावलियोंके कारण अपने पूर्वजोंके गहन चिन्तनसे हम परिचित होते हैं और विनासायास हम उनका पालन करते आ रहे हैं।
भाषाओं व शब्दावलियोंका महत्व विश्वप्रसिद्ध लेखक जॉर्ज ऑरवेलके उपन्यास 1984 में वर्णित है।उपन्यासकी पार्श्वभूमी आरंभमें ही बताई जाती है। एक पुरातन परंपरासे चलने वाला देश जिसमें रक्तरंजित क्रांति हो जाती है और जो नया शासक आता है उसका नाम है बिग ब्रदर। बिग ब्रदरको अब यह चिंता है कि देशमें दुबारा क्रांति ना हो और उसका कोई विरोध ना करे। वह एनालिसिस करता है - क्रांतिके लिए सबसे पहले भाव और विचार चाहिए। लेकिन जब तक वे किसी व्यक्तिके दिमागके अंदर ही रहेंगे तब तक कोई संकट नहीं है ।जब भावोंको और विचारोंको शब्द मिलते हैं तब वे अभिव्यक्त होते हैं। दूसरे व्यक्तियों तक अभिव्यक्ति पहुंचती है तो उनके मनमें भी उसी प्रकारके भाव और विचार जागते हैं। इस प्रकार जब कई लोगोंके विचार मिलते हैं तो क्रांतिकी संभावना बनती है। अर्थात यदि देशमें क्रांतिको रोकना है तो देशमें शब्दोंको रोकना होगा। शब्द संख्या जितनी कम, क्रांतिकी संभावना भी उतनी ही कम। अतः बिग ब्रदर के आदेश पर सारी डिक्शनरीयाँ जला दी जाती हैं और शब्दोंकी संख्या कम करने का आदेश निकलता है ! अब इस आदेशके अनुसार good शब्द तो रहेगा लेकिन उसकी जो विभिन्न छटाएँ अन्य शब्दोंसे व्यक्त होती हैं जैसे better, best, awesome, excellent, superb, sublime या bad, awful, ये शब्द उपयोगमें नहीं लाए जाएंगे। उनकी जगह good plus या good plus plus या good minus या good minus minus कहना होगा। इस प्रकार उस देशमें जन सामान्यके पास बोलनेके लिए केवल 2000 शब्दोंके उपयोगकी ही अनुमति है। अन्य शब्द बोलने पर या सीखनेका प्रयास करने पर भारी दंडकी सजा दी जाएगी !
हमारे आत्मचिंतनमें यह कथा सटीक लागू होती है। आज एक फॅशनसी बन गई है जिसमें ये संस्कार और उनके लिये नियमोंका पालन दकियानूसी कहलाने लगा है। अतः आवश्यकता इस बातकी है कि इन संकल्पनाओंको हम फिरसे समझें। हम जानें कि भारतराष्ट्रका अधिष्ठान क्या है। किस प्रकारका समाज हम अपने लिये, अपने बच्चोंके लिये, उनकी कई एक अगली पीढियोंके लिये चाहते हैं? उसके निर्माणहेतु हमारे लिये नियत असिधाराव्रत क्या है और जिस आत्मबलके आधारसे हम उसे निभा सकते हैं उस आत्मबलको, उस पुरुषार्थको हम कैसे प्राप्त करें।
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