Wednesday, November 30, 2016

ईमानदारोंका सहभाग मुखर हो

मुखर हो ईमानदारोंका सहभाग
आज बडी ही प्रखरता से दीख रहा है कि देश के ईमानदार लोगों को मुखर होना पडेगा और "मुझे क्या" की मानसिकता से बाहर आकर एक स्वर में कहना पडेगा कि काले धन को विनष्ट करने के लिये हम कष्ट उठायेंगे,त्रासदी सहेंगे लेकिन यह अस्तित्व की लडाई डट कर लडते रहेंगे.
दि.८ नवम्बर को देश के प्रधानमंत्री श्री मोदीजी ने देश को संबोधित करते हुए घोषणा की कि ८ तारीख समाप्त होते ही तत्काल प्रभावसे ५०० और १००० रुपये के नोटोंका आर्थिक मूल्य बहुतांश रुपसे समाप्त होगा । प्रावधान यह भी किया कि पुराने ५०० व १००० के नोटोंके बदले २००० रुपयेके नोट प्रचलन मे लाये जायेंगे
सूनकर देश के सभी ईमानदार लोगों के मुँह से निकला होगा वाह। फिर मोदीजी ने कुछ प्रावधान गिनाये कि लोगों की त्रासदी को यथांसञ्रव दूर करने के लिये क्या क्या उपाय किये है. सबसे पहले अस्पताल-- वहाँ ये नोट स्वीकार्य होंगे ताकि बीमार व्यक्तियोंको त्रासदी न हो। डॉक्टर के प्रिस्क्रिप्शन के आधार पर उसी अस्पताल से संलग्न दवाई बेचने वाले भी ये नोट स्वीकारेंगे।
रेल स्टेशन ,पेट्रोलपंप ,सरकारी दूध डेयरियों में ये नोट स्वीकार्य होंगे ताकि लोगोंकी ये परेशानियाँ न रहें । बिजली , टेलीफोन या नगर नियमों के अन्य बिल भी इन्ही नोटोंसे चुकाये जा सकेंगे।
दूसरा बडा प्रावधान यह कि जिनके पास ये पुराने नोट हों,वे अपने बँकोंको खाते में जमा कर सकते हैं और जो ईमानदार है, जिनके पास साधारणतया छोटी रकम ही घर पर रखी होती है, उन्हें पैसे जमा कराने मे कोई संकोच नही है। वैसे बंदिश तो उसपर भी नही होगी जो लाखों -करोडों के नोट जमा कराये लेकिन उसे पता होगा कि इतनी बडी रक्कम का हिसाब तो देना ही पडेगा
इस भारी निर्णय के कारण बँकोंको बडी तैयारी करनी पडेगी जिस कारण ९ नबम्बर, बुधवार को एक दिन के लिये बँक बंद रहेंगे जब कि एटीएम दो दिन बंद रहेंगे यह इसलिये भी आवश्यक था कि ऐसा न करने पर अतिविशाल मात्रा में सौ रुपयों के नोट उपलब्ध कराने पडेंगे जो प्रायः असंभव सा है । लेकिन लोगों को नये २००० रू के नोट मिलते रहेंगे।
यह सब सुनकर जान पडा कि सचमुच काफी गंभीरता से विचार कर यह सारी योजना बनाई गई है । जिस प्रकार से इन छोटी बातों का विचार किया गया उसे
सुनकर वाह -वाही ही निकली
दूसरी तरफ मोदीजी ने इसके जो लाभ गिनाये उसमें आतंकवाद का खात्मा, बेईमानोंकी लुटिया डुबाना और भविष्यकाल में बँकों के व्याजदार कम किये जाने के कारण उद्योगों में वृद्धि ये तीन महत्वपूर्ण लाभ गिनाये । इनकी तुलना में चलित-मुद्रा की कमी से आनेवाली परेशानियाँ अल्पकालीन होंगी इस बात से सभी ईमानदार श्रोता सहमत थे। प्रधान मंत्री ने ८-१० दिन का अनुमान जताया । सभी ने इसका स्वागत किया,९ नवम्बर को आनेवाली प्रतिक्रियाएँ देखनेपर साफ पता चलता था कि जनसामान्य में स्वागत हो रहा था, जबकि काला धन रखनेवालों को अपना रोष छिपाना मुश्किल पड रहा था.
कुल मिलकर देश की जनता इस बात को समझ रही थी कि सरकार की इस योजना से काला धन समाप्त होगा, ईमानदारोंकी साख बढेगी, और आतंकवाद पर भी यह कडा प्रहार रहेगा ! आनेवाले दो दिन बँक व एटीएम बंद रहेंगे लेकिन कोई बात नही. इतनी परेशानी तो झेल लेंगे !
यह सही है कि तीसरे, चौथे, पाँचवे दिन से आजतक लोगोंने इतनी कठिनाइयाँ झेली हैं, जितनी उन्होंने सोची नही थी, या जिसके लिये वे मानसिक और पर तैयार नही थे ! सच कहें तो सरकारी -तंत्र भी हर प्रकार की स्थितिके लिये कहाँ तैयार था? लेकिन इस बातको भी हमें स्वीकारना होगा कि संसार में कोई व्यक्ति या कोई योजना संपूर्णतया दोषमुक्त नही होते ! संपूर्णतया योग्य या ज्ञानी तो केवल भगवान ही हो सकता है ! सरकारी तंत्र में भी कई कमियाँ रहीं जो पिछले दस दिनों में उभरकर सामने आई और ईमानदार लोगोंके लिये ये वृद्धिंगत ही होती दिख रही थी ! मोदी जी का जो पहला अनुमान था कि कठिनाइयाँ ८-१० दिन रहेंगी, वह गलत निकला, अब वे स्वयं मानते हैं कि ये ५० दिन रहेंगी ! शायद कुछ और भी दिन लगें ! और इस चलित मुद्रा की कमी के कारण जो प्रतिदिन का खुदरा व्यापार व सेवाएँ दीं या लीं जाती थीं, उनपर बडे पैमाने पर मंदी छा गई ! वह भी शायद सौ दिन चले !
इस चलित मुद्रा की किल्लत का गणित बडा सरल है ! सरकारी आँकडें बताते हैं कि देशकी अर्थव्यवस्था में कमसे कम ८० प्रतिशत व्यवहार ५०० ( या १००० ) रूपये की नोटों के माध्यमसे होता था !अर्थात यदी कुल व्यवस्था दस हजार रूपये की हो तो उसमें आठ हजार रूपये - ५०० नोटों के रूप में थे ! अर्थात १६ नोटें ५०० की ओर २० नोटें १०० की ! अब यदी इन १६ नोटों को बदलना हो तो सौ रूपये की अतिरिक्त ८० नोटें चाहीये !
यानी ५०० रूपये की जितनी भी नोटें बदली जाने का अनुमान है, उसके पांच गुना अधिक सौ रूपये की नोटों का होना जरूरी था । और ये नोटें देश के सभी कोनों की बँकों में, पोस्ट ऑफिसों मे ओर एटीएमों में सुवितरित रूपसे रहें यह भी आवश्यक था !
तो स्पष्ट है कि यदी किसीने यह गणित कर भी लिया तो भी इस वितरम की व्यवस्था करना आरंभ होते ही पूरी योजना का भांडा फूटने में तनिक भी देर नही होती !इसलीये इस संकट का पूर्व- समाधान निकालने के बजाय इसे झेलना ही बुद्धिमानी थी ! उसी का एक छोटा हल था कि २००० रूपये का नोट अर्थव्यवस्थामें उतारा जाय ताकि वह तत्काल रूपसे एक सौ रूपये के २० नोटों का पर्याय बन सके ! फिर दो-तीन वर्षों बाद इन बडे नोटों की धीरे-धीरे वापस लिया जा सकता है ! ओर उन नोटों का भी पूर्व वितरण असंभव था ! सो वे नोटें भी धीरे धीरे ही उपलब्ध होंगी यह बात भी योजना बनाने वालों के मनमें और गणित में रही होंगी ! यदि न भी रही हों तो एक बात पर उन्हें माफ किया जा सकता है !
वह बात है पाकिस्तान - प्रणित आतंकवाद का सफाया ! काफी हद तक नक्षल ओर उल्फा जैसी संगठनों का भी सफाया ! सर्जिंकल स्ट्राइक के बाद से ८ नवम्बर तक बारबार सीजफायर का उल्लंघन हो रहा था ओर प्रतिदिन हमारे जवान शहीद हो रहे थे या जख्मी हो रहे थे ! लेकीन ९ नवम्बर के बाद वे घटनाएँ काफी कम हुई ! काश्मीरी उपद्रवियों की पत्थरबाजी जो पाकिस्तान द्वारा भेजी गई मोटी रकमोंकी लालच में होती थी, वह थम गई !नक्षलियों ने आत्मसमर्पण भी करना आरंभ किया !
यदी सरकार डटी रहे, ओर नोटबंदी को वापस नही ले तो आतंकवाद का नेटवर्क इस प्रकारसे टूटेगा कि फिर पांच दस वर्ष तक भी दुबारा गठित नही हो सकेगा ! यह एक ऐसी बडी उपलब्धि होगी जिसके सम्मुख देश की सवासौ करोड जनता की तात्कालिक कठिनाइयाँ कई गुना सहनीय होंगी बशर्ते की वे तात्कालिक ही रहें ! ओर वे तात्कालिक रहें इसके लिये तीन-चार बातें आवश्यक होंगी !
पहली यह कि सरकार २००० रूपये की तथा ५०० रूपये की नई नोटें यथासंभव शीघ्रतासे उपलब्ध कराये ! अधिकाधिक स्थानों पर डेबिट कार्ड से भुगतान, या कॅश डिस्पेन्सर सें पैसे निकालने की सुविधा, पेटीएम अदि लागू किये जाये ! एटीएम मशीनों को युद्ध स्तर पर ठीक कराया जाय ताकी उनकी कतारे घटें ओर लोग आश्वस्त हो जायें कि अब उन्हें अधिक कॅश संभालने की आवश्यकता नही, जब चाहें एटीएम से निकाल सकते है !आदि, आदि !
दूसरी बडी बात यह है की इस पूरे व्यवहार में सबसे खुश तो अरबोपती नजर आ रहे हैं ! कहीं पांचसौ करोड की शादीयाँ धडल्ले से हो रही हैं तो कहीं बडे उद्योगपतियों के बँक कर्ज को माफी दी जा रही है !केजरीवाल बार बार प्रश्न उठा रहे हैं कि पिछले १० दिनोंमें ६००० करोड रूपये की कर्ज माफी क्यो दी गई ओर कोई भी सरकारी प्रवक्ता इस प्रश्नका सीधा उत्तर नही दे रहा !
सामान्य जनता देख रही है कि उसे तो अपना ही पैसा निकालनेमें कठिनाई हो रही है ! यह भी देख रही है कि सौ-दो सौ करोड तक का काला धन रखनेवाले भी संकट में हैं ओर उनका काला धन निकल रहा है ! यदि पूरा न भी निकले तो भी उसका बडा हिस्सा बेमानी हो रहा है।
इमानदार सामान्य जनोंके लिये यह एक तसल्लीका विषय है। क्योंकि अबतक वह अपने आसपास ऐसे बेइमान देखता आया है जो कलतक तो उसीकी श्रेणीमें थे लेकिन आज किसीसे रिश्वत लेकर अचानक धनी बन गये । ऐसे रिश्वतखोरोंसे केवल वे ही दुखी नही होते जिन्हें रिश्वत देनी पडी, बल्कि अगल-बगलके सभी ईमानदार भी अपना संस्कार और हौसला खोने लगते हैं औऱ निराश हो जाते हैं। इसीलिये इन छोटे और मँझोले काले धनवानोंका सफाया होना भी एक बडी उपलब्धि रहेगी।
फिर भी यदि सरकार और खासकर मोदीजी उन कर्जखोरोंको माफ करते दिखे जो अरबों रुपयोका कर्ज डकार गये या सरकार को सालोंसाल इनकम टॅक्स ट्रिब्यूनल या सुप्रीम कोर्ट में उलझा रखनेमें सफल रहे तो फिर मोदीजीकी अपनी ही साख शून्यवत् हो जायगी। इस कामके लिये अभी शायद सही समय नही है लेकिन अगले एक वर्षमें इस मुद्देको निपटाना होगा।
तीसरा काम भी सरकार जल्दीही आरंभ कर सकती है। वह अत्यावश्यक भी है और संभव भी है वह है ब्याजदरें घटाकर कृषी उद्योग और व्यापारको बढावा देना।
जनता देख रही है कि बैंकोंकी तिजोरियाँ भर रही हैं। इसका बडा हिस्सा शीघ्रतासे किसानोंके लिये उपलब्ध कराना होगा। चाहे वह अधिकाधिक इन्फ्रास्ट्रक्चरकी सुविधा के रूपमें हो या फिर कर्ज, बीमा, कर्जमाफी आदि मुद्दोंपर हो । सबसे प्रभावी और शीघ्र-कारीगर इन्फ्रास्ट््क्चर क्या होगा -- वह है ग्रामीण इलाकोंमें विकेंद्रित पणन व्यवस्था। कोल्ड स्टोरेज, अनाजकी प्रभावी लेनदेन, और किसानके अपने स्टॉकपर कर्जकी सुविधा इत्यादि। एक छोटे मॉडेलके रूपमें बंगलोर स्थित सिल्क एक्सचेंजका उदाहरण देखा जा सकता है। किसान व ग्राहकके बीच सीधी
लिंक जुडे ऐसे इन्फ्रास्ट्रक्चर बनानेमें भी सरकारी पहल व सहायताकी आवश्यकता होगी । वह इन्फ्रास्ट्रक्चर होगा इंटरनेेेट या मोबाईल कनेक्टिविटीका जिसके लिये सरकारके पास आज भी भारी मात्रामे ओएफसी केबल उपलब्ध हैं (रेल्वे व ऑइल कंपनियोंके ओएफसी नेटवर्क, जो सुरक्षाके कारणोंसे जरूरतसे कहीं अधिक विछाये जाते हैं) । इन्हींके ब्राँच केबल गाँव-गाँव पहुँचाये जा सकते हैं --यह मॉडेल भी स्वीडनका जाँचापरखा मॉडेल है ।
बारबार कहा जा रहा है कि अब बैंकोंके पास बहुत पैसा है। तो आईये, हम सब अच्छी तरह समझ लें कि यह बैंकोका पैसा नही वरन देशका पैसा है जो कुछ काले-धन-ग्राही लोगोंने औरोंसे लूटकर अपने पास छिपा रखा था।
आज सर्वाधिक त्रस्त है किसान, व ग्रामीण इलाकोंके लोग. तो आइये माँग करें कि इस पैसेको शीघ्रातिशीघ्र ग्रामीण इन्फास्ट्रक्चर में लगाया जाय -- सहसे पहले ग्रामीण पोस्ट ऑफिसें और पोस्टल-बैंकिंग मजबूत हो। ओएफसी नेटवर्क जो रेलवे और पेट्रोलियम कंपनियोंके पास बहुतायतसे है पर उपयोगमें नही लाया जा रहा उसके छोटे छोटे एक्टेंशन गाँवोंतक पहुँचाकर ग्रामीण जनता को इंटरनेटकी सुविधा दी जाय। गाँवोंमें विकेंद्रित पणन व्यवस्थाको सशक्त किया जाय । फसल बीमाकी कोई सही पढाई व मूल्यांकन नही हो रहा, उसे किया जाय और वह राशी भी बढाई जाय, असिंचित क्षेत्रोंमें तुषार-सिंचन व ड्रिप आये, सेझ झोन्स की बजाये चराई जमीनोंका व पशुधनका विकास हो, विकेंद्रित बाँध बनाये जायें, किसानोंके लिये सामाजिक सुरक्षा, खासकर बुढापेमें इलाजकी व्यवस्था आदि आदि कई काम हैं जो शीघ्रतासे आरंभ किये जा सकते हैैं।
इस विषयपर प्रधानमंत्रीको शीघ्र समय देकर विमर्ष करना चाहिये।
एक ओर किसान तो दूसरी ओर छोटे उद्यमी व व्यापारी। उन्हें कम ब्याज दरपर कर्ज मिलनेकी सुविधा होनी चाहिये। बैंकोके पास पहुँच रही अपार धनराशीका लाभ यदि एक समय-सीमाके अन्दरही किसान, छोटे उद्यमी व व्यापारीतक पहुँचाया गया तो ही आर्थिक मंदीका संकट टाला जा सकता है वरना विपक्ष तो डंकेकी चोट कह रहा है कि काला धन ही आर्थिक मंदीको रोक सकता है अर्थात् कितना भला है देशमें काले धनका होना। और विपक्ष ताक लगाकर बैठा हैै कि वह आर्थिक मंदी तेजीसे आये ताकि सरकारकी छीछालेदर हो। यह भी सही है कि उस
समयसीमा के पहले ही किसान, छोटे उद्यमी व व्यापारीतक सुविधाओंका लाभ नही पहुँचा तो उससे उत्पन्न होनेवाली आर्थिक मंदीकी स्थिति आजकी तात्कालिक कठिनाइयोंकी अपेक्षा कई गुना अधिक होंगी।
ग्रामीण भागोंमें जहाँ कठिनाई की मार अधिक है,वहाँ साधन व सुविधा पहुँचाने का पयास किया जाये। यह हममेंसे हर कोई कर सकता है। लोग कर भी
रहे है और उनपर हमें अभिमान भी होता है। आरंभिक दिनोंमें प्रायः सभी बैंक कर्मचारियोंने ओवरटाइम काम किया है -- रात ग्यारह-बारह बजेतक। लाइनमें लगे लोगोंकी परेशानी देखकर कोई लाइन में खडे लोगों को पानी पिला रहा है,कोई अपनी छोटी नकदी बँक में दे रहा है ताकि उसे किसी जरूरतमंद को दिया जाये। कई दुकानदार भी उधार दे रहे हैं। सरकारी तंत्र भी अपनी और से कुछ कुछ नयी सुविधाएँ जोड रहा है। ये सारा होता रहे तो जनसामान्य की आशा नही टूटेगी।
एक गंभीर समस्या है विश्वसनीयताका संकट या विश्वसनीयता की समाप्ति। आये दिन समाचार दिखाये जा रहे हैं कि कैसे करोडोंकी संपत्ति दलालोंके पास लाई जा रही है और वे ३० % कमिशन लेकर बाकी संपत्ति नये नोटोंके रूपमें दे रहे हैं।इसपर दो प्रश्न उठते हैं कि आखिर ये दलाल इतने नये नोट लाते कहाँ से हैं । साथही जो पुराने नोट वे स्वीकारते हैं उनके लिये कुछ तो गॅरंटीड सेटिंग उनके पास है वह क्या है ?
दोनों प्रश्नोंका एक ही उत्तर संभव लगता है कि बँकोंंके मॅनेजरोंकी सक्रिय सहायता के बिना यह संभव नही। हो सकता है कि उनके पास आरबीआयसे जो भी नये नोट जनसामान्य के लिये आ रहे हैं उनका बडा हिस्सा इस दलालीमें जा रहा हो और इसी कारण जनताको बँकोंके दरवाजेसे खाली हाथ लौटना पडता हो ।
कई जगहोंपर इनकम टॅक्सकी रेडमें बँक मॅनेजरोंके पकडे जाने की खबर सुनकर लगता है कि यही हो रहा है। तो फिर सोचना पडेगा कि जब आरबीआई किसी ब्रांचतक पैसे पहुँचाती है तो उसके पास बैंकोंसे प्रतिसूचना क्या आती है -- क्या आरबीआई के तंत्रमें यह जाँचनेकी व्यवस्था है कि उसमेंसे कितना पैसा पिछवाडेसे गायब हुआ और कितना कतारमें खडे लोगोंको उपलब्ध हुआ ? और यदि ऐसा सूचना पानेका तंत्र है तो आरबीआई लोगोंको बताये वरना लोगोंको कैसे पता चले कि उनकी कतारें खत्म होनेवाले दिन कब आने हैं ?
दूसरी ओर बैंकोंसे पैसा दलालोंके पास पहुँचाये जानेकी खबरोंसे समझमें आता है कि धनलालचका यह विष कितनी गहराई तक हमारे देश की रगोंमें घुस चुका है। यह लडाई लम्बी चलनेवाली है।
इसीलिये आज हर इमानदार व्यक्तिको मुखर होना पडेगा और क्रियावान भी। काले धनपर वज्रप्रहार होता रहे यह स्वर सम्मिलित रूपसे उठाते रहना होगा। लोगोंकी छोटी-छोटी तकलीफें मिटानेवाले सुझाव देते रहने होंगे। यह काम मीडीया अच्छी तरह कर सकता है और कर भी रहा है लेकिन सामान्यजन भी उसमें जुडें तो और भी अच्छा )
आजतक जिस ईमानदार व्यक्ति को लगता रहा की उसके आसपास फैले काला धन जोडनेवालों की वजह से समाज में उसकी साख कम हो रही थी, उसके लिये यह ऐसा मौका है जो कई वर्षोतक फिर नही मिलने वाला। इसी मौंके को भुनाने के लिये उसे मुखर भी होना पडेगा और संगठित भी। उसकी मुखरता और क्रियाशीलता से ही काले धन पर मारा गया यह वज्र प्रहार सफल हो सकेगा।
आइये अपनी चुप्पी तोडें,उदासीनता को छोडें और माँग करे कि जबतक काले धन व काले धन बनाने की सुविधा कायम है,तब तक उनके विरूद्ध यह लडाई लडी जाये। इसमें सामान्यजनकी त्रासदी घटानेके लिये जो मदद हमसे हो सके हम करें। युद्ध हो, पूर्ण विजय के लिये।
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वाचावेच असे काही
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*रक्तविहीन क्रांतीची सुरुवात..!!*

यमाजी मालकर 
ymalkar@gmail.com

मोठ्या नोटा अंशत: रद्द केल्या गेल्याच्या निमित्ताने अर्थकारणावर देशभर जो जागर सुरु झाला आहे, तो सर्व भारतीय नागरिकांना खरे आर्थिक स्वातंत्र्य मिळाल्याशिवाय म्हणजे एक रक्तविहीन अर्थक्रांती झाल्याशिवाय आता थांबणार नाही.
अर्थक्रांती प्रतिष्ठान गेले १६ वर्षे ज्या आमूलाग्र बदलांचा आग्रह धरत होते, त्याची सुरुवात मोठ्या नोटा अंशतः बंद करून केंद्र सरकारने केली आहे. अर्थक्रांतीचा एक प्रस्ताव आहे आणि त्याचे पाच महत्वाचे मुद्दे आहेत. त्याआधारे देशात दोन वर्षांत आमूलाग्र बदल होऊ शकतो. या सर्व बदलांची सुरुवात एकाच वेळी केली तर हा बदल अतिशय सुरळीत होईल, असे प्रतिष्ठानचे म्हणणे आहे आणि त्यासंबधीचा काही अभ्यास प्रतिष्ठानने केला आहे. या प्रस्तावाचा अभ्यास करण्यासाठी सरकारने एक उच्चस्तरीय आयोग नेमावा आणि विशिष्ट कालमर्यादेत त्याचा अहवाल देशालासादर करावा, यासाठी विनम्र आग्रह उपक्रम गेल्या ११, १२ आणि १३ नोव्हेंबर रोजी पुण्यात शनिवारवाड्यासमोर झाला. योगायोग असा की त्यापूर्वी केवळ चार दिवस आधी म्हणजे ८ नोव्हेंबर रोजी पंतप्रधान नरेंद्र मोदी यांनी मोठ्या नोटांच्या संदर्भातील हा ऐतिहासिक निर्णय जाहीर केला. ५०० आणि १००० रुपयांचे चलनातील मूल्य ८६ टक्क्यांवर पोचले असून ते देशासाठी चांगले नाही, अशी मांडणी या देशात फक्त अर्थक्रांती प्रतिष्ठान करत होते. अर्थतज्ज्ञ त्याविषयी कधीच आग्रही नव्हते. त्यामुळे हा निर्णय जाहीर झाल्यावर सरकारने अर्थक्रांती प्रतिष्ठानचे म्हणणे अखेर ऐकले, अशा प्रतिक्रिया उमटल्या आणि त्या साहजिकच होत्या.
देशाची आर्थिक स्थिती लक्षात घेतली तर हे ऑपरेशन केले गेले पाहिजे होते, याविषयी माजी पंतप्रधान आणि अर्थतज्ञ मनमोहनसिंग यांच्यासह कोणाचेच दुमत नाही. पण ते ज्या पद्धतीने केले गेले, त्याविषयी प्रत्येकाचे काही म्हणणे आहे. पंतप्रधान नरेंद्र मोदी यांनी हे ऑपरेशन करण्याचे जाहीर केले, तेव्हा त्यांच्या सरकारकडे याविषयी आपल्यापेक्षा अधिक माहिती असेल आणि त्या आधारे त्यांनी हा निर्णय घेतला, असे आम्ही समजतो. मूळात एकदा ऑपरेशन अत्यावश्यक होते, हे मान्य केले की ते करताना रक्त किती गेले, याला फार महत्व उरत नाही. युद्धात जसे आपल्या देशाचे संरक्षण महत्वाचे ठरते, तसेच हे आहे. अर्थात या निर्णयाची अंमलबजावणी कशी केली पाहिजे, हा सरकारचा विषय असून सरकार त्याच्या बाजूने परिस्थिती सुधारण्याचे प्रयत्न करते आहे. ऑपरेशन यशस्वी व्हावे आणि हा देश पुढे जावा, अशी प्रार्थना आपण करू यात.
हा रोग किती जुना आणि तो शरीरात किती भिनला होता, हे पाहिले की त्याचा एवढा त्रास का झाला, हे लगेच लक्षात येते. शेतसारा रुपयांतच दिला पाहिजे, अशी सक्ती ब्रिटीशांनी भारतीय शेतकऱ्यांवर केली तेव्हापासून आपल्या देशाचे पैशीकरण सुरु झाले. तोपर्यंत भारतीयांना चांदी आणि सोन्याची नाणी पैसे म्हणून वापरण्याची सवय होती. काही राजांचे चलन चलनात होते, मात्र त्यात एकवाक्यता नव्हती. ही संधी साधून ब्रिटीशांनी सर्व भारतात चालणाऱ्या रुपया नावाच्या नव्या चलनाला जन्म दिला. पण हे कागदी चलन भारतीयांना काही पटले नाही. त्यामुळे हे कागदी चलन सर्वमान्य होण्यासाठी बराच कालावधी गेला. बहुसंख्य असलेल्या शेतकऱ्यांनी ते स्वीकारावे, यासाठी अखेर त्याची सक्ती करावी लागली. या कागदी पैशांत अडकलेला शेतकरी वर्ग त्यातून अजूनही म्हणजे पावणे दोनशेवर्षे झाली तरी बाहेर पडू शकला नाही. शेतकऱ्यांचे आणि या देशाचे शोषण करण्यासाठी ब्रिटीशांनी रुपया वापरला आणि आज स्वतंत्र भारतात ज्यांनी रुपयाचे म्हणजे पैशांचे महत्व ओळखले, त्या वर्गानेही त्याच मार्गाने शेतकऱ्यांचे शोषण सुरूच ठेवले आहे.
सर्वकष्ट, उत्पादन आणि संपत्ती आम्ही आज रुपयांत मोजतो आहोत आणि आधुनिक जगात त्याला दुसरा मार्ग नाही. त्यामुळे चलन नावाचे हे गारुड सर्वांना वापरायला मिळाले पाहिजे आणि ते प्रवाही असले पाहिजे, याविषयी शंका असण्याचे कारण नाही. कारण चलनाची निर्मितीच मुळात माध्यम म्हणून झाली आहे. पण मोठ्या मूल्याच्या चलनामुळे ती वस्तू म्हणून वापरले जात असल्याने आज आर्थिक कोंडी झाली आहे. हवेवर आणि भाषेवर आपली खासगी मालकी दाखविले तर चालेल का?
कागदाला सरकारने ‘लीगल टेंडर’ म्हटले की त्याचा पैसा होतो. त्याची किती निर्मिती करायची, याचा अधिकार ब्रिटीश सरकारने घेतला आणि नोटांची अधिक छपाई करून भारतीय कष्ट आणि उत्पादने स्वस्तात विकत घेण्यास सुरुवात केली. तो शिरस्ता स्वतंत्र भारतातील सरकारे आणि या जादुई कागदाचे महत्व ओळखणाऱ्या वर्गाने आजपर्यंत चालू ठेवला आहे. गेल्या काही दिवसांत बँकेत जमा झालेल्या सात आठ लाख कोटी रुपयांनी आणि सर्वत्र सापडणाऱ्या नोटांच्या पोत्यांनी ते सिद्धच केले आहे. ३० डिसेंबर अखेर किती लाख कोटी रुपये जमा होतील, हे पाहिल्यावर हा पैसा बँकेबाहेर होता, तरी हा देश जिवंत कसा होता, असा प्रश्न पडेलच. एकेकाळी कागदी नोटांना हात न लावणारा समाज त्या नोटा म्हणजे सबकुछ आहे, असे आता मानू लागला होता, हे फार भयानक सत्य आहे.
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांनी एक अर्थतज्ञ म्हणून या प्रश्नाचा सर्वात आधी उलगडा केला आणि रुपयांत भारतीयांचे होणारे शोषण किती भयानक आहे, हे दाखवून दिले आहे. ‘ईस्ट इंडिया कंपनी: प्रशासन आणि वित्तप्रणाली’ हा त्यांचा याविषयावरील पहिला ग्रंथ. या शोधनिबंधात त्यांनी १७९२ ते १८५८ या कालखंडातील ईस्ट इंडिया कंपनीच्या प्रशासन आणि वित्तप्रणाली संबंधीच्या धोरणातील बदलाचा आढावा घेतला आहे. ‘ब्रिटीश भारतातील प्रांतिक वित्ताची उत्क्रांती’ हा त्यांनी पीएच.डीसाठी कोलंबिया विद्यापीठाला सादर केलेला प्रबंध. (१९२७) लंडन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्समध्ये डॉक्टर ऑफ सायन्स या अत्युच्च पदवीसाठी लिहिलेला ‘रुपयाचा प्रश्न: उद्गम आणि उपाय’ या प्रबंधात त्यांनी भारतीय चलनाचा विनिमयाचे साधन म्हणून झालेला विकास आणि सोने, चांदी अशा मौल्यवान धातूंच्या संदर्भातील त्याची सममूल्यता याची चर्चा केली आहे.
डॉ. आंबेडकर यांना, भारताला आर्थिक साक्षर करण्याचा मार्ग सोडून जातीभेदाविरुद्धचा लढा हाती घ्यावा लागला. देशाच्या दृष्टीने एवढा महत्वाचा विषय इतक्या पोटतिडकीने मांडण्याचे धाडस पुढे कोणी केले नाही. त्यामुळे रुपयाचे गुपित कळणारा वर्ग मर्यादितच राहिला, एवढेच नव्हे तर गेली किमान दीडशे वर्षे बहुजन भारतीय समाज रुपयाच्या या चक्रव्ह्यूवात फसत राहिला. स्वतंत्र भारतातही गेली ७० वर्षे त्यात मोठा बदल होऊ शकला नाही. सरकारने मोठ्या नोटा कमी करण्याचापरवा निर्णय घेतल्यानंतर तो भांबावला, त्याचे कारण हे आहे.
पण या भांबावण्यात एक गोष्ट खूप चांगली झाली. अर्थकारणाविषयी तो अजिबात बोलत नव्हता, कागदी नोटा, त्यांचे प्रमाण, रिझर्व बँक, करव्यवस्था, व्याजदर हे त्याचे कधीच विषय नव्हते. ते त्याचे विषय झाले. एकूणचज्या अर्थकारणाने त्याचे सारे आयुष्य बांधून टाकले आहे, त्याविषयी तो कालपर्यंत मूक होता. तो आता उघडपणे बोलू लागला आहे. वाद घालू लागला आहे. काय झाले पाहिजे, हे सांगू लागला आहे. देशाला मिळालेल्या स्वातंत्र्यासोबत जे राजकीय स्वातंत्र्य मिळाले, ते पुरेसे नाही, राजकारणाला चालविणाऱ्या अर्थकारणाविषयीही आता आपण बोलले पाहिजे, याची त्याला जाणीव होऊ लागली आहे आणि हे फार महत्वाचे आहे. एवढे महत्वाचे की, स्वतंत्र भारतात ज्या आर्थिक स्वातंत्र्याचे स्वप्न सर्वसामान्य नागरिकपाहतो आहे, त्यादिशेने जाण्याची सुरुवात आता झाली आहे.
अर्थात, लाखो शेतकऱ्यांनी, आपण या व्यवस्थेत जगू शकत नाही, म्हणून आत्महत्या केल्या, हे कसे विसरता येईल? त्या आत्महत्या हा आपल्या देशातील उरफाट्या अर्थकारणाचा थेट परिणाम आहे. या ऑपरेशनला आज सुरुवात केली नसती तर भविष्यात अशा किती आत्महत्या पाहण्याची वेळ आपल्यावर आली असती, याची कल्पना करवत नाही. लोकसंख्येची घनता प्रति चौरस किलोमीटर तब्बल ४२५ इतकी असलेला देश पैसा नावाच्या राक्षसाला शरण गेला आणि त्याने मागणी केल्यानुसार आपल्याच माणसांना बळी देत गेला. हे बळी जाणे, आता आपल्या आजूबाजूला दिसू लागले होते आणि त्याला वेगवेगळी नावे देण्याचे काम आपल्यातलीच काही मंडळी हिरीरीने करत होती. आपल्याला त्या राक्षसाचे बोलावणे येऊ नये, एवढा संकुचित विचार करणे, खरे तर पाप होते. पण ते पाप आपल्यातील अनेकांनी केले. असो..
हे ऑपरेशन अवघड खरे, पण ते टाळता येणार नाही. ते टाळले, तर आपल्याला फक्त पोस्टमार्टेम करावे लागेल, असे अर्थक्रांती म्हणत होती. कारण हा इलाज आत्ताच केला नसता, तर या देश रक्तरंजित क्रांतीला सामोरा गेला असता. विषमतेचे पीक इतके माजले आहे की त्याला उखडून टाकणे, हे एक समाज म्हणून आपली जबाबदारी आहे. त्या जबाबदारीच्या भावनेतून अर्थक्रांती प्रतिष्ठान पाच मुद्द्यांचा प्रस्ताव गेली १६ वर्षे मांडते आहे. केवळ मोठ्या नोटा कमी करून प्रश्न सुटणार नाहीत. त्यासाठी करपद्धतीत अर्थक्रांती सांगते तसा बदल करावाच लागेल. त्याची सुरुवात म्हणून सरकारने हे पाउल उचलले असे आम्ही समजतो.
या देशात आणि समाजात किती प्रचंड ताकद आहे, याची आपल्यापैकी अनेकांना अजून जाणीव नाही. ते देश आणि आपला समाज किती वाईट आहे, याचे चित्र रंगविण्यात आपली बुद्धी खर्च करत आहेत. आता, अर्थशास्त्रातील ‘मागणी’च्या बाजूने विचार करायचा तर भारतातील १३० कोटी लोक जेवढी ‘मागणी’ करू शकतात, तिला जगाच्या पाठीवर तोड नाही. त्यामुळे पुढील महिनाभरातया शस्त्रक्रियेच्या काही जखमा भरून येतील. पण यानिमित्ताने अर्थकारणावर देशभर जो जागर सुरु झाला आहे, तो सर्व भारतीय नागरिकांना खरे आर्थिक स्वातंत्र्य मिळाल्याशिवाय म्हणजे एक रक्तविहीन अर्थक्रांती झाल्याशिवाय थांबणार नाही.

Saturday, November 19, 2016

प्रशासनावर समाजाचे नैतिक अधिष्ठान हवे

प्रशासनावर समाजाचे नैतिक अधिष्ठान हवे -- डॉक फाइल प्रशासनाकडे वळून बघतांना या ब्लॉगवर आहे.
अथश्री -- एप्रिल-जून 2011



राष्ट्रीय शिक्षणाचे अधिष्ठान

राष्ट्रीय शिक्षणाचे अधिष्ठान

Saptahik Vivek
तारीख: 10 Nov 2014 
आपण एका नव्या शिक्षणपध्दतीच्या जवळ येऊन ठेपलो आहोत व एका नव्या सूर्योदयाची वाट पाहत आहोत. हा सूर्य आहे अमेरिकन व युरोपियन युनिव्हर्सिटीचा! आपल्याकडील शिक्षणसंस्था झपाटयाने त्यांच्यासोबत MOU करीत आहेत. त्यांच्याकडून फ्रँचाइझी घेत आहेत. आपले शिक्षण वैश्विक होत आहे. ही नवी शिक्षण सुधारणा चांगले दिवस घेऊन येईल असे काही लोकांना वाटते. मला मात्र तसे वाटत नाही. कारण 

गेल्या दोनशे वर्षांत भारतीय शिक्षणपध्दतीचे रूप पालटत गेले. आपण समाजाधिष्ठित शिक्षणपध्दतीपासून राज्य शासनाधिष्ठित शिक्षणव्यवस्था व त्यातून पुढे व्यापाराधिष्ठित शिक्षणव्यवस्थेपर्यंत पोहोचलो आहोत.
ब्रिटिश शासनकाळात 1880मध्ये मेकॉलेने मांडलेली विस्तृत कारणमीमांसा व उद्दिष्टे समोर ठेवून राज्य शासनाधिष्ठित शिक्षणपध्दती राबवली गेली. त्यामध्ये 'युनिव्हर्सलायझेशन ऑफ एज्युकेशनही उदात्त कल्पना पुढे केलेली होती व देशभरांत हजारो शिक्षण संस्था - शाळामहाविद्यालयेविद्यापीठेवैद्यकीय महाविद्यालये इत्यादी उघडण्यात आली. त्यासाठी ब्रिटनच्या पार्लमेंटने मोठी रक्कमही मंजूर केली होती.
प्रत्यक्षात या संस्थांमधून ब्रिटिशांना नोकरवर्ग निर्माण करायचा होताजो इंग्रजी बोलून त्यांच्या पध्दतीची शासनव्यवस्था चालवण्यास मदत करू शकेल असा. ब्रिटिश शासनकर्तेआजारी पडल्यास युरोपीय पध्दतीने त्यावर उपचार करू शकणारे डॉक्टर्स हवे होते. दळणवळण वाढल्यास त्यांचा तयार माल देशाच्या कोनाकोपऱ्यात पोहोचणार होता. त्यासाठी त्यांच्या पध्दतीचे अभियंते हवे होते. वनसंपदा वापरता यावी यासाठी वनरक्षक व वनविषयक कायदे हवे होते. मुख्य म्हणजे वनजीवनाची भारतीय परंपरा संपवणे गरजेचे होते. त्यामुळे वनांतून चालणारी गुरुकुलेही संपणार होती. 
आधुनिक व समाजाधारित शिक्षणपध्दती
या नवीन शिक्षणामुळे एकीकडे भारतीयांना कळू शकले कीयुरोपातील शिक्षण परंपरा काय आहे आणि किती वेगाने पुढे जात आहे. आधुनिक विज्ञानाच्या दिशेने भारतीयांचीही प्रगती होऊलागली. त्यातून आपल्या देशाला जगदीशचंद्र बोससी.व्ही. रामन आणि होमी भाभा यांच्यासारखे शोध वैज्ञानिक मिळालेपण दुसरीकडे समाजाधारित शिक्षण परंपरा खंडित होऊ लागली आणि 1947 पर्यंत ती जवळजवळ संपुष्टात आलेली होती.
ही समाजाधिष्ठित परंपरा काय होतीतिचा थोडा आढावा घेणे उचित ठरेल. पूर्वी आपल्याकडे गुरुकुल परंपरा होती. म्हणजे विद्यार्थ्यांनी गुरुकुलात जाऊन राहायचे व गुरूसोबत राहून शिक्षण घ्यायचे. त्याच जोडीला गावोगावी पंतोजी किंवा शिक्षक-ब्राह्मण ही परंपरा होती. शिक्षक हा ब्राह्मण असायचाकारण अध्ययनस्वाध्याय व अध्यापन ही समाजाने ब्राह्मणाला नेमून दिलेली कामे होती. मात्र सर्वच  ब्राह्मण शिक्षक नसत. अशा अध्यापकासाठी जी कडक नियमावली होतीत्यामध्ये अपरिग्र्रह - म्हणजे पैसा न साठवणे हा गुण सर्वोपरी होता. तसे नसल्यास त्यांच्या ज्ञानाचा बाजार होतो. तसे असल्याने त्याच्या ज्ञानाचा बाजार होऊ शकत नव्हता. त्याने गावातील विद्यार्थ्यांना शिकवावे व बदल्यात समाजाने त्याच्या भरणपोषणाची जबाबदारी घ्यावी. नवीन गाव वसवताना जसे योग्य ते विविध कारागीर (बलुतेदार) आग्रहपूर्वक गावी आणून वसवले जाततसे पंतोजींनादेखील सन्मानाने बोलावून त्यांच्या उपजीविकेची व्यवस्था करून विद्यार्थिवर्गाला त्यांच्या सुपुर्द केले जात होते. यामुळे शिक्षण घेणाऱ्यांना अत्यल्प दरात किंवा पैसा खर्चावा न लागता शिक्षण मिळत होते. पंतोजींचे स्वतःचे चारित्र्य आणि त्यांची गावकऱ्यांशी जवळीक यामुळे ते विद्यार्थ्यांच्या आदरास पात्र ठरत. त्याने स्वेच्छेने व आनंदाने स्वतःच्या विद्येचा बाजार न होऊ देता ज्ञानप्रसार करणे महत्त्वाचे होते. अशी त्यागी वृत्ती असेलतोच शिक्षण देऊ शकत होता. त्यामुळे 'त्यागहा आवश्यक संस्कार म्हणून समाजापुढे ठेवला जात होता आणि विद्यार्थ्यांमध्येही त्याग हे मूल्य जोपासले जाऊ शकत होते. ही परंपरा जपण्यासाठी सर्वच्या सर्व विद्यार्थ्यांनी त्यागाचा संस्कार आयुष्यभर बाळगला नाहीपरंतु केवळ 10 टक्के विद्यार्थ्यांनी बाळगला तरी ते पुरेसे होते. हा विद्याप्रसार होत होता म्हणूनच ब्राह्मण वर्ग हा अकिंचन असला तरी पूजनीय होताआणि न्यायनिवाडयापासून तर अन्य कित्येक बाबींमध्ये त्याचा शब्द महत्त्वाचा असे. राजदंडापेक्षा ब्रह्मदंड श्रेष्ठ अशी परंपरा होती. त्याचेही कारण ही स्वेच्छेने स्वीकारलेली त्यागाचीअपरिग्रहाची आणि ज्ञानदानाची वृत्ती हेच होते.
गावोगावी असलेल्या या व्यवस्थेखेरीज विद्येची मोठमोठी केंद्रे व गुरुकुले होती, प्रसंगी ती रानावनांमधेही होती. तिथे गुरुगृही राहून शिक्षण घेतले जाई व ते घेताघेता संपूर्ण दिनचर्याव्यवस्थापनदीर्घकालीन व्यवस्थापन या गोष्टी शिकल्या जात. त्यामुळेच गुरुकुलातील शिक्षण हे जीवनावश्यक बाबी शिकवणारे शिक्षण असायचे व तिथेही संस्कारांना महत्त्वाचे स्थान होते. विद्यार्थ्याला अत्यल्प दरात शिक्षण आणि अपरिग्रह हे सूत्र तिथेही होतेच. तसेच ही गुरुकुले समाजाकडून मिळालेल्या दानावर चालत असत. त्यामुळे दान व त्याग या दोन मूल्यांचे संस्कार विद्यार्थ्यांवर आपोआप कोरले जात. यामुळे ज्ञानप्रवाहाचा ओघ अव्याहतपणे राहायचा. तसेच गुरुकुलांचे व्यवस्थापन मोठे व दीर्घकालीन असल्यामुळे तिथे नवनवीन शोधांना वाव होता आणि या शोधकार्याचे फलित आजमावण्यासाठी शेजारील वनवासी व ग्रामवासी हे दोन घटक त्यांना मदत करीत,असा सिध्दान्त मी पूर्वी मांडलेला आहे. (मेहेंदळे, 2013.)
या शिक्षणव्यवस्थेला राजाश्रयाची फारशी गरज नव्हती. मात्र समाजमनात ही खोलवर रुजलेली असल्याने समाजाकडून ही व्यवस्था कायम राखली जात असे.
अशी समाजाधिष्ठित शिक्षणपध्दती मला तीन कारणांनी राज्याधिष्ठित पध्दतीपेक्षा श्रेष्ठ वाटते. पहिले कारण - विद्यार्थ्यांना अत्यल्प दरात शिक्षणज्यामुळे त्यागाचा व अपरिग्रहाचा संस्कार रुळत होता. दुसरे कारण - समाजाने पेललेली जबाबदारीज्यामुळे दोन राजांमध्ये लढाई झालीतरी शिक्षणव्यवस्थेला त्याची झळ लागू शकत नव्हती व निदान या बाबीसाठी तरी राजकारणापेक्षा समाजकारण हे जास्त टिकाऊ आणि श्रेष्ठ ठरत होते. तिसरे कारण - ग्रामीण जीवनात शोधकार्यांचा प्रभाव व फायदा तत्काळ मिळू शकत होता. अध्यापकाने समाधानी वृत्तीने अपरिग्रहाचा गुण जोपासण्यामध्ये या व्यवस्थेचे श्रेय होते आणि सुदैवाने भारतीय समाजरचनेत अशा लोकांची कमतरता कधीच भासली नाही.
मात्र या व्यवस्थेत तीन कमतरता असू शकतातहेही मान्य केले पाहिजे. विशेषतः ब्रिटिशांनी आणलेल्या राज्याधिष्ठित शिक्षणव्यवस्थेने त्यावर मात केली असल्याने त्यांची दखल घेणे गरजेचे आहे. एक- कालौघात या पद्धतीने शोधकार्य पूर्णपणे  थंडावले होते कां ? पंधराव्या ते विसाव्या शतकांत तरी तसे असावे हे म्हणण्यास वाव आहे व   ती या पद्धतीची दुखती रग ठरते. 
दुसरे - या शिक्षणपद्धतीत कधीतरी स्त्री आणि दलितांच्या शिक्षण विषयक गरजा भागवल्या जाण्याचे थंडावले एवढेच नाही तर त्यांना शिक्षण नकोच अशी  समाजविघातक वृत्ती उदयाला आली. त्यांची कुचंबणा होऊ लागली
तिसरे - अशा व्यवस्थेमधे मंदिरांचाही सहभाग होता तो ही कधीतरी संपुष्टांत आला.
भारतीय शिक्षणपध्दतीवर परिणाम
ब्रिटिशांनी राज्याधिष्ठित शिक्षणपध्दती आणल्यानंतर मेकॉलेने सुचवल्याप्रमाणे भारतीय शिक्षणपध्दतीचे पूर्णपणे खच्चीकरण करण्यात आले. आयुर्वेदाला आणि बलुतेदारीवर आधारित अर्थव्यवस्थेला त्याचा सर्वाधिक फटका बसला. त्यातच युरोपातील औद्योगिक क्रांतीत्यामुळे पक्क्या मालाचे सुबकटिकाऊ व तरीही स्वस्त उत्पादन आणि युरोपातील विज्ञान व शोधकार्यांचा विराट-अफाट विस्तार, यामुळे तीच शिक्षणपध्दती व त्यातील घालून दिलेले सिलॅबस श्रेष्ठ असल्याचे मान्य झाले. मग भलेही त्यामध्ये जीवनमूल्यांचे शिक्षण नव्हते व जीवन जगण्याचे तर नव्हतेच नव्हते.
या शिक्षणामुळे आणखी एक झाले - शेती, माती व निसर्ग यांच्या सान्निध्यातील जीवन  कमी दर्जाचे, हीन दर्जाचेतर नोकरी आणि शहरी जीवन हे उच्च दर्जाचे असेही समीकरण बनले. शिक्षण घेऊन लगेच सरकारी नोकरीत रुजू होणे हे सरळ आखीव रेघेइतके सोपे आणि हवेहवेसे होते. त्यागसमाधान किंवा अपरिग्रह यांच्या कल्पना अनावश्यक ठरत होत्या. शिक्षणासाठी समाजावर अवलंबून रहाणे संपले होते. शिक्षण हे शासनाने पुरवावे हा संकेत ठरत  होता. 
सन 1850 ते 1950 या काळात ही राज्याधिष्ठित व्यवस्था विस्तारली आणि भरभराटीला आली. त्याच्या खर्चाची जबाबदारी ब्रिटिश राजवटीवर होती. 1947 नंतर ही जबाबदारी या देशाच्या सरकारवर आली. पुढील पंचवीस-तीस वर्षांत लोकसंख्या वाढली - अपेक्षा वाढल्या. देशासाठी लढा, याची गरज उरली नव्हती तर देशाचा विचार ही गरजही मागे पडत होती. त्या ऐवजी उच्च शिक्षण घेऊन परदेशांत रहाण्याचे फायदेही दिसु लागलेले, पण त्यासाठी शिक्षण -व्यवस्थेत करावा लागणारा विस्तार सरकारच्या आवाक्याबाहेर होता. दुसरी कडे पूर्वीची समाजाधिष्ठित पद्धत बहुतांशी मोडीत निघाली होती. त्यामुळे अल्प दरात समाजाच्या संसाधनांच्या बळावर शिक्षण ही शक्यता लोप पावलेली होती. 
1980चे दशक उजाडले असताना शिक्षणव्यवस्थेबाबत एक नवा विचार पुढे येत होता. शिक्षणातून सरकारी नोकरी हा मार्ग जरी खुंटत चालला असलातरी शिक्षणानंतर ब्लू किंवा व्हाइट कॉलर जॉबच हवी हा विचार बळावत होता. गावात राहणे व शेतात काम करणे हे मागासलेपणाचे लक्षण होते. त्यापेक्षा एखाद्या कंपनीत किंवा सरकारात लिफ्टमनची अथवा चपराशाची नोकरी अधिक श्रेष्ठ होती. ज्यांना थोडयाफार उच्च शिक्षणाची ऐपत होतीत्यांना अमेरिका नामक स्वर्गभूमी खुणावत होती. मग व्यापाराधिष्ठित शिक्षणाचे तत्त्वज्ञान समोर आले. 
पालकांनी मुलांच्या शिक्षणासाठी इतके 'लाख'रुपये 'इन्व्हेस्टकरावेत्याबदल्यात त्यांची मुले इतके 'कोटीकमावण्यास सक्षम करून देतो असे सांगत हजारो शिक्षण संस्था उदयाला आल्या. हा व्यापार आहे म्हटल्यावर त्यामध्ये 'लाभहे मूल्य सर्वश्रेष्ठ ठरले आणि त्यागअपरिग्रह,समाधान ही मूल्ये हानिकारक व महत्त्वकांक्षा संपवणारी असे म्हणत त्यांची हेटाळणी होऊ लागली.
 सुरुवातीला हे व्यापारीकरण उच्च शिक्षणापुरते मर्यादित राहील व फक्त अभियांत्रिकी व वैद्यकीय शिक्षणापुरतेच त्यांचे व्यापारी लाभ टिकून राहतीलअसे वाटले होते. मात्र सरकारी विनाअनुदानित शाळांचे पेव फुटू लागले होतेतर खुद्द सरकारी शाळा हलाखीत चालल्या होत्या. विशेषतः शहरांमध्ये तर त्या हलाखीत असण्यानेच व्यापारी शाळांना वाव मिळणार होता. तसेच होऊ लागले. शिवाय इंग्रजी म्हणजेच श्रीमंती हे समीकरण दृढ होत गेले.त्यामुळे अधिकाधिक  वेगाने शिक्षणाचे स्वरूप पालटत गेले.
 दुसरीकडे शासकीय शोधसंस्थानांमधील शोधविषयक बाजू झपाटयाने कमकुवत होत लयाला पोहोचली होती. देशांतर्गत शोधकार्य हा थट्टेचा विषय बनला होता. त्यामुळेही जे कोणी जीनियस असतीलत्यांना अमेरिका शरणाशिवाय पर्याय नव्हता. त्यामुळे मातृभाषा शिक्षण म्हणजे'थर्ड रेटअसेही समीकरण दृढ होत चालले होते.
व्यापाराधिष्ठित शिक्षणव्यवस्था
पुढील तीस वर्षांत व्यापाराधिष्ठित शिक्षण ही व्यवस्था भरभक्कम होऊन सरकारी शिक्षणव्यवस्थादेखील जवळपास मोडीत निघाली आहे. अपवाद आहे तो फक्त दूर डोंगरदऱ्यांतील सरकारी शाळांचा आणि इस्रो व BARC या दोन शोधसंस्थांचा. देशही झपाटयाने श्रीमंत होत आहेकारण शिक्षणातील व्यापारी उलाढाल जेवढी मोठीतेवढा देशाचा जीडीपी वाढतो. पाटी-पेन्सिलसारखे स्वस्त व पर्यावरण-पोषक पर्याय सोडून जेव्हा वह्या-पेनांचा वापर वाढतोतेव्हाही व्यापार वाढल्यामुळे जीडीपी वाढत असतो. शाळांबरोबर कोचिंग क्लासेस वाढले की जीडीपी आणखी वाढतो. पाल्यांनी जवळच्या शाळेत जाण्याऐवजी लांबच्या शाळेत गेलेत्यासाठी वेगळी वाहतूक व्यवस्था करावी लागली की त्यामुळेही जीडीपी वाढतो. अशा जीडीपी आधारित श्रीमंतीच्या मोजमाप पद्धतीने आपण कितीतरी अनुत्पादक बाबींवर आपली शक्ति खर्च करीत असतो हे दुर्लक्षित रहाते.

शिवाय या व्यापाराधिष्ठित शिक्षणव्यवस्थेचा मोठा फायदा हा कीजे कोणी सत्तेत येऊ शकतील त्यांना लगेच हा जोडधंदा सुरू करता येऊ शकतो.
मला मारियो पुझोच्या गॉडफादर-या कादंबरीतील एक संवाद आठवतो. गॉडफादर-1च्या शेवटी पहिल्या डॉनची सद्दी संपून त्याचे सर्व अंडरवर्ल्ड मुलाच्या ताब्यात आलेले असते. गॉडफादर-2च्या सुरुवातीलाच हा संवाद आहे. त्यात पहिला डॉन मुलाला (नव्या डॉनला) सल्ला देतो - मी ज्या काळात डॉनगिरी केलीतो काळ त्या पध्दतीच्या डॉनगिरिला अनुकूल होता. आता काळ पालटत चालला आहे. पुढील काळात तुला तुझे डॉनपद टिकवायचे असेलतर त्याचा एकच मार्ग आहे - जमतील तेवढी शिक्षण संस्थाने आपल्या ताब्यांत घे. 
2011 च्या दशकात पुन: एकवार विचार होऊ लागला आहे. देशातील बेरोजगारीवाढती गुन्हेगारीमहागाई इत्यादी कित्येक समस्यांचे उत्तर शिक्षणपध्दतीच्या सुधारणेमुळे मिळेल,असे लोकांना वाटते. मलाही तसेच वाटते. पण सुधारणा कशी असावीहा महत्त्वाचा विषय आहे.
जुन्या कवींनी म्हटले होते - जब आवे संतोष धनसब धन धुलि समान! नवीन जमाना सांगतो - जब आवे धन तो बाकी सब जीवनमूल्य धूलि समान! व्यापाराधिष्ठित शिक्षणपध्दतीत 'धनहेच सर्वश्रेष्ठ जीवनमूल्य राहिले.
आता आपण एका नव्या शिक्षणपध्दतीच्या जवळ येऊन ठेपलो आहोत व या नव्या सूर्योदयाची वाट पाहत आहोत. हा सूर्य आहे अमेरिकन व युरोपियन युनिव्हर्सिटीचा! आपल्याकडील शिक्षणसंस्था झपाटयाने त्यांच्यासोबत सामंजस्य करार करीत आहेत. त्यांच्याकडून फ्रँचाइझी घेत आहेत. आपले शिक्षण वैश्विक होत आहे. आपण कोणकोणत्या युनिवर्सिटीजसोबत त्यांची व्यवस्था स्वीकारण्याचा करार केला त्याची जाहिरात करण्याची अहमअहमिका लागलेली आहे. ही नवी शिक्षण सुधारणा चांगले दिवस घेऊन येईल असे कित्येकांना वाटते. मला मात्र तसे वाटत नाही. 
कारण शिक्षणातून जोपर्यंत त्याग आणि अपरिग्रह ही दोन भारतीय मूल्ये रुजत नाहीततोपर्यंत ते शिक्षण सामाजिक विषमता आणि तेढ हेच वाढवत राहणारअसे मला वाटते.
leena.mehendale@gmail.com

Sunday, November 06, 2016

मराठमोळ्या शेतकऱ्याची दुर्दशा कशी संपेल सा. विवेक दि 11-Jan-2017

गेल्या काही महिन्यांत विविध शहरांमधून जे मराठा मोर्चे निघाले त्यातील तीन आशादायक वैशिष्ट्ये मला अशी दिसतात की एक तर ते सर्व शांतता राखून काढले होते. त्याने इतरांना होरपळवले नाही. कुणी सांगावे ही भविष्यातील अशाच शांततामय मोर्चांची नांदी ठरेल. दुसरे वैशिष्ट्य म्हणजे यांत महिलांचा, ते ही सुशिक्षित, ग्रामीण अशा सर्व स्तरातील महिलांचा मोठा सहभाग होता. आपल्या पुरूषप्रधान संस्कृती-मधे महिलांचा एवढा मोठा सहभाग हा ही भविष्यकाळातील मोठ्या सहभागाची नांदी ठरो. तिसरे वैशिष्ट्य म्हणजे बव्हांशी मोर्चांचे नेतृत्व प्रथितयश व राजकीय खेळी खेळणाऱ्या नेत्यांकडे नसून आजवर सामान्य म्हणून वावरलेल्या लोकांकडे होते. अर्थात अशाही आठ-दहा राजकीय पुढाऱ्यांची नावे सांगता येतील जे या मोर्चाचे यश स्वत:कडे घेण्याचा प्रयत्न करीत होते. "मराठा मोर्चाच्या मागण्या मान्य करा नाहीतर माझ्याशी गांठ आहे" अशा शब्दांत गर्जना करीत होते. पण त्यांची उपस्थिती फार काळ टिकू शकली नाही. मग त्यांनी मीडीयाचा आसरा घेतला. आजही मीडीयावरील रंगणाऱ्या "आमने सामने" मधे मोर्चातील सामान्य मोर्चेकरी भाग घेत नसून नेते मंडळीच भाग घेतांना दिसतात. हे मीडीयाचेच अपयश म्हणता येईल, मोर्चेकऱ्यांचे नाही.

आज मराठा समाजात चार वर्ग निर्माण झालेले दिसतात. सत्तेत वाटा मिळालेला एक गट. दुसरा बागाइत जमीन मालक तसेच सहकारी क्षेत्रांवर ताबा असलेला वर्ग उदा. बँका, साखर कारखाने, दुध उत्पादक संघ, सुत गिरण्या इत्यादि. तिसरा कोरडवाहु शेतकरी वर्ग व चौथा वर्ग म्हणजे थोडे-अधिक शिक्षण घेऊन नोकरीत शिरू शकलेला वर्ग.

या पैकी फक्त कोरडवाहु शेतकरी हाच वर्ग संपूर्णपणे ग्रामीण भागात बसतो. या वर्गातही युवा पीढी आणि जुनी पिढी असे भेद पडतातच. युवा पिढीकडे थोडेफार शिक्षण आहे त्यामुळे त्यांचा ओढा शेतीकडे नसून नोकरीत, त्यात मिळणारे स्थैर्य, शहरी जीवन व त्यामधील दृश्यमान सुविधा यांच्याकडे आहे. या तरूण पिढीच्या आकांक्षांमधे पुरूषांइतकाच महिलांचाही सहभाग आहे. मात्र आताच्या पुस्तकी शिक्षणामुळे एवढया मोठ्या संख्येने त्यांना नोकरीत सामावून घेणे शक्य नाही. त्यांना कौशल्य शिक्षण देऊन छोटया व्यवसायात आणणे किंवा शेतीला अधिक स्थैर्य मिळवून देऊन त्यांना शेतीकडे उद्युक्त करणे एवढे दोनच पर्याय शिल्लक उरतात.

या मोर्चाच्या निमित्ताने कांही नकारात्मक बाबीही समोर येतात. मूक मोर्चाची पहिली मागणी आहे आरक्षणाचीम्हणून आपल्याला आरक्षण या विषयाची पूर्वपीठीका पुन्हा उजळणी करून पहावी लागेल. मराठा आरक्षणाचा प्रश्न सत्तेत असणाऱ्या कांही नेत्यांनी गेली दहा-पंधरा वर्ष सातत्याने मांडला होता. पण आरक्षणाचा विषय समजून घ्यायचा असेल तर त्याच्या कितीतरी मागे जावे लागेल. तीन ऐतिहासिक टप्प्यांचा विचार करावा लागेल. 
संविधानाची मांडणी करतांना बाबासाहेब आंबेडकर व इतर घटनाकारांनी आरक्षण का व कुणाला द्यावे याचे विवेचन केले. समाजातील ज्या उपेक्षित घटकाला कायमपणे विपन्नता, दारिद्र्य याच सोबत सामाजिक दुजाभावालाही वारंवार तोंड द्यावे लागत होते, ज्यांच्याकडे स्वत:चा आवाज इतरांपर्यंत पोचवण्याचे साधन नव्हते अशांसाठी आरक्षणाचा उपाय मांडण्यात आला होता. 

घटनाकारांनी  व बाबासाहेब आंबेडकरांनी शेड्युल्ड कास्ट व शेडूल्डय ट्राइब साठी आरक्षण असावे अशी तरतूद संविधानात केली, त्यामध्ये समाजात ते आतापर्यत वंचित राहिले ही पार्श्वभूमी होती. समाजातील वंचितपणा तीन-चार बाबींमधून प्रकट होतो. शिक्षणापासून वंचित असणे, आर्थिक समुद्धिपासून वंचित असणे, राजकीय सत्तेपासून वंचित असणे आणि सामाजिक सन्मानापासून वंचित असणे. हा वंचितपणा घालवून त्यांना समाजाच्या एकात्म प्रवाहात आणणे हा मुख्य उद्देश होता. मी "समाजाच्या मुख्य प्रवाहात आणणे" असे शब्दप्रयोग मुद्दामच करत नाही कारण त्यामुळे मुख्य प्रवाहाबाहेर कुणीतरी रहाणारच ही भावना दृढमूल होते. समाजाच्या एकात्म प्रवाहात आणण्यासाठी राजकीय व शैक्षणिक आरक्षणाची तरतूद झाली तसेच आर्थिक स्थैर्यासाठी सरकारी नोकऱ्यांमध्ये आरक्षण मिळवण्यासाठी तरतूदही झाली. पात्रता हा निकष जाणीवपूर्वक मागे ठेवला गेला होता. किंवा निदान पात्रतेची पातळी तरी कमी केली गेली. त्यामुळे सहाजिकच ज्यांची पात्रता व योग्यता होती त्यांना अन्याय झाल्याची भावना निर्माण होत गेली. तरीही एकात्मतेच्या ध्येयासाठी ते स्वीकार्यही ठरवले गेले.
 या आरक्षणातून त्यांची शैक्षणिक सुधारणा होईल, सामाजिक स्थान व सन्मान मिळेल, आर्थिक संपन्नता येईल आणि राजकीय सहभाग असेल अशी चतुःसूत्री अपेक्षित होती.

मात्र यातूनही सामाजिक सन्मान मागेच रहातो हे लक्षात आल्यावर अट्रोसिटी कायदा तसेच सरकारी नोकरीमधील पदोन्नतिच्या प्रत्येक टप्प्यावर आरक्षण अशा दोन वेगळया तरतूदी करण्यात आल्या. या सर्व नवजीवन योजना १९५० पासून २००० पर्यंत टप्याटप्याने आल्या. या दरम्यान जे काही राजकीय बदल घडत होते त्यामधे जाती आधारीत तुष्टीकरण हा मोठा नवा घटक समोर येऊ लागला. सामाजिक एकात्मता यावी म्हणून केलेले प्रयोगच सामाजिक एकात्मता मोडित काढण्यास कारणीभूत ठरत आहे असे चित्र दिसू लागले. एकीकडे पारंपारिक बलुतेदारीच्या आर्थिक व्यवसायांना आलेल्या दुरावस्थेमुळे म्हणून जातीगत कामे मागे पडून जातीची ओळख पुसली जात असतानाच जातीगत आरक्षणापासून मिळणारे आर्थिक स्थैर्य हवे असल्यामुळे जातीगत अस्मितेला उजाळा दिला जात होता. असे हे दुहेरी कारणही राजकारणातील तुष्टीकारणाइतकेच महत्वाचे होते


ग्रामीण कृषि आधारित अर्थव्यवस्था व तिला पोषक असे स्थानिक व विकेंद्रित बलुतेदारीचे व्यवसाय या दोन्ही मधे खूप लोकांना पण थोडे थोडेच आर्थिक लाभ मिळत होते. त्यामानाने कारखानदारीत खूप कमी लोकांना तुलनेत मोठी आर्थिक संपन्नता मिळू शकत होती. सरकारची नीती अशा प्रकारच्या कारखानदारीला व त्यासोबत येणाऱ्या शहरीकरणाला पोषक अशी होती. त्यामुळे सरकारी सुविधांचा लाभ देखील अशा कारखानदारीला हातभार लावणाऱ्या नेकरवर्गालाच अधिक मिळू शकत होता व त्याचेही आकर्षण होते. स्वाभाविकच अशा सुविधांचा लाभ मिळण्यासाठी आरक्षण हे जर एक माध्यम असले तर ते कुणाला नको असणार? म्हणूनच आरक्षणातून शिक्षणसंधीचा फायदा किती झाला किंवा राजकारणात शिरकाव किती होऊ शकला यावर जरी मर्यादा असल्या तरी नोकरीमध्ये आरक्षण हा मोठा आर्कषणाचा बिंदू ठरला. हे आरक्षण मिळण्यासाठी संख्याबळही आवश्यक होते- तरच तुष्टीच्या राजकरणासाठी याचा उपयोग होता, आणि दुसरीकडे अशा आरक्षणामुळे संख्यात्मक बळाला गुणात्मक बळही लाभणार होते.नोकरीतील आरक्षण हे जरी सरकारी नोकऱ्यांपुरते मर्यादित असले तरी त्याच्या स्वप्नावर जगण्याचे दिवस येऊ लागले.


याच कारणामुळे सुरवातीच्या शेड्युल कास्ट व शेड्युल ट्राइबच्या साठी आणलेल्या एकूण साडेबावीस टक्के आरक्षणानंतर इतर कित्येक जाती जमाती त्यांच्या संख्याबळाचा वापर करून आरक्षणाची मागणी करू लागल्या. त्यांना आरक्षण देण्यांने मोठा राजकीय फायदा पण होता.  मग अनिर्बंध आरक्षण असावे का हा मुद्दा उपस्थित झाल्यावर सर्वोच्च न्यायालयाने त्याला चाप लावत एकूण आरक्षण ५० टक्केपेक्षा अधिक असू शकत नाही असा निर्णय दिला. तेंव्हा बहुतेक राज्यांनी इतर मागासवर्गीयांसाठी उर्वरित २८ टक्के आरक्षण देऊन टाकले. यामधे इतर मागासवर्गीय कोण हे ठरवतांना गावातील सर्व बलुतेदार जाती व भटक्या जातींचा समावेश झाला.  मात्र तामिळनाडू या एका राज्याने सर्वोच्च न्यायालयाला धुडकावून लावत कित्येक जातींना आरक्षण देत ही टक्केवारी  ६९ पर्यंत वाढवली. खुद्द महाराष्ट्रातही बोगस जाती -जमाती सर्टिफिकेटच्या आधाराने नोकरीत आलेल्यांना विशेष संरक्षण म्हणून २ टक्के जाद आरक्षण देण्यांत आले. पण आरक्षणातून शेतकरी वर्ग मात्र बाहेर राहिला कारण गावकीच्या काळात शेतकरी हेच गावातील सर्वात समृद्ध व बलशाली असत, जमीनमालकीही त्यांचीच असायची. समाजातील सर्व सन्मान त्यांना मिळत होते आणि राजकीय वर्चस्व देखील त्यांंचेच होते. स्वातंत्र्यापूर्वी गांवपातळीवर तर स्वातंत्र्यानंतर देशपातळीवरही सर्वाधिक राजकीय सत्ता याच समाजाकडे आली.

पण या राजकीय सत्तेत आलेल्यांनी काय केले ?  कारखानीदारी आणि शहरीकरणाला पोषक असे सरकारी धोरण आखले आणि त्यातून प्रगतिची संसाधने स्वतःकडे वळवली. यामुळे पारंपारिक शेती हा व्यवसाय आर्थिक दृष्ट्या मागे पडत गेला. हरित क्रांतिमुळे शेतकरी अधिक समृद्ध होईल असे वाटत असतानाच त्या शेतीला खात्रीलायक व भरपूर पाणी लागते हे आर्थिक विषमतेचे कारण बनले. मोठी धरणे, कालवे, पाणी, सुधारित बी-बियाणे, खते, कीटकनाशके यावर हरित शेती अवलंबून राहिली. ज्यांनी हे मिळवले ते शेतकरी सधन झाले पण भारतातील अधिकांश शेतकरी वर्ग यापासून वंचितच राहिला. त्यातच औद्योगिक कारणांसाठी जमीनी विकलेले शेतकरी इतर उद्य़ोग व्यवसाय करता येत नाही म्हणूनही मागे पडले. 

थोडक्यांत राजकीय सत्ता, सिंचन-सुविधा, कारखानदारी व समृद्धि  ही समाजातील राजकीय सत्तेकडे खेचली जाऊ लागली. जो शेतकरी समाज भूस्वामी व बलवान होता त्यामधे दोन वर्ग तयार झाले - बागाइत जमीनधारक, कारखानदार, सहकार-सम्राट, शिक्षण-सम्राट, सत्ताधीश असा एक वर्ग तर दुसरीकडे कोरडवाहू जमीनधारक शेतकरी जो आर्थिक आणि राजकीय सत्तेपासून लांब फेकला जाऊ लागला. आज या वर्गाला असे वाटते की त्याचे सर्व कष्ट निवारण्याचे रामबाण औषध म्हणजे आरक्षण. म्हणूनच मराठ्यांचे, पटेलांचे किंवा जाटांचे जे मोर्चे निघत आहेत त्यांची पहिली मागणी आरक्षणाची आहे.

या बाबतीत माजी न्यायाधीश व मराठा समाजातील एक समाजधुरीण श्री पी बी सामंत यांनी चांगले विवेचन केले आहे. मराठा समाजाला आरक्षणाचा काय फायदा मिळणार असा महत्वाचा प्रश्न त्यांनी उपस्थित केला. ग्रामपंचायतीपासून मुख्यमंत्रीपदापर्यंत सर्वप्रकारच्या सत्तास्थानांवरआरक्षण कोट्यापेक्षा मोठ्या प्रमाणात मराठा समाज आहे. शिक्षणात आणि सरकारी नोकरीतही  तीच परिस्थिती आहे. मग आरक्षणाचा उपयोग काय ? 


या प्रश्नाचे उत्तर एका वेगळ्या दिशेने शोधायला हवे. आज मराठा समाज अशिक्षित राहिलेला नाही --किमान दहावीपर्यंत शिक्षण झालेलेच असते. पण त्यातून ना धड नोकरीची पात्रता निर्माण होते ना शेतीत परत जावेसे वाटते, मग शेतीत काही वेगळे करणे तर सोडाच. या तरुण-तरुणींना शेती-आधारित उद्योग व शेती-आधारित सेवा-क्षेत्रांकडे वळवणे शक्य आहे, पण त्यासाठी त्यांना खास तऱ्हेचे व्यवसाय शिक्षण द्यावे लागेल. असे व्यवसाय त्यांना शेतीकडे पुन्हा आपुलकीने पहायला शिकवतील आणि कदाचित तिकडे वळवतीलही. यामुळे कृषि क्षेत्राचा उद्योग व सेवा या दोन्ही क्षेत्रांसोबत एकात्म विकास होऊ शकेल. पण या दृष्टिनेही अजून शासनाचा किंवा राजकीय पक्षांचा विचार झालेला नाही. एक मात्र झाले. नव्या शासनाने आर्थिक निकषांवर ज्या सवलती जाहीर केल्या आहेत त्याचा फायदा समाजातील सर्वच स्तरांना मिळेल तसा तो मराठा समाजातील आर्थिक मागासांनाही मिळेल.

खरे तर शेतकऱ्याला पोषक धोरणे न बनवता, त्याच्या पाणी-दुर्भिक्षाच्या समस्या न सोडवता उलट त्याच्या जमीनी सेझ इत्यादीकडे वळवण्याचे धोरण त्याच समाजातून सत्तेवर आलेल्यांनी आखले. आज ऊस कारखान्याचे चेअरमन मराठा, उस पिकवणारा शेतकरीही मराठा आणि उसाला योग्य दर मिळावा म्हणून आंदोलन करणाराही मराठा असे चित्र काय सांगते ? या आंदोलक समाजाची खरी वंचना त्याच समाजातून सत्तेवर गेलेल्यांनी केली. मराठा मोर्चातील मोर्चेकरी आमच्या मंचावर राजकारण्यांनी येऊ नये सांगतात ते ध्यानात घ्यायला हवे. याच निमित्ताने असेही सुचवावे वाटते की आता जाती-आधारित मागण्या व मोर्चे सोडून संपूर्ण समाजाला एकत्र पुढे जाता येईल, खऱ्या अर्थाने महारांजांचे ब्रीद –मराठा तितुका मेळवावा-- हे पुढे नेता येईल का हा विचारही केला जावा.

शेतकऱ्याची विपन्नता आपल्या देशाला सर्वच दृष्टीने मारक आहे. शेती हे या देशाचे बलस्थान आणि संस्कृतीवाचक जीवन-दर्शन आहे असे मला वाटते. त्या शेतकऱ्यासाठी -- खासकरून कोरडवाहू शेतकऱ्यासाठी पोषक धोरणे राबवली पाहिजेत, त्याऐवजी शेतकऱ्याने शेतीतून बाहेर पडावे हा सल्ला चुकीचा आहे असे मला वाटते. आज शेतकऱ्याला चांगले उत्पन्न काढता येणे व चांगला बाजारभाव मिळणे या दोन महत्वाच्या गरजा आहेत. त्यासाठी शेतीला चांगले कर्ज, तुषार व ठिबक सिंचनाच्या सोई, पीकविमा, पाण्याचे समन्यायी वाटप, ग्रामीण विकेंद्रित पणन व्यवस्था,  हमीभाव व त्याहीपेक्षा ग्राहकाशी थेट संपर्काचे साधन, त्यासाठी गांवपातळीवर ओएफसी (ऑप्टिकल फायबरची कनेक्टिव्हिटी) पोचवून इंटरनेट सुविधा, सेंद्रीय शेती, बीज-विविधता, इत्यादी सोई निर्माण करणे गरजेचे आहे. शेतीमुळे जीडीपी किती वाढला हे गणित न करता गाव समृद्धि व गावाची समावेशकता किती वाढली या गणितावर धोरणे ठरली पाहिजेत. शेती-शाळा निघाल्या पाहिजेत. बळीराजा सुखी झाला पाहिजे, पण नोकरदार होऊन नव्हे तर काळ्या आईच्या समृद्धितून.
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