Monday, July 13, 2020

यूपी में गैंगस्टर इतिहास

[13/7, 11:00] Shivendra: एक ऐसा दुर्दान्त अपराधी जिसके केस की सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट के 10 जजों ने खुद को सुनवाई से अलग कर लिया :-

साल था 1979...

 प्रयागराज तब इलाहाबाद हुआ करता था।

 इलाहाबाद में उन दिनों नये कॉलेज बन रहे थे। उद्योग लग रहे थे। खूब ठेके बँट रहे थे।

नये लड़कों में अमीर बनने का चस्का लगना शुरू हो गया था। वे अमीर बनने के लिये कुछ भी करने को उतारू थे। कुछ भी मतलब कुछ भी। हत्या और अपहरण भी।

 इलाहाबाद में एक मोहल्ला है चकिया।  इस मोहल्ले का एक लड़का हाई स्कूल में फेल हो गया। पिता उसके इलाहाबाद स्टेशन पर ताँगा चलाते थे, लेकिन अमीर बनने का चस्का तो उसे भी था।

 17 साल की उम्र में हत्या का आरोप लगा और इसके बाद उसका धंधा चल निकला। खूब रंगदारी वसूली जाने लगी।

नाम था अतीक अहमद... फिरोज ताँगेवाले का लड़का।

उन दिनों इलाहाबाद में चाँद बाबा का खौफ हुआ करता था। पुराने जानकार बताते हैं कि पुलिस भी उसके इलाके में जाने से डरती थी।

 अगर कोई खाकी वर्दी वाला चला गया तो पिट कर ही वापस आता। लोग कहते हैं कि उस समय तक चकिया के इस 20-22 साल के लड़के अतीक को ठीक-ठाक गुंडा माना जाने लगा था।

पुलिस और नेता दोनों शह दे रहे थे और दोनों चांद बाबा के खौफ को खत्म करना चाह रहे थे। इसके लिये खौफ के बरक्स खौफ को खड़ा करने की कवायद की गई और इसी कवायद का नतीजा था अतीक का उभार, जो आगे चलकर चांद बाबा से ज्यादा खतरनाक साबित हुआ।

साल था 1986....

 प्रदेश में वीर बहादुर सिंह की सरकार थी। केंद्र में थे राजीव गाँधी। अब तक चकिया के लड़कों का गैंग चांद बाबा से ज्यादा उस पुलिस के लिये ही खतरनाक हो चुका था, जिसे पुलिस ने ही शह दी थी।

अब पुलिस अतीक और उसके लड़कों को गली-गली खोज रही थी। एक दिन पुलिस अतीक को उठा ले गई । बिना किसी लिखा -पढ़ी के। थाने नहीं ले गई।  किसी को कोई सूचना नहीं।

 लोगों को लगा कि अब काम खत्म है। परिचितों ने खोजबीन शुरू की। इलाहाबाद के ही रहने वाले एक कांग्रेस के सांसद को सूचना दी गई।

 सांसद प्रधानमंत्री राजीव गाँधी का करीबी था। दिल्ली से फोन आया लखनऊ। लखनऊ से फोन गया इलाहाबाद और फिर पुलिस ने अतीक को छोड़ दिया।

लेकिन अब अतीक पुलिस के लिये नासूर बन चुका था। वह उसे ऐसे ही नहीं छोड़ना चाहती थी। अतीक को भी भनक लग गई थी।

 एक दिन भेष बदलकर अपने एक साथी के साथ कचहरी पहुँचा बुलेट से... और एक पुराने मामले में जमानत तुड़वाकर सरेंडर कर दिया।

 जेल जाते ही पुलिस उसपर टूट पड़ी। उसके खिलाफ एनएसए लगा दिया।

 बाहर लोगों में मैसेज गया कि अतीक बर्बाद हो गया। लोगों में सहानुभूति पैदा हो गई।

 अतीक जब जेल से बाहर आया तो नये कलेवर में देख उसके समर्थक भी ठगे रह गये।

वह अब नेता के चोले में था। बाद के चरणों में वह विभिन्न चुनावों को लड़ते हुए राज्य स्तर का नेता बन गया। अल्पसंख्यकों में उसकी विशेष पैठ बन गयी।

फिर आया 2003 .....

 मुलायम सिंह यादव की सरकार बनी। अतीक सपा का बड़ा चेहरा बन गया।

 2004 के लोकसभा चुनाव में फूलपुर से चुनाव लड़ा और संसद पहुँच गया ।

अब जो पुलिस उनको खत्म करना चाहती थी वोह उनकी सेवा -चाकरी में लग गई।

 इधर इलाहाबाद पश्चिमी की सीट खाली हुई। अतीक ने अपने भाई खालिद अजीम ऊर्फ अशरफ को मैदान में उतारा लेकिन जिता नहीं पाया।

 4 हजार वोटों से जीतकर विधायक बने बसपा के राजू पाल। वही राजू पाल जिसे कभी अतीक का दाहिना हाथ कहा जाता था।

 राजू पर भी उस समय 25 मुकदमे दर्ज थे। यह हार अतीक को बर्दाश्त नहीं हुई।

 अक्टूबर 2004 में राजू विधायक बना। अगले महीने नवंबर में ही राजू के ऑफिस के पास बमबाजी और फायरिंग हुई। लेकिन राजू बच गया। दिसंबर में भी उनकी गाड़ी पर फायरिंग की गई। राजू ने सांसद अतीक से जान का खतरा बताया।

25 जनवरी, 2005. राजू पाल के काफिले पर हमला किया गया। राजू पाल को कई गोलियाँ लगीं, जिसके बाद फायरिंग करने वाले फरार हो गये।

 पीछे की गाड़ी में बैठे समर्थकों ने राजू पाल को एक टेंपो में लादा और अस्पताल की ओर लेकर भागे। इस दौरान फायरिंग करने वालों को लगा कि राजू पाल अब भी जिंदा है।

 एक बार फिर से टेंपो को घेरकर फायरिंग शुरू कर दी गई। करीब पाँच किलोमीटर तक टेंपो का पीछा किया गया और गोलियाँ मारी गईं ।

अंत में जब राजू पाल जीवन ज्योति अस्पताल पहुँचे, उन्हें 19 गोलियाँ लग चुकी थीं। डॉक्टरों ने उनको मरा हुआ घोषित कर दिया।

आरोप लगा अतीक पर।
 राजू की पत्नी पूजा पाल ने अतीक, भाई अशरफ, फरहान और आबिद समेत लोगों पर नामजद मुकदमा दर्ज करवाया। फरहान के पिता अनीस पहलवान की हत्या का आरोप राजू पाल पर था।

 9 दिन पहले ही राजू की शादी हुई थी। बसपा समर्थकों ने पूरे शहर में तोड़फोड़ शुरू कर दिया। बहुत बवाल हुआ। राजू पाल की हत्या में नामजद होने के बावजूद अतीक सत्ताधारी सपा में बने रहे।

 2005 में उपचुनाव हुआ। बसपा ने पूजा पाल को उतारा। सपा ने दोबारा अशरफ को टिकट दिया। पूजा पाल के हाथों की मेंहदी भी नहीं उतरी थी, और वह विधवा हो गई थीं। लोग बताते हैं, पूजा मंच से अपने हाथ दिखाकर रोने लगती थीं।

 लेकिन पूजा को जनता का समर्थन नहीं मिला। जनता ने या यूं कहें सपा की सरकार ने अशरफ को चुनाव जितवा दिया।

साल 2007....

 इलाहाबाद पश्चिमी से एक बार फिर पूजा पाल और अशरफ आमने- सामने थे। इस बार पूजा ने अशरफ को पछाड़ दिया। अतीक का किला ध्वस्त हो चुका था।

 मायावती की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी।

 सपा ने अतीक को पार्टी से बाहर कर दिया। मायावती सरकार ने ऑपरेशन अतीक शुरू किया। अतीक को मोस्ट वांटेड घोषित करते हुए गैंग का चार्टर तैयार हुआ।

पुलिस रिकॉर्ड में गैंग का नाम है, आईएस ( इंटर स्टेट) 227.

 उस वक्त गैंग में 120 से ज्यादा मेंबर थे। 1986 से 2007 तक अतीक पर एक दर्जन से ज्यादा मामले केवल गैंगस्टर एक्ट के तहत दर्ज किये गये।

 2 महीने के भीतर अतीक पर इलाहाबाद में 9, कौशांबी और चित्रकूट में एक-एक मुकदमा दर्ज हुआ। अतीक पर 20 हजार का इनाम घोषित किया गया। उसकी करोड़ों की संपत्ति सीज कर दी गई। बिल्डिंगें गिरा दी गईं। खास प्रोजेक्ट अलीना सिटी को अवैध घोषित करते हुए ध्वस्त कर दिया गया।

 इस दौरान अतीक फरार रहा। एक सांसद, जो इनामी अपराधी था, उसे फरार घोषित कर पूरे देश में अलर्ट जारी कर दिया गया।

 मायावती से अपनी जान का खतरा बताया। दबाव सपा मुखिया मुलायम सिंह पर भी था। पार्टी से बाहर कर दिया।

 एक दिन दिल्ली पुलिस ने कहा, हमने अतीक को गिरफ्तार कर लिया है। दिल्ली के पीतमपुरा के एक अपार्टमेंट से। यूपी पुलिस आई और अतीक को ले गई। जेल में डाल दिया।

साल 2012....

 अतीक अहमद जेल में था। विधानसभा चुनाव लड़ने के लिये अपना दल से पर्चा भरा। इलाहाबाद हाईकोर्ट में बेल के लिये अप्लाई किया।

 लेकिन हाईकोर्ट के 10 जजों ने केस की सुनवाई से ही खुद को अलग कर लिया। 11वें जज सुनवाई के लिये राजी हुए और अतीक को बेल दे दी।

 अतीक के पास गढ़ बचाने का अंतिम मौका था। अतीक खुद पूजा पाल के सामने उतरे। लेकिन जीत नहीं पाये।

 राज्य में सपा की सरकार बनी और अतीक ने फिर से अपनी हनक बनाने की कोशिश की।

फिर आया 22 दिसंबर 2016.

अतीक 500 गाड़ियों के काफिले के साथ कानपुर पहुँचा। खुद ‘हमर’ पर सवार था।

 हमर, जिसकी कीमत उस समय 8 करोड़ बताई गई थी। जिधर से काफिला गुजरता जाम लग जाता।

 मीडिया में खूब हल्ला मचा। अखिलेश यादव सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन चुके थे। अतीक अब राज्य के सबसे खौफनाक अपराधियों में शामिल हो चुका था।

फरवरी 2017 में अतीक को गिरफ्तार कर लिया गया। हाईकोर्ट ने सारे मामलों में उसकी जमानत रद कर दी। इसके बाद से अब तक अतीक जेल में ही है।

लेकिन कहानी अभी बाकी है । तारीख 26 दिसंबर 2018 ....

 उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ।

 कुछ गुंडे यहाँ से एक बिजनेसमैन को किडनैप करते हैं। 300 किलोमीटर दूर देवरिया ले जाते हैं। वह भी ऐसी वैसी जगह नहीं, सीधे जेल में।

 देवरिया जेल में बिजनेसमैन की पिटाई की जाती है। प्रॉपर्टी के लिये सादे कागज पर साइन करवाया जाता है।

 पूरी घटना का वीडियो बनता है और सोशल मीडिया पर वायरल हो जाता है ।

बिजनेसमैन जिन्हें पीटा गया वे थे मोहित अग्रवाल।

 मोहित ने आरोप लगाया। कहा कि उनका अपहरण अतीक अहमद ने करवाया था। जेल में गुर्गों से पिटाई भी करवाई।

 वारदात के दौरान मोहित ने एक टीवी चैनल से बातचीत में कहा था,

"जेल के अंदर ले जाकर मुझे डंडों से मारा गया। 15-20 आदमियों ने पकड़कर मुझे बहुत मारा। 48 करोड़ रुपये की संपत्ति के लिये खाली पेपर पर साइन करवाये गये। मुझसे मेरी एसयूवी छीन ली गई। कहा गया कि तुम जेल के अंदर हो इसलिए तुम्हारी हत्या नहीं हो सकती। नहीं तो मार देते।"

ताजा जानकारी यह है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अतीक अहमद को गुजरात के अहमदाबाद जेल भेज दिया गया है। योगी सरकार उसे जेल में रखने के लिये गुजरात सरकार को  एक लाख रुपये महीना दे रही है।

अतीक अहमद के खिलाफ जितने केस दर्ज हैं, उनकी सुनवाई अतीक के इस जन्म में पूरा होने से रही।

 मामले चलते रहेंगे। अतीक की जिंदगी भी कभी इस जेल, तो कभी उस जेल में कटती रहेगी।

कोई सरकार मेहरबान हुई तो बाहर भी आ सकता है। किसी सरकार में मंत्री बन गया तो अपने ऊपर लगे मामले रद्द भी करवा सकता है।

विकास दुबे के एनकाउंटर पर खड़े होते सवालों के बीच यह दास्तान  इसलिये बताई की है ताकि आप जान सकें कि उत्तर प्रदेश में अपराधियों को सजा नहीं मिलती।

उन्हें इज्जत और शोहरत से नवाजा जाता है। अगर गलती से कोई मुकदमा कर भी दे तो हाईकोर्ट के 1 या 2 नहीं बल्कि पूरे 10 जज केस की सुनवाई से ही खुद को अलग कर लेते हैं ।

विकास दुबे के एनकाउंटर पर उसके गाँव और मोहल्ले में खुशी का माहौल है लेकिन उसको न जानने वाले सोशल मीडिया पर स्यापा मचाये हैं।

हकीकत को समझें।

 जानें कि एनकाउंटर किन परिस्थितियों में किया गया।
[13/7, 12:51] Shivendra: ्
पुलिस इनकाउंटर से जान बचा कर मुलायम सिंह यादव इटावा से साइकिल से खेत-खेत दिल्ली भागे ।

बहुत कम लोग जानते हैं कि जब विश्वनाथ प्रताप सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री थे तब मुलायम सिंह यादव को इनकाउंटर करने का निर्देश उत्तर प्रदेश पुलिस को दे दिया था।

इटावा पुलिस के मार्फत मुलायम सिंह यादव को यह खबर लीक हो गई। मुलायम सिंह यादव ने इटावा छोड़ने में एक सेकेण्ड नहीं लगाया।

 एक साइकिल उठाई और चल दिये। मुलायम सिंह यादव उस समय विधायक थे। 1977 में राम नरेश यादव और फिर बनारसीदास की सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुके थे। सहकारिता मंत्री रहे थे , दोनों बार।

लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह उन दिनों बतौर मुख्य मंत्री , उत्तर प्रदेश दस्यु उन्मूलन अभियान में लगे थे।

विश्वनाथ प्रताप सिंह के पास पुष्ट सूचना थी कि मुलायम सिंह यादव के दस्यु गिरोहों से न सिर्फ सक्रिय संबंध थे। बल्कि डकैती और हत्या में भी वह संलग्न थे।

फूलन देवी सहित तमाम डकैतों को मुलायम सिंह न सिर्फ संरक्षण देते थे बल्कि उन से हिस्सा भी लेते थे। ऐसा विश्वनाथ प्रताप सिंह का मानना था।

तब तो नहीं लेकिन कुछ समय बाद दिल्ली के इंडियन एक्सप्रेस में पहले पेज पर तीन कालम की एक खबर छपी थी जिस में मुलायम सिंह की हिस्ट्री शीट नंबर सहित , उन के खिलाफ हत्या और डकैती के कोई 32 मामलों की डिटेल भी दी गई थी।

इंडियन एक्सप्रेस में खबर लखनऊ डेटलाइन से छपी थी , एस के त्रिपाठी की बाई लाइन के साथ। एस के त्रिपाठी भी इटावा के मूल निवासी थे। लखनऊ में रहते थे। इंडियन एक्सप्रेस में स्पेशल करस्पांडेंट थे। बेहद ईमानदार और बेहद शार्प रिपोर्टर। कभी किसी के दबाव में झुकते नहीं थे। न किसी से कभी डरते थे। अपने काम से काम रखने वाले निडर पत्रकार। कम बोलते थे लेकिन सार्थक बोलते थे।

फॉलो अप स्टोरी में उन का कोई जवाब नहीं था। बहुतेरी खबरें ब्रेक करने के लिए हम उन्हें याद करते हैं। कई बार वह लखनऊ से खबर लिखते थे पर दिल्ली में मंत्रियों का इस्तीफ़ा हो जाता था।

चारा घोटाला तो बहुत बाद में बिहार में लालू प्रसाद यादव ने किया और अब जेल भुगत रहे हैं। पर इस के पहले केंद्र में चारा मशीन घोटाला हुआ था। लखनऊ से उस खबर का एक फॉलो अप एस के त्रिपाठी ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा तो तत्कालीन कृषि मंत्री बलराम जाखड़ को इस्तीफ़ा देना पड़ा था।

तो मुलायम सिंह यादव की हिस्ट्रीशीट और हत्या , डकैती के 32 मामलों की खबर जब इंडियन एक्सप्रेस में एस के त्रिपाठी ने लिखी तो हंगामा हो गया।

चौधरी चरण सिंह तब मुलायम सिंह यादव से बहुत नाराज हुए थे। और मुलायम का सांसद का टिकट काट दिया था। इन दिनों जद यू नेता के सी त्यागी भी तब लोकदल में थे।

 त्यागी ने इस खबर को ले कर बहुत हंगामा मचाया था। इन दिनों कांग्रेस में निर्वासन काट रहे हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह भी तब लोकदल में थे और मुलायम के आपराधिक इतिहास को ले कर बहुत हल्ला मचाते रहे थे।

यह 1984 की बात है।

 उन दिनों मुलायम उत्तर प्रदेश लोकदल में महामंत्री भी थे। उन के साथ सत्यप्रकाश मालवीय भी महामंत्री थे। मुलायम चौधरी चरण सिंह का इतना आदर करते थे कि उन के सामने कुर्सी पर नहीं बैठते थे।

चौधरी चरण सिंह के साथ चाहे वह तुग़लक रोड पर उन का घर हो या फ़िरोज़शाह रोड पर लोकदल का कार्यालय , मैं ने जब भी मुलायम को देखा उन के साथ वह , उन के पैरों के पास नीचे ही बैठते थे।

जाने यह सिर्फ श्रद्धा ही थी कि चौधरी चरण सिंह द्वारा जान बचाने की कृतज्ञता भी थी।

बहरहाल मुलायम सिंह यादव को इनकाउंटर में मारने का निर्देश विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 1981-1982 में दिया था। मुलायम सिंह यादव ने ज्यों इटावा पुलिस में अपने सूत्र से यह सूचना पाई कि उन के इनकाउंटर की तैयारी है तो उन्हों ने इटावा छोड़ने में एक सेकेण्ड की भी देरी नहीं की।

 भागने के लिये कार , जीप , मोटर साइकिल का सहारा नहीं लिया। एक साइकिल उठाई और गाँव-गाँव , खेत-खेत होते हुए , किसी न किसी गांव में रात बिताते हुए , चुपचाप दिल्ली पहुंचे , चौधरी चरण सिंह के घर।

चौधरी चरण सिंह के पैर पकड़ कर लेट गये। कहा कि मुझे बचा लीजिये। मेरी जान बचा लीजिये। वी पी सिंह ने मेरा इनकाउंटर करवाने के लिये आदेश दे दिया है।

इधर उत्तर प्रदेश पुलिस मुलायम सिंह को रेलवे स्टेशन , बस स्टेशन और सड़कों पर तलाशी लेती खोज रही थी।


खेत और मेड़ के रास्ते , गाँव-गाँव होते हुए मुलायम इटावा से भाग सकते हैं , किसी ने सोचा ही नहीं था। लेकिन मुलायम ने सोचा था अपने लिये।

इस से सेफ पैसेज हो ही नहीं सकता था। अब जब मुलायम सिंह यादव , चौधरी चरण सिंह की शरण में थे तो चौधरी चरण सिंह ने पहला काम यह किया कि मुलायम सिंह यादव को अपनी पार्टी के उत्तर प्रदेश विधान मंडल दल का नेता घोषित कर दिया।

विधान मंडल दल का नेता घोषित होते ही मुलायम सिंह यादव को जो उत्तर प्रदेश पुलिस इनकाउंटर के लिए खोज रही थी , वही पुलिस उन की सुरक्षा में लग गई।

 तो भी मुलायम सिंह यादव  उत्तर प्रदेश में अपने को सुरक्षित नहीं पाते थे। मारे डर के दिल्ली में चौधरी चरण सिंह के घर में ही रहते रहे। जब कभी उत्तर प्रदेश विधान सभा का सत्र होता तब ही वह अपने सुरक्षा कर्मियों के साथ महज हाजिरी देने और विश्वनाथ प्रताप सिंह को लगभग चिढ़ाने के लिए विधान सभा में उपस्थित होते थे।

 लखनऊ से इटावा नहीं , दिल्ली ही वापस जाते थे। संयोग था कि 28 जून , 1982 को फूलन देवी ने बेहमई गांव में एक साथ 22 क्षत्रिय लोगों की हत्या कर दी।

 दस्यु उन्मूलन अभियान में ज़ोर-शोर से लगे विश्वनाथ प्रताप सिंह को इस्तीफ़ा देना पड़ा।

 विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार गई तो मुलायम सिंह यादव की जान में जान आई।

 चैन की साँस ली मुलायम ने। लेकिन मुलायम और विश्वनाथ प्रताप सिंह की आपसी दुश्मनी खत्म नहीं हुई कभी। मुलायम ने बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह के डइया ट्रस्ट का मामला बड़े ज़ोर-शोर से उठाया।

तब के वित्त मंत्री रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह बैकफुट पर आ गए थे। जनता दल के समय विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधान मंत्री थे और मुलायम उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री। तलवारें दोनों की फिर भी खिंची रहीं।

 मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का विश्वनाथ प्रताप सिंह का लालकिले से ऐलान भी मुलायम को नहीं पिघला पाया , विश्वनाथ प्रताप सिंह खातिर।

वैसे भी मंडल के पहले ही उत्तर प्रदेश में बतौर मुख्य मंत्री रामनरेश यादव ने यादवों को आरक्षण पहले ही दे दिया था 1977-1978 में। तो यादवों का मंडल आयोग से कुछ लेना-देना नहीं था।

 पर यादव समाज तो जैसे इतने बड़े उपकार के लिये रामनरेश यादव को जानता ही नहीं। खैर , लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा रोकने का श्रेय मुलायम न ले लें , इस लिये लालू प्रसाद यादव को उकसा कर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बिहार में ही आडवाणी को गिरफ्तार करवा कर रथ यात्रा रुकवा दी थी।

ऐसे तमाम प्रसंग हैं जो विश्वनाथ प्रताप सिंह और मुलायम की अनबन को घना करते हैं। जैसे कि फूलन देवी को मुलायम ने न सिर्फ सांसद बनवा कर अपना संबंध निभाया बल्कि विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपमानित करने और उन से बदला लेने का काम भी किया।

लेकिन जैसे बेहमई काण्ड के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह को मुख्य मंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था , वैसे ही विश्वनाथ प्रताप सिंह किडनी की बीमारी के चलते मृत्यु को प्राप्त हो गये।

मुलायम के जीवन का बड़ा काँटा निकल गया। जिस कांटे ने उन्हें साइकिल से खेत-खेत की पगडंडी से दिल्ली पहुंचाया था , संयोग देखिए कि मुलायम की समाजवादी पार्टी का चुनाव निशान बन गया।

शायद यह वही भावनात्मक संबंध था कि बेटे अखिलेश से तमाम मतभेद और झगड़े के बावजूद चुनाव आयोग में अखिलेश के खिलाफ शपथ पत्र नहीं दिया क्यों कि शपथ पत्र देते ही साइकिल चुनाव चिह्न , चुनाव आयोग ज़ब्त कर लेता।

मुलायम समझदार , शातिर और भावुक राजनीति एक साथ कर लेने में माहिर हैं। उतना ही जितना एक साथ लोहिया , चौधरी चरण सिंह और अपराधियों को गाँठना जानते हैं।

  वामपंथियों ने लोहिया को कभी पसंद नहीं किया। लोहिया को फासिस्ट कहते नहीं अघाते वामपंथी। लेकिन लोहिया की माला जपने वाले मुलायम सिंह यादव ने वामपंथियों का भी जम कर इस्तेमाल किया।

उत्तर प्रदेश में तो एक समय वामपंथी जैसे आज कांग्रेस के पेरोल पर हैं , तब के दिनों मुलायम के पेरोल पर थे। भाकपा महासचिव हरिकिशन सिंह सुरजीत तो जैसे मुलायम सिंह यादव के पालतू कुत्ता बन गये थे।

 जो मुलायम कहें , हरिकिशन सिंह सुरजीत वही दुहरायें। मुलायम को प्रधान मंत्री बनाने के लिए हरिकिशन सिंह सुरजीत ने क्या-क्या जतन नहीं किये थे।

पर विश्वनाथ प्रताप सिंह , उन दिनों अस्पताल में होने के बावजूद मुलायम के खिलाफ रणनीति बनाई , और देवगौड़ा की ताजपोशी करवा दी।

 मुलायम हाथ मल कर रह गये। एक बार फिर मौका मिला , मुलायम को लेकिन फिर लालू ने घेर लिया।

ज्योति बसु की बात चली थी। लेकिन पोलित ब्यूरो ने लंगड़ी लगा दी। मुलायम की बात हरिकिशन सिंह ने फिर शुरू की।

पर लालू के मुलायम विरोध के चलते इंद्र कुमार गुजराल प्रधान मंत्री बन गये।


 पर बाद में अपनी बेटी मीसा की शादी , अखिलेश यादव से करने के फेर में लालू , पत्नी और तब की बिहार मुख्य मंत्री राबड़ी देवी के साथ लखनऊ आए। ताज होटल में ठहरे।

 अमर सिंह बीच में पड़े थे । सब कुछ लगभग फाइनल हो गया था सो एक प्रेस कांफ्रेंस में लालू ने मुलायम का हाथ , अपने हाथ में उठा कर ऐलान किया कि अब मुलायम को प्रधान मंत्री बना कर ही दम लेना है।

 लालू उन दिनों चारा घोटाला फेस कर रहे थे। और बता रहे थे कि देवगौड़वा ने हम को फंसा दिया।

खैर , विवाह भी  मीसा और अखिलेश का फँस गया। अखिलेश ने बता दिया कि वह किसी और को पसंद करते हैं। यह 1998 की बात है।

 एक साल बाद 1999 में डिंपल से अखिलेश की शादी हुई।

और इसी अखिलेश को 2012 में मुलायम ने मुख्य मंत्री बना कर पुत्र मोह में अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मार ली।

 अखिलेश ने पिता की पीठ में न सिर्फ छुरा घोंपा बल्कि कभी कांग्रेस , कभी बसपा से हाथ मिला कर पिता की साइकिल को पंचर कर उसे अप्रासंगिक बना दिया।

 पिता की सारी राजनीतिक कमाई और अपनी राजनीति को चाचा रामगोपाल यादव के शकुनि चाल में गंवा दिया।

 एक चाचा शिवपाल को ठिकाने लगाते-लगाते समाजवादी पार्टी को ही ठिकाने लगा दिया।

अब मुलायम साइकिल चला नहीं सकते , पराजित पिता की तरह अकेले में आँसू बहाते हैं। मुलायम ने भोजपुरी लोकगायक बालेश्वर को एक समय यश भारती से सम्मानित किया था।

 वही बालेश्वर एक गाना गाते थे , "जे केहू से नाहीं हारल , ते हारि गइल अपने से !"

मुलायम हार भले गये हैं , बेटे से पर साइकिल नहीं हारी है। हाँ , अखिलेश ने ज़रूर अपने लिये एक स्लोगन दर्ज कर लिया है कि जो अपने बाप का नहीं हो सकता , वह किसी का नहीं हो सकता ।

 ऐसा औरंगज़ेब बेटा , भगवान किसी को न दे।

 क्या संयोग है कि शाहजहाँ को कैद कर , बड़े भाई दाराशिकोह की हत्या कर , औरंगज़ेब ने गद्दी हथिया ली थी और शाहजहां ने औरंगज़ेब से सिर्फ इतनी फ़रमाइश की थी कि ऐसी जगह मुझे रखो कि जहाँ से ताजमहल देख सकूँ।

 औरंगज़ेब ने ऐसा कर भी दिया था। मुलायम भी चाहते तो अखिलेश की अकल ठिकाने लाने के लिये चुनाव आयोग में एक शपथ पत्र दे दिए होते। पर दे देते शपथ पत्र तो साइकिल चुनाव चिह्न ज़ब्त हो जाता। न वह साइकिल फिर अखिलेश को मिलती , न मुलायम को।

अपनी पार्टी , अपनी साइकिल बचाने के लिये शपथ पत्र नहीं दिया मुलायम ने । शाहजहाँ की तरह अब चुपचाप अपनी साइकिल देखने के लिये अभिशप्त हैं।

 वह साइकिल जिस पर बैठ कर वह कभी दिल्ली भागे थे , विश्वनाथ प्रताप सिंह की पुलिस के इनकाउंटर से बचने के लिये। विश्वनाथ प्रताप सिंह के इनकाउंटर से तो तब बच गये थे , मुलायम सिंह यादव लेकिन बेटे अखिलेश यादव के राजनीतिक इनकाउंटर में तमाम हो गये।

अपनी पहलवानी का सारा धोबी पाट भूल गये। राजनीति का सारा छल-छंद भूल गये।

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