Wednesday, December 12, 2012

जानिए, अन्ना हजारे कौन है


जानिए, अन्ना हजारे कौन है

लीना मेहेन्दले 
फेसबुक पर और 

बना रहे बनारस   पर भी


पिछले दिनों में अण्णा हजारे के बाबत काफी कीचड उछालने का प्रयास हुआ तो मुझे लगा कि एक मराठी माणूस ( मराठी व्यक्ति) होनेके नाते मुझे जो थोडी अधिक जानकारी है, उसे अन्य प्रांतवासियों तक पहुँचाऊँ। पर यह कहानी कुछ पीछे से शुरु करनी पडेगी --  1947 से  । लेकिन पहले यह कहना होगा कि अपना पक्ष रखनें में अण्णा समर्थ हैं, सो यह कोई मैं उनकी ओरसे नही लिख रही। न ही मैं उनके जनलोकपाल बिल वाली संस्थासे संबंधित हूँ -- बल्कि कुछ मुद्दों पर मेरा मत अलग भी है।

आजादी के बाद शायद महाराष्ट्रमें ही ऐसी अधिकतम घटनाएँ हुईं जिसने विस्तृत परिणाममें उथलपुथल मचाई। उनका परिणाम 1978 के लोकसभा चुनावों पर भी था जिसमें कॉंग्रेस पक्ष हारा । यशवंतराव चव्हाण और उनके राजकीय वारिस शरद पवारने पक्ष छोडा। अगले वर्ष महाराष्ट्र विधानसभा चुनावमें और उसके बादसे विधानसभा  चार  प्रमुख पक्षोंमें बँट गई -- कॉंग्रेस, NCP, भाजपा, शिवसेना । केवल एक बार NCP,ने भाजपासे हाथ मिलाकर सरकार बनाई अन्यथा हमेशा NCP के साथ कॉंग्रेसी सरकार ही रही। शरद पवार का कद बढते बढते वे सबसे बडे साहब बन गये।

इस बीच बहुत छोटे पैमाने पर एक छोटेसे गाँवमें अण्णा हजारेने ग्रामोत्थान का काम आरंभ किया -- ग्राम सफाई, फिर जलसंधारण (अर्थात पानी बचाना), पानीका न्यायसंगत बँटवारा, वृक्षारोपण। अब लोग सम्मान करने लगे।जब अण्णाने देखा कि गाँव की मेहनत की कमाई तो शराब में जा पही है, तो कार्यक्रमकी दिशा बदली।

हालमें कुछ पाँच-सितारा पत्रकारों ने लिखा है कि उस जमानेमें अण्णाने गुंडागिरी की, कानून हाथमें लिया और गाँववालोंको पीटा। वास्तव यह है कि जब उन्होंने महिलाओंसे पूछा तो सबने दुहाई दी कि हमारे बच्चे रोज भूखे सो जाते हैं। विदेशी शराबपर घंटेभरमें 5-6 हजार रुपये उडा पानेवाले पत्रकार को कहाँ यह समझ होगी कि 25 रु रोज कमानेवाला जब उतने पैसेकी शराब खरीदता है तो उसके घरमें क्या होता है। सो महिलाओंकी क्षमता को अण्णा ने एक नया आयाम दिया। महिलाओंने अपने पतियोंकी शराब छुडवाई। पर जब कोई अत्यधिक दुराग्रही पति बहकने लगा तो अण्णा घरवाली स्त्रियोंसे पूछते कि इसकी सजा क्या हो। कईयोंकी माँ और पत्नीने सजा सुनाई की इनकी पिटाई हो। पर धीरे धीरे गाँव सुधर रहा था, संपन्न हो रहा था और अण्णाका विरोध   बंद हो गया। राळेगणसिद्धी अब एक आदर्श ग्राम बन गया कुछ इनाम जीते और अमुल संस्थाने भी इस प्रयास का महत्व समझकर अपने ट्रेनी भेजे। ग्राम-विकास विभागके अधिकारी, सरकारी ट्रेनिंग इन्स्टिट्यूट के अधिकारी यह प्रयोग देखने आते कि इस प्रयोग को कैसे रेप्लिकेट किया जाय। कुछ वर्षों बाद इसी गाँवके पगचिह्नोंपर चलकर हिवरे-बाजार नामक दूसरे गाँवने यही प्रयोग सफलतापूर्वक किया। वो पत्रकार जान लें कि गुंडागिरीसे फॉलोअर नही पैदा होते।

लेकिन जब ये ग्रामसुधारके काम हो रहे थे तो अण्णा व गाँववालोंने करप्शन को भी झेला है। चाहे वह सिंचाई-निभागके डिप्टी इंजिनियरका हो या शराबके ठेकेको रिन्यू करनेवाले अधिकारी हों। कभी कभी उनके विरुद्ध सरकार का ध्यान खींचने के लिये छोटामोटा उपोषण भी किया। अब अण्णाको लगने लगा कि करप्शन की बिमारी जो बडे पैमानेपर फैली है उसे समाजसे निकलना होगा और यह संभव भी है।

1980 -1990 के कालखंड में महाराष्ट्र की सहकारिता-आधारित चीनी मिलें और कॅपिटेशन-फीस-आधरित शिक्षा-व्यवस्था दोनों ही भ्रष्टाचार के केंद्र बन रहे थे। साथही घरेलू ट्रस्ट बनाकर सरकारी जमीनें आबंटित करवानेकी शगल नें भी जोर पकडा था।भूखंडका श्रीखंड -- ये एक मुहावरा बन गया। मंत्रीगणों की जमीन बटोरनेकी प्यास बढती गई। जब अण्णाने अपने गाँवके स्तरसे उठकर राज्यस्तर पर भ्रष्टाचार का विरोध करना चाहा तो सबसे पहला टकराव शरद पवारके साथ होना था। वह इतना तेज हुआ कि इतिहास में पहली बार 1994 के विधान-सभा चुनाव में भ्रष्टाचारके मुद्देपर कॉंग्रेस व पवार-कॉंग्रेस हारे और शिवसेना-भाजपाकी सरकार आई। आगे चलकर यही बात लेकर अण्णा को मरवाने के लिये 1 लाख रुपये की सुपारी दी गई --  एक ऐसे क्रिमिनलको जिसने दुसरी सुपारी  के टार्गेटको तो मार डाला। पिछले वर्ष वह पकडा गया तो उसने बताया कि अण्णाकी सुपारी का पैसा उसने इसलिये ठुकरा दिया था कि उस जैसे क्रिमिनलको भी लगा कि इस संत आदमीको मैं क्यों मारूँ । सुपारी देनेवालेका नाम उसने बताया –पदमसिंह पाटील, अर्थात् शरद पवार के बहनोई जो सुपारी देनेके समय मंत्री थे और अब इस आरोपके कारण जेलमें हैं। लेकिन ये अब की बात है।

1995 में शिवसेना-भाजपा सरकारने अण्णासे प्रेरणा लेकर सरकारने 125 गाँवोंको रालेगण-सिद्धी के तर्ज पर आदर्श गाँव बनाने का टार्गेट तय किया । उधर अण्णाकी प्रेरणा लेकर कई जिलों में भ्रष्टाचार विरोधी समितियाँ बनीं और एक प्रकारकी सरलता  की रौ में अण्णाने भी उनका मौन या प्रकट समर्थन किया। 

सरकारी आदर्श-ग्राम योजना फेल हुई क्योंकि असल मुद्दा ये था कि गाँववाले अपना सुधार किस दिशामें चाहते हैं और क्या उसमें अंत्योदयकी संकल्पना शामिल है। सरकारी स्कीममें अधिकारियोंपर ये जिम्मा था कि गाँवके विकास की दिशा व राह वे ढूँढेंगे,  वह भी सेवाभावी संस्थाओंसे प्रोजेक्ट प्रपोजल बनवाकर। ऐसेमें कई रंगीन, आकर्षक, परन्तु काल्पनिक प्रोजेक्ट प्रपोजल बने, बजेट खर्च  होता रहा और स्कीम फ्लॉप हुई। उधर भ्रष्टाचार-विरोधी जिला -समितियाँ भी कई बार बदनाम लोगोंके हाथ चढ गईं और अन्ततः सारी बंद भी हो गईं। परन्तु इनके आधार पर यह कहना कि अण्णाने भ्रष्टाचार किया है -- गलत होगा। यह मुद्दा इसलिये महत्वपूर्ण है कि इस कारण अण्णाको बदनामी व दिक्कतें उठानी पडी हैं।

शिवसेना-भाजपा सरकारके मंत्रियोंने भी जल्दी ही भ्रष्टाचार के गुर जान लिये और हालत इतनी बिगडी कि चार भ्रष्ट मंत्रियोंके विरुद्ध अण्णाने मुहिम छेडी। एक शिवणकर चुपचाप रिजाईन होकर चले गये, दूसरे सुतारको मंत्रीपदसे हटाकर सुनवाई कराई गई और उन्हे निर्दोष करार दिया क्योंकि हर बडी संपत्ति पर उनका जबाब था कि वह तो मैंने कार्पोरेटर था तब कमाई थी और आपकी अधिकार कक्षा में आपको केवल मंत्रीकालीन संपत्ती को खोजना है।

तीसरे मंत्री बबन घोलप अधिक तेज-तर्रार थे उन्होंने मानहानी का दावा ठोंक दिया । अण्णाने सरकारसे गुहार लगाई कि यह जाँच तो तुम्हे करनी है। पर सरकार मुकर गई – इसीसे बात समझमें आती है कि क्यों जाँच एजन्सी को सरकारी दायरेसे बाहर रखना जरूरी है। खैर, अदालतने अण्णापर जुर्माना ठोंका और जब अण्णाने कहा कि मेरे पास पैसे तो हैं नही, तो उन्हे जेल भेजा गया। इस प्रकार मुँह बाई जनता और हमारे जैसे वरिष्ठ अधिकारियोंने देखा कि कैसे सज्जनोंको जेल और आरोप रखनेवालोंको मंत्रीपद मिलता है।
चौथे मंत्री उससे भी अधिक तेज थे, पार्टी बदल-बदल कर सत्तामें रहना ही उनका धर्म था। कई वर्ष पूर्व अंतुले के इलेक्शन एजेंट रहते हुए एक अभूतपूर्व चाल से उन्हें जिताया था। पहले शरद पवारके मंत्री थे और अब शिवसेनाके। अपने ही जिलेके एस.पी और कलेक्टरको गोलीसे उडा देनेकी भाषा कर चुके थे। उन्होंने दे दनादन अण्णा पर भ्रष्टाचारके आरोप गढने शुरू किये। एफ.आय.आर. किये। इधर अण्णाको जेल में रखनेके कारण लोकक्षोभ बढ रहा था तो मनोहर जोशीने कोई खास सरकारी प्रिविलेज इस्तेमाल करते हुए उन्हें रिहा करवा दिया।

इस बीच फिरसे सरकार बदली फिरसे शरद पवारकी सत्ता आई और फिरसे टकराव आरंभ हुआ जिसमें फिर एक बार अण्णा द्वारा उठाये मुद्दोंपर और नबाब मलिक को मंत्रीपदसे हटना पडा। पदमसिंह पाटीलने ही सुपारी कांड किया जो आगे चलकर उजागर हुआ। लेकिन एक-दो को हटानेसे क्या होता है। करप्शनका राक्षस तो रक्तबीजकी हमारे समाजपर छा गया है। एक पकडा जाता है तबतक दसियों मंत्री भ्रष्टाचारकी चालसे सौ कदम आगे बढ चुके होते हैं। नतीजा है कि आज महाराष्ट्रके कई ऐसा राजनेता  हैं जो हजारों एकड जमीनके मालिक हो चुके हैं और उनकी भूख अभी मिटी नही है। इस खेलमें भी मिलबाँटकर खानेका चलन है जिससे विरोधी पक्ष भी अपनी अपनी कीमत वसूल कर चुप्पी लगा जाते हैं।

यही वजह है कि एप्रिल माहके आंदोलन के दौरान अण्णाने आपत्ति जताई थी कि उनसे बातचीत करने वाली सरकारी टीममें शरद पवार न हों। यही वजह है कि वे चाहते हैं कि जल्दीसे जल्दी एक सशक्त लोकपालबिल बने और वह सरकारके हाथकी कठपुतली न हो जिस तरह सीबीआय होती है। कर्नाटक के सशक्त लोकायुक्तने हमें दिखा दिया है कि सरकारसे अलग लोकायुक्त थे इसीलिये येडियुरप्पा और उनके भ्रष्टाचारी मंत्रियोंको हटाया जा सका। आज केंद्र सरकार डरती है कि यही लगाम उनपर भी लगे तो इलेक्शन जीतनेके लिये पैसा कहाँ से आयेगा – शायद पूरी घरानेशाही को ही राजकीय मंच छोडना पडे। भ्रष्ट जनप्रतिनिधियों को शायद इसी बातका डर है।

समय आ गया है जब संसद से ऊपर लोगों की प्रभुसत्ता को समझा जाय और उसे समय-समय पर किस प्रकार अभिव्यक्ति का मौका मिले इसकी भी चर्चा हो। हम अब देख चुके हैं कि इस प्रश्नका ऊत्तर संसद की स्थाई समिती भी नही है। इसीलिये जैसे आज हमें करप्शन के लिये संसद व सरकार से  संस्था की आवश्यकता हुई है, उसी प्रकार अण्णा के मौजूदा आंदोलन जैसे मौके को एक प्लॅटफॉर्म देने के लिये भी कोई नई व्यवस्था सोचनी पडेगी। भले ही संसद से बाहर हो,पर फिर भी उसपर अप्रजातांत्रिक होनेका आक्षेप न आ सके, ऐसा उस व्यवस्थाको होना पडेगा -- ऐसी व्यवस्था हमें ढूँढनी पडेगी।

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