Sunday, November 04, 2012

कहो - ऑल इज नॉट वेल देशबन्धु 03, Nov

कहो-ऑल इज नॉट वेल
देशबन्धु 03, Nov, 2012, Saturday




लीना मेहेंदले
ख बर आई की ''ऑल इज क्लीन-ऑल इज वेल!'' लोगों ने जय-जयकार करी। फूल मालाएं पहनाईं।  तिरंगे को लहराते हुए इधर से उधर घुमाया। मन ही मन में 'लव्ह यू मंगो मेन' (आम आदमियों) कहा और फिर शांत भाव से वो जिमनाजियम में बॉडी-बनाने के लिये चले गए।

टीवी के इस एक दृश्य ने मेरे सामने हजारों सवाल खड़े कर दिये जिसमें सबसे पहला सवाल आता है 'स्टील फ्रेम' नाम से नवाजे गये आईएएस अफसरों पर। ईमानदार अफसरों को एक-एक कर कोने में खड़ा करना और खतम करना-हतप्रभ करना एक फैशन-सा हो गया है।

जब आईएएस अधिकारी पहले दिन डयूटी पर हाजिर होता है- मसूरी में तो उसके प्रशिक्षण का पहला पाठ होता है। तुम्हारी डयूटी देश के प्रति है और संविधान प्रति है। 'यू आर ऑन ट्वेंटी फोर अवर डयूटी फोर दी सेक ऑफ सर्विस टू नेशन एण्ड टू अपहोल्ड दी कान्स्टिटयूशन', लेकिन जैसे ही वह क्षण समाप्त होता है और नौकरी के आटे-दाल का भाव मालूम पड़ने लगता है, वहीं अफसर नये पाठ सीखने में व्यस्त हो जाते हैं। कोई सीख लेना है कि प्रचुर धन कैसे कमाया जाना है- मसलन नीरा यादव या टीनू जोशी। कोई सीख लेना है कि कैसे अपने रौब का उपयोग करके सारी जनता की खातिर बनी सुविधाएं अपनी तरफ मोड़ ली जाती है- मसलन वह सस्पेंडेड आईजी जिसने तीस-तीस कॉन्स्टेबलों को अपने घर में लगा रखवा था। कोई सीख लेते हैं कि कैसे नेताओं के आगे-पीछे घूमकर ग्लैमर में रहा जाता है। कोई सीख लेते हैं कि कैसे हर बात पर 'ऑल इज वेल' गाया जाना है और कोई ऐसे होते जो पहले दिन वाले पाठ से आगे नहीं बढ़ते और अपने आपको झोंक देते हैं। 'टू सर्व द नेशन एण्ड टू अपहोल्ड द कॉन्स्टीटयूशन।'

एक जमाना था जब स्टील फ्रेम के बुजुर्ग कहते थे कि इन अंतिम श्रेणी के अफसरों के कारण ही स्टील फ्रेम की मजबूती टिकी हुई है। लेकिन धीरे-धीरे नया राग, नई धुन गाई जाने लगी कि भाई मेरे, लचीलापन भी तो हो, इतनी मजबूती वाकई चाहिये क्या अपनी स्टील फ्रेम को?

बस, जैसे ही यह प्रश्न उपजा कि ध्यान लगाये बैठे लोगों ने कहा यही मौका है। अब यदि उन कड़क अफसरों की अकेला कर दिया जाय तो पूरी फ्रेम लचीलेपन के मोह में उन्हें अनदेखा कर देगी। फिर हम अपनी मनमानी  कर सकेंगे। सो वह कयावद आरंभ हो गई और खूब निभाई जा रही है। इससे 'ऑल इज वेल' कहना सरल हो गया।
लेकिन बुरा हो संविधान का और उसे महनीयता से रचने वाले शुरुआती दौर के नेताओं का उन्होंने कहा कि  स्टील फ्रेम तो अगाड़ी में लड़ने वाली सेना की कमान जैसी है, लेकिन इनके पीछे सपोर्ट देने वाली तीन व्यवस्थाएं और होंगी- पिछाडी क़ी कमान की तरह।

इसमें पहली है कानून की व्यवस्था अर्थात् देश का काम कानून से चलेगा। कानून चलाने का जिम्मा तो स्टील फ्रेम का होगा, लेकिन उनके पीछे सपोर्ट रहेगा न्याय संस्था का। सो पहले देखते हैं कि यह जो हाल में ही 'ऑल इज वेल, ऑल इज क्लीन' की धुन गाई गई इसका कानूनी पहलू क्या है।

एक सेटलमेंट कमिश्नर जमीन के व्यवहारों की सच्चाई और अच्छाई दोनों की जांच करने के लिये कानूनन नियत किया गया वरिष्ठ अफसर होता है। जमीन के संबंध में वह जो निर्णय लेता है वह न्यायिक अर्थात् कानून के अंतर्गत लिया गया निर्णय है। उसके विषय में दो महत्वपूर्ण बातें होती हैं। पहली यह कि जब तक अन्य निर्णय व आदेश द्वारा उसे खारिजनहीं किया जाता तब तक वह अंतिम और फाइनल निर्णय होता है। दूसरी बात की उसे खारिज करने के लिये केवल ऑल इज क्लीन कहना काफी नहीं है, बल्कि एक ज्युडिशियल ऑर्डर पास करनी पड़ेगी। यह ऑर्डर भी वही पास कर सकता है जिसके पास ऐसी ज्युडिशियल ऑर्डर पास करने की लीगल ऍथारिटी हो। जब तक वह नहीं हो जाता, तब तक हरियाणा के सेटलमेंट कमिश्नर के पद से जो आदेश खेमका ने पारित किये और रॉबर्ट वाड्रा के पक्ष में किये गये म्युटेशन को कैंसिल किया, वह आदेश ही फायनल रहता है। इसे या तो कोई सेटलमेंट कमिश्नर की कुर्सी पर बैठा अधिकारी लिखित आदेश देकर खारिज करे या फिर हाइकोर्ट, और अभी तक तो यह नहीं सुना कि ऐसा कुछ किया गया हो।

खेमका ने दो आदेश पारित किये थे। एक न्यायिक था जिसकी चर्चा ऊपर की गई और जिससे वाड्रा की जमीन का म्युटेशन (अर्थात् जमीन हस्तांतरण का रिकॉर्ड) रद्द किया। दूसरा आदेश प्रशासनिक था जो उसने अपने अधीनस्थ चार जिलों के डिप्टी कमिश्नरों को दिया था और यह कहा था कि वाड्रा व डीएलएफ के बीच जितने भी जमीन हस्तांतरण के व्यवहार हुए हैं, उनकी जांच करें। इस आदेश की पूर्ति तभी हो सकती है जब इनमें से हर डिप्टी कमिश्नर अपने-अपने जिले के ऐसे हर व्यवहार की लिस्ट जारी करे और हर व्यवहार पर अलग-अलग टिप्पणी देकर उसके डिटेल्स दे और सर्टिफाय करे कि उसमें कोई गड़बड़ नहीं है। लेकिन ऐसी कोई विस्तृत जांच नहीं हुई है। न ही ऐसी लिस्ट लोगों के सामने आई है। फिर यह ऑल इज क्लीन एण्ड ऑल इज वेल का कोरस कैसे शुरू हुआ? इसका प्रशासनिक आधार क्या है? उसी कालावधि में हरियाणा सरकार की ओर से कितनी जमीन लैण्ड एक्विजिशन एक्ट के तहत डीएलएफ को दी गई उसे भी सामने लाना पड़ेगा।

यदि देश में कानून व्यवस्था की कोई जरूरत है, अहमियत है 'लो इन दो' मुद्दों का न्यायिक और प्रशासनिक खुलासा देश की जनता के सामने आना चाहिये। यदि ऐसे नहीं तो आरटीआई मार्फत! एक बात कई बार कही गई औचित्य की कि जब खेमका को तबादले का आदेश मिल चुका था, तब उसने वाड्रा की जमीन का म्यूटेशन कैन्सिल करके अर्थात् हस्तांतरण से संबंधित रेवेन्यू रेकॉर्ड कैन्सिल करके औचित्य भंग किया है। यह बिलकुल गलत कुतर्क है। खेमका ने जब तक सेटलमेंट कमिश्नर के पद का पदभार नहीं छोड़ा हो उस आखरी पल तक वह सेटलमेंट कमिशनर ही है और उसे जो बात न्यायपूर्ण लगी, वही उसने की है। यदि ऐसा कोई औचित्य संबंधी मुद्दा हरियाणा के प्रशासन के दिमाग में है कि अपना पद निकट भविष्य में छोड़ने वाले अफसर को कोई न्यायोचित निर्णय नहीं लेना चाहिये तो मैं पूछना चाहूंगी कि हरियाणा मुख्य सचिव जो किसी महिने की आखरी तारीख को रिटायर होने वाले होंगे, उससे कितने दिन पहले वे अपने सारे काम बंद करने वाले है। साथ ही हरियाणा सरकार का हर अफसर व कर्मचारी कभी न कभी रिटायर होने के कारण पद छोड़ने वाले हैं। उनके लिये कितने पहले से काम बंद करने के आदेश दिये जाने वाले हैं?

स्टील फ्रेम को सपोर्ट करने वाली लेकिन स्टील फ्रेम की गलतियों पर उसे कड़ी फटकार लगाकर कटघरे में खड़ा करने वाली दूसरी व्यवस्था है, न्यायप्रणाली की। सो यदि हरियाणा हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल की जाय कि इन व्यवहारों से देश की तिजोरी को जो नुकसान हुआ है, उसके कारण से न्यायप्रणाली इन व्यवहारों की सुध ले और जांच करे, तो न्यायप्रणाली वह भी कर सकती है। यही एकमेव रास्ता है, अलग-थलग कर कोने में खड़ा किए गए ईमानदार अफसर को टूटने से बचाने का।

संविधान ने एक तीसरी सपोर्ट सिस्टम भी दी है फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन के तहत। अर्थात् हमारी जनता और मीडिया इस बात चर्चा, लेखन, न्यूज कवरेज जारी रख सकती है, ताकि लौ जलती रहे, अंधेरे को मिटाने का हौसला बना रहे और इस लौ के प्रकाश में पहली जांच होनी चाहिये उस लैण्ड एक्विजिशन एक्ट की जो साम्राजवादी ब्रिटिश रायकर्ताओं ने इस देश की जमीन बड़ी-बड़ी कंपनियों के नाम करने के लिये कोई डेढ़ सौ वर्ष पहले बनाया था। जिसकी जमीन गई उसका तो मालिकाना हक छिन गया और आपने बड़ी उदारतापूर्वक उसे चपरासी की नौकरी देने का वादा भर कर दिया। जो जमीन उसकी अगली पीढ़ीयों तक भी बची रह सकती थी उसके एवज में एक ही पीढ़ी के साथ समाप्त होने वाली नौकरी, वह भी चपरासी की।

असल चर्चा तो यह होनी चाहिये कि क्या स्वतंत्र भारत में ऐसा एक्ट लागू रखना चाहिये और यदि हां तो कंपनियां या उनसे हक पाने वाले दावेदार जो मुनाफा कमाते हैं उनमें इन पुराने जमीन मालिकों की शेयर-होल्डिंग क्यों न हो? ऐसे कई प्रश्न हैं जिनकी चर्चा होती रहनी चाहिये।
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