क्या आप विवश हैं? तो आजमाइये जानने के अधिकारको
by Leena Mehendale on Friday, December 21, 2012 at 7:53pm ·
क्या आप विवश हैं ?
-- क्या आपको कभी कभी लगता है कि भारतीय लोकतंत्रको सबल बनानेके लिये मैं तो कुछ करना चाहती या चाहता हूँ, पर क्या करूँ, क्या करूँ, क्या करूँ ? पूरा आकाश ही फट रहा है, कहाँ कहाँ कैसे पैबंद लगाऊँ ? कौनसी कारगर सुई ढूँढूँ ताकि आरंभ तो कर सकूँ ?
ऐसी एक सुई आपके पास है -- जाननेके अधिकारके अंतर्गत -- उसे पैना करके इस्तेमाल करनेमें कितनी आश्वस्ति होगी ।
पहले एक कल्पना-चित्र को देखते हैं -- आप दिल्ली की डीटीसी बससे सफर में हैं। अचानक आम कपडों में एक रोबीला व्यक्ति बस में चढती या चढता है । दो मिनट जायका लेकर वह बताता है --" मैं अमुक अमुक -- दिल्ली पुलिस का डिप्टी कमिशनर ( या असिस्टंट कमिशनर) हूँ । आपके रॅण्डम सुझाव समक्ष सुनने आया हूँ । आप यदा कदा मेरे ऑफिसमें लिखकर भी भेज सकते हैं। मैं आगे भी यूँ ही यदा-कदा आया करूँगा। कभी कभी अपने के प्रकट किये बिना रहूँगा।" फिर वह थोडी देर सबकी राय-सुझाव सुनकर उतर जाता है। यदि किसीने आग्रह किया तो वह अपना आइडेंडिटी कार्ड भी दिखा देता है।
क्या आपको लगता है कि इससे दिल्लीकी कानून व्यवस्था में सुधार होगा ? और यदि आपको ऐसा लगता है तो क्या आपके पास इसका आग्रह धरने का कोई रास्ता है ?
अब एक दूसरा कल्पना-चित्र देखते हैं -- मान लो आपने जानने के अधिकार के अंतर्गत निम्न जानकारी पूछी --
- १-१-२०११ से अबतक दिल्ली पुलिस के असिस्टंट कमिशनर या उससे वरिष्ठ कितने अधिकारियों ने कमसे कम १५ मिनट का सफर दिल्ली के डीटीसी बससे तय किया है -- उनके नाम तथा सफर का दिनांक व समय बताया जाय। इसमें से कितनी बार अपनी आईडेंटिटी जाहीर करते हुए किया?
- १-१-२०११ से अबतक पुलिय कमिशनरने कितनी बार अपने मातहत अधिकारियों के साथ लम्बी (कमसे कम एक घंटे के कालावधिकी) बैठकें की- दिनांक और समय बताया जाय। इनमें से कितनी बार दिल्ली में महिला सुरक्षा का विषय अजेंडे पर लेकर चर्चा की गई- क्या उसके परिणामों की चर्चा अगली बैठक में की गई ?
अब यदि इस कल्पना चित्र से खुश होकर आपमें से कोई वाकई में दिल्ली पुलिस कमिशनरसे यह सवाल पूछने निकलते हों तो मेरी विनती रहेगी कि लम्बे सवाल या लम्बी कालावधि से संबंधित सवाल न पूछें । हमारा प्रयास उन्हें समझाने भर के लिये है कि उनका अपना काम अधिक कार्यक्षमता से करने के साथ साथ लोगों का भरोसा भी जीतना हो तो कितने कम प्रयासों की आवश्यकता है। आपके इन छोटे सवालों से यह बात उनकी समझ में आ जायगी। असल में कई सरकारी काम निपटाने के सरलसे से तरीके होते हैं पर वरिष्ठ अधिकारी दैनंदिन फाइलों में ही अपने को इतना उलझा लेते हैं कि ऐसे सरल उपाय उनकी निगाह से ओझल हो जाते हैं। और आपके रोजमर्रा के कामों में आपके पास भी इतना समय बार बार कहाँ से आयगा कि आप लम्बे सवाल पूछ सकें -- पर हाँ लोकतंत्र बचाये रखना की जो पहली शर्त है -- सजगता -- उसे सरल तरीके से यदा कदा हम दर्शाते रहें तो फटे आकाश में पैबंद का एक एक टाँका लगता रहेगा और जब कई लोग इस प्रक्रिया में जुडेंगे तो लोकतंत्र बना रहेगा। तथास्तु-- आप सबके सहयोगसे ऐसा ही हो ।
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