Saturday, December 10, 2016

भारतीय वर्णमाला, भाषा, राष्ट्र और संगणक -- हिंदी लेख

भारतीय वर्णमाला, भाषा, राष्ट्र और संगणक

भारतीय भाषा, भारतीय लिपियाँ, जैसे शब्दप्रयोग हम कई बार सुनते हैं, सामान्य व्यवहार में भी इनका प्रयोग करते हैं। फिर भी भारतीय वर्णमाला की संकल्पना से हम प्रायः अपरिचित ही होते हैं। पाठशाला की पहली कक्षा में अक्षर परिचय के लिये जो तख्ती टाँगी होती है, उस पर वर्णमाला शब्द लिखा होता है। पहली की पाठ्यपुस्तक में भी यह शब्द होता है। लेकिन जैसे ही पहली कक्षा से हमारा संबंध छूट जाता है, तो उसके बाद यह शब्द भी विस्मृत हो जाता है। फिर हमारी वर्णमाला की संकल्पना पर चिन्तन तो बहुत दूर की बात है।

इसीलिये सर्वप्रथम वर्णमाला शब्द की संकल्पना की चर्चा आवश्यक है। भारतीय वर्णमाला सुदूर दक्षिण की सिंहली भाषा से लेकर सभी भारतीय भाषाओं के साथ-साथ तिब्बती, नेपाली, ब्रह्मदेशी, थाय भाषा, इंडोनेशिया, मलेशिया तक सभी भाषाओं की वर्णमाला है। यद्यपि उनकी लिपियाँ भिन्न दिखती हैं, लेकिन सभी के लिये एक वर्णन देवनागरी लागू है। बस, हर लिपी में आकृतियाँ अलग हैं। अतिपूर्व देश चीन, जापान व कोरिया तीनों में चीनी वर्णमाला प्रयुक्त है। तमाम मुस्लिम देशों मे फारसी-अरेबिक वर्णमाला है जबकि युरोप व अमेरीकन भाषाएँ ग्रीको-रोमन-लॅटीन वर्णमाला का उपयोग करती हैं जिसमें उस भाषानुरूप वर्णाक्षरों की संख्या कहीं 26 (अंग्रेजी भाषा में), तो कहीं 29 (ग्रीक के लिये) इस प्रकार कम-बेसी है।


मानव की उत्क्रांती के महत्वपूर्ण पडावों में एक वह है जब उसने बोलना सीखा और शब्द की उत्पत्ति हुई। वैसे देखा जाय तो चिरैया, कौए, गाय, बकरी, भ्रमर, मख्खी आदि प्राणी भी ध्वनि का उच्चारण करते ही हैं, लेकिन मानव के मन में शब्द की परिकल्पना उपजी तो उससे नादब्रह्म अर्थात् ॐकार और फिर शब्दब्रह्म का प्रकटन हुआ। आगे मनुष्य ने चित्रलिपी सीखी व गुहाओं में चित्र उकेर कर उनकी मार्फत संवाद व ज्ञान को स्थायी स्वरूप देने लगा। वहाँ से अक्षरों की परिकल्पना का उदय हुआ। अक्षर चिह्नों का निर्माण हुआ और वर्णक्रम या वर्णमाला अवतरित हुई।


भारतीय मनीषियों ने पहचाना की वर्णमाला में विज्ञान है। ध्वनि के उच्चारण में शरीर के विभिन्न अवयवों का व्यवहार होता है। इस बात को पहचानकर शरीर-विज्ञान के अनुरूप भारतीय वर्णमाला बनी और उसकी वर्गवारी भी तय हुई। सर्वप्रथम स्वर और व्यंजन इस प्रकार दो वर्ग बने। फिर दीर्घ परीक्षण और प्रयोगों के बाद व्यंजनों में कंठ वर्ग के पाँच व्यंजन, फिर तालव्य वर्ग के व्यंजन, फिर मूर्धन्य व्यंजन, फिर दंत और फिर ओष्ठ इस प्रकार वर्णमाला का एक क्रम सिद्ध हुआ। क ख ग घ ङ, इन अक्षरों को एक क्रम से उच्चारण करते हुए शरीर की ऊर्जा कम खर्च होती है, इस बात को हमारे मनीषियों ने समझा। विश्व की अन्य तीनों वर्णमालाओं का शरीर शास्त्र अथवा उच्चारण शास्त्र से कोई भी संबंध नहीं है। परंतु भारत में यह प्रयोग होते गए। व्यंजनों में महाप्राण तथा अल्पप्राण इस प्रकार और भी दो भेद हुए। इससे भी आगे चलकर यह खोज हुई कि ध्वनि के उच्चारण में मंत्र शक्ति है। तो इस मंत्र शक्ति को साधने के लिये अलग प्रकार का शोध व अध्ययन आरंभ हुआ। उच्चारण में उदात्त, अनुदात्त, स्वरित जैसी व्याख्या हुई। शरीर शास्त्र की पढ़ाई और चिंतन से कुंडलिनी, षट्चक्र, ब्रह्मरंध्र, समाधि में विश्व से एकात्मता, सर्वज्ञता इत्यादि संकल्पनाएँ बनीं। आणिमा, गरिमा, लघिमा, इत्यादी सिद्धियों की प्राप्ति हो सकती है, इस अनुभव व ज्ञान तक भारतीय मनीषी पहुँचे। भारतीय कुंडलिनी विज्ञान के अनुसार षट्चक्रों में पँखुडियाँ हैं और प्रत्येक पँखुडी पर एकेक अक्षर (स्वर अथवा व्यंजन) विराजमान हैं। उस उस अक्षर पर ध्यान केंद्रित करने से एकेक पँखुडी व एकेक चक्र सिद्ध किया जा सकता है। इसी कारण हमें सिखाया जाता है -- अमंत्रं अक्षरम् नास्ति- जिसमें मंत्रशक्ति न हो, ऐसा कोई भी अक्षर नहीं।


इस प्रकार हमारी वर्णमाला में वैज्ञानिकता समाई हुई है, विज्ञान का विचार यहां हुआ है और यह विरासत हमारे लिए निश्चित ही अभिमान की बात है। 
मुख्य मुद्दा है वर्णमाला और उससे परिभाषित राष्ट्र, जो कि श्रीलंका से कोरिया की सीमा तक पसरा हुआ है। भारत देश में हजारो वर्षों की परिपाटी के कारण वर्णमाला के विभिन्न आयाम प्रकट हुए। वह लोककलाओं का भी एक विषय बनी। वर्ण शब्द का दूसरा अर्थ है - रंगछटा। तो शरीर के अंदर षट्चक्रों में जो-जो वर्णाक्षर का स्थान है वहाँ-वहाँ उस चक्र का रंग भी वर्णित है। सारांश में हमारी वर्णमाला की उपयोगिता केवल लेखन तक मर्यादित नही अपितु जीवन के कई अन्य अंगों में इस ज्ञान के अगले आयाम प्रकट हुए हैं।


वर्णमाला के विषय में इतना प्रदीर्घ विवेचन इसलिये आवश्यक है कि नये युग में अवतरित संगणक (कम्प्यूटर) शीर्षक तंत्र ज्ञान और वर्णमाला का अन्योन्य संबंध है। यह नया तंत्र ज्ञान सर्वदूर व्यवहार में होने के कारण उसका अतिप्रभावी संख्या बल है जिसकी भेदक शक्ति भी प्रचंड है। जीवन की प्रत्येक सुविधाएँ व ज्ञान प्रसार दोनों के बाबत इस तंत्रज्ञान से कई मूलगामी परिवर्तन हुए हैं।


एक तरफ हमारी हजारों वर्षों की परंपरा का अभिमान रखने वाली और उसे विविध आयामों में प्रकट करने वाली हमारी वर्णमाला है और दूसरी ओर अगली कई सदियों पर राज करने वाला एक सशक्त तंत्र ज्ञान। अब यह भारतीयों को तय करना है कि इस नये तंत्र और पुरातन वर्णमाला का संयोग किस प्रकार हो। यदि वह सकारात्मक हुआ तो हमारी वर्णमाला अक्षुण्ण टिकी रहेगी। इतना ही नहीं वरन् इस नये तंत्र को समृद्ध भी करेगी। यदि दोनों का मेल नहीं हुआ तो इस संगणक तंत्र में वह सामथ्र्य है कि वह हमारी वर्णमाला, हमारी लिपियाँ, हमारी बोलियाँ, भाषाएँ और हमारी संस्कृति को विनष्ट कर दे। संगणक तंत्र की इस शक्ति को हमें समझना होगा, स्वीकारना भी होगा कि यह तंत्र हमारा विनाशक भी बन सकता है और सकारात्मक ढंग से व्यवहार में लाया गया तो हमारी वर्णमाला, भाषा व संस्कृति को समृद्धि के शिखर पर भी बैठा सकता है।


इस सकारात्मक संयोग की संभावना कैसे बनती है इसे जानने के लिये थोड़ा-सा संगणक के इतिहास को समझना होगा।


बीसवीं सदी की विज्ञान प्रगति में क्ष-किरण मेडिकल शास्त्र की छलांग, अणु विच्छेदन व उससे अणु-ऊर्जा-निर्माण, खगोलीय दूरबीनें, अॅटम बम आदि कई घटनाएँ गिनाई जा सकती हैं। उनसे पहले एक मस्तिष्क युक्त यंत्र की परिकल्पना की गई। इसकी पहल थी वे सरल से गुणा-भाग करने वाला कॅलक्युलेटर्स! मुझे याद आता है कि 1967-68 में प्रयोगशालाओं में ये कॅलक्युलेटर्स रखे होते थे। हम विद्यार्थी मजाक करते थे कि इससे अधिक वेग तो हमारा गुणा-भाग हो जाता है। लेकिन हाँ तब संख्याएँ बड़ी-बड़ी होती थीं तो इनका वेग और अचूक गणित हमारे वश की बात नहीं थी। परन्तु उन्हीं दिनों यूरोप में यह संकल्पना काफी आगे निकल चुकी थी कि गणित के जोड़, घटाव, गुणा, भाग चिह्नों से परे पहुँचकर मानवी भाषा को सीख ले ऐसे यंत्र चाहिये। इसके लिये अंग्रेजी भाषा चुनी गई। संगणक तंत्र की पूरी इमारत अंग्रेजी की नींव पर रखी जाने लगी और सभी पंडितों ने पहचाना की उनकी भाषा को नामशेष करने का सामथ्र्य इस तंत्र में है। इसे पहचान कर सबसे पहले जापान ने और फिर कई यूरोपीय देशों ने तय किया कि उनका संगणक उनकी भाषा की नींव पर बनेगा। 


संगणकीय व्यवहार दो प्रकार के होते हैं- परदे पर दृश्य व्यवहार जिनकी सहायता से मनुष्य उनसे संवाद कर सके और परदे के पीछे (अर्थात् प्रोसेसर के अंदर) चलने वाले व्यवहार। तो सभी प्रगत राष्ट्रों ने आग्रहपूर्वक अपनी-अपनी भाषा को ही परदे पर रखा। यूरोपीय देशों को यह सुविधा थी कि उनकी वर्णमाला के वर्णाक्षर और अंग्रेजी के अक्षरों में काफी समानता थी। इसके विपरीत जापानी भाषा नितान्त भिन्न थी। फिर भी जापानियों ने अपनी जिद निभाई। पीछे-पीछे चीन और अरेबिक-फारसी लिखने वाले देशों ने भी यही किया। पिछड़ा रहा केवल भारत व भारतीय भाषाएँ क्योंकि हमारे लिये अंग्रेजी ही महानता थी, स्वर्ग थी और हमें गर्व था कि चूँकि हमारी 20 प्रतिशत जनता अंग्रेजी जानती है (इसकी तुलना में 1990 में केवल 3 प्रतिशत चीनी जनता अंग्रेजी जानती थी) तो इसी आधार पर हम पूरी दुनिया का संगणक-बिजनेस अपनी मुट्ठी में कर लेंगे। इस सोच के कारण आज हम किस प्रकार चीन से पिछड़ रहे हैं, इसकी चर्चा थोड़ा रुककर करते हैं।


गलत सोच का एक घाटा परदे के पीछे के व्यवहारों में भी हुआ। इसे समझते हैं। संगणक के मूलगामी व्यवहार के लिये उसे केवल दो बातें समझ में आती हैं- हाँ और ना। अर्थात् उसके विशिष्ट सर्किट में बिजली प्रवाह है या नहीं है। लेकिन कई दशकों पहले मोर्स ने जब मोर्स कोड बनाया था तो उसके पास भी दो ही मूल नाद थे- लम्बी ध्वनि डा और छोटी ध्वनि डिड्। ऐसे दो, चार, पाँच या छह नादों को अलग क्रम से एकत्रित करने से अंग्रेजी के एक-एक वर्णाक्षर को सूचित किया जा सकता था। मसलन च् के लिये डिड्-डिड्-डिड् या ॠ के लिये डिड्-डा। इसी तरह हाँ-ना के आठ संकेतों से अलग-अलग संकेत श्रृंखलाएँ बनाकर उनसे अंग्रेजी अक्षर सूचित हों इस प्रकार से एक सारणी बनाई गई। तो की-बोर्ड पर ॠ की कुंजी दबाने से ॠ की संकेत-श्रृंखला के अनुरूप संगणकीय प्रोसेसर के आठ सर्किटों में विद्युत-धारा या तो बहेगी या नहीं बहेगी। उसे देखकर प्रोसेसर उसे पढ़ेगा कि यह श्रंृंखला मुझे ॠ कह रही है। फिर प्रोसेसर के द्वारा पिं्रटर को आदेश दिया जायेगा कि ॠ पिं्रट करना है।
इस प्रकार की-बोर्ड पर प्रत्येक अक्षर की कुंजी का स्थान, उससे उत्पन्न होने वाली संकेत-श्रृंखला और उसे पिं्रट करने पर दिखने वाला वही अक्षर ये बातें तो आरंभिक काल में ही तय हो गई थीं। गड़बड़ ये रही कि यदि संगणक को यह मानवी संदेश अपनी हार्ड-डिस्क में स्टोअर कर रखना हो तो क्या होगा?


तब आवश्यकता हुई प्रोग्रामर की। उसे एक अलग मॅपिंग-चार्ट बनाना था कि हार्ड-डिस्क में इन अक्षरों को कहाँ रखा जायेगा। आरंभिक काल में हर संस्था का प्रोग्रामर अपना-अपना चार्ट बनाता था। तो एक संगणक पर स्टोअर किया गया संदेश दूसरे संगणक पर नहीं पढ़ा जा सकता था। फिर सबने इकट्ठे बैठकर तय किया कि इसे भी स्टॅण्डर्डाइज किया जायेगा ताकि दुनिया के किसी भी संगणक पर स्टोअर किया गया संदेश दूसरे किसी भी संगणक पर पढ़ा जा सके।


1990 तक ऐसा स्टॅण्डर्डडायजेशन दुनिया की हर भाषा के वर्णाक्षरों के लिये सर्वमान्य हो गया - सिवाय भारतीय भाषाओं के। क्योंकि हमारे सॉफ्टवेयर बनाने वाले प्रोग्रामर अपना कोडिंग गुप्त रखकर पैसा बटोरना चाहते हैं और इनकी जमात में सबसे आगे हैं सरकारी सॉफ्टवेयर कंपनी सी-डॅक के कर्ता-धर्ता। यह परिस्थिति आज भी बरकरार है और शायद आगे कई वर्षों तक चले।


लेकिन इस कथाक्रम में एक टिविस्ट आया 1988-1991 के काल में। उसी सरकारी सी-डॅक के एक वैज्ञानिक गुट ने भारतीय वर्णमाला के अनुक्रम का अनुसरण करने वाला की-बोर्ड बनाया। उससे लिखे जाने वाले अक्षर हार्ड-डिस्क में स्टोअर करने के लिये एक बेहद सरल तरीके वाला कोड तैयार किया और 1991 में इसे ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टॅण्डर्ड्स के ऑफिस में इनस्क्रिप्ट नाम से रजिस्टर करवा लिया। इसका अर्थ हुआ कि इस की-बोर्ड और इस कोड का कोई कॉपीराइट नहीं रहेगा। इसका उपयोग कोई भी कर सकता है और अगले बड़े-बड़े सॉफ्टवेयर भी लिखे जा सकते हैं।
लेकिन सी-डॅक के बाकी लोगों को यह बात रास नहीं आई। की-बोर्ड का डिजाइन तो गुप्त नहीं रखा जा सकता। लेकिन स्टोरेज कोड को बदला जा सकता है सो बदला गया और उसे मार्केट में भारी दाम पर बेचने के लिये उतारा गया। नतीजा यह रहा कि जो भारतीय भाषाई सॉफ्टवेयर 1991 में करीब 2 हजार रुपयों में बेचा जा सकता था उसे कोल्ड स्टोरेज में रखकर नये स्टोरेज कोड के साथ बाजार में उतारा गया जिसकी कीमत 14 हजार थी। बाकी कंपनियों के भी सीक्रेट कोड थे और उनके भाषाई सॉफ्टवेयर भी इसी दाम पर थे। जैसे "श्री" या "कृतिदेव"। उनकी मार्केटिंग और ऑफ्टर सेल सर्विस भी अच्छे थे सो सी-डॅक को टिकना भारी पड़ने लगा। फिर सरकार ने आदेश निकालकर सभी सरकारी कार्यालयों में केवल सी-डॅक का सॉफ्टवेयर "इजम" ही खरीदा जाने की व्यवस्था की। साथ ही सी-डॅक ने उस गुट के वैज्ञानिकों को बाहर कर दिया जो मेरी समझ से कम से कम पद्मश्री के हकदार थे। खैर!


सभी भारतीय भाषाई सॉफ्टवेयरों के की-बोर्ड का डिजाइन वही था जो रेमिंग्टन टाइप राइटरों का था। तर्क यह था कि जो हजारों टाइपिस्ट काम कर रहे हैं उनकी सुविधा हो। कुछ कंपनियों ने भारतीय वर्णमाला को ही धता बताते हुये अंग्रेजी स्पेलिंग से लिखने वाले सॉफ्टवेयर बनाये जैसे- बरहा। सी-डॅक का सॉफ्टवेयर ये दोनों सुविधाएँ दे रहा था- पर एक तीसरा ऑप्शन भी दे रहा था वर्णमाला अनुसारी की-बोर्ड का जिसमें अआईईउऊ एऐओऔ एक क्रम से थे। इसी प्रकार कखगघङ पास-पास। चछजझञ पास-पास। टठडढण, तथदधन, पफबभम भी पास-पास। इसलिये नये सीखने वालों के लिये यह निहायत आसान था। इसके अक्षर-क्रम को समझने के लिये दस मिनट पर्याप्त हैं और स्पीड के लिये पंद्रह से बीस दिन। फिर भी यह की-बोर्ड लोगों तक नहीं पहुँच पाया। क्योंकि सामान्य ग्राहक के लिये पूरे सॉफ्टवेयर की कीमत बहुत अधिक थी। सरकारी कार्यालयों के पुराने टाइपिस्टों के लिये टाइपराइटर वाला ऑफ्शन था और वरिष्ठ अधिकारियों के लिये अंग्रेजी स्पेलिंग से हिन्दी लिखने का। फिर भी जिन अत्यल्प प्रतिशत लोगों ने यह वर्णमाला-अनुसारी इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड सीखा उन्हें इससे प्रेम हो गया। इसमें एक खूबी और थी। हिन्दी में एक परिच्छेद लिखकर केवल सिलेक्ट ऑल और चैज टू मलयाली कह देने से सारी लिखावट मलयाली या किसी भी अन्य भारतीय लिपि में बदल सकती थी।


1991 से 1998 तक भारतीय भाषाओं के अलग-अलग कंपनियों के अन-स्टण्डर्डाइज्ड सॉफ्टवेयरों के चलते भारतीय भाषाओं का संगणक लेखन बिखरा रहा, जहाँ एक सॉफ्टवेयर से लिखा लेखन दूसरे के द्वारा नहीं पढ़ा जा सकता था। इस बीच 1995 में इंटरनेट का प्रवेश हुआ और दुनिया में संगणक के जरिये संदेश-आवागमन आरंभ हुआ। लेकिन नॉन स्टॅण्डर्डाइजेशन के कारण इस इंटरनेट रिवोल्यूशन पर सारा भारतीय लेखन फेल रहा।
एक रिवोल्यूशन और आया जिसका नाम था युनीकोड। संगणकों के चिप्स में हर वर्ष सुधार होते गये जिससे उनकी स्पीड बढ़ी, क्षमता बढ़ी और वे कॉम्प्लेक्स वर्णमाला के लायक बनते गये। संसार की चार वर्णमालाओं में तीन कॉम्प्लेक्स हैं- भारतीय, चीनी और अरेबिक। फिर भी भारतीय वैज्ञानिकों ने कम क्षमता वाले पुराने संगणकों पर भी अपनी वर्णमाला को अॅडजस्ट कर लिया था। इसलिये रोमन वर्णमाला की भाषाओं की तुलना में कम ही सही पर कंप्यूटर पर भारतीय भाषाओं का चलन बढ़ रहा था। लेकिन सॉफ्टवेयरों की आपसी नॉन-कम्पटेबिलिटी उनकी प्रगति को पीछे खींच रही थी। अरेबिक या चीनी वर्णमालाएँ कम स्टोरेज वाले संगणकों पर नहीं आ सकती थीं। जैसे ही स्टोअरेज क्षमता बढ़ी, जैसे ही मेगा-बाइट वाले हार्ड डिस्क की जगह गेगा बाइट और टेरा बाइट वाले हार्ड डिस्क आये तो अरेबिक और चीनी भाषाई सॉफ्टवेयर भी उन पर समाने लगे। इस पूरे बढ़े हुये व्यवहार के लिये पुराने स्टोरेज-स्टॅण्डर्ड को बदलकर यूनीकोड नामक नया स्टॅण्डर्ड दुनिया ने अपनाया जो इंटरनेट व्यवहारों को भी समाहित कर सके। इस स्टॅण्डर्ड को तय करने वाली जो विश्वभर के संगणक-तंत्रज्ञों की कमेटी बनी वे किसी नॉन-स्टॅण्डर्ड सॉफ्टवेयर को नहीं अपना सकते थे। चीनी और अरेबिक सॉफ्टवेयर प्रोग्रामर्स तो अपनी-अपनी वर्णमाला के लिये एक स्टॅण्डर्ड लागू करने के लिये तैयार हुये। उन्होंने अपने-अपने देश में उस तरह का कानून लाकर उन-उन भाषाओं के संगणकीकरण की पद्धति को स्टॅण्डर्ड कर दिया। लेकिन भारतीय भाषाओं के सॉफ्टवेयर डेवलपर्स अब भी एकवाक्यता के लिये तैयार नहीं थे। सी-डॅक भी नहीं।


ऐसे में भारत देश में सौभाग्य से यूनीकोड कमेटी को एक उपाय मिल गया। वर्षों पुराना ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टॅण्डर्ड्स (एक्ष्च्) द्वारा मान्य किया जा चुका इनस्क्रिप्ट का स्टॅण्डर्ड यूनीकोड ने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार एक प्रश्न हल हुआ। लेकिन मायक्रोसॉफ्ट कंपनी ने इस स्टॅण्डर्ड के सॉफ्टवेयर को अपनी सिस्टम में लेने से इंकार कर दिया।


ज्ञातव्य है कि यह इंकार की भाषा वे ना तो किसी चीनी वर्णमाला की भाषाओं के लिये कर सके (अर्थात् चीनी, जापानी व कोरियाई) और न अरेबिक वर्णमाला की भाषाओं के लिये। लेकिन भारतीयों की आपसी फूट और लालच के कारण वे भारत में यह सीनाजोरी करने लग गये थे।
लेकिन इस देश का एक आंशिक सौभाग्य और रहा। मायक्रोसॉफ्ट को टक्कर देने के लिये बनी एक नई ऑपरेटिंग सिस्टम लीनक्स के कर्ताधर्ताओं ने घोषणा कर दी कि वे भारतीय भाषाओं के लिये एक्ष्च् तथा यूनीकोड द्वारा स्वीकृत स्टॅण्डर्ड को अपनायेंगे। ज्ञातव्य है कि लीनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम फ्री डाउनलोड वाली सिस्टम है। इस कारण 1998 से 2002 तक यह नजारा रहा कि जिसने लीनक्स को अपनाया उसके भाषाई लेखन इंटरनेट पर टिकने लगे। अत: सर्च इंजिनों में खोजने लायक हुये। जिसने इसे नहीं अपनाया उन्हें अपना भाषाई लेखन इंटरनेट पर डालने के लिये पीडीएफ या जीपेग अर्थात् चित्र बनाकर ही डालना पड़ता था। वह लेखन गूगल सर्च में पकड़ में नहीं आता है।
हालांकि लीनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम अधिक प्रगत होने के कारण सामान्य उपयोगकर्ता के लिये काफी भारी पड़ती थी, फिर भी भाषाई लेखन को इंटरनेट पर रखने के लिये लोग उसे अपनाने लगे। अब मायक्रोसॉफ्ट को लगा कि उनका इंडियन मार्केट हाथ से जा सकता है। तब उस कम्पनी ने भी उन्हीं भारतीय भाषा तंत्रज्ञों की सहायता से अपना एक प्रोपायटरी सॉफ्टवेयर बनाया क्ष्-386 जो हर भारतीय भाषा के लिये एक-एक फॉण्ट के साथ इंटरनेट व यूनीकोड कॅम्पटिबल भाषा-लेखन की सुविधा देता है। इसके लिये वर्णमाला अनुसारी अर्थात् सी-डॅक के उन वैज्ञानिकों का बनाया इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड सीखना पड़ता है जो कि बहुत सरल है। इस प्रगति को मैंने आंशिक सौभाग्य कहा है। क्योंकि यूनीकोड ने एक दुर्भाग्यपूर्ण फैसला लिया। हर भारतीय भाषा को अलग कम्पार्टमेंट में रखा। अर्थात् इनस्क्रिप्ट विधि से लेखन करने पर भी पहले की तरह हिन्दी लेखन को केवल च्ड्ढथ्ड्ढड़द्य ठ्ठथ्थ् ः क्दृदध्ड्ढद्धद्य बंगाली कहने से यह बंगला लिपि में नहीं लिखा जायेगा। उसे फिर से बंगला में लिखना पड़ेगा। इस प्रकार भाषाई एकात्मता की धज्जियाँ उड़ गईं।


यहाँ भी ज्ञातव्य है कि हालांकि चीनी वर्णमाला आधारित जापानी, चीनी और कोरियाई लिपियाँ अलग हैं लेकिन उन्होंने एकजुट होकर यूनीकोड पर दबाव बनाया कि उन्हें एक कम्पार्टमेंट में रखा जाये ताकि लिप्यंतरण संभव हो। लेकिन यह सुविधा भारतीय भाषाओं को उपलब्ध नहीं है। यूनीकोड कन्सोर्शियम का कहना है कि यह अलगाव उन्होंने सी-डॅक के कहने पर तथा भारत सरकार की मान्यता से किया है।
इस पूरे घटनाक्रम फलस्वरूप आज भी पूरे देश में इनस्क्रिप्ट का उपयोग करने वालों का प्रतिशत 10-15 से अधिक नहीं है। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम उन्हें भुगतना पड़ रहा है जिन्हें 10वीं कक्षा से पहले स्कूल छोड़ना पड़ा और ऐसे बच्चे 70 प्रतिशत के लगभग हैं। उन्हें यदि इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड की सहायता से इंटरनेट टिकाऊ लेखन कला सिखाई जाये तो यह उनके लिये रोजगार जुटाने का, साथ ही अपना ज्ञानवद्र्धन करने का साधन बन सकता है।


दुष्परिणाम भुगतने वाला दूसरा बड़ा वर्ग है प्रकाशन संस्थाओं का। उन्हें अलग-अलग फॉण्ट का उपयोग अनिवार्य है। सी-डॅक का इजम सॉफ्टवेयर या श्री या कृतिदेव। इन सभी कंपनियों के पास सुंदर-सुंदर और कई तरह के फॉण्ट सेट हैं। लेकिन वे इंटरनेट टिकाऊ नहीं हैं। उन्हें ना लें तो प्रकाशन का काम सुपाठ्य नहीं रहेगा। उन्हें लेकर काम करें तो इंटरनेट पर तत्काल भेज पाने की सुविधा से वंचित हो जाते हैं और स्पीड में मार खाते हैं। दुनिया के अन्य प्रकाशकों की तुलना में हमारे प्रकाशन में पाँच से सात गुना अधिक समय और श्रम खर्च होता है। क्योंकि हम एडिटेबल फाइलें नहीं भेज सकते हैं, लेकिन उन प्रोप्रयटेरी फॉण्ट्स को पब्लिक डोमेन में डाला जाय तो प्रकाशन की कठिनाइयाँ दूर हो जायेंगी।
मनुष्य के विकास में शब्दों को बोलना और भाषा को लिपिबद्ध करना ये दो महत्वपूर्ण पड़ाव रहे हैं। दोनों में भारत ही अग्रसर था और इसी कारण सोने की चिड़िया बना और हजारों वर्ष विश्व-गुरु रहा। आज उतना ही प्रभावी संगणक तंत्र उदित हुआ है। क्या हम उसका उपयोग कर अपनी वर्णमाला, अपनी लिप्यंतरण की सुविधा, अपनी भाषाई व सांस्कृतिक विरासत इत्यादि बचा लेंगे या उसी के हाथों इन्हें नष्ट कर देंगे - यह फैसला हमें करना है। इसी कारण रोमन का आधार छोड़कर अपनी वर्णमाला के आधार से बनी इनस्क्रिप्ट पद्धति का उपयोग करने में ही हमारी भलाई है








हिन्दी राग – अलगाव का या एकात्मता का ?

भारतीय भाषा अभियान के ब्लॉग पर भी


श्रीमती लीना मेहेंदले(पूर्व भाप्रसे अधिकारी, सम्प्रति गोवा राज्य की मुख्य सूचना आयुक्त)

इस देवभूमि भारत की करीब 50 भाषाएँ हैं, जिनकी प्रत्येक की बोलने वालों की लोकसंख्या 10 लाख से कहीं अधिक है और करीब 7000बोली भाषाएँ  जिनमें से प्रत्येक को बोलनेवाले कम से  कम पाँच सौ लोग हैंये सारी भाषाएँ  मिलकर हमारी अनेकता में एकता का अनूठा और अद्भुत चित्र प्रस्तुत करती है । इन सबकी वर्णमाला एक ही हैव्याकरण एक ही है और सबके पीछे सांस्कृतिक धरोहर भी एक ही  है । यदि गंगोत्री से काँवड भरकर रामेश्वर ले जानेकी घटना किसी आसामी लोककथा को जन्म देती हैतो वही घटना उतनी ही क्षमता से एक भिन्न परिवेश की मलयाली कथा को भी जन्म देती है । इनमे से हरेक भाषा ने अपने शब्द-भंडार से और अपनी भाव अभिव्यक्ति से  किसी न किसी अन्य भाषा को भी समृद्ध किया है । इसी कारण हमारी भाषा संबंधी नीति में इस अनेकता और एकता को एक साथ टिकाने और उससे लाभान्वित होने की सोच हो यह सर्वोपरि है, यही सोच हमारी पथदर्शी प्रेरणा होनी चाहिये। लेकिन क्या यह संभव है ?
 पिछले दिनों और पिछले कई वर्षों तक हिन्दी-दिवसके कार्यक्रमों की जो भरमार देखने को मिली उसमें इस सोच का मैंने अभाव ही पाया । यह बारबार दुहाई दी जाती रही  है कि हमें मातृभाषा को नहीं त्यजना चाहिये, यही बात एक मराठीबंगालीतमिलभोजपुरी या राजस्थानी भाषा बोलने वाला भी कहता है और मुझे मेरी भाषाई एकात्मता के सपने चूर-चर होते दिखाई पड़ते हैं । यह अलगाव हम कब छोड़ने वाले हैं ? हिन्दी दिवस पर हम अन्य सहेली-भाषाओं की चिंता कब करनेवाले है
हिन्दी मातृभाषा का एक व्यक्ति हिन्दी की तुलना में केवल अंग्रेजी की बाबत सोचता है और शूरवीर योद्धा की तरह अंग्रेजी से जूझने की बातें करता है। हमें यह भान कब आयेगा कि एक बंगालीमराठीतमिल या भोजपुरी मातृभाषा का व्यक्ति उन उन भाषाओं की तुलना में अंग्रेजी के साथ हिन्दी  की बात भी सोचता है और अक्सर अपने को अंग्रेजी के निकट औऱ हिन्दी से मिलों दूर पाता है। अब यदि हिन्दी  मातृभाषी व्यक्ति अंग्रेजी के साथ साथ किसी एक अन्य भाषा को भी सोचे तो वह भी अपने को अंग्रेजी के निकट और उस दूसरी भाषा से कोसों दूर पाता है। अंग्रेजी से जूझने की बात खत्म भले ही न होती हो,लेकिन उस दूसरी भाषा के प्रति अपनापन भी नहीं पनपता  और उत्तरदायित्व की भावना तो बिलकुल नहीं । फिर कैसे हो सकती है कोई भाषाई एकात्मता?
कोई कह सकता है कि हम तो हिन्दी -दिवस मना रहे थे,- जब मराठी या बंगाली दिवस आयेगा तब वे लोग अपनी अपनी सोच लेंगे. लेकिन यही तो है अलगाव का खतरा। जोर-शोर से हिन्दी दिवस मनानेवाले हिन्दीभाषी जब तक उतने ही उत्साह से अन्य भाषाओं के समारोह में शामिल होते नहीं दिखाई देंगे, तब तक यह खतरा बढ़ता ही चलेगा।
            एक दूसरा उदाहरण देखते हैं- हमारे देश में केन्द्र-राज्य के संबंध संविधान के दायरे में तय होते हैं। केन्द्र सरकार का कृषि-विभाग हो या शिक्षा-विभाग,  उद्योग-विभाग हो या गृह विभागहर विभाग के नीतिगत विषय एकसाथ बैठकर तय होते हैं।  परन्तु राजभाषा की नीति पर केन्द्र में राजभाषा-विभाग किसी अन्य भाषा के प्रति अपना उत्तरदायित्व ही नहीं मानता तो बाकी राजभाषाएँ बोलने वालों को भी हिन्दी के प्रति उत्तरदायित्व रखने की कोई इच्छा नहीं जागती । बल्कि सच कहा जाए तो घोर अनास्थाप्रतिस्पर्धायहाँ तक कि वैर-भाव का प्रकटीकरण भी हम कई बार सुनते हैं। उनमें से कुछ को राजकीय महत्वाकांक्षा बताकर अनुल्लेखित रखा जा सकता हैपर सभी अभिव्यक्तियों को नहीं । किसी को  तो ध्यान से भी सुनना पडेगाअन्यथा कोई हल नहीं  निकलेगा।
इस विषय पर सुधारों का प्रारंभ तत्काल होना आवश्यक है। हमारी भाषाई अनेकता में एकता का विश्वपटल पर लाभ लेने हेतु ऐसा चित्र संवर्द्धित करना होगा जिसमें सारी भाषाओं की एकजुटता स्पष्ट हो और विश्वपटल पर लाभ उठाने की अन्य क्षमताएँ भी विकसित करनी होंगी। आज का चित्र तो यही है कि हर भाषा की हिन्दी के साथ और हिन्दी की अन्य सभी भाषाओं के साथ प्रतिस्पर्धा है जबकि उस तुलना में  सारी भाषाएँ बोलने वाले अंग्रेजी के साथ दोस्ताना ही बनाकर चलते हैं। इसे बदलना हो तो पहले  जनगणना में  पूछा जाने वाला अलगाववादी प्रश्न हटाया जाये कि आपकी मातृभाषा कौन-सी है? उसके बदले यह एकात्मतावादी प्रश्न पूछा जाये कि आपको कितनी भारतीय भाषाएँ आती हैं? आज विश्वपटल पर जहाँ-जहाँ जनसंख्या गिनती का लाभ उठाया जाता है – वहाँ-वहाँ हिन्दी  को पीछे खींचने की चाल चली जा रही है क्योंकि संख्या-बल में हिन्दी की टक्कर में केवल अंग्रेजी और मंडारिन (चीनी भाषा) है- बाकी तो कोसों पीछे हैं। संख्या बल का लाभ सबसे पहले मिलता है रोजगारके स्तर पर । अलग अलग युनिवर्सिटियों में भारतीय भाषाएँ सिखाने की बात चलती हैसंयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) में अपनी भाषाएँ आती हैंतो रोजगार के नये द्वार खुलते हैं।
भारतीय भाषाओं को विश्वपटल पर चमकते हुए सितारों की तरह उभारना हम सबका कर्तव्य है । यदि मेरी मातृभाषा मराठी है और मुझे हिन्दी व मराठी दोनों ही प्रिय हों तो मेरा मराठी-मातृभाषिक होना हिन्दी के संख्याबल को कम करें यह मैं कैसे सहन कर सकती हूँ और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी के संख्या बलके कारण भारतीयों को जो लाभ मिल सकता है उसे क्यों गवाऊँक्या केवल इसलिए कि मेरी सरकार मुझे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी की महत्ता का लाभ नहीं उठाने देती?  और मेरे मराठी ज्ञान के कारण मराठी का संख्याबल बढ़े यह भी उतना ही आवश्यक है। अतएव सर्वप्रथम हमारी अपनी राष्ट्रनीति सुधरे और मेरे भाषा-ज्ञान का लाभ मेरी दोनों माताओं को मिले ऐसी कार्य-प्रणाली भी बनायें यह अत्यावश्यक है।
और बात केवल मराठी या हिन्दी की नहीं है। विश्वस्तरपर जहाँ  मैथिलीकन्नड या बंगाली लोक-संस्कृति की महत्ता उस उस भाषा को बोलने वालों के संख्याबल के आधार पर निश्चित की जाती हैवहाँ वहाँ मेरी उस भाषा की प्रवीणता का लाभ अवश्य मिले- तभी मेरे भाषाज्ञान की सार्थकता होगी। आज हमारे लिये गर्व का विषय होना चाहिये कि संसार की सर्वाधिक संख्याबल वाली पहली बीस भाषाओं में तेलगू भी हैमराठी भी हैबंगाली भी है और तमिल भी। तो क्यों न हमारी राष्ट्रभाषा नीति ऐसी हो जिसमें मेरे भाषाज्ञानका अंतर्राष्ट्रीय लाभ उन सारी भाषाओंको मिले और उनके संख्याबल का लाभ सभी भारतीयों को मिले। यदि ऐसा होतो मेरी भी भारतीय भाषाएँ सीखने की प्रेरणा अधिक दृढ़ होगी।

आज विश्व के 700 करोड़ लोगों में से करीब 100 करोड़ हिन्दी को समझ लेते हैंऔर भारत के सवा सौ करोड़  में करीब 90 करोड़; फिर भी हिन्दी  राष्ट्रभाषा नहीं  बन पाई। इसका एक हल  यह भी है कि हिन्दी-भोजपुरी-मैथिली-राजस्थानी-मारवाडी बोलने वाले करीब 50 करोड़ लोग देश की कम से कम एक अन्य भाषा को अभिमान और अपनेपन के साथ सीखने-बोलने लगें तो संपर्कभाषा के रूपमें अंग्रेजी ने जो विकराल  सामर्थ्य पाया है उससे बचाव हो सके।
देश में 6000 से अधिक और हिन्दी की 2000 से अधिक बोली भाषाएँ हैं। सोचिये कि यदि हिन्दी की सारी बोली भाषाएँ हिन्दी से अलग अपने अस्तित्व की माँग करेंगी तो हिन्दी के संख्याबल का क्या होगा, क्या वह बचेगा ? और यदि नहीं करेंगी तो हम क्या नीतियाँ बनाने वाले हैं ताकि हिन्दी के साथ साथ उनका अस्तित्व भी समृद्ध हो और उन्हें विश्वस्तर पर पहुँचाया जाये। यही समस्या मराठी को कोकणीअहिराणी या भिल-पावरी भाषा के साथ हो सकती है और कन्नड-तेलगू को तुलू के साथ। इन सबका एकत्रित हल यही है कि हम अपनी भाषाओं की भिन्नता को नहीं बल्कि उनके मूल-स्वरूपकी एकता को रेखित करें। यह तभी होगा जब हम उन्हें सीखेंसमझें और उनके साथ अपनापा बढायें। यदि हम हिन्दी –दिवस पर भी रुककर इस सोच की ओर नहीं देखेंगे तो फिर कब देखेंगे 
जब भी सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी को हटाकर हिन्दी लाने की बात चलती हैतो वे  सारे विरोध करते हैं जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं  है। फिर वहाँ अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहता है। उसी दलील को आगे बढाते हुए कई उच्च न्यायालयों में उस उस प्रान्त की भाषा नहीं लागू हो पाई है। उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश भारत के किसी भी कोनेसे नियुक्त किये जा सकते हैंउनके भाषाई अज्ञान का हवाला देकर अंग्रेजी का वर्चस्व और मजबूत बनता रहता है। यही कारण है कि हमें ऐसा वातावरण फैलाना होगा जिससे अन्य भारतीय भाषाएँ सीखने में लोग अभिमान का भी अनुभव करें और सुगमता का भी।
हमारे सुधारों में सबसे पहले तो सर्वोच्च न्यायालय,  राज्यों के उच्च न्यायालयगृह व वित्त मंत्रालयकेंद्रीय लोकराज्य संघ की परीक्षाएँ,इंजीनियरिंगमेडिकल तथा विज्ञान एवं समाजशास्त्रीय विषयों की स्नातकस्तरीय पढाई में भारतीय भाषाओं को महत्व दिया जाये। सुधारोंका दूसरा छोर हो प्रथमिक और माध्यमिक स्तर की पढाई में भाषाई एकात्मता लाने की बात जो गीतनाटकखेल आदि द्वारा हो सकती है। आधुनिक मल्टिमीडिया संसाधनों का प्रभावी उपयोग हिन्दी और खासकर बालसाहित्यके लिये तथा भाषाई बालसाहित्योंको एकत्र करने के लिये किया जाना चाहिये। भाषाई अनुवाद भी एकात्मता के लिये एक सशक्त संग्रह बन सकता है लेकिन देश की सभी सरकारी संस्थाओं में अनुवादकी दुर्दशा देखिये कि अनुवादकों का मानधन उनके भाषाई कौशल्य से नहीं बल्कि शब्दसंख्या गिनकर तय किया जाता है जैसे किसी ईंट ढोने वाले से कहा जाये कि हजार ईंट ढोने के इतने पैसे। 

अनेकता में एकताको बनाये रखने के लिये दो अच्छे साधन हैं - संगणक एवं संस्कृत। उनके उपयोग हेतु विस्तृत चर्चा हो। मान लो मुझे कन्नड लिपि पढ़नी नहीं आती परन्तु भाषा समझ में आती है। अब यदि संगणक पर कन्नड में लिखे आलेख का लिप्यन्तर करने की सुविधा होती तो मैं धडल्लेसे कन्नड साहित्यके सैकड़ों पन्ने पढ़ना पसंद करती। इसी प्रकार कोई कन्नड व्यक्ति भी देवनागरी में लिखे तुलसी-रामायण को कन्नड लिपि में पाकर उसका आनंद ले पाता। लेकिन क्या हम कभी रुककर दूसरे  भाषाइयों के आनंद की बात सोचेंगेक्या हम माँग करेंगे कि मोटी तनखा लेने वाले और कुशाग्र वैज्ञानिक बुद्धि रखने वाले हमारे देश के संगणक-विशेषज्ञ हमें यह सुविधा मुहैया करवायें। सरकार को भी चाहिये कि जितनी हद तक यह सुविधा किसी-किसी ने विकसित की है उसकी जानकारी लोगों तक पहुँचाये।
लेकिन सरकार तो यह भी नहीं जानती कि उसके कौन कौन अधिकारी हिन्दी व अन्य राजभाषाओं के प्रति समर्पण भाव से काम करनेका माद्दा और तकनीकी क्षमता रखते हैं। सरकार समझती है कि एक कुआँ खोद दिया है जिसका नाम है राजभाषा विभाग । वहाँ के अधिकारी उसी कुएँ में उछल-कूदकर जो भी राजभाषा(ओं) का काम करना चाहे कर लें (हमारी बला से) ।
 सरकार के कितने विभाग अपने अधिकारियों के हिन्दी-समर्पण  का लेखा-जोखा रखते हैं और उनकी क्षमता से लाभ उठानेकी सोच रख पाते हैं ?हाल में जनसूचना अधिकार के अंतर्गत गृह-विभागसे यह सवाल पूछा गया  कि आपके विभागके निदेशक स्तर से उँचे अधिकारियों में से कितनों को मौके-बेमौके की जरूरतभर हिन्दी  टाइपिंग आती है। उत्तर मिला कि ऐसी कोई जानकारी हम संकलित नहीं  करते। तो जो सरकार अपने अधिकारियों की क्षमताकी सूची भी नहीं  बना सकती वह उसका लाभ लोगों तक कैसे पहुँचा सकती है ?

मेरे विचार से हिन्दी के सम्मुख आये मुख्य सवालों को इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है:
वर्ग 1:आधुनिक उपकरणोंमें हिन्दी
1.  हिन्दी लिपि को सर्वाधिक खतरा और  अगले 10 वर्षों में मृतप्राय होने का डर क्योंकि आज हमें ट्रान्सलिटरेशन की सुविधाका लालच देकर सिखाया जाता है कि राम शब्द  लिखने के लिये हमारे विचारों में भारतीय वर्णमाला का  फिर  फिर  नहीं  लाना है बल्कि हमारे विचारों में रोमन वर्णमाला का  आर आना चाहियेफिर ए आयेफिर एम आये। तो दिमागी सोच से तो हमारी वर्णमाला निकल ही जायेगी। आज जब मैं अपनी अल्पशिक्षित सहायक से मोबाइल नंबर पूछती हूँ तो वह नौसातदोचार इस प्रकार हिन्दी अंक ना तो बता पाती है औऱ न समझती है,वह नाइन,  सेवनटू..... इस प्रकार कह सकती है।
2.  प्रकाशन के लिये हमें ऐसी वर्णाकृतियाँ (फॉण्टसेट्स) आवश्यक हैंजो दिखनेमें सुंदर हों, एक दूसरे से अलग-थलग हों और साथ ही इंटरनेट कम्पॅटिबल हों। सी-डॅक सहित ऐसी कोई भी व्यापारी संस्था जो 1991 में भारतीय मानक-संस्था द्वारा और 1996 में यूनिकोड द्वारा मान्य कोडिंग स्टैण्डर्ड को नहीं अपनाती होउसे प्रतिबंधित करना होगा। विदित हो कि यह मानक स्वयं भारत सरकार की चलाई संस्था सी-डॅक ने तैयार कर भारतीय मानक-संस्थासे मनवाया था पर स्वयं ही उसे छोडकर कमर्शियल होनेके चक्करमें नया अप्रमाणित कोडिंग लगाकर वर्णाकृतियाँ बनाती है जिस कारण दूसरी संस्थाएँ भी शह पाती हैं और प्रकाशन-संस्थाओं का काम वह गति नहीं   ले पाता जो आज के तेज युगमें भारतीय भाषाओंको चाहिये।
3.  विकिपीडिया जो धीरे धीरे विश्वज्ञानकोष का रूप ले रहा हैउस पर कहाँ है हिन्दी?  कहाँ है संस्कृत और कहाँ हैं अन्य भारतीय भाषाएँ ?

वर्ग2: जनमानस में हिन्दी
4.  कैसे बने राष्ट्रभाषा – लोकभाषाएँ सहेलियाँ बनें या दुर्बल करें यह गंभीरता से सोचना होगा ।
5.  अंग्रेजीकी तुलनामें तेजीसे घटता लोकविश्वास और लुप्त होते शब्द-भण्डार ।
6.  एक समीकरण बन गया है कि अंग्रेजी है संपत्तिवैभवग्लॅंमरकरियरविकास और अभिमान जबकि हिन्दी या मातृभाषा है गरीबीवंचित रहना,बेरोजगारीअभाव और पिछडापन। इसे कैसे गलत सिद्ध करेंगे ?
वर्ग 3: सरकार में हिन्दी
7.  हिन्दी के प्रति सरकारी विजन (दृष्टिकोण) क्या है क्या किसी भी सरकार ने इस मुद्दे पर विजन-डॉक्यूमेंट बनाया है ?
8.  सरकार में कौन-कौन विभाग हैं जिम्मेदारउनमें क्या है समन्वयवे कैसे तय करते हैं उद्देश्य और कैसे नापते हैं सफलताको उनमें से कितने विभाग अपने अधिकारियों के हिन्दी-समर्पण का लेखा-जोखा रखते हैं और उनकी क्षमता से लाभ उठाने की सोच रख पाते हैं ?
9.  विभिन्न सरकारी समितियोंकी  सिफारिशों का आगे क्या होता हैउनका अनुपालन कौन और कैसे करवाता है?
वर्ग :साहित्य जगतमें हिन्दी
10.      ललित साहित्य के अलावा बाकी कहाँ है हिन्दी साहित्य- विज्ञानभूगोलवाणिज्यकानून/विधिबैंक और व्यापार का व्यवहारडॉक्टर और इंजीनियरों की पढ़ाई का स्कोप क्या है  ?
11.      ललित साहित्यमें भी वह सर्वस्पर्शी लेखन कहाँ है जो एक्सोडस जैसे नॉवेल या रिचर्ड बाख के लेखन में है।
12.      भाषा बचाने से ही संस्कृति बचती है, क्या हमें अपनी संस्कृति चाहियेहमारी संस्कृति अभ्युदय को तो मानती है पर रॅट-रेस और भोग-विलास को नहीं। आर्थिक विषमता और पर्यावरण के ह्रास से बढ़ने वाले जीडीपी को हमारी संस्कृति विकास नहीं मानती,तो हमें विकास को फिर से परिभाषित करना होगा या फिर विकास एवं संस्कृति में से एक को चुनना होगा ।
13.      दूसरी ओर क्या हमारी आज की भाषा हमारी संस्कृति को व्यक्त कर रही है ?
14.      अनुवादपढ़ाकू-संस्कृतिसभाएँ को प्रोत्साहन देने की योजना हो।
15.      हमारे बाल-साहित्यकिशोर-साहित्य और दृश्य-श्रव्य माध्यमोंमेंटीवी एवं रेडियो चॅनेलों पर  हिन्दी व अन्य भारतीय भाषा ओं को कैसे आगे लाया जाय ?
16.      युवा पीढ़ी क्या कहती है भाषा के मुद्दे पर, कौन सुन रहा है युवा पीढ़ी कोकौन कर रहा है उनकी भाषा समृद्धि का प्रयास ?

            इन मुद्दों पर जब तक हम में से हर व्यक्ति ठोस कदम नहीं बढ़ाएगातब तक हिन्दी दिवस-पखवाड़े –माह केवल बेमन से पार लगाये जाने वाले उत्सव ही बने रहेंगे।

Saturday, December 03, 2016

Does India’s Right Wing Have Any Ideas?

Does India’s Right Wing Have Any Ideas?

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GOA, India — The three places to which I am connected by birth, origin and marriage — Britain, India and the United States — have now experienced revolutions at the ballot box. In each, an election has revealed that liberal, globalized coastal elites stand at a tremendous remove from heartlands in open revolt. The revolt does not look to the left for inspiration but to the right. Make no mistake: “Liberal” and “left” are now said in the same breath as “corrupt establishment,” and those with torches and pitchforks are nativists, populists and nationalists of every stripe.
In India, the left lost the battle. But this month, at what was described as “a conclave of ideas” organized by the Hindu right, I was reminded of a simple truth: Winning is not everything.
The right wing won an electoral mandate in 2014, but it still has a tremendous sense of intellectual inadequacy. The conclave here in Goa was about building what is regularly described on Indian social media as a “right-wing ecosystem” to counter the left’s alleged control of the news media and academia.
We came to this sleepy seaside state — more familiar to me, a louche liberal, as a backdrop for raves than for heated discussion about Hindu civilization — to address what the historian Ramachandra Guha has described as the “paradox” at the heart of Indian public life: “While the country has a right-wing party in power, right-wing intellectuals run thin on the ground.”
The conclave was organized by the India Foundation, a think tank that “seeks to articulate Indian nationalistic perspective on issues.” It is openly supported by Prime Minister Narendra Modi’s Bharatiya Janata Party, and I was invited to the conclave by the party’s general secretary.
It was a ragtag coalition that collected at a sprawling resort, with a golf course and a swimming pool overlooking the Arabian Sea. In addition to the senior leaders of the B.J.P., there were right-wing Twitter personalities who had taken to social media because of what they described as the “inherent bias” of the traditional news media; there were American Vedic experts who railed against a secular state that rejected its Hindu past; there were Muslim baiters; there were pseudo-historians who have rewritten Indian history to fit the political needs of the present.
What all these people had in common was an immense sense of grievance against an establishment they had vanquished electorally, but whose ideas still defined them. As the journalist Ashok Malik said while pointing out the right’s many victories, “Rather than confidently advance tomorrow’s agenda, the intellectual warriors of the right are still comfortable fighting the battles of yesterday.”
The targets of their rage are internationally familiar: the liberal elite, the news media, academia. But in India there is an added twist, a double sense of affront. It was not merely elitism that the New Right is reacting against, but an elitism that had the secret backing of the West, through its various newspapers, nongovernmental organizations and think tanks.
“So if you are an embattled Hindu, or even an atheist Indian,” Rajeev Srinivasan wrote in the right-wing magazine Swarajya, “you feel there is an entire constellation of powers with a negative intent arrayed against you, and that they have created a galaxy of sepoys, especially in media and academia.”
Historically, a “sepoy” was an Indian soldier serving in the British Army. It has become a favorite jibe on the right for an Anglicized liberal elite that was seen to be working against its own country.

But Mr. Doval, in fact, represents a new pain that globalization has wrought: the pain of cultural loss. In America, he had a revelation. “The eureka moment,” he told me, “came when I discovered the disconnect between what India really is, and who I am.”
At first glance it would seem that Shaurya Doval, who had organized the conclave, is part of such an elite. His father had been the director of India’s internal intelligence agency. He grew up in privilege, traveling the world. He has a business degree from the University of Chicago, and spent 10 years as a Wall Street banker.
It was true. The Indian elite had gloried in this disconnect; “foreigners in their own land,” Gandhi had called them in 1916. Even the modern state had in many ways been an extension of colonial power. Here, in Goa, it was as if the entire intellectual enterprise was suspect. Many felt that Western ideas like liberalism, secularism and freedom of speech had been used cynically against them to maintain the power of a cultural oligarchy. These exalted words were now terms of abuse.
But that did not mean the right wing had ideas of its own. Mr. Doval spoke of the need for “modern Indian state players” to make “a connect” with “India’s civilizational ethos.” He felt India had not been able to unlock the potential of its young, energetic population because the modern state represented too abrupt a break with the continuity of old India.
But was it really possible to reverse this process? Could modern India be remade to fit these sentimental longings? And didn’t all modernity represent a rupture with tradition?
The Nehru-Gandhi dynasty, which had, until recently, dominated politics since independence, was the supreme political achievement of an older English-speaking elite. Mr. Modi’s election was the crowning achievement of this new Indian elite.
The writer Patrick French, who was also at the Goa conclave, said of the right, “I’ve never ignored these people because I could see they had a political future.”
And he was right. But their success had also awakened them to the pain of their history: 800 years of Muslim rule, then two centuries of British rule and, even when independence came, India’s uncolonized Hindu majority felt oppressed by a Westernized elite whose power was inseparable from Europe and America. Many felt that the West, in confusing India’s liberals with its own, had ended up in cahoots with what was not merely India’s 1 percent, but its 0.001 percent.
As Nirpal Dhaliwal wrote last year in the Indian blog Daily O, “The West’s viewpoint of India is profoundly skewed by the fact that English-speaking Indians have historically come from highly privileged and secure backgrounds — people whose views are to be the most distrusted because they are precisely the people most unsettled by India’s increasingly upwardly mobile population.”
But all that was finished now. What the ascendant right wing needed was something more than a sense of hurt. They needed ideas.
It was precisely these that were in short supply in Goa. Mr. Doval’s vision of “a deeper connect” with old India was determinedly vague. As with so many utopias — “Make America Great Again”; the golden period of the Prophet Muhammad — it seemed to be more a critique of the present than an informed vision of the past. I felt that what lay behind it were the passions of people who had felt marginalized in a country where they were the majority.
After the conclave, I drove to the airport with a small-time B.J.P. politician from Delhi. When he heard I had been to college in America, he said with pride that his daughter had just started her first semester at New York University. It made me smile: The Indian revolution was following a familiar pattern. Its children wanted what those before them had had. One elite had been supplanted, but the marks of prestige were the same — it would not be long before a new generation of sepoys was born.