Tuesday, October 09, 2007

मेरे मनपसन्द ब्लॉग

1. Rahul Sankrityayan
2. Religion and Science by Albert Einstein
3.
संजय जी,
नमस्कार! आपकी तरकश टीम द्वारा मानकीकरण के बारे में सहयोग के प्रस्ताव से अपार हर्ष हुआ। इस लक्ष्य को लेकर एक प्रस्तावना निम्नवत् है:
सर्वप्रथम हम ISCII और Unicode के प्रति हार्दिक आभार प्रकट करते हैं। क्योंकि ISCII ने सन् 2000 तक भारतीय भाषाओं में कम्प्यूटिंग को आगे बढ़ाया, इसके बाद युनिकोड की लोकप्रियता तथा प्रचलन से हम भारतीय भाषाओं में इण्टरनेट पर विचारों के आदान-प्रदान में समर्थ हुए हैं। किन्तु इनमें अभी अनेक समस्याएँ हैं, इनका समाधान करने और आगे विकास करने के लिए बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है।
कई समस्याओं की जड़ मानकीकरण में हुई कुछ त्रुटियाँ हैं। जिनका सुधार आवश्यक है। लेकिन युनिकोड कोन्सोर्टियम की एक नीति है - http://unicode.org/standard/stability_policy.html जिसके तहत कहा जाता है कि even if, completely wrong, this can't be changed. इसके कारण भारतीय भाषाओं को काफी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। सही विकास अवरुद्ध हो रहा है। अतः आवश्यकता है एक भारत-आधारित प्राईवेट मानक संगठन की।

कम्प्यूटर तथा इण्टरनेट में विविध भाषाई संचार को सम्भव बनानेवाला संगठन www.unicode.org भी तो एक गैर-सरकारी (प्राईवेट) संगठन है। इसके संस्थागत सदस्यों में http://www.unicode.org/consortium/memblogo.html सिर्फ भारत सरकार का tdil,mit तथा तमिलनाडु सरकार ही हैं, जिन्हें वोट देने का अधिकार है। अतः भारतीय लिपियों के प्रस्तावों में वोटिंग में अल्पमत होने के कारण भारत सरकार के प्रतिनिधि के प्रस्ताव भी नामंजूर हो जाते हैं और अन्य विदेशी विद्वान द्वारा प्रस्तुत प्रस्तावों को मंजूरी मिल जाती है, भले ही व्यावहारिक/प्रायोगिक ज्ञान के अभाव में उनमें कुछ त्रुटियाँ रह जाएँ। जिसका खामियाजा समस्त भारतीय जनता को भुगतना पड़ता है। भारतीय लिपियों को complex scripts वर्ग में रखना पड़ा है। युनिकोड के संस्थागत सदस्य के लिए $12000 तथा व्यक्तिगत सदस्य के लिए $150 का वार्षिक सदस्यता शुल्क है। जो आम भारतीय संगटन या व्यक्ति के लिए सहज सम्भव नहीं है। और फिर व्यक्तिगत सदस्य को वोटिंग का अधिकार भी नहीं होता।

सर्वोपरि समस्या यह है कि युनिकोड.ओआरजी अपना कार्यक्षेत्र केवल लिपियों (writing systems) तक सीमित रखता है। लेकिन भाषा व बोली में प्रयोग के बिना केवल लिपियों का प्रयोग कोई मायने नहीं रखता और अनेक प्रायोगिक समस्याएँ पैदा हो जाती हैं।
ISO-9000 तथा ISO-14000 आदि प्रमाणपत्र देनेवाली अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएं भी तो प्राईवेट संगठन है।
भारत सरकार का मानक संस्थान http://www.bis.org.in/ है, लेकिन 1991 में ISCII का मानकीकरण किए जाने के बाद भारतीय लिपियों के कम्प्यूटरीकरण के सम्बन्ध में न तो कोई अन्य मानक निर्धारित हो पाया है, न ही कोई कार्यवाही नजर आती है। भारतीय लिपियों के कम्प्यूटरीकरण के सम्बन्ध में कई मानकों के ड्राफ्ट प्रस्तुत किए जाने के बाद भी वर्षों से लम्बित है। देखें- http://tdil.mit.gov.in/insfoc.pdf तथा http://www.tdil.mit.gov.in/insrot.pdf जिसके कारण राष्ट्र को प्रतिवर्ष 10000 करोड़ रुपये से अधिक की हानि (डैटा-एंट्री पुनरावृत्ति, परिवर्तन-अक्षमता, compatiblity न होने के कारण) हो रही है।
अतः यदि हम भारतीय लिपियों के कम्प्यूटर उपयोक्ता तथा विकासकर्ता मिलकर एक प्राईवेट "मानक संगठन" का गठन कर लें तो अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है तथा राष्ट्र की वास्तविक सेवा हो सकती है।
भारतीय भाषाओं का युनिकोड कूट-निर्धारण भी तो तत्कालीन प्रचलित मानक ISCII के आधार पर ही तो हुआ है। यदि समाज व राष्ट्र में कोई प्रचलित मानक होगा, भले की वह किसी प्राईवेट संगठन द्वारा मानकीकृत हो, युनिकोड वाले भी उसे स्वीकार करने में प्राथमिकता देते हैं। भारत सरकार का मानक संगठन BIS भी उसके आधार पर मानकों को मान्यता देने में प्राथमिकता देता है। क्योंकि उनको ज्यादा परिश्रम, जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती। भारी संख्या में जनसमर्थन (public support) पहले से हासिल हो चुका होता है।
मानकीकरण का महत्व समझाने की कोई आवश्यकता नहीं है। सभी जानते हैं। उदाहरण के लिए पहले विभिन्न कम्प्यूटर हार्डवेयर एसोसोरिज यथा-- वैबकैम, प्रिंटर, माऊस, की-बोर्ड, पेन-ड्राईव, अतिरिक्त हार्डडिस्क, इत्यादि को Comm port, LPT, 5-pin port, PS2 आदि से जोड़ना पड़ता था, तथा हर हार्डवेयर के साथ उसका अलग से साफ्टवेयर ड्राईवर प्रोग्राम भी इन्स्टाल करना पड़ता था, जिससे incompatibility के कारण उपयोक्ताओं को भारी समस्याओं का सामना करना पड़ता था। अतः manufacturers ने मिलकर USB port का आविष्कार तथा मानकीकरण किया जिससे आज कितनी सुविधा सथा compatibility मिल गई है। plug-and-play रूप में सभी हार्डवेयर आ रहे हैं। सामान्यतया कोई हार्डवेयर ड्राईवर इन्स्टाल करने की जरूरत नहीं पड़ती।
एक मानक संगठन का गठन का प्रस्ताव निम्नवत् है। इस संगठन का कार्यक्षेत्र निम्नवत् होगा :
-- 8-बिट फोंट-कोड का मानकीकरण,
-- रोमन/लेटिन में भारतीय भाषाओं के पाठ को लिप्यन्तरण हेतु मानकों का निर्धारण
-- रोमन लिपि में लिखित पाठ को भारतीय लिपियों में लिप्यन्तरण हेतु मानकों का निर्धारण
-- देवनागरी तथा अन्य भारतीय लिपियों के वर्णक्रम (Sorting order) का मानकीकरण
-- विभिन्न प्रचलित विविध वर्णरूपों में से एक सर्वसुलभ रूप का मानकीकरण
-- युनिकोड की गलतियों का सुधार करके सही मानकीकरण
-- संयुक्ताक्षरों, पूर्णाक्षरों का मानकीकरण
-- लिपि-चिह्नों की सही ध्वनियों का मानकीकरण
-- ओपेन टाइप फोंट्स के glyph Subtitution, glyph positioning आदि नियमों का मानकीकरण
-- वैदिक स्वर चिह्नों का मानकीकरण
-- अन्य इण्डिक कम्प्यूटिंग सम्बन्धी मानकीकरण
भले ही यह प्राईवेट संगठन इतना शक्तिशाली या 'मान्य' न हो कि इसके द्वारा निर्धारित मानकों का अन्तर्राष्ट्रीय रूप से सभी कम्प्यूटरों में कार्यान्वयन हो सके, लेकिन यह BIS तथा Unicode आदि के लिए एक सहयोगी या आधार सामग्री प्रस्तुत करने का दायित्व तो पर्याप्त परिमाण में निभा ही सकेगा।
इस सम्बन्ध में आप सभी के विचार तथा सुझाव आमन्त्रित हैं। विशेषकर चिट्ठाजगत, नारद, ब्लॉगवाणी, भोमियो इत्यादि एग्रीगेटर-संचालकों तथा विकासकर्ताओं (developers) का ध्यानाकर्षण आवश्यक है। अन्य भारतीय भाषाओं/लिपियों के ब्लॉग एग्रीगेटरों तथा विशेषज्ञों/विद्वानों को इसकी सूचना देने हेतु अनुरोध है।
इस सम्बन्ध में विचार-विमर्श के लिए एक गूगल ग्रूप बनाया गया है।
http://groups.google.com/group/indicoms
सभी से निवेदन है कि इसमें join करें तथा अधिकाधिक सदस्य बनाएँ।
हरिराम
On 10/9/07, संजय | sanjay wrote:
हरिराम जी नमस्कार,
हाल ही में एक जगह आपकी टिप्पणी में या चिट्ठाकार समूह पर रोमन लिप्पयांतर के मानकिकरण के लिए समूह बनाने का विचार पढ़ा. काफि खुशी हुई की भारत में इस तरह का विचार करने वाला भी कोई है. तरकश टीम आपके साथ सहयोग / काम कर सकती है.

संजय | sanjay
छवि मीडिया एंड कोम्युनिकेशनस

महाराष्ट्र में महिला विरोधी अपराध : बलात्कार

महाराष्ट्र में महिला विरोधी अपराध : बलात्कार

लीना मेहेंदले, भाप्रसे

किसी समाज की अच्छाई की माप क्या हो सकती है? यही कि उसके विभिन्न वर्गों के साथ कैसा बर्ताव किया जाता है । इसलिए यह जानना जरूरी है कि किसी भी समाज में गुनहगारी कितनी है, खासकर महिलाओं के प्रति घटने वाले अपराध किस तरह के और कितने हैं । इसमें भी बलात्कार के अपराधों का विश्लेषण अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि औरत जात के विरूद्ध यह सबसे अधिक घृणित अपराध है ।

भारत सरकार के नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो की मारफत यह लेखा-जोखा रखा जाता है कि प्रतिवर्ष देश में कहां-कहां कितने अपराध घट रहे हैं । पिछले तीन वर्षों के आँकड़े बताते हैं कि अन्य राज्यों की तुलना में महाराष्ट्र में अधिक अपराध घटते हैं । मसलन १९९८ में देश की जनसंख्या ९७ करोड़ ९ लाख थी जबकि भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दर्ज कराये अपराधों की संख्या थी १७ लाख ८० हजार । अर्थात्‌ प्रति लाख जनसंख्या में १८३ अपराध घटे थे। लेकिन महाराष्ट्र के लिए यही औसत प्रति लाख २०२ था ।

बलात्कार के आंकडें जाँचने पर पता चलता है कि १९९८ में १५०३१ बलात्कार दर्ज हुए जो औसतन प्रति करोड़ १५५ थे, लेकिन महाराष्ट्र के लिए यही औसत १२४ था । अर्थात्‌ देश के अन्य भागों की तुलना में महाराष्ट्र की छवि कुछ अच्छी रही । यहां यह भी ध्यान रखना पड़ेगा कि असली औसत दर १५५ या १२४ के दुगुनी माननी पड़ेगी क्योंकि यह अपराध केवल स्त्र्िायों के विरूद्ध होता है ।

इस संबंध में एक विस्तृत पढ़ाई का संकल्प बनाकर सबसे पहले मैंने पिछले दशक में महाराष्ट्र के विभिन्न जिलों में घटित बलात्कार के अपराधों का ब्योरा लिया । इसके लिए १९९६ की जनसंख्या के आंकड़ों को आधारभूत माना जो कि समूचे महाराष्ट्र के लिए ९.२७ करोड़ थी । जनसंख्या के आंकड़े मैंने जनगणना कार्यालय से प्राप्त किए जबकि जिलावार अपराधों के आंकड़े ब्यूरो से प्राप्त हुए ।

कुल अपराधों का ब्योराः-

सबसे पहले महाराष्ट्र के विभिन्न प्रमंडलों और उनके जिलों में पिछले दस वर्षों में घटित बलात्कार के अपराधों का ब्योरा लें । प्रत्येक प्रमंडल के लिए वहां के डिवि.जनल कमिशनर तथा डी.आई.जी. पुलिस की जिम्मेदारी होती है, इसी प्रकार प्रत्येक जिले में वहां के कलेक्टर तथा एस.पी. की जिम्मेदारी होती है कि वे अपराधों की रोकथाम करें । अतएव इस ब्योरे से उम्मीद की जा सकती है कि संबंधित जिले और प्रमंडल के अधिकारी अपने-अपने आंकड़ों से कुछ सीख लेंगे और अपराधों को कम करने का प्रयत्न करेंगे । साथ ही यह आशा भी की जा सकती है कि उक्त जिले या प्रमंडल के विधायक, लोकसभा सदस्य और सामाजिक संस्थाएं भी अपने-अपने कार्यक्षेत्र में इन अपराधों के विरूद्ध आवाज उठायेंगे या नीति-निर्धारण के लिए उपाय सुझायेंगे ।

इस ब्योरे से कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकलते हैं जैसेः-

महाराष्ट्र में प्रति वर्ष हजार से अधिक बलात्कार होते हैं । १९९० से १९९९ तक कुल ११६७५, अर्थात्‌ प्रतिवर्ष औसतन ११६८ बलात्कार हुए ।
(देखें चित्र 1 का ग्राफ)

१९९६ में बलात्कार की घटनाओं में अचानक वृद्धि हुई और प्रायः हर जिले में हुई । ३२ में से केवल पांच जिले रत्नागिरी, कोल्हापुर, सांगली, नांदेड और उस्मानाबाद ही इससे अछूते रहे । रत्नागिरी में १९९९ में एकाएक बढ़ोतरी देखी जा सकती है । जबकि नांदेड, बीड और उस्मानाबाद में भी इसी दौरान अपराधों की संख्या में दुगुनी वृद्धि हुई । समाजशास्त्र्िायों के लिए यह एक सोच का विषय है कि एक साथ हर तरफ बलात्कार की घटनाएं क्योंकर बढ़ी ?
१९९५ और १९९६ में अधिकतम बलात्कार दर्ज हुए जो १९९७ में कम होकर फिर धीरे-धीरे बढ़कर १९९९ में वापस १९९६ के स्तर पर पहुंच गये । इसकी कोई वजह होगी ।
मन्तव्य है कि यही समय था जब टी.वी. पर विभिन्न चैनलों का प्रसारण जोर-शोर से आरंभ हुआ । इस विषय में विशेष अध्ययन आवश्यक है कि इन प्रसारणों का समाज में बढ़ते बलात्कार के अपराधों से किस तरह का संबंध या प्रभाव है । दूसरी विचारणीय बात है कि १९९५ में विधानसभा चुनाव तथा १९९६ में लोकसभा चुनाव हुए और महाराष्ट्र में सत्ता पलट हुआ ।
दस वर्षों में कुल घटित अपराधों में से आधे अपराध केवल सात जिलों में हुए हैं - जो हैं मुंबई, नागपुर, ठाणे, अमरावती, पुणे, भंडारा और यवतमाला अतएवं यहां की पुलिस को अधिक मेहनत से इन अपराधों के लिए न्याय दिलाने की जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी ।


गुनाह की दर एवं आदिवासी क्षेत्र :-

गुनाह की संख्या के साथ-साथ गुनाह की दर देखना भी आवश्यक है । संख्या का महत्व पुलिस की दृष्टि से है क्योंकि इन्हें हर गुनाह की जांच करनी है और उसे अंतिम उद्देश्य तक पहुंचाना है, जबकि सामाजिक संस्थाओं या महाविद्यालयीन अध्ययन के लिए गुनाह की दर का महत्व अधिक है क्योंकि इससे सामाजिक ढांचे के सुधार के विकल्प समझ में आते हैं ।

अन्य जिलों की तुलना में नागपूर तथा अमरावती प्रमंडल के जिलों-यथा नागपूूर, अमरावती, वर्धा, गडचिरोली, भंडारा, चंद्रपूर और यवतमाल में बलात्कार की दर अत्यधिक है । यह सारे ही आदिवासी बहुल जिले हैं । ठाणे जिला भी इसी श्रेणी में है । लेकिन महाराष्ट्र के अन्य आदिवासी बहुल जिले जैसे पुणे, नाशिक, धुले और रायगड़ में यह ट्रेंड नहीं पाया गया । यहां भी विचारणीय है कि धुले और नासिक जिले में आदिवासी नागरिकों के पास जमीन है जबकि नागपुर एवं अमरावती में वे प्रायः भूमिहीन हैं ।
एक चित्र यह है कि यद्यपि महाराष्ट्र में घट रहे कुल अपराधों की दर देशभर में घट रहे अपराधों की दर से अधिक है, फिर भी बलात्कार के मामले में महाराष्ट्र की दर देश की दर से कम है । उसी प्रकार महाराष्ट्र के विभिन्न जिलों का चित्र क्या है ? मैंने दो नक्शों पर कुल अपराधों की दर तथा बलात्कार की दर की तुलना की । यह देखा गया कि रत्नागिरी, कोल्हापुर, सांगली, नांदेड, उस्मानाबाद, रायगड़ और सिंधुदुर्ग में दोनों प्रकार के अपराध की दर कम है जबकि नागपुर, अमरावती, ठाणे, पुणे और यवतमाल में दोनों प्रकार के अपराधों की दर अधिक है ।
गडचिरोली जैसे आदिवासी जिले में इतर अपराध कम लेकिन बलात्कार काफी अधिक हैं जबकि अकोला जैसे बिगर आदिवासी जिले में बलात्कार की दर कम परंतु अन्य अपराधों की दर अधिक है । यह और एक कारण है कि बलात्कार की शिकार महिलाएं कौन हैं, इसका भी ब्योरा लेना आवश्यक है । भले ही राजधानी मुंबई या दिल्ली के स्तर पर यह संभव न हो, लेकिन कम से कम उक्त जिले के जिलाधिकारी के स्तर पर यह ब्योरा आवश्यक है ।
शहरीकरण और बलात्कारः-

पिछले पचास वर्षों में देश के अन्य प्रांतों की तुलना में महाराष्ट्र का तेजी से शहरीकरण हुआ है । यहां करीब चालीस प्रतिशत जनसंख्या शहरों में रहती है । ब्यूरो के पास शहरों के लिए अलग से उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि मुंबई, नई मुंबई, पुणे, ठाणे, नाशिक, नागपुर, अमरावती, औरंगाबाद और सोलापुर जो कि महानगर माने जाते हैं वहां कुल २७८६ बलात्कार घटे जो कुल अपराधों का पच्चीस प्रतिशत है । लेकिन ऐसा नहीं कि हर शहरी इलाका ग्रामीण इलाके की अपेक्षा अधिक सुरक्षित हो ।
पुणे, सोलापूर और औरंगाबाद जिले में शहरी जनसंख्या की अपेक्षा शहरों में घटने वाले बलात्कार काफी अधिक हैं जबकि ठाणे, नाशिक, अमरावती और नागपुर जैसे चारों आदिवासी बहुल जिलों में शहरी हिस्सों में बलात्कार की धटना कम हैं ।
शहरी और ग्रामीण दरों तथा इन शहरों के पुरूष और महिला वर्ग में साक्षरता के प्रतिशत की तुलना करने पर देखा गया कि इन सभी शहरों में महिला साक्षरता का प्रतिशत काफी अच्छा माना जा सकता है । अतएव यह मानना पड़ेगा कि बलात्कार के अपराध की शिकार महिलाएं अपनी अशिक्षा के कारण से शिकार नहीं हुई हैं । शायद शहरों का तनावग्रस्त माहौल, जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि और समुचित पुलिस फोर्स का न होना इत्यादि कारण हो सकते हैं ।
साक्षरता विचार :-

शिक्षा और साक्षरता का विचार करें तो एक अजीब परिस्थिति दिखाई पड़ती है । मराठवाड़ा प्रमंडल के औरंगाबाद, जालना, परभणी, नांदेड, बीड जिलों में स्त्री शिक्षा का प्रतिशत सब से कम है, इसके विपरीत अमरावती और नागपूर प्रमंडल के सभी जिलों में स्त्री शिक्षा का प्रतिशत अधिक है । फिर भी बलात्कार की दर मराठवाड़ा प्रमंडल में सबसे कम और नागपूर तथा अमरावती प्रमंडलों में सबसे अधिक है ।
इस सारे विवेचन से जो प्रमुख निष्कर्ष गिनाये जा सकते हैं:-

1. महाराष्ट्र प्रशासन को नागपूर तथा अमरावती प्रमंडलों में बलात्कार के अपराधों की छानबीन तथा रोकथाम के लिए अधिक ध्यान देना होगा । इसके लिए यदि समुचित मात्रा में पुलिस फोर्स उपलब्ध नहीं है तो उपलब्ध कराना एवं उसकी कार्यक्षमता बढ़ाना आवश्यक है ।

2. बलात्कार की शिकार महिलाओं के बाबत अधिक गहराई से अध्ययन होना आवश्यक है, खासकर यह कि इसमें आदिवासी स्त्र्िायों का प्रतिशत कितना है और आरोपी व्यक्ति किस श्रेणी अथवा व्यवसाय से संबंधित हैं ।

3. एक अन्य अध्ययन में मैंने पाया है (मेहेंदले २००१) कि अन्य राज्यों की तुलना में महाराष्ट्र में अपराधी पर अपराध साबित होने की दर कम है । महाराष्ट्र में यह बात केवल बलात्कार के लिए नहीं बल्कि सभी तरह के अपराधों पर लागू है । इस बात का भी अध्ययन विधि महाविद्यालयों द्वारा करवाना आवश्यक है ।

4. रत्नागिरी, नांदेड, उस्मानाबाद जैसे कम अपराध वाले जिलों में १९९ में अचानक बलात्कार में वृद्धि क्यों हुई ? अन्य सभी जिलों में १९९६ में यह वृद्धि क्यों हुई, इसकी जांच होनी आवश्यक है ।

उपरोक्त तमाम विश्लेषण के बावजूद यह मानना पड़ेगा कि महाराष्ट्र में पिछले दशक में कुछ ऐसी भी घटनाएं हुई हैं जो महज सांख्यिकी या आंकड़ों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है । इनके लिए एन.सी.आर.बी. के मौजूदा ढर्रे से हटकर एक नये सिरे से रिपोर्टिंग आवश्यक है । यह मामले हैं सुनियोजित बलात्कार कांडों के । जलगांव तथा सातारा जिले में घटित दो कांडों में यह हुआ कि नौकरी का लालच देकर मध्य और निम्न वर्ग की थोड़ा पढ़ी-लिखी औरतों को वासना का शिकार बनाया गया और फिर उनकी विडियों के जरिये उन्हें ब्लैकमेल करके बार-बार उन्हें यौनाचार के शोषण का शिकार बनाया गया । परभणी जिले में अगले दिन की परीक्षा के प्रश्न-पत्र देने का लालच दिखाकर कुछ शिक्षकों ने ही एक विद्यार्थिनी का सामूहिक बलात्कार किया । ऐसे सारे सुनियोजित अपराधों के लिए अधिक प्रभावी जांच-पड़ताल और अधिक कड़ी शिक्षा अत्यावश्यक है । लेकिन यह तभी होगा जब इसकी रिपोर्टिंग अधिक गंभीरता से दर्ज कराई जाए ।

एक बार ग्रामीण महिलाओं के एक कार्यक्रम में मैं इन निष्कर्षों की चर्चा कर रही थी कि एक प्रौढ़ महिला ने मुझे ग्रामीण जीवन की एक वास्तविकता से परिचय कराया । उसने कहा कि महिलाओं से बचपन से यही सुनना पड़ता है कि उसकी जिंदगी तो चूल्हे में है । गाँव की लड़कियां भी देखती हैं कि उनके अगल-बगल की तमाम प्रौढ़ महिलाएं केवल रसोईघर में मेहनत का जीवन जीती हैं - चाहे वह माँ हो या सास हो या बड़ी बहन हो या भाभी हो । फिर लड़कियाँ सोचती हैं कि यदि वे पढ़कर कोई नौकरी ढूँढ लेती हैं तो इस रसोईघर की कैद से उनका छुटकारा हो सकता है । इसीलिए वे उन तमाम लोगों की शिकार बन जाती हैं जो उन्हें थोड़ा बहुत फुसला सकें । यदि जलगांव और सतारा जैसे कांड रोकने हैं तो स्त्र्िायों के लिए व्यवसाय शिक्षा का प्रबंध आवश्यक है । उस अनपढ़ ग्रामीण किन्तु भुक्तभोगी औरत ने मुझे वह वास्तविकता बताई जो मेरे विचारों से कहीं छूट गई थी ।

लेकिन इससे भी भयावह वह घटना है जो पिछले वर्ष अहमदनगर जिले के कोठेवाडी गांव में घटी । सारणी से देखा जा सकता है कि सामान्यतः अहमदनगर में बलात्कार के मामले कम थे । फिर भी इतने बड़े पैमाने पर इतनी जघन्यता के साथ महाराष्ट्र में कभी अपराध नहीं हुए थे जैसे कोठेवाडी में हुआ । इस घटना में किसी भी पारंपरिक पद्धति से अपराध का विश्लेषण नहीं किया जा सकता है । इस घटना में गांव में सामूहिक डकैती करने के लिए गए युवक डकैती के पश्चात्‌ गांव में अकेली रहने वाली महिलाओं पर झुंड में टूट पड़े और सामूहिक बलात्कार किया । इससे पहले उन्होंने अलावा जलाया, खाया, शराब पी और गांव वालों को रस्सियों से बांधकर मारा-पीटा भी । यह पूरी घटना एक संकेत है कि आने वाले दिनों में सिनेमा तथा अन्य प्रसार माध्यमों में दिखाये जाने वाली घटनाएं समाज के अपराधों को कितना भयावह रूप दे सकती है । इस घटना से यह भी आभास मिलता है कि महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाके में बढ़ती हुई बेकारी और निराशा समाज को कहां ले जा रही है । मुंबई जैसे कार्यक्षम पुलिस के दबाव में यह बेकारी आर.डी.एक्स, गैंगवार और शार्प शूटर्स के रूप में प्रगट होती हैं लेकिन ग्रामीण इलाके में यह अवश्यमेव स्त्री-विरोधी अपराधों के रूप में प्रगट होगी जो कि महिलाओं के लिए चिंता का विषय है । यह जरूरी है कि कोठेवाड़ी की घटना से कुछ सीख लेकर हम अपनी रोजगार की नीतियों को अधिक प्रभावी बनायें ।
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पश्यंती, दिल्ली, अक्तूबर 2000 में प्रकाशित
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