Thursday, December 18, 2008

सोने के हथियार से लडने के लिये

Also kept on janta_ki_ray

हम किले पर रहते थे |
मजबूत दीवारों का अभेद्य किला
बुर्जों पर चौकसी करते हुए
हमें कोई तनाव न था |
हमें दीखते थे सामने फैले
विस्तृत मैदान
और वहीं झाडियों में छिपा हमारा शत्रु
वे हमें क्योंकर जीत पाते ?
हमारे पास शस्त्र-अस्त्र थे भरपूर
हमारे सैनिक जाँबाज - शूर
और मैदान पार के रास्तों पर
निश्चित रुप से पास आ रही थीं
हमारे मित्र देशों की सेनाएँ |
पर हाँ ....
हमारे किले के कोने में एक छोटा मायावी द्बार था |
द्बारपाल ने एक दिन उसे खोल दिया |
शत्रु उसी रास्ते से आया |
बिना लडे ही हमपर जय किया |
शर्म की बात, पर सच्चाई की है |
सोने का हथियार
लोहे के हथियार पर भारी है |
किसी जमाने में पढी थी एडविन मूर की यह कविता The Castle | उसी का भावानुवाद मैंने किया है, जो मुंबई पर हुए आतंकी हमले की घटना पर फिट है | 26/11 की रात यह कविता बारबार चेतना में गूँजती रही |
क्रिकेट मॅच में हम जीत की कगार पर पहुँच चुके थे कि अचानक खबर आई कि मुंबई रेल्वे स्टेशन -- सीएसटी (छत्रपती शिवाजी टर्मिनस) पर गोलाबारी हो रही है | मेरा निवास मंत्रालय के ठीक सामने है | वहाँ से ताज की ओर जाती हुई गाडियों की सायरन सुनाई पडने लगी | तभी टी. वी. स्क्रीनपर एटीएस चीफ हेमंत करकरे, सीएसटी स्टेशन पर पहुँच कर बुलेट प्रुफ जाकिट पहनते दिखाई दिये | अपने जाँबाज पुलिस अफसर की इसी बात से सिपाहियों का मनोबल तत्काल दो-चार गुना बढा होगा | तब से लगातार आतंकी हमले की खबरें आती रही | कामा अस्पताल में गोलीबारी, हॉटेल लियोपोल्ड पर गोलीबारी, फिर पार्ला के हायवे पर बम फटने की खबर, फिर मंत्रालय के आसपास गोलाबारी, चौपाटी पर आतंकवादियों से मुठभेड, एक आतंकवादी मारा गया और एक पकडा गया - ये सारी खबरें ऐसी थीं जिसमें संकट आ रहा था और दसेक मिनटों में टल रहा था | मेरी दृष्टिसे वही महत्वपूर्ण था कि संकट टल रहा था |लगा कि ऐसे ही ताज, ओबेराय और नरीमन हाऊस का संकट भी टल जायेगा - अगले दो घंटो में या चार घंटों में | रातभर इसी अपेक्षा में टीवी के सामने गुजारी | कई मुंबईवासियों की वह रात टीवी के सामने ही गुजरी होगी|
अगले तीन दिनों में आतंकवाद का भयानक चेहरा दिखा | उस पर सभी की भावनाएँ एक सी थीं | आक्रोश, क्रोध, हताशा, दुख, शहीदों के प्रति गहरी संवेदना व आदर, जख्मियों की देखभाल, उनके लिये रक्तदान, जानकारी का आदान-प्रदान | जन सामान्य इससे अधिक कर भी क्या सकता था ? जो कुछ करना था केवल सरकारी यंत्रणा को ही करना था |
लेकिन अब जगह जगह थम कर लोग कह रहे हैं - यह परिस्थिती नही चलेगी | दूसरोंकी निष्क्रियता के कारण हमारी बली चढे यह हम नही सह सकते | हम नही कह सकते और न कहेंगे कि हमारे हाथ में क्या है | हमें आगे आकर कुछ करना ही होगा | लेकिन क्या करना है? उसके लिये लम्बे समय तक टटोलते ही न रह जायें - इसीलिये
वह मूर की कविता याद आई | AK-47 का मुकाबला करना हो तो वह AK-47 से हो सकता है | पर जब रिश्वत का सोने ही हथियार बन कर आ जाये तो उसका मुकाबला कैसे हो ?
जिस प्रकार आतंकियों ने मुंबई हमले की पूर्व तैयारी की, ताज में महीनों तक शेफ की अप्रेंटिसशिप की, कोलकाता में उन्हें सिम कार्डस मुहैया कराये, सावधानी की सूचनाएँ अनदेखी रह गई - ये सब बातें ऊपरी सतह पर तो आलस और असावधानता, बेफिकिर और उदासीनता दर्शाती है लेकिन गहराई में देखो तो भ्रष्टता और रिश्वतखोरी के संकेत भी देती हैं |
अर्थात्‌ हमें दोनों ही मुद्दों को सोचना है | असावधानता का भी और भ्रष्टाचार का भी |
सरकार की गुप्तचर यंत्रणआ में कई खामियाँ है - एक है तालमेल की कमी, दूसरी है सर्वसमावेशकता का अभाव | समाज के हर तबके से गुप्तचर यंत्रणा के लिये खबरियों का संगठन आवश्यक है | लोगों से सुझाव व सूचनाएँ पाने की, उनकी तुरंत फुरंत छानबीन और अमल की भी व्यवस्था हो, और इनकी मॉनिटरिंग भी एक सर्व समावेशक समिती द्बारा हो जो देखे कि सुझावों पर कारवाई किस जरह की गई | संक्षेप में यह कहना होगा की गुप्तचर यंत्रणा के सजग होने की बात को सजगता से परखने की भी यंत्रणा होनी चाहिये | आज यह रिपोर्टिंग टॉप बॉस तक सीमित रहती है और उसकी सजगता की कोई पडताल नही होती | इस यंत्रणा में लोकसहभाग की व्यवस्था नही रही तो आज की तरह हतबलता की भावना और उसके चलते क्रोध से उफान आनेवाले समय में तीव्रतर होता रहेगा |
जहाँ तक भ्रष्टाचार का सवाल है - लोगोंकी प्रखर राय है की राजकीय नेता और सरकारी बाबू इसमें लिप्त है और दोनों के प्रति जनता का रोष है | अब फिर से सवाल उठाया गया है कि भ्रष्ट नेताओं के चुने जाने की जिम्मेदारी किसकी है ? क्या उन साठ प्रतिशत की जो चुनाव में वोट डालते हैं या उन चालीस प्रतिशत की जो वोट डाल नही जाते ?
पिछलें चुनाव में मैं भी उन चालीस प्रतिशत की पंक्ति में जा बैठी | क्यों कि उससे पहले के चुनाव में मैंने मतपत्रिका पर ही कलम से लिख दिया था कि मुझे कोई उम्मीदवार पसंद नही |मैं जानती थी कि ऐसा करने से मेरी मतपत्रिका गिनती से बाहर हो जाती है | दुख इसी बात का है | मेरे मत को गिनती के बाहर क्यों किया जाता है ?
आजकल एक ईमेल काफी घूम रही है | इसमें इलेक्शन रुल्स 1961 के सेक्शन 49-0 का हवाला देकर समझाया है कि आपको अपनी नापसंदगी का मत दर्ज कराने का अधिकार है और चुनाव के दिन घर बैठने की अपेक्षा हमें जाकर अपनी नापसंदगी दर्ज करनी चाहिये | ईमेल में इस सेक्शन का उल्लेख गलती से Constitution सेक्शन 49-0 किया गया है लेकिन यह ईमेल इतनी घूम चुकी है कि गूगल सर्च पर कॉन्स्टिट्युशन सेक्शन 49-0 लिखने से पूरी
जानकारी, ईमेल, उसपर लोगों की प्रतिक्रिया इत्यादि सब कुछ पढा जा सकता है |
इस नियम को ध्यान से देखा जाय तो पता चलता है कि यह अपर्याप्त, कठिन और पुरातन पड चुका नियम है जिसे व्यवहार्य और उपयोगी बनाने के लिये उसमें सुधार आवश्यक है |
प्रचलित नियम के अनुसार आपको यदि कोई उम्मीदवार पसंद न हो तो आप अपनी मतपत्रिका प्रिसायडिंग अफसर क पास ले जाएंगे | वह उसे रख लेगा और कहीं से ढूँढकर आपको एक Form No. 17 A देगा जिसपर - आपको अपना नाम, पता, पूरी जानकारी देनी है |गोपनीयता का सवाल ही नही है | फिर उस पर लिखना है कि आप किसी उम्मीवार को मत नही देना चाहते | प्रिसायडिंग ऑफिसर उस कागज को एक अलग लिफाफे में बंद कर रख देगा | बस
| मतगणना के समय उसकी कोई गिनती नही होगी |अर्थात्‌ आपके मत की कदर और कीमत है - जीरो | ऐसे नियम बनेंगे और पचासों साल चलते रहेंगे तो मतदाता भी कहेंगे कि - छोडो, क्या करना है वोट देकर |
अपने ही देश में, क्या मुझे यह कहने का हक नही होना चाहिये कि मुझे कोई उम्मीदवार पसंद नही ? लेकिन केवल फार्म नं. 17 भरने का अपर्याप्त हक अब नही चलेगा | मेरा यह मत वोटिंगमशीन में दर्ज होना चाहिये, दर्ज करते समय उसकी गोपनीयता कायम रहनी चाहिये और मतगणना के समय उसकी गिनती भी होनी चाहिये | तभी यह कहा जा सकता है कि मुझे अपना मत व्यक्त करने का अधिकार सही तौर पर मिला | वरना मुझे आर. के. लक्ष्मण का एक कार्टून याद आता है जिसमें एक “कॉमन मॅन” चुनावी बक्से में अपना मत डालते हुए बुदबुदाता है -“गुलाम को केवल यह चुनने का हक है कि उसका मास्टर कौन हो” |
सही अर्थ में लोकशाही तभी उतरेगी - जब हरेक को अपना नापसंदगी दर्ज कराने का हक मिले | और यदि मतगणना में पाया गया कि नापसंदगी को ही सबसे अधिक वोट पडे हैं तो उन सभी उम्मीदवारों को दुबारा खडे होने का मौका न दिया जाय | फिर हर उम्मीदवार सतर्क होगा कि उसे अधिक अच्छा काम करना है| आज जिसे कोई उम्मीदवार पसंद न हो वह कुछ नहीं कहता - कुछ नही कह पाता - बस निष्क्रिय हो जाता है - निर्वीर्य, हतबल हो जाता है | ऐसे निष्क्रिय व्यक्तियों के मत सम्मान कोई उम्मीदवार क्यों करे या उनकी नापसंदगी से क्यों डरे ? ऐसी हालत में जनक्षोभ चाहे कितना ही क्यों न हो, उसकी तपिश उम्मेदवार या नेता को नही लगती |
और अब एक बार फिर चलें पैसे और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर | पैसे देकर आज कोई भी बनावटी ड्रायव्हिंग लायसेन्स ले सकता है, रेशनकार्ड ले सकता है, बँक से क्रेडिट और डेबिट कार्ड ले सकता है, बैंक में बेनामी अकाऊंट खुलवा सकता है, बिना लायसेंस हथियार, बन्दूक या AK-47 रख सकता है, समुद्री मार्ग पर बिना रजिस्ट्रेशन के आवाजाही कर सकता है, ड्रग्ज और आरडीएक्स की खेपें ला सकता है | लेकिन मेरे विचार में इनसे भी भयावह तथ्य यह हैं कि कोई उम्मीदवार चुनाव में लाखों-करोडों रुपये खर्च किये बगैर जीत नही सकता | जिसे लोग स्वयंस्फूर्ति से बिना खर्चे के जिता दें ऐसा उम्मीदवार हजारों में एकाध हीं निकलता है | बाकी सबको लाखें रुपये खर्च करने पडते हैं और जीतने के बाद यह लागत वसूलना ही सबसे पहली प्राथमिकता बन जाती है - उनके लिये अलग अलग भ्रष्ट रास्ते चुने जाते हैं ताकि लागत से कई गुनी अधिक वसूली भी हो सके | सारांश यह कि चुनाव लडना सत्ता में आना और सत्ता के माध्यम से अकूत संपत्ति इकठ्ठा करना | यह सारा एक व्यापार बन जाता है | अमर सिंह के शब्दों में “हाय रिस्क हाय गेन“ बिझिनेस | फिर बिझिनेस में समाज चिंतन या देश-चिंतन का मुद्दा महत्वपूर्ण नही रह जाता | उसकी अहमियत केवल भोजन का स्वाद बढावाले चटनी पापड जितनी ही रह जाती है | लागत का पैसा मुकम्मल नफे समेत वसूलने के लिये सत्ता का खेला
शुरू हो जाता है और उसमें बाबूओं को भी घसीट लिया जाता है| कई बाबू भी इसमें खुशीखुशी शामिल होते हैं। इसीलिये जनता जब इस भ्रष्टता पर रुष्ट होती है तो नेताओं के साथ साथ प्रशासन के बाबूओं को भी दोषी मानती है|मुंबई में जगह जगह जो जन क्षोभ व्यक्त हुआ उसमें यह चित्र साफ दीखता है |
शेषन और उनके पश्चात्‌ कई चुनाव आयुक्तों ने चुनाव प्रक्रिया में कई अच्छे सुधार किये | उम्मीदवारों के खर्चेपर पाबंदी लगाने, उनके खर्चे का लेखा जोखा रखने के कई उपाय किये गये |लेकिन वे अभी भी अपर्याप्त हैं | चुनावी उम्मीदवार जिनकी संपत्ति लाखों करोडों में है ऐसे लोगों के पिछले पंद्रह बीस वर्षों के इन्कम टॅक्स रिटर्न देखने का हक
पब्लिक को मिलना चाहिये | खेती की आयपर भले ही टॅक्स न लगे लेकिन रिटर्न में उसपर ब्यौरा लेना चाहिये | राजकीय पक्षों का इन्कम टॅक्स रिटर्न भरा जाना चाहिये और वह भी लोगों की जाँच के दायरे में आना चाहिये | ऐसे कई उपायों की आवश्यकता है जो लोकतंत्र की प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनायें|
और यह सब करने के बावजूद भी यदि आतंकवादि या आर्थिक भ्रष्टाचार की अदालती सुनवाई वर्षों तक चलती रहे और किसीकों सजा न मिले तो क्या फायदा ?
मैंने कभी पढा कि जापानमें एक विचार-सभा हुई कि अदालती सुनवाई में देर लग जाती है - इसे और अधिक गतिमान बनाया जाय | फिर कई शिफारसें हुई ताकि औसत देरी को कम किया जा सके | उसे तीस दिनों से पंद्रह दिन पर लाया जा सके | फिर मुझे मौका लगा जापान जानेका - और वहाँ मुझे दिखाया गया उनका सुप्रीम कोर्ट - एक भव्य सुंदर इमारत | लेकिन बंद | मैंने पूछा यह बंद क्यों है ? उत्तर मिला - हमारी जनता को हमारी न्याय प्रणाली में इतना विश्वास है कि पिछले कई सालों से किसीने किसी फैसले के विरुध्द अपील करने की जरुरत ही नही समझी | मैंने पूछा - तो फिर इस इमारत को किसी दूसरे काम में क्यों नही लगाते ? उत्तर मिला - यदि देश का एक भी नागरिक कभी भी चाहे कि उसे अपील करनी है तो उसे यह भरोसा होना चाहिये कि देश में उसके अपील की सुनवाई की व्यवस्था है | यह इमारत उस भरोसे को बनाये रखने के लिये है |
जब इतनी मूलगामी सोच देखती हूँ तो सोचती हूँ कि हम कितने पीछे हैं | मुंबई पर आतंकवादी हमले की पृष्ठभूमि में ऐसे हजारों विचार हों - उन्हें क्रियान्वित किया जाय | वह विचार और कृति हमें आने वाले दिनों के लिये विरासत में चाहिये | संकट को मौका मानकर उससे कुछ न सीखा तो क्या सीखा ?
-------- लीना मेहेंदळे
13.12.2008



यहाँ पढें सोने के हथियार से लडने के लिये

Monday, December 01, 2008

समाजकारण रोडावल, भ्रष्ट अर्थकारण फोफावल

समाजकारण रोडावल, भ्रष्ट अर्थकारण फोफावल
(minor corrections and uploading on geo, still to do)
राजकारण म्हणजे सत्ता चालवणं, त्या सत्तेच्या जोरावर इतरेजनांना आपल्या मताप्रमाणे चालवणं, आपली मते त्यांच्याकडून मान्य ठरवून घेणे, त्या जोरावर आपल्या मनासारख्या योजना राबवणं इत्यादी. थोडक्यांत राजकारण म्हटलं की पुढारीपण आलंच. पण मग प्रश्न येतो तो हा की हे पुढारीपण आपण कशासाठी व कोणत्या प्रकाराने वापरायच ? किंवा असं म्हणू या की भारतामध्ये सन 1900 ते 2000 या काळात ते कशासाठी व कशाप्रकारे वापरल गेलं .

स्वातंत्र्यपूर्व आणि स्वातंत्र्यानंतर असे दोन कालखंडांचे टप्प्‌े आपल्याला स्वच्छ दिसतात. पहिल्या टप्प्यामधील विचारसरणी ही सर्वार्थाने स्वातंत्र्य मिळवण्याच्या दिशेने होती. सन 1905 मध्ये वंगभंगाविरुध्द सुरू झालेले आंदोलन, 1913 मध्ये जालियनवाला बाग हत्याकांड, 1920 मधील निधनापर्यंत लोकमान्य टिळकांनी केसरी मधून चालवलेली मोहीम, बिहारमधील निळीची शेती करणा-या शेतक-यांचा सत्याग्रह ज्यामध्ये - महात्मा गांधींनी पुढारीपण केले, - मुळशी सत्याग्रह, काकोरी कांड व त्यातून रामप्रसाद बिस्मिल आणि अशफ्फाक उल्ला यांना फाशी त्या पाठोपाठ असेम्बलीमध्ये बॉम्ब टाकून व अटक करवून भगत सिंग आणि बटुकेश्र्वर दत्त यांनी केलेले जनप्रबोधन, गांधींची दांडीयात्रा, भारत छोडो आंदोलन, नेताजी सुभाष यांनी केलेले आजाद हिंद सेनेचे संगठन व चलो दिल्ली ही मोहीम या सर्व घटनांमध्ये त्या त्या पुढा-यांचे अंतिम उद्देश्य होते - देशाला स्वातंत्र्य मिळवून देणे.

मात्र ते उद्देश समोर ठेवतांना त्याच बरोबर समाजकारण हे ही तितकेच महत्वाचे आहे हे भान कुणाचेच सुटलेले नव्हते.
त्या काळातील समाजापुढच्या समस्या होत्या - शेतीची हलाखीची स्थिती, दारिद्रय, अस्पृश्यता, स्त्रियांना दुय्यम वागणूक, शिक्षण आणि आरोग्याचा अभाव. या सर्वांविरूध्द टिळक, गांधींसकट सर्व नेत्यांनी समाज प्रबोधन केले व लढा दिला. महर्षि कर्वेंनी स्त्री शिक्षणाचा फुलेंचा वसा पुढे नेला. कर्मवीर भाऊराव पाटील यांनी रयत शिक्षण संस्थांच्या माध्यमातून शिक्षण प्रसार केला. गांधी व आंबेडकर यांनी अस्पृश्यतेविरुध्द आंदोलन केले. स्वदेशीचा प्रसार करण्यासाठी गांधींनी चरखा हाती घेतला व त्याला श्रम प्रतिष्ठेचे मूल्यही सोबत जोडले. सावरकरांनी वैज्ञानिकतेची कास धरून लोकांना तिकडे प्रेरित केले. सेनापती बापटांचा मुळशी सत्याग्रह आणि वल्लभभाईचा बारडोली सत्याग्रह हे शेतक-यांच्या प्रश्नावर होते. लोकमान्यांना तर तेली तांबोळ्यांचे पुढारी म्हटले जाई. स्त्रियांच्या प्रश्नावर जागृति व प्रबोधनासाठी कस्तुरबा गांधी, कमला नेहरु, सरोजिनी नायडू या सारख्या नेत्यांनी पुढाकार घेतला. आपल्या कारकीर्दीच्या सुरुवातीस सुभाष बाबू कलकत्ता महानगरपालिकेचे अध्यक्ष होते व तेथे त्यांनी अनेक प्रशासन सुधारणा केल्या.

स्वातंत्र्यानंतर चित्र एकदम बदलले. पूर्वीचे स्वातंत्र प्राप्तीचे उद्दिष्ट पूर्ण झाले. निव्वळ त्याच कारणांसाठी पुढे आलेली मंडळी मागे सरली. देशांत जवाहर लाल नेहरुंचे राजकीय वर्चस्व सर्वमान्य झाले. नेहरु हे साम्यवादी विचारसरणीने भारावलेले, त्याचबरोबर वैज्ञानिक प्रगतीचा ध्यास असलेले आणि देश विकासाचे स्वप्न पहाणारे पुढारी होते. त्यांचा सोशलिझमवर भर होता. मी समाजवाद हा शब्द वारपर नाही ते जाणीवपूर्वक. नेहरुंना जे समाजकारण अभिप्रेत होते त्यांत दारिद्य संपवणे, विषमता मिटवणे, अशिक्षा आणि अनारोग्य संपवणे, बेकारी संपवणे हा महत्वाचा भाग होता. कोण विचारवंत म्हणेल की आपण यासाठी झटू नये . स्वातंत्र्यानंतर पहिल्या वीस-तीस वर्षात हे उद्दिष्ट ठेऊन शासन-प्रणालीची पुनर्रचना झाली. तसेच सामाजिक क्षेत्रातही कित्येक चांगल्या संस्था पुढे आल्या.

विनोबांनी सर्वोदय चळवळीचा एक भाग म्हणून भूदान चळवळ चालवली. कृषी क्षेत्रात सुधारणेसाठी शेतक-याला मालकी मिळाली पाहिजे हे त्याच मुख्य सूत्र होते. हे त्यांनी मोठमोठ्या जमीन धारकांना शांती व सद्भावनेच्या मार्गाने समजावून दिले. त्यांना बिहार, महाराष्ट्र, आंध्र, कर्नाटक व मध्य प्रदेशांत प्रचंड प्रतिसाद मिळाला. चंबळ खो-यातील हजारो डाकूंच्या हदय परिवर्तनाचा प्रयोग त्यांनी यशस्वीरित्या संपन्न केला तो कशाच्या बळावर? तर डाकूगिरीत जी कुटुंबच्या कुटुंब पिढ्यान्‌ पिढ्या रुतलेली होती, त्यांना वेगळ्या दिवसांचे क्षितिज दाखवून. शिक्षण, शेती व शंततामय जीवनाचे फायदे त्यांना पटवून देऊन.

सन 1950 मध्ये देशाने संविधानाचा अंगीकार केला. त्यामध्ये स्वातंत्र्य, समता, बंधुता व न्याय या सिध्दांताचा उद्घोष झाला. कायद्याने अस्पृश्यतेला हद्दपार केले. तेवढे पुरेसे नव्हते म्हणून अनुसूचित जाती व जमातींना वेगाने पुढे आणण्यासाठी राखीव जागांची संकल्पना आपण स्वीकार केली. महाराष्ट्रात कूळ कायदा येऊन कसेल त्याची जमीन हे तत्व लागू झाले. हेच तत्व लागू व्हावे म्हणून बंगालातील एका छोट्या खेड्यात एक छोटी चळवळ सुरु झाली पण अजूनही ही कृषी सुधारणा सर्वत्र लागू नाही. त्या छोट्या चळवळीने आज हिंसक रुप धारण केले आहे व नक्षलवादी ही देशांतील मोठ्या डोकेदुखीची समस्या झाली आहे.

एकूण काय तर स्वातंत्र्यानंतरची पहिली तीस-चाळीस वर्षे समाज धुरिणांनी समाजातील विषमता, दारिद्य, अज्ञान मिटवणे हीच प्रायोरिटी मानली. संत गाडगेबाबा व तुकडोजी महाराज यांनी तर कीर्तनाचा पंथ स्वीकारुन त्यातून समाज प्रबोधन केले. त्या काळातील समाज सुधारणेचे स्वप्न दोन सिनेगीतांमधून उत्तम व्यक्त होते ---

वो सुबह कभी तो आयेगी
इन काली सदियों के सरसे
जब रात का आंचल सरकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे
जब सुख का सागर छलकेगा
जब अंबर झूम के नाचेगा
जब धरती नग्में गायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

आणि दुसरं गाणं होतं ---

यही पैगाम हमारा
हरेक महल से कहो की झोपडीयों में दिये जलाये
उंच नीच के बीच कोई अब फर्क नही रह जाये
सब के लिये सुख का बराबर हो बटवारा
यही पैगाम हमारा

त्या काळातील शासन योजनाही अशा होत्या , ज्यामध्ये हेच उद्दिष्ट होते. म्हणूनच ब्लॉक डेव्हलपमेंट कार्यक्रम, एक सशक्त पब्लिक सेक्टर तसेच वेगाने शिक्षण प्रसार अशा योजना पुढे आल्या. या व अशा समाजकारणाच्या कित्येक मुद्दयांवर पंडित नेहरु पंतप्रधान या अत्यंत व्यस्त पदावर असूनही स्वत: मुख्यमंत्र्यांना पत्र लिहित असत. त्यांत स्त्रियांचे सशक्तीकरणापासून, कृषि क्रांतिने वैज्ञानिक प्रगतीपर्यंत सर्व विषय हाताळीत आहेत.

मात्र या प्रकारे योजना आणतांना कांही मूलभूत गोष्टी हरवत गेल्या. सर्वांत पहिला बळी गेला तो समाजकारणाचा. शासनातील सत्ता आणि राजकारण हे समाजकारणाचे साधन आहे, हे तत्व विसरले गेले. त्या ऐवजी ते भ्रष्टाचाराच्या मार्गातून पैसा कमवण्याचे तंत्र म्हणून विकसित होऊ लागले. च्यथा राजा तथा प्रजाछ या न्यायाने पुढार्‍यांनी अस्तित्वांत आणलेली पध्दतच शासनातील नोकरशाहींना व समाजातील सामान्य व्यक्तीलाही स्वीकारार्ह वाटू लागली. स्वीकाराचे रुपांतर स्वागतात आणि स्वागताचे रुपांतर उद्दिष्टांत झाले. त्यामुळे गैर मार्गाने आलेला पैसा आधी फक्त चालत होता, आता तो ध्यासाचा विषय बनला.

विचारसरणीतील या बदलामुळे शासकीय योजना कशा बदलल्या, किंवा फोल ठरु लागल्या आहेत, त्याची कित्येक उदाहरणे देता येतील. याबाबत त्याआधी हे स्पष्ट करायला हवे की शासनकर्त्यांची पध्दती साम्यवादाकडे झुकणारी होती की अमेरिकन कॅपिटॅलिझ्मकडे हा मुद्दा मला तितकासा महत्वाचा वाटत नाही. कारण शेवटी त्या दोन्ही फक्त पध्दतीच (मेथोडॉलॉजी) आहेत - उद्दिष्ट नाही. जागतिक राजकारणांत विसाव्या शतकाच्या सुरुवातीस साम्यवादाने मूळ धरले व तो फोफावला. रशिया, पूर्व व यूरोपीय देश व चीन इथे तो प्रबळ झाला. तरीही या राष्ट्रांची खूप प्रगती झालेली आपल्याला दिसत नाही. मात्र इंग्लंड वगळता इतर बहुतेक पश्चिमी यूरोपीय देशांमध्ये साम्यवाद नसूनही व मुक्त अर्थव्यवस्थेचे अमेरिकन तत्वज्ञान वापरुनही त्यांनी पैगामच्या गाण्यांतील उद्दिष्ट साध्य केले आहे. तिथे विषमता अत्यंत कमी, आरोग्य, शिक्षण, वाहतूक आदि सेवा कमी दरांत आणि समानतेचे तत्व सर्वांना लागू अशा पध्दतीचे चित्र पहायला मिळते. भारतातही तेच अपेक्षित होते. तसे स्वप्न स्वातंत्र्यानंतर सर्वांनी पाहिले होते. पण तसे झाले नाही.

मी दोन उदाहरणांची चर्चा करणार आहे. सार्वत्रिक शिक्षणाबरोबरच उच्च शिक्षणामध्ये देखील शासनाने थोडी फार गुंतवणूक केली. देशात कांही चांगली मेडीकल कॉलेजेस निर्माण झाली. कित्येक ब्रिटिश काळापासूनही होतीच. पण पुढे पुढे चांगल्या विद्यार्थ्यांच्या मानाने ही कॉलेजेस कमी पडू लागली. त्यावर मार्ग म्हणून खाजगी मेडिकल कॉलेजचा पर्याय शासनाने स्वीकारताच ही सर्व केंद्रे भ्रष्ट व्यापारी संस्थाने बनली. इथे मी व्यापारी आणि भ्रष्ट व्यापारी यात फरक करते. व्यपार हा दोन व्यक्तींमधील समझोता असतो. एकाने चांगल्या मालाचा पुरवठा करायचा, दुसर्‍याने त्याचा योग्य मोबदला पुरवायचा. यामध्ये लुकाछुपी किंवा नाडणे हा प्रकार आला की, तो भ्रष्ट व्यापार होतो. कॅपिटेशन कॉलेजेस चालवणार्‍या संस्थांनी कोटयावधी रुपयांच्या शासकीय जागा च्शिक्षणासारख्या पवित्र क्षेत्राला कधी व्यापारी तत्व लागू करायचे नसते.छ (सबब शासनाने लागू नये) असे सांगत मातीमोलाने पदरांत पाडून घेतल्या. त्यानंतर बिनारिसिट व मनमानीपणे कॅपिटेशन फी घेऊन भ्रष्ट अर्थकारण सुरु केले. शासनातील चांगले, स्वच्छ, सज्जन म्हणवणार्‍या पुढार्‍यांचीदेखील हिंमत झाली नाही की, हे प्रकरण थोपवावे. उलट त्यातील कांहींनी स्वत: धडा घेऊन हेच भ्रष्ट अर्थकारण पुढे नेले. काही आपण हे करत नाही म्हणून हळहळले तर काही च्मी तर हे न करुन माझ्या पुरता स्वच्छ राहिलो नाछ अशी हतबल अल्पसंतुष्टी घेऊन राहिले. शेवटी एका कर्नाटकीय मुलीने शिक्षणाचा हक्क वगैरे मुद्दे मांडत सुप्रीम कोर्टात दाद मागितल्यावर 1991 मध्ये कोर्टाने अत्यंत उत्तम निकाल देऊन त्यांत धनवंतांनी आपण धनाच्या जोरावर शिक्षण घेतांना निदान एका तरी हुषार गरीब मुलाची सोय केलीच पाहिजे, त्याचप्रमाणे संस्थांनी विनारिसिट किंवा सर्वमान्य फी वगळता अतिरिक्त फी घेता कामा नये असे दोन निर्देश दिले. सन 1992 ते 2004 या 12 वर्षात या निकालाने कित्येक हुषार मुलांना परवडणारे उच्च शिक्षण घेता आले. या निकालातील कित्येक उदात्त तत्वांचे प्रतिपादन व त्यात ठरवून दिलेल्या कार्यपध्दतीने खर्‍या अर्थाने समाजकारण घडत होते. पण दुर्दैवाने राजकीय पुढारी किंवा नोकरशाहीने हे न ओळखल्यामुळे एका संस्थाचालकाच्या अर्जामुळे सुप्रीम कोर्टाने सन 2004 मध्ये वरील निर्णय फिरवला. पुन्हा एकदा सुमारे हजारोंच्या संस्थेने हुषार विद्यार्थी वाजगी दरातील तसेच भ्रष्ट व्यवहाराशिवाय मिळणार्‍या उच्च शिक्षणाला मुकतील, ते ही दरवर्षी. पण सत्तेच्या माध्यमातून ज्यांना हे समाजकारण सुधारता येईल त्यांना याची दखलही नाही.

याचा अति भयानक तोटा पुढील दहा-पंधरा वर्षांतच कसा दिसेल याचे चित्र नुकतेच एका सेवानिवृत्त शासकीय डॉक्टरने माझ्यासमोर उभे केले. त्यांचा मुद्दा होता की, त्यांच्या काळांत जसे कित्येक निष्णात डॉक्टर सेवाभावनेने शासकीय आरोग्य खात्यात आले तसे चित्र पुढील दहा वर्षानंतर, म्हणजे त्यांची पिढी रिटायर झाल्यानंतर दिसणारच नाही. कारण आता तयार होणारा प्रत्येक डॉक्टर हा 40-50 लाख रुपये कॅपिटेशन फी भरुनच डॉक्टर होऊ शकतो. तर मग तो सरकारची च्फाटकीछ नोकरी करुन आपल्या खर्चाची भरपाई कशी करणार ? एकूण काय तर लौकरच तुम्हाला सर्व सरकारी दवाखाने खाजगी संस्थांना चालवायला दिलेली दिसतील. सरकार ती स्वत: चालवू शकणारच नाही !

आपले आरोग्याचे आणि शिक्षणाचे धोरण असं भरकटले की, ज्या रुग्णालयांनी आरोग्य सेवेचे पवित्र (हे पण व्यापारी तत्व न लावण्याचे क्षेत्र अशी पोपटपंची) कर्तव्य करतो, असे सांगून सरकारची कोटयावधी किंमतीची जागा मातीमोल भावांत घेतली व त्या बदल्यांत 10 टक्के गोरगरीब रुग्णांना आरोग्यसेवा देण्याचे बचन दिले त्यांनी तसे केले नाही. पण ती सर्व धनिक
रुग्णालये असल्याने सरकार त्यांना काही आदेश करु इच्छित नाही. तसेच, सेवाभावी डॉक्टर्स निर्माण न करु शकणार्‍या आपल्या शैक्षणिक धोरणाबाबतही काही करता येत नाही.

समाजकारण खालावल्याचे आणखी एक भयानक उदाहरण म्हणजे मोठया शहरांत बिल्डर या धनिक संस्थांचा सुळसुळाट. यातील कित्येक दमदाटी, भाडेकरुंना हुसकावणे, लाच देऊन अधिक लाभ पदरात पाडून घेणे असे प्रकार सर्रास करतात. यासाठी त्यांनी काही छोटे-बडे च्भाईछ व च्दलालछ पण पदरी बाळगलेत. त्या भाईंची रोजीरोटी कशावर चालते, तर बिन मेहनतीच्या पैशावर. आज एका व्यक्तीला दहशतीने हुसकावण्यासाठी पंधरा-वीस हजार रुपये घेऊ शकणारा अंडरवर्ल्डचा माणूस उद्या टेररिस्ट गँगने पाच लाख दिले तर कांय कांय करेंल ? थोडक्यांत अशा छुटभैय्या अंडरवर्ल्डला गाठीशी ठेवणारे, विनाश्रमाच्या पैशांनी श्रीमंत होण्याची वाट दाखवणारे सर्व एका मोठया संकटाला आमंत्रण देत आहेत. पण आजचे राजकारण या धनिक वर्गाची मर्जी राखण्यातच असेल तर समाजाचे काय होणार ?

विसाव्या शतकाची सुरुवात व शेवट या काळात हा एक मोठा फरक दिसून येतो. समाजकारण मागे पडून आता भ्रष्ट अर्थकारणाचा सुळसुळाट होऊ लागला आहे हे स्थित्यंतर थोपवणे आवश्यक आहे
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शब्ददर्वळ, इंदूर, दिवाळी अंक, 2008