Saturday, December 01, 2012

जमीनदारी और रिटेल एफडीआई
29, Nov, 2012, Thursday  देशबंधु 
हस्तक्षेप  29-11-2012 

लीना महेंदेले
अपने देश में हजारों वर्षों से कृषि संस्कृति पनपी है। यही कृषि संस्कृति इतनी प्राचीन है कि जिस युग को हम सतयुग कहते हैं, और जिस युग में राजघराने भी नहीं होते थे, तब भी कृषि संस्कृति थी। तब कृषि भूमि का अधिकारी कुटुम्ब ही होता था। लेकिन जब राजव्यवस्था आई और राजे-रजवाड़े आए तो यह व्यवस्था चलाने के लिए धन और धान्य की आवश्यकता हुई। तब कृषि-उत्पादकों पर कर (टैक्स) लगाने की प्रथा बनी क्योंकि समाज का प्रमुख उत्पादक वही था। ऐसे कर पर राय का अधिकार हो और इसीलिए वह कर राय के कोषागार को सम्पन्न करता रहे, इस समाज-मान्यता प्राप्त थी। लेकिन इस कर के लिए किसान राजा के प्रति सीधा उत्तरदायी था। चाणक्य के अर्थशास्त्र में और उससे भी पुरातन ग्रंथों में नियम बनाए गए हैं कि कृषि-उत्पादकों से कर के रूप में धान्य या धन किस अनुपात में लिया जाए, सूखा या अतिवर्षा के कारण कृषि को नुकसान हो तो कर में किस प्रकार छूट दी जाए-इत्यादि।

ऐसी प्रथा, जिसमें किसान का उत्तरदायित्व सीधा राय-व्यवस्था या राजा के लिए होता था। इसका नाम है रयतवारी। लेकिन पिछले सहस्त्रक में भारत पर परकीय आक्रमण हुए। नए शासक विदेशों से यहां आए और राय करने लगे। तब उन्होंने एक नई व्यवस्था अपनाई- जमींदारी की। इस व्यवस्था में राय के एक विशाल-भूभाग पर किसानों से कर वसूली का ठेका दे दिया जाता था। इस ठेके की कीमत राय के कोषागार में पहले ही रखवा ली जाती थी। इसके बाद यह सरदर्द कहो या अधिकार कहो जमींदार के पास आ जाता था कि वह किसान से वसूली कैसे करें। उस वसूली में छूट इत्यादि देने के राजा के अधिकार समाप्त हो जाते थे।

इस प्रकार रयतवारी में किसान से कर वसूली करने वाले राजा के नौकर होते थे। गांव-गांव में उनकी नियुक्ति राय की ओर से होती थी। यह एक विकेंद्रित वसूली-प्रणाली थी। गांव की लगान वसूली में कोई धोखाधड़ी या जोर-जबर्दस्ती हुई तो उसकी व्याप्ति कम होती थी और राय या उसके वरिष्ठ शासक उस पर नियंत्रण रख सकते थे। लेकिन जमींदारी के मार्फत होने वाली वसूली एक केन्द्रित प्रणाली थी जिसमें कई गांवों के अधिकार एक जमींदार के पास सिमट जाते थे। यह जमींदार एक बड़ा पूंजी-निवेशक होता था। वह पहले अपनी पूंजी-निवेश करता था। राजा को ठेके की अर्थात् जमींदारी की कीमत देकर। फिर उसे किसानों से वसूलता था। जाहिर है कि वह लगान में छूट इत्यादि देकर अपना नुकसान नहीं कर सकता था।

मुगल शासकों द्वारा चलाई गई यह जमींदारी प्रथा उत्तरी भारत में बड़े पैमाने पर लागू हुई। लेकिन, दक्षिणी भारत में इसका प्रभाव कम रहा। सत्रहवीं सदी में उभरते हुए मराठी राजा शिवाजी ने अपने राय में पूरी तरह रयतवारी को ही प्रस्थापित किया। शिवाजी के सभी युध्दों में एक महत्वपूर्ण युध्द था सातारा जिले के जावली के जमींदार चन्द्राकांत मोरे के साथ किया गया युध्द। मोरे को औरंगजेब ने जमींदारी के अधिकार बहाल किए थे जिसके बल पर वह किसानों पर अत्याचार कर रहा था।  उसे युध्द में जीत कर और सजा देकर किसानों पर हो रहे अत्याचार को शिवाजी महाराज ने रुकवा दिया इस प्रकार महाराष्ट्र में पूरी तरह रयतवारी ही लागू रही।

जब अंग्रेजों ने शासन प्रणाली अपने हाथ में ली तब उन्होंने न तो जमींदारी प्रथा को छोड़ा और न रयतवारी को। इसी से देश के उत्तरी भाग में जमींदारी प्रथम प्रथा कायम रही जो केन्द्रित का प्रतिनिधित्व करती है। यह समझना होगा कि हमारे देश की मूल परम्परा विकेन्द्रित समाज-व्यवस्था की ही परम्परा है और अब रिटेल के क्षेत्र में विदेशी एफडीआई को 51 प्रतिशत हक- अर्थात् पूरे निर्णायक हक देकर हम एक दूसरे प्रकार की आर्थिक ठेकेदारी का निर्माण कर रहे हैं।

कोई इस भ्रम में न रहे कि जिसे हम फुटकर बिक्री कहते हैं (जो थोक बिक्री से अलग है) वह केन्द्रित कैसे हुई, या ये न कहें कि फुटकर बिक्री तो विकेन्द्रित बिक्री है। यहां बात विकेन्द्रित बिक्री की नहीं, बल्कि केन्द्रीभूत पूंजी-निवेश की है।  जो विदेशी कम्पनियां रिटेल में एफडीआई निवेश करने आएंगी। वह नफा कमाये बिना कैसे रहेगी? उनके एक-एक अत्यंत केन्द्रित सत्तास्थान बन जाना अवश्यंभावी है।
उन्हें भण्डारण में, पैकेजिंग में और सप्लाय चेन के वातानुकूलन में तथा ट्रांसपोर्ट में जो अतिथि खर्च आने वाला है, उसके बावजूद उन्हें नफा कमाना हो तो वे किस प्रकार कमाएंगे। उनका नफा तीन प्रकार से आता है। पहला कारण- सारा बिक्री का माल पैकबंद होने क कारण ग्राहकों की खरीद फटाफट हो जाती है जिससे माल की खपत बढ़ती है। दूसरा कारण उनके पास काम करने वालों पर कम पगार और हायर एण्ड फायर की नीति चलाई जाती है। तीसरा कारण- उनके उत्पादों में अनावश्यक रूप से प्रोसेस्ड फूड और प्रिार्व्हेटिव्ह की बहुलता होती है, जिसकी अतिरिक्त कीमत ग्राहक चुकाता है।

और अब दो मुद्दों की जांच करते हैं जो किसान और खुदरा विक्रेताओं से संबंधित है। किसान के लिए यह कहा जा रहा है कि उसका माल अच्छे दामों में खरीदी जाएगा। लेकिन यह मानना गलत है कि सभी कृषि उत्पादकों को अच्छा मिलेगा। केवल कुछेक खास उत्पादकों को ही अच्छा दाम मिलेगा। मसलन, यदि उन्हें बड़े आकार वाले चमकीले सेव चाहिए तो उतने ही किसानों के सेव लिए जाएंगे जो वैसे हों। यदि वैसे सेव अपने देश में नहीं होते तो वे चीन या ब्राजील से लाकर भी हमारे देश में बेच सकते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक कृषि उत्पाद के लिए एक चलनी लगाकर देखा जाएगा कि किसे लेना है और किसे रिजेक्ट करना है। इस प्रकार के रिजेक्शन के कारण कितना अन्न-धान्य बरबाद होता है उसका हिसाब भी पहले देखना जरूरी है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश के सभी किसानों को बढ़ा-चढ़ाकर पैसे मिलेंगे ऐसी बात नहीं होगी।

जो छोटे-छोटे खुदरा विके्रेता हैं, ठेले वाले हैं, पन्सारी की दुकान चलाते हैं, किराना माल विक्रेता हैं, ऐसे करीब पांच छ: करोड़ परिवार, अर्थात् करीब बीस करोड़ लोग आज भी उस रिटेलिंग व्यवस्था पर पलते हैं। ऐसे में यह कहना कितना उचित है कि हर वर्ष एक लाख नौकरियां मिलेंगी। लेकिन हम भी उन बीस-करोड़ को भूल जाते हैं और भारत-निर्माण के विज्ञापनों में एक लाख नौकरियों की बात सुनकर खुश हो जाते हैं।

और फिर आज का रिटेलर एक एण्टरप्राइजिंग व्यक्ति है- वह अपना मालिक आप हैं। उसके पास एक छोटा-सा हुनर है, कौशल है, स्किल है। उसे मिटाकर हम उसे नौकरी करने कहेंगे  वह भी सबको नहीं। तो फिर जो बचे वे क्या करेंगे? चुप रहेंगे या कोई गैर-जिम्मेदार मार्ग चुनेंगे?
वैसे यह सच है कि कोई भी समाज पूरी तरह केन्द्रित या पूरी तरह विकेन्द्रित व्यवस्था पर नहीं चलता है। लेकिन कहां कौन सी व्यवस्था चाहिए इसका निर्णय सोच विचार कर किया जाए या बिना प्लान एकदम धड़ाके से? वह भी जब उस धमाकेदार धड़ाके से विदेशी पूंजी और विदेशी साम्रायवाद को हवा दी जा रही हो।

प्रधानमंत्री का यह कहना कि हमें कठोर निर्णय लेने पड़ेंगे- यह दर्शाता है कि अब तक चूक करते रहे। समय रहते उन्हें नहीं सुधारा तो क्या गारंटी है कि इस बार भी चूक नहीं कर रहे? और यदि सोच समझकर अपना व्यापार दूसरे को सौंपा जाए तो इससे बुरा और क्या होगा?
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