अनास्था
मत --
यादों
के झरोखेसे कुछ पन्ने
पिछले
छः सात महीनोंमें
चुनावोंका एक लम्बा दौर चला
और समाप्त हुआ है। कुछ छिटपुट
चुनावोंको छोड दें
तो अगले महत्वपूर्ण चुनाव अब
२०१९ में ही होंगे। यही अन्तराल
है जब हमें चिन्तनके स्तर पर
अपनी चुनावी प्रक्रियाके
संबंधमें सोचना पडेगा और
अनास्था मतके महत्वको समझाना
पडेगा ।
मतदानकी
प्रकियासे मैं बचपनसे ही
उत्साहित थी । १९५५ मे मतदानके
लिये जाते हुए माँ-पिताजी
पांच वर्षकी आयुमें मुझे भी
साथ ले गये और मतदान केंद्रपर
बैठे प्रिसायडिंग अधिकारीने
भी कहा-
हाँ,
हाँ
ले जाइये अन्दर,
भावी
पीढीको भी पता चले कि मतदान
कैसे करते हैं,
बस
अपना मत किसे दिया यह न बताइयेगा
।
सो
जबलपूरके किसी स्कूलमें खुले
उस मतदान केंद्रका दृश्य,
मतदाताओंकी
कतार और वह मुख्याध्यापक जैसे
दीखनेवाले प्रिसाइडिंग अधिकारी
आज भी आँखोंके सामने चलवित्रकी
तरह घूम जाते हैं।
फिर
IAS
की
नौकरीमें आई तो वरिष्ठ
चुनाव अधिकारीके नाते और भी
गहराईसे इस प्रक्रिया को देखा
। दो -
तीन
बार तो आकाशवाणी केंद्रसे भी
भाषण दिया कि निर्भय होकर और
केवल अपने मनसे पूछ कर मतदान
करें,
कर्तव्यभावनासे
करें,
इत्यादि।
लेकिन अस्सीके दशकके आते आते
मेरे कई भ्रम टूटने लगे।
अब
चुनावोंसे वे उम्मीदवार
बाहर हटने लगे जिसकी
सच्चाई और विवेकशीलता पर
निःसंदेह भरीसा किया जा सकता
था । आयाराम गयाराम और बाहुबलीयों
का बोलबाला बढता गया । चुनाव
जीतना ही एकमेव लक्ष्य हो गया
चाहे जिस विधी से हो। चुनावी
टिकट भी ऐसे उम्मीदवारोंको
दिये जाने लगे जो अपने कामसे
नही वरन पैसे और जातीके नाम
पर मतोंको बटारे
सकें। किसी भ्रष्ट नेताके
विरूध्द रणशिंग फूँकनेवाली
पार्टी उसी नेताकी अगुआईमें
मंत्रिमंडल बनाये
और सत्तामें आ पानेकी खुशी
मनाये यह भी देख लिया।
उम्मीदवार भी ऐसे उतरने लगे
जैसे चावलकी थालीमें केवल
कंकड ही कंकड दिखें।
चुनावी
अधिकारी होनेके नाते अनास्था
मत की अवधारणासे मेरा परिचय
था। तब जो पीपुल्स रिप्रेझेंटेशन
अॅक्ट चलनमें था,
उसमें
ऐसी संभावना पर विचार किया
गया था कि कोई मतदाता ऐसा भी
होगा जो कहे कि ये सारे
उम्मीदवार निकम्मे हैं,
मेरा
मत किसी को नही जायगा। लेकीन
इस संभावनाके लिये उपाय बडा
ही कमजोर बनाया गया था। वह
व्यक्ती मतदान केंद्र पर
पहुँचकर प्रिसाइडिंग ऑफिसरसे
अपनी बात कहे,
फिर
एक फॉर्म भरकर दे जिसमें वह
यही बात लिखकर दे। चुनाव अधिकारी
उसकी मतपत्रिका को रद्द करें
और उसके फॉर्मके साथ एक अलग
लिफाफेमें सील करे। मतगणना
के बाद ऐसे लिफाफे नष्ट किये
जायें । मतगणनामें उनका कोई
भी ब्यौरा न होगा।
इस
प्रकार एक मतदाता इस बातके
लिये मजबूर है कि वह बुरे
उम्मीदवारोंमें से ही किसीको
चुने या फिर वह यदि कुछ और कहना
चाहे,
फॉर्म
भरकर दे दे,
तो
उसकी कोई सुनवाई नही। उसका
मत कचरेके ढेरमें जायगा ।
लोकतंत्रमें यही तो महत्वकी
बात है कि मतदाताकी आवाज सुनीं
जाये,
और
पहले प्रावधानमें वही
नही हो रहा था।
इस
पर काफी विचार करके मैंने
पुणेके मराठी दैनिक
सकाळमें १९८८ में अपना पहला
लेख लिखा कि क्यों नापसंदगीके
मतोंकी भी गणना होनी चाहिये।
यह गणना सभी उम्मीदवारोंको
आत्मबोध करवानेका एक छोटासा
प्रयास होगा कि बंधुओं तुम
सभीसे हम तंग आ चुके हैं। उनकी
पार्टीको भी इस
आवाजको सुनता पडेगा।
मेरे
लेखपर कईयोंने प्रतिक्रिया
दी कि वे सहमत हैं। धीरे-धीरे
यही मत मुझे कई अन्य मंचोंसे
भी सुननेको मिला।
जब
संगणकोंका चलना तेज हो गया
और इंटरनेटका भी जमाना आया
तो गूगल पिटीशन जैसे कई अॅप्लीकेशन
बनकर उपलब्ध हुए जिनके माध्यमसे
आप कोई मुहिम चलायें। फिर
मैंने भी एक मुहिम चलाई जिसमें
चुनाव आयोगसे व सांसदोंसे
अपील थी कि वे अॅक्टमें ऐसा
संशोधन लायें जिससे अनास्था
मतकी गणना हो और चुनावफलकी
घोषणामें इन मतोंके आँकडें
भी बतायें जायें --
जबतक
यह नही होता,
मेरा
लोकतांत्रिक अधिकार अधूरा
है,
मेरा
नागरिकताका हक छीना जा रहा
है,
इत्यादि
। उसकी जो टिप्पणी बनाई
उसमें पहले पंद्रह दिनोंमें
ही प्राय़ः तीन हजार लोगोंने
सहमति दिखाई थी। उसमें एक
ग्रुप तो ऐसा था जिसके ८२ सदस्य
थे। अर्थात एक साथ समूह बनाकर,
एकमत
होकर लोग इसकी चर्चा करने लगे
थे।
इसी
अन्तराल में निर्वाचन आयोगने
भी यही सुझाव देते हुए सरकारसे
आग्रह किया कि मौजूदा अॅक्टमें
सुधार कर ऐसा प्रावधान लाया
जाय कि अनास्था मत भी डाला जा
सके और उसकी गिनती हो । मामला
सर्वाच्च न्यायालयमें भी
गया। सांसदोंमें
कइयोंको ऐसा संशोधन पसंद
नही था क्योंकि इससे उनकी
उम्मीदवारी संशयके घेरेमें
आती थी,
उनकी
योग्यता पर प्रश्नचिन्ह
लगता था । सो निर्वाचन आयोग,
सर्वोच्च
न्यायालय और संसद इन तीन
कार्यालयोंमें इस फाईलने
हजारों चक्कर लगाये।
फिर
एक बार श्री अब्दुल कलाम
राष्ट्रपति बने और उन्होंने
जनतासे अवाहन किया कि चुनावके
दिन घरमें बैठे न रहें बल्कि
केंद्र पर जाकर मतदान अवश्य
करें। तब खीझ कर मैंने एक लेख
फिर लिखा जिसका शीर्षक
था --
इस
चुनाव में मैं बेजुबान (दै.
हिन्दुस्तान)
।
यदि मैं किसी भी उम्मीदवार
को पसंद नही करती तो मेरे इस
मत की सुनवाई कौन करेगा?
यदि
उसकी गणना नही हुई तो मैं तो
बेजुबान ही रही । खैर,
चुनावी
सुधार तब भी नही हुए ।
मैंने एक नया मराठी
लेख भी दै.
महाराष्ट्र
टाइम्सके लिये लिखा
जिसमें मेरे तर्कके साथ साथ
चुनाव आयोगके प्रयासोंका
ब्यौरा भी था। अबतक जनमानस
भी इसके पक्षमें होने लगा था।
इसी
अन्तराल में तत्कालीन
सांसद तथा मंत्री सचिन पायलटने
पत्रकार परिषदमें
इस पूरी मुहिमको
गलत बताते हुए मतदाताओंसे
आवाहन किया कि वे अपने क्षेत्रके
उम्मीदवारोंको समझायें ताकि
कोई तो उन्हें अच्छा लगने लगे।
यह तो बहुत दूरकी कौडी लानेकी
बात थी। फिर मैंने भी
प्रश्न उठाये कि
सांसद होने के नाते पायलट
स्वयं क्या कर रहे थे,
किस
प्रकार अपनी पार्टीको समझा
रहे थे या किस प्रकार
उम्मीदवारोंके लिये मानक तय
कर रहे थे ?
स्वयं
उनके निर्वाचन क्षेत्रमें
कितने मतदाता उनके पास पहुँचकर
अच्छे उम्मीदवार लानेकी चर्चा
कर रहे थे ?
लेकिन
मुझे पता है कि सामान्य
व्यक्तिके ऐसे प्रश्न
मंत्रियों या पार्टी-वरीष्ठों
तक नही पहुँचते।
खैर,
अन्ततोगत्वा
सभी ओरसे शब्द उठने लगे,
प्रतिक्रियाएँ
आने लगीं,
तो
सांसदोंने इस सुझावको मान
लिया और इस प्रकार अनास्था
मत दर्शानेकी इच्छा
रखनेवालोंके लिये मतपत्रिकामें
और EVM
मशीनमें
ही एक चिहन बना ताकि जिस मतदाताको
कोई भी उम्मीदवार अच्छा न लगे,
वह
सबोंके प्रति अपनी अनास्था
जता सके । अब मतगणनाके
पश्चात जब प्रत्येक उम्मीदवारकी
मतसंख्या घोषित होती है,
तब
अनास्था मतोंकी संख्या भी
बताई जाती है।
सो,
देश
या समाजके नाते मंजिलकी
ओर एक-दो
पग तो हम चल लिये।
लेकिन वामन अवतार पूरा करने
के लिये तीसरा पग रखना पडता
है और उससे पहले वामन रूपको
त्यागकर विश्वरूप धारण करना
पडता है।
इस
दिशामें अभी भी लोकमानसमें
जागृति लानी बाकी है कि यदि
उन्हें सारे उम्मीदवारोंकी
नीयत पर संदेह है तो बेझिझक
अनास्था मतका ही बटन दबायें
। चैनलों पर जो सैकडों वाद-विवाद
होते रहते हैं,
उनमें
भी अभीतक मतगणनामें घोषित इन
अनास्था आँकडों पर
कोई वक्तव्य नही आया है। लोगोंको
अपने मत प्रदर्शनका अधिकार
तो मिल गया लेकिन उसकी अपार
संभावनाएँ अभी उनके अन्तस्थलको
नही छू पाई हैं।
इसका
एक महत्वपूर्ण कारण भी हैं।
२०१४ में अन्य सभी पक्षोंसे
निराश मतदाताओंके बीच भाजपाने
एक बडी आशाका संचार किया ।
इसका श्रेय निःसंदेह श्री
मोदीजीका है। यह आशा इतनी
बलवती रही कि लोगोंने अपना
निश्चित मत भाजपाके पलडेमें
डाला। लेकिन आज फिर
भाजपामें अन्य पक्षोंसे आयातित
ऐसे कई उम्मीदवार आ गये हैं
जिनपर लोगोंको संदेह है। मोदी
पर यह भरोसा जरूर
है कि वे इन उम्मीदवारोंको
कुछ भी गलत करनेसे
रोकेंगे और उनकी सांसदीय
ऊर्जाको सही दिशामें ही
चलवायेंगे। जब तक यह भरोसा
कायम है,
अनास्थामत
रूपी शस्त्र बाहर निकालना
आवश्यक नही। लेकिन निराशाका
दौर आये तो यह उपयोगी है,
इसीलिये
बीच बीचमें इसकी चर्चा अवश्य
होती रहनी चाहिये। शुभम भूयात्
।
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