मुखर हो ईमानदारोंका सहभाग
आज बडी ही प्रखरता से दीख रहा है कि देश के ईमानदार लोगों को मुखर होना पडेगा और "मुझे क्या" की मानसिकता से बाहर आकर एक स्वर में कहना पडेगा कि काले धन को विनष्ट करने के लिये हम कष्ट उठायेंगे,त्रासदी सहेंगे लेकिन यह अस्तित्व की लडाई डट कर लडते रहेंगे.
दि.८ नवम्बर को देश के प्रधानमंत्री श्री मोदीजी ने देश को संबोधित करते हुए घोषणा की कि ८ तारीख समाप्त होते ही तत्काल प्रभावसे ५०० और १००० रुपये के नोटोंका आर्थिक मूल्य बहुतांश रुपसे समाप्त होगा । प्रावधान यह भी किया कि पुराने ५०० व १००० के नोटोंके बदले २००० रुपयेके नोट प्रचलन मे लाये जायेंगे
सूनकर देश के सभी ईमानदार लोगों के मुँह से निकला होगा वाह। फिर मोदीजी ने कुछ प्रावधान गिनाये कि लोगों की त्रासदी को यथांसञ्रव दूर करने के लिये क्या क्या उपाय किये है. सबसे पहले अस्पताल-- वहाँ ये नोट स्वीकार्य होंगे ताकि बीमार व्यक्तियोंको त्रासदी न हो। डॉक्टर के प्रिस्क्रिप्शन के आधार पर उसी अस्पताल से संलग्न दवाई बेचने वाले भी ये नोट स्वीकारेंगे।
रेल स्टेशन ,पेट्रोलपंप ,सरकारी दूध डेयरियों में ये नोट स्वीकार्य होंगे ताकि लोगोंकी ये परेशानियाँ न रहें । बिजली , टेलीफोन या नगर नियमों के अन्य बिल भी इन्ही नोटोंसे चुकाये जा सकेंगे।
दूसरा बडा प्रावधान यह कि जिनके पास ये पुराने नोट हों,वे अपने बँकोंको खाते में जमा कर सकते हैं और जो ईमानदार है, जिनके पास साधारणतया छोटी रकम ही घर पर रखी होती है, उन्हें पैसे जमा कराने मे कोई संकोच नही है। वैसे बंदिश तो उसपर भी नही होगी जो लाखों -करोडों के नोट जमा कराये लेकिन उसे पता होगा कि इतनी बडी रक्कम का हिसाब तो देना ही पडेगा
इस भारी निर्णय के कारण बँकोंको बडी तैयारी करनी पडेगी जिस कारण ९ नबम्बर, बुधवार को एक दिन के लिये बँक बंद रहेंगे जब कि एटीएम दो दिन बंद रहेंगे यह इसलिये भी आवश्यक था कि ऐसा न करने पर अतिविशाल मात्रा में सौ रुपयों के नोट उपलब्ध कराने पडेंगे जो प्रायः असंभव सा है । लेकिन लोगों को नये २००० रू के नोट मिलते रहेंगे।
यह सब सुनकर जान पडा कि सचमुच काफी गंभीरता से विचार कर यह सारी योजना बनाई गई है । जिस प्रकार से इन छोटी बातों का विचार किया गया उसे
सुनकर वाह -वाही ही निकली
सुनकर वाह -वाही ही निकली
दूसरी तरफ मोदीजी ने इसके जो लाभ गिनाये उसमें आतंकवाद का खात्मा, बेईमानोंकी लुटिया डुबाना और भविष्यकाल में बँकों के व्याजदार कम किये जाने के कारण उद्योगों में वृद्धि ये तीन महत्वपूर्ण लाभ गिनाये । इनकी तुलना में चलित-मुद्रा की कमी से आनेवाली परेशानियाँ अल्पकालीन होंगी इस बात से सभी ईमानदार श्रोता सहमत थे। प्रधान मंत्री ने ८-१० दिन का अनुमान जताया । सभी ने इसका स्वागत किया,९ नवम्बर को आनेवाली प्रतिक्रियाएँ देखनेपर साफ पता चलता था कि जनसामान्य में स्वागत हो रहा था, जबकि काला धन रखनेवालों को अपना रोष छिपाना मुश्किल पड रहा था.
कुल मिलकर देश की जनता इस बात को समझ रही थी कि सरकार की इस योजना से काला धन समाप्त होगा, ईमानदारोंकी साख बढेगी, और आतंकवाद पर भी यह कडा प्रहार रहेगा ! आनेवाले दो दिन बँक व एटीएम बंद रहेंगे लेकिन कोई बात नही. इतनी परेशानी तो झेल लेंगे !
यह सही है कि तीसरे, चौथे, पाँचवे दिन से आजतक लोगोंने इतनी कठिनाइयाँ झेली हैं, जितनी उन्होंने सोची नही थी, या जिसके लिये वे मानसिक और पर तैयार नही थे ! सच कहें तो सरकारी -तंत्र भी हर प्रकार की स्थितिके लिये कहाँ तैयार था? लेकिन इस बातको भी हमें स्वीकारना होगा कि संसार में कोई व्यक्ति या कोई योजना संपूर्णतया दोषमुक्त नही होते ! संपूर्णतया योग्य या ज्ञानी तो केवल भगवान ही हो सकता है ! सरकारी तंत्र में भी कई कमियाँ रहीं जो पिछले दस दिनों में उभरकर सामने आई और ईमानदार लोगोंके लिये ये वृद्धिंगत ही होती दिख रही थी ! मोदी जी का जो पहला अनुमान था कि कठिनाइयाँ ८-१० दिन रहेंगी, वह गलत निकला, अब वे स्वयं मानते हैं कि ये ५० दिन रहेंगी ! शायद कुछ और भी दिन लगें ! और इस चलित मुद्रा की कमी के कारण जो प्रतिदिन का खुदरा व्यापार व सेवाएँ दीं या लीं जाती थीं, उनपर बडे पैमाने पर मंदी छा गई ! वह भी शायद सौ दिन चले !
इस चलित मुद्रा की किल्लत का गणित बडा सरल है ! सरकारी आँकडें बताते हैं कि देशकी अर्थव्यवस्था में कमसे कम ८० प्रतिशत व्यवहार ५०० ( या १००० ) रूपये की नोटों के माध्यमसे होता था !अर्थात यदी कुल व्यवस्था दस हजार रूपये की हो तो उसमें आठ हजार रूपये - ५०० नोटों के रूप में थे ! अर्थात १६ नोटें ५०० की ओर २० नोटें १०० की ! अब यदी इन १६ नोटों को बदलना हो तो सौ रूपये की अतिरिक्त ८० नोटें चाहीये !
यानी ५०० रूपये की जितनी भी नोटें बदली जाने का अनुमान है, उसके पांच गुना अधिक सौ रूपये की नोटों का होना जरूरी था । और ये नोटें देश के सभी कोनों की बँकों में, पोस्ट ऑफिसों मे ओर एटीएमों में सुवितरित रूपसे रहें यह भी आवश्यक था !
तो स्पष्ट है कि यदी किसीने यह गणित कर भी लिया तो भी इस वितरम की व्यवस्था करना आरंभ होते ही पूरी योजना का भांडा फूटने में तनिक भी देर नही होती !इसलीये इस संकट का पूर्व- समाधान निकालने के बजाय इसे झेलना ही बुद्धिमानी थी ! उसी का एक छोटा हल था कि २००० रूपये का नोट अर्थव्यवस्थामें उतारा जाय ताकि वह तत्काल रूपसे एक सौ रूपये के २० नोटों का पर्याय बन सके ! फिर दो-तीन वर्षों बाद इन बडे नोटों की धीरे-धीरे वापस लिया जा सकता है ! ओर उन नोटों का भी पूर्व वितरण असंभव था ! सो वे नोटें भी धीरे धीरे ही उपलब्ध होंगी यह बात भी योजना बनाने वालों के मनमें और गणित में रही होंगी ! यदि न भी रही हों तो एक बात पर उन्हें माफ किया जा सकता है !
वह बात है पाकिस्तान - प्रणित आतंकवाद का सफाया ! काफी हद तक नक्षल ओर उल्फा जैसी संगठनों का भी सफाया ! सर्जिंकल स्ट्राइक के बाद से ८ नवम्बर तक बारबार सीजफायर का उल्लंघन हो रहा था ओर प्रतिदिन हमारे जवान शहीद हो रहे थे या जख्मी हो रहे थे ! लेकीन ९ नवम्बर के बाद वे घटनाएँ काफी कम हुई ! काश्मीरी उपद्रवियों की पत्थरबाजी जो पाकिस्तान द्वारा भेजी गई मोटी रकमोंकी लालच में होती थी, वह थम गई !नक्षलियों ने आत्मसमर्पण भी करना आरंभ किया !
यदी सरकार डटी रहे, ओर नोटबंदी को वापस नही ले तो आतंकवाद का नेटवर्क इस प्रकारसे टूटेगा कि फिर पांच दस वर्ष तक भी दुबारा गठित नही हो सकेगा ! यह एक ऐसी बडी उपलब्धि होगी जिसके सम्मुख देश की सवासौ करोड जनता की तात्कालिक कठिनाइयाँ कई गुना सहनीय होंगी बशर्ते की वे तात्कालिक ही रहें ! ओर वे तात्कालिक रहें इसके लिये तीन-चार बातें आवश्यक होंगी !
पहली यह कि सरकार २००० रूपये की तथा ५०० रूपये की नई नोटें यथासंभव शीघ्रतासे उपलब्ध कराये ! अधिकाधिक स्थानों पर डेबिट कार्ड से भुगतान, या कॅश डिस्पेन्सर सें पैसे निकालने की सुविधा, पेटीएम अदि लागू किये जाये ! एटीएम मशीनों को युद्ध स्तर पर ठीक कराया जाय ताकी उनकी कतारे घटें ओर लोग आश्वस्त हो जायें कि अब उन्हें अधिक कॅश संभालने की आवश्यकता नही, जब चाहें एटीएम से निकाल सकते है !आदि, आदि !
दूसरी बडी बात यह है की इस पूरे व्यवहार में सबसे खुश तो अरबोपती नजर आ रहे हैं ! कहीं पांचसौ करोड की शादीयाँ धडल्ले से हो रही हैं तो कहीं बडे उद्योगपतियों के बँक कर्ज को माफी दी जा रही है !केजरीवाल बार बार प्रश्न उठा रहे हैं कि पिछले १० दिनोंमें ६००० करोड रूपये की कर्ज माफी क्यो दी गई ओर कोई भी सरकारी प्रवक्ता इस प्रश्नका सीधा उत्तर नही दे रहा !
सामान्य जनता देख रही है कि उसे तो अपना ही पैसा निकालनेमें कठिनाई हो रही है ! यह भी देख रही है कि सौ-दो सौ करोड तक का काला धन रखनेवाले भी संकट में हैं ओर उनका काला धन निकल रहा है ! यदि पूरा न भी निकले तो भी उसका बडा हिस्सा बेमानी हो रहा है।
इमानदार सामान्य जनोंके लिये यह एक तसल्लीका विषय है। क्योंकि अबतक वह अपने आसपास ऐसे बेइमान देखता आया है जो कलतक तो उसीकी श्रेणीमें थे लेकिन आज किसीसे रिश्वत लेकर अचानक धनी बन गये । ऐसे रिश्वतखोरोंसे केवल वे ही दुखी नही होते जिन्हें रिश्वत देनी पडी, बल्कि अगल-बगलके सभी ईमानदार भी अपना संस्कार और हौसला खोने लगते हैं औऱ निराश हो जाते हैं। इसीलिये इन छोटे और मँझोले काले धनवानोंका सफाया होना भी एक बडी उपलब्धि रहेगी।
फिर भी यदि सरकार और खासकर मोदीजी उन कर्जखोरोंको माफ करते दिखे जो अरबों रुपयोका कर्ज डकार गये या सरकार को सालोंसाल इनकम टॅक्स ट्रिब्यूनल या सुप्रीम कोर्ट में उलझा रखनेमें सफल रहे तो फिर मोदीजीकी अपनी ही साख शून्यवत् हो जायगी। इस कामके लिये अभी शायद सही समय नही है लेकिन अगले एक वर्षमें इस मुद्देको निपटाना होगा।
तीसरा काम भी सरकार जल्दीही आरंभ कर सकती है। वह अत्यावश्यक भी है और संभव भी है वह है ब्याजदरें घटाकर कृषी उद्योग और व्यापारको बढावा देना।
जनता देख रही है कि बैंकोंकी तिजोरियाँ भर रही हैं। इसका बडा हिस्सा शीघ्रतासे किसानोंके लिये उपलब्ध कराना होगा। चाहे वह अधिकाधिक इन्फ्रास्ट्रक्चरकी सुविधा के रूपमें हो या फिर कर्ज, बीमा, कर्जमाफी आदि मुद्दोंपर हो । सबसे प्रभावी और शीघ्र-कारीगर इन्फ्रास्ट््क्चर क्या होगा -- वह है ग्रामीण इलाकोंमें विकेंद्रित पणन व्यवस्था। कोल्ड स्टोरेज, अनाजकी प्रभावी लेनदेन, और किसानके अपने स्टॉकपर कर्जकी सुविधा इत्यादि। एक छोटे मॉडेलके रूपमें बंगलोर स्थित सिल्क एक्सचेंजका उदाहरण देखा जा सकता है। किसान व ग्राहकके बीच सीधी
लिंक जुडे ऐसे इन्फ्रास्ट्रक्चर बनानेमें भी सरकारी पहल व सहायताकी आवश्यकता होगी । वह इन्फ्रास्ट्रक्चर होगा इंटरनेेेट या मोबाईल कनेक्टिविटीका जिसके लिये सरकारके पास आज भी भारी मात्रामे ओएफसी केबल उपलब्ध हैं (रेल्वे व ऑइल कंपनियोंके ओएफसी नेटवर्क, जो सुरक्षाके कारणोंसे जरूरतसे कहीं अधिक विछाये जाते हैं) । इन्हींके ब्राँच केबल गाँव-गाँव पहुँचाये जा सकते हैं --यह मॉडेल भी स्वीडनका जाँचापरखा मॉडेल है ।
जनता देख रही है कि बैंकोंकी तिजोरियाँ भर रही हैं। इसका बडा हिस्सा शीघ्रतासे किसानोंके लिये उपलब्ध कराना होगा। चाहे वह अधिकाधिक इन्फ्रास्ट्रक्चरकी सुविधा के रूपमें हो या फिर कर्ज, बीमा, कर्जमाफी आदि मुद्दोंपर हो । सबसे प्रभावी और शीघ्र-कारीगर इन्फ्रास्ट््क्चर क्या होगा -- वह है ग्रामीण इलाकोंमें विकेंद्रित पणन व्यवस्था। कोल्ड स्टोरेज, अनाजकी प्रभावी लेनदेन, और किसानके अपने स्टॉकपर कर्जकी सुविधा इत्यादि। एक छोटे मॉडेलके रूपमें बंगलोर स्थित सिल्क एक्सचेंजका उदाहरण देखा जा सकता है। किसान व ग्राहकके बीच सीधी
लिंक जुडे ऐसे इन्फ्रास्ट्रक्चर बनानेमें भी सरकारी पहल व सहायताकी आवश्यकता होगी । वह इन्फ्रास्ट्रक्चर होगा इंटरनेेेट या मोबाईल कनेक्टिविटीका जिसके लिये सरकारके पास आज भी भारी मात्रामे ओएफसी केबल उपलब्ध हैं (रेल्वे व ऑइल कंपनियोंके ओएफसी नेटवर्क, जो सुरक्षाके कारणोंसे जरूरतसे कहीं अधिक विछाये जाते हैं) । इन्हींके ब्राँच केबल गाँव-गाँव पहुँचाये जा सकते हैं --यह मॉडेल भी स्वीडनका जाँचापरखा मॉडेल है ।
बारबार कहा जा रहा है कि अब बैंकोंके पास बहुत पैसा है। तो आईये, हम सब अच्छी तरह समझ लें कि यह बैंकोका पैसा नही वरन देशका पैसा है जो कुछ काले-धन-ग्राही लोगोंने औरोंसे लूटकर अपने पास छिपा रखा था।
आज सर्वाधिक त्रस्त है किसान, व ग्रामीण इलाकोंके लोग. तो आइये माँग करें कि इस पैसेको शीघ्रातिशीघ्र ग्रामीण इन्फास्ट्रक्चर में लगाया जाय -- सहसे पहले ग्रामीण पोस्ट ऑफिसें और पोस्टल-बैंकिंग मजबूत हो। ओएफसी नेटवर्क जो रेलवे और पेट्रोलियम कंपनियोंके पास बहुतायतसे है पर उपयोगमें नही लाया जा रहा उसके छोटे छोटे एक्टेंशन गाँवोंतक पहुँचाकर ग्रामीण जनता को इंटरनेटकी सुविधा दी जाय। गाँवोंमें विकेंद्रित पणन व्यवस्थाको सशक्त किया जाय । फसल बीमाकी कोई सही पढाई व मूल्यांकन नही हो रहा, उसे किया जाय और वह राशी भी बढाई जाय, असिंचित क्षेत्रोंमें तुषार-सिंचन व ड्रिप आये, सेझ झोन्स की बजाये चराई जमीनोंका व पशुधनका विकास हो, विकेंद्रित बाँध बनाये जायें, किसानोंके लिये सामाजिक सुरक्षा, खासकर बुढापेमें इलाजकी व्यवस्था आदि आदि कई काम हैं जो शीघ्रतासे आरंभ किये जा सकते हैैं।
आज सर्वाधिक त्रस्त है किसान, व ग्रामीण इलाकोंके लोग. तो आइये माँग करें कि इस पैसेको शीघ्रातिशीघ्र ग्रामीण इन्फास्ट्रक्चर में लगाया जाय -- सहसे पहले ग्रामीण पोस्ट ऑफिसें और पोस्टल-बैंकिंग मजबूत हो। ओएफसी नेटवर्क जो रेलवे और पेट्रोलियम कंपनियोंके पास बहुतायतसे है पर उपयोगमें नही लाया जा रहा उसके छोटे छोटे एक्टेंशन गाँवोंतक पहुँचाकर ग्रामीण जनता को इंटरनेटकी सुविधा दी जाय। गाँवोंमें विकेंद्रित पणन व्यवस्थाको सशक्त किया जाय । फसल बीमाकी कोई सही पढाई व मूल्यांकन नही हो रहा, उसे किया जाय और वह राशी भी बढाई जाय, असिंचित क्षेत्रोंमें तुषार-सिंचन व ड्रिप आये, सेझ झोन्स की बजाये चराई जमीनोंका व पशुधनका विकास हो, विकेंद्रित बाँध बनाये जायें, किसानोंके लिये सामाजिक सुरक्षा, खासकर बुढापेमें इलाजकी व्यवस्था आदि आदि कई काम हैं जो शीघ्रतासे आरंभ किये जा सकते हैैं।
इस विषयपर प्रधानमंत्रीको शीघ्र समय देकर विमर्ष करना चाहिये।
एक ओर किसान तो दूसरी ओर छोटे उद्यमी व व्यापारी। उन्हें कम ब्याज दरपर कर्ज मिलनेकी सुविधा होनी चाहिये। बैंकोके पास पहुँच रही अपार धनराशीका लाभ यदि एक समय-सीमाके अन्दरही किसान, छोटे उद्यमी व व्यापारीतक पहुँचाया गया तो ही आर्थिक मंदीका संकट टाला जा सकता है वरना विपक्ष तो डंकेकी चोट कह रहा है कि काला धन ही आर्थिक मंदीको रोक सकता है अर्थात् कितना भला है देशमें काले धनका होना। और विपक्ष ताक लगाकर बैठा हैै कि वह आर्थिक मंदी तेजीसे आये ताकि सरकारकी छीछालेदर हो। यह भी सही है कि उस
समयसीमा के पहले ही किसान, छोटे उद्यमी व व्यापारीतक सुविधाओंका लाभ नही पहुँचा तो उससे उत्पन्न होनेवाली आर्थिक मंदीकी स्थिति आजकी तात्कालिक कठिनाइयोंकी अपेक्षा कई गुना अधिक होंगी।
समयसीमा के पहले ही किसान, छोटे उद्यमी व व्यापारीतक सुविधाओंका लाभ नही पहुँचा तो उससे उत्पन्न होनेवाली आर्थिक मंदीकी स्थिति आजकी तात्कालिक कठिनाइयोंकी अपेक्षा कई गुना अधिक होंगी।
ग्रामीण भागोंमें जहाँ कठिनाई की मार अधिक है,वहाँ साधन व सुविधा पहुँचाने का पयास किया जाये। यह हममेंसे हर कोई कर सकता है। लोग कर भी
रहे है और उनपर हमें अभिमान भी होता है। आरंभिक दिनोंमें प्रायः सभी बैंक कर्मचारियोंने ओवरटाइम काम किया है -- रात ग्यारह-बारह बजेतक। लाइनमें लगे लोगोंकी परेशानी देखकर कोई लाइन में खडे लोगों को पानी पिला रहा है,कोई अपनी छोटी नकदी बँक में दे रहा है ताकि उसे किसी जरूरतमंद को दिया जाये। कई दुकानदार भी उधार दे रहे हैं। सरकारी तंत्र भी अपनी और से कुछ कुछ नयी सुविधाएँ जोड रहा है। ये सारा होता रहे तो जनसामान्य की आशा नही टूटेगी।
रहे है और उनपर हमें अभिमान भी होता है। आरंभिक दिनोंमें प्रायः सभी बैंक कर्मचारियोंने ओवरटाइम काम किया है -- रात ग्यारह-बारह बजेतक। लाइनमें लगे लोगोंकी परेशानी देखकर कोई लाइन में खडे लोगों को पानी पिला रहा है,कोई अपनी छोटी नकदी बँक में दे रहा है ताकि उसे किसी जरूरतमंद को दिया जाये। कई दुकानदार भी उधार दे रहे हैं। सरकारी तंत्र भी अपनी और से कुछ कुछ नयी सुविधाएँ जोड रहा है। ये सारा होता रहे तो जनसामान्य की आशा नही टूटेगी।
एक गंभीर समस्या है विश्वसनीयताका संकट या विश्वसनीयता की समाप्ति। आये दिन समाचार दिखाये जा रहे हैं कि कैसे करोडोंकी संपत्ति दलालोंके पास लाई जा रही है और वे ३० % कमिशन लेकर बाकी संपत्ति नये नोटोंके रूपमें दे रहे हैं।इसपर दो प्रश्न उठते हैं कि आखिर ये दलाल इतने नये नोट लाते कहाँ से हैं । साथही जो पुराने नोट वे स्वीकारते हैं उनके लिये कुछ तो गॅरंटीड सेटिंग उनके पास है वह क्या है ?
दोनों प्रश्नोंका एक ही उत्तर संभव लगता है कि बँकोंंके मॅनेजरोंकी सक्रिय सहायता के बिना यह संभव नही। हो सकता है कि उनके पास आरबीआयसे जो भी नये नोट जनसामान्य के लिये आ रहे हैं उनका बडा हिस्सा इस दलालीमें जा रहा हो और इसी कारण जनताको बँकोंके दरवाजेसे खाली हाथ लौटना पडता हो ।
कई जगहोंपर इनकम टॅक्सकी रेडमें बँक मॅनेजरोंके पकडे जाने की खबर सुनकर लगता है कि यही हो रहा है। तो फिर सोचना पडेगा कि जब आरबीआई किसी ब्रांचतक पैसे पहुँचाती है तो उसके पास बैंकोंसे प्रतिसूचना क्या आती है -- क्या आरबीआई के तंत्रमें यह जाँचनेकी व्यवस्था है कि उसमेंसे कितना पैसा पिछवाडेसे गायब हुआ और कितना कतारमें खडे लोगोंको उपलब्ध हुआ ? और यदि ऐसा सूचना पानेका तंत्र है तो आरबीआई लोगोंको बताये वरना लोगोंको कैसे पता चले कि उनकी कतारें खत्म होनेवाले दिन कब आने हैं ?
दूसरी ओर बैंकोंसे पैसा दलालोंके पास पहुँचाये जानेकी खबरोंसे समझमें आता है कि धनलालचका यह विष कितनी गहराई तक हमारे देश की रगोंमें घुस चुका है। यह लडाई लम्बी चलनेवाली है।
इसीलिये आज हर इमानदार व्यक्तिको मुखर होना पडेगा और क्रियावान भी। काले धनपर वज्रप्रहार होता रहे यह स्वर सम्मिलित रूपसे उठाते रहना होगा। लोगोंकी छोटी-छोटी तकलीफें मिटानेवाले सुझाव देते रहने होंगे। यह काम मीडीया अच्छी तरह कर सकता है और कर भी रहा है लेकिन सामान्यजन भी उसमें जुडें तो और भी अच्छा )
आजतक जिस ईमानदार व्यक्ति को लगता रहा की उसके आसपास फैले काला धन जोडनेवालों की वजह से समाज में उसकी साख कम हो रही थी, उसके लिये यह ऐसा मौका है जो कई वर्षोतक फिर नही मिलने वाला। इसी मौंके को भुनाने के लिये उसे मुखर भी होना पडेगा और संगठित भी। उसकी मुखरता और क्रियाशीलता से ही काले धन पर मारा गया यह वज्र प्रहार सफल हो सकेगा।
आइये अपनी चुप्पी तोडें,उदासीनता को छोडें और माँग करे कि जबतक काले धन व काले धन बनाने की सुविधा कायम है,तब तक उनके विरूद्ध यह लडाई लडी जाये। इसमें सामान्यजनकी त्रासदी घटानेके लिये जो मदद हमसे हो सके हम करें। युद्ध हो, पूर्ण विजय के लिये।
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वाचावेच असे काही
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*रक्तविहीन क्रांतीची सुरुवात..!!*
यमाजी मालकर
ymalkar@gmail.com
मोठ्या नोटा अंशत: रद्द केल्या गेल्याच्या निमित्ताने अर्थकारणावर देशभर जो जागर सुरु झाला आहे, तो सर्व भारतीय नागरिकांना खरे आर्थिक स्वातंत्र्य मिळाल्याशिवाय म्हणजे एक रक्तविहीन अर्थक्रांती झाल्याशिवाय आता थांबणार नाही.
अर्थक्रांती प्रतिष्ठान गेले १६ वर्षे ज्या आमूलाग्र बदलांचा आग्रह धरत होते, त्याची सुरुवात मोठ्या नोटा अंशतः बंद करून केंद्र सरकारने केली आहे. अर्थक्रांतीचा एक प्रस्ताव आहे आणि त्याचे पाच महत्वाचे मुद्दे आहेत. त्याआधारे देशात दोन वर्षांत आमूलाग्र बदल होऊ शकतो. या सर्व बदलांची सुरुवात एकाच वेळी केली तर हा बदल अतिशय सुरळीत होईल, असे प्रतिष्ठानचे म्हणणे आहे आणि त्यासंबधीचा काही अभ्यास प्रतिष्ठानने केला आहे. या प्रस्तावाचा अभ्यास करण्यासाठी सरकारने एक उच्चस्तरीय आयोग नेमावा आणि विशिष्ट कालमर्यादेत त्याचा अहवाल देशालासादर करावा, यासाठी विनम्र आग्रह उपक्रम गेल्या ११, १२ आणि १३ नोव्हेंबर रोजी पुण्यात शनिवारवाड्यासमोर झाला. योगायोग असा की त्यापूर्वी केवळ चार दिवस आधी म्हणजे ८ नोव्हेंबर रोजी पंतप्रधान नरेंद्र मोदी यांनी मोठ्या नोटांच्या संदर्भातील हा ऐतिहासिक निर्णय जाहीर केला. ५०० आणि १००० रुपयांचे चलनातील मूल्य ८६ टक्क्यांवर पोचले असून ते देशासाठी चांगले नाही, अशी मांडणी या देशात फक्त अर्थक्रांती प्रतिष्ठान करत होते. अर्थतज्ज्ञ त्याविषयी कधीच आग्रही नव्हते. त्यामुळे हा निर्णय जाहीर झाल्यावर सरकारने अर्थक्रांती प्रतिष्ठानचे म्हणणे अखेर ऐकले, अशा प्रतिक्रिया उमटल्या आणि त्या साहजिकच होत्या.
देशाची आर्थिक स्थिती लक्षात घेतली तर हे ऑपरेशन केले गेले पाहिजे होते, याविषयी माजी पंतप्रधान आणि अर्थतज्ञ मनमोहनसिंग यांच्यासह कोणाचेच दुमत नाही. पण ते ज्या पद्धतीने केले गेले, त्याविषयी प्रत्येकाचे काही म्हणणे आहे. पंतप्रधान नरेंद्र मोदी यांनी हे ऑपरेशन करण्याचे जाहीर केले, तेव्हा त्यांच्या सरकारकडे याविषयी आपल्यापेक्षा अधिक माहिती असेल आणि त्या आधारे त्यांनी हा निर्णय घेतला, असे आम्ही समजतो. मूळात एकदा ऑपरेशन अत्यावश्यक होते, हे मान्य केले की ते करताना रक्त किती गेले, याला फार महत्व उरत नाही. युद्धात जसे आपल्या देशाचे संरक्षण महत्वाचे ठरते, तसेच हे आहे. अर्थात या निर्णयाची अंमलबजावणी कशी केली पाहिजे, हा सरकारचा विषय असून सरकार त्याच्या बाजूने परिस्थिती सुधारण्याचे प्रयत्न करते आहे. ऑपरेशन यशस्वी व्हावे आणि हा देश पुढे जावा, अशी प्रार्थना आपण करू यात.
हा रोग किती जुना आणि तो शरीरात किती भिनला होता, हे पाहिले की त्याचा एवढा त्रास का झाला, हे लगेच लक्षात येते. शेतसारा रुपयांतच दिला पाहिजे, अशी सक्ती ब्रिटीशांनी भारतीय शेतकऱ्यांवर केली तेव्हापासून आपल्या देशाचे पैशीकरण सुरु झाले. तोपर्यंत भारतीयांना चांदी आणि सोन्याची नाणी पैसे म्हणून वापरण्याची सवय होती. काही राजांचे चलन चलनात होते, मात्र त्यात एकवाक्यता नव्हती. ही संधी साधून ब्रिटीशांनी सर्व भारतात चालणाऱ्या रुपया नावाच्या नव्या चलनाला जन्म दिला. पण हे कागदी चलन भारतीयांना काही पटले नाही. त्यामुळे हे कागदी चलन सर्वमान्य होण्यासाठी बराच कालावधी गेला. बहुसंख्य असलेल्या शेतकऱ्यांनी ते स्वीकारावे, यासाठी अखेर त्याची सक्ती करावी लागली. या कागदी पैशांत अडकलेला शेतकरी वर्ग त्यातून अजूनही म्हणजे पावणे दोनशेवर्षे झाली तरी बाहेर पडू शकला नाही. शेतकऱ्यांचे आणि या देशाचे शोषण करण्यासाठी ब्रिटीशांनी रुपया वापरला आणि आज स्वतंत्र भारतात ज्यांनी रुपयाचे म्हणजे पैशांचे महत्व ओळखले, त्या वर्गानेही त्याच मार्गाने शेतकऱ्यांचे शोषण सुरूच ठेवले आहे.
सर्वकष्ट, उत्पादन आणि संपत्ती आम्ही आज रुपयांत मोजतो आहोत आणि आधुनिक जगात त्याला दुसरा मार्ग नाही. त्यामुळे चलन नावाचे हे गारुड सर्वांना वापरायला मिळाले पाहिजे आणि ते प्रवाही असले पाहिजे, याविषयी शंका असण्याचे कारण नाही. कारण चलनाची निर्मितीच मुळात माध्यम म्हणून झाली आहे. पण मोठ्या मूल्याच्या चलनामुळे ती वस्तू म्हणून वापरले जात असल्याने आज आर्थिक कोंडी झाली आहे. हवेवर आणि भाषेवर आपली खासगी मालकी दाखविले तर चालेल का?
कागदाला सरकारने ‘लीगल टेंडर’ म्हटले की त्याचा पैसा होतो. त्याची किती निर्मिती करायची, याचा अधिकार ब्रिटीश सरकारने घेतला आणि नोटांची अधिक छपाई करून भारतीय कष्ट आणि उत्पादने स्वस्तात विकत घेण्यास सुरुवात केली. तो शिरस्ता स्वतंत्र भारतातील सरकारे आणि या जादुई कागदाचे महत्व ओळखणाऱ्या वर्गाने आजपर्यंत चालू ठेवला आहे. गेल्या काही दिवसांत बँकेत जमा झालेल्या सात आठ लाख कोटी रुपयांनी आणि सर्वत्र सापडणाऱ्या नोटांच्या पोत्यांनी ते सिद्धच केले आहे. ३० डिसेंबर अखेर किती लाख कोटी रुपये जमा होतील, हे पाहिल्यावर हा पैसा बँकेबाहेर होता, तरी हा देश जिवंत कसा होता, असा प्रश्न पडेलच. एकेकाळी कागदी नोटांना हात न लावणारा समाज त्या नोटा म्हणजे सबकुछ आहे, असे आता मानू लागला होता, हे फार भयानक सत्य आहे.
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांनी एक अर्थतज्ञ म्हणून या प्रश्नाचा सर्वात आधी उलगडा केला आणि रुपयांत भारतीयांचे होणारे शोषण किती भयानक आहे, हे दाखवून दिले आहे. ‘ईस्ट इंडिया कंपनी: प्रशासन आणि वित्तप्रणाली’ हा त्यांचा याविषयावरील पहिला ग्रंथ. या शोधनिबंधात त्यांनी १७९२ ते १८५८ या कालखंडातील ईस्ट इंडिया कंपनीच्या प्रशासन आणि वित्तप्रणाली संबंधीच्या धोरणातील बदलाचा आढावा घेतला आहे. ‘ब्रिटीश भारतातील प्रांतिक वित्ताची उत्क्रांती’ हा त्यांनी पीएच.डीसाठी कोलंबिया विद्यापीठाला सादर केलेला प्रबंध. (१९२७) लंडन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्समध्ये डॉक्टर ऑफ सायन्स या अत्युच्च पदवीसाठी लिहिलेला ‘रुपयाचा प्रश्न: उद्गम आणि उपाय’ या प्रबंधात त्यांनी भारतीय चलनाचा विनिमयाचे साधन म्हणून झालेला विकास आणि सोने, चांदी अशा मौल्यवान धातूंच्या संदर्भातील त्याची सममूल्यता याची चर्चा केली आहे.
डॉ. आंबेडकर यांना, भारताला आर्थिक साक्षर करण्याचा मार्ग सोडून जातीभेदाविरुद्धचा लढा हाती घ्यावा लागला. देशाच्या दृष्टीने एवढा महत्वाचा विषय इतक्या पोटतिडकीने मांडण्याचे धाडस पुढे कोणी केले नाही. त्यामुळे रुपयाचे गुपित कळणारा वर्ग मर्यादितच राहिला, एवढेच नव्हे तर गेली किमान दीडशे वर्षे बहुजन भारतीय समाज रुपयाच्या या चक्रव्ह्यूवात फसत राहिला. स्वतंत्र भारतातही गेली ७० वर्षे त्यात मोठा बदल होऊ शकला नाही. सरकारने मोठ्या नोटा कमी करण्याचापरवा निर्णय घेतल्यानंतर तो भांबावला, त्याचे कारण हे आहे.
पण या भांबावण्यात एक गोष्ट खूप चांगली झाली. अर्थकारणाविषयी तो अजिबात बोलत नव्हता, कागदी नोटा, त्यांचे प्रमाण, रिझर्व बँक, करव्यवस्था, व्याजदर हे त्याचे कधीच विषय नव्हते. ते त्याचे विषय झाले. एकूणचज्या अर्थकारणाने त्याचे सारे आयुष्य बांधून टाकले आहे, त्याविषयी तो कालपर्यंत मूक होता. तो आता उघडपणे बोलू लागला आहे. वाद घालू लागला आहे. काय झाले पाहिजे, हे सांगू लागला आहे. देशाला मिळालेल्या स्वातंत्र्यासोबत जे राजकीय स्वातंत्र्य मिळाले, ते पुरेसे नाही, राजकारणाला चालविणाऱ्या अर्थकारणाविषयीही आता आपण बोलले पाहिजे, याची त्याला जाणीव होऊ लागली आहे आणि हे फार महत्वाचे आहे. एवढे महत्वाचे की, स्वतंत्र भारतात ज्या आर्थिक स्वातंत्र्याचे स्वप्न सर्वसामान्य नागरिकपाहतो आहे, त्यादिशेने जाण्याची सुरुवात आता झाली आहे.
अर्थात, लाखो शेतकऱ्यांनी, आपण या व्यवस्थेत जगू शकत नाही, म्हणून आत्महत्या केल्या, हे कसे विसरता येईल? त्या आत्महत्या हा आपल्या देशातील उरफाट्या अर्थकारणाचा थेट परिणाम आहे. या ऑपरेशनला आज सुरुवात केली नसती तर भविष्यात अशा किती आत्महत्या पाहण्याची वेळ आपल्यावर आली असती, याची कल्पना करवत नाही. लोकसंख्येची घनता प्रति चौरस किलोमीटर तब्बल ४२५ इतकी असलेला देश पैसा नावाच्या राक्षसाला शरण गेला आणि त्याने मागणी केल्यानुसार आपल्याच माणसांना बळी देत गेला. हे बळी जाणे, आता आपल्या आजूबाजूला दिसू लागले होते आणि त्याला वेगवेगळी नावे देण्याचे काम आपल्यातलीच काही मंडळी हिरीरीने करत होती. आपल्याला त्या राक्षसाचे बोलावणे येऊ नये, एवढा संकुचित विचार करणे, खरे तर पाप होते. पण ते पाप आपल्यातील अनेकांनी केले. असो..
हे ऑपरेशन अवघड खरे, पण ते टाळता येणार नाही. ते टाळले, तर आपल्याला फक्त पोस्टमार्टेम करावे लागेल, असे अर्थक्रांती म्हणत होती. कारण हा इलाज आत्ताच केला नसता, तर या देश रक्तरंजित क्रांतीला सामोरा गेला असता. विषमतेचे पीक इतके माजले आहे की त्याला उखडून टाकणे, हे एक समाज म्हणून आपली जबाबदारी आहे. त्या जबाबदारीच्या भावनेतून अर्थक्रांती प्रतिष्ठान पाच मुद्द्यांचा प्रस्ताव गेली १६ वर्षे मांडते आहे. केवळ मोठ्या नोटा कमी करून प्रश्न सुटणार नाहीत. त्यासाठी करपद्धतीत अर्थक्रांती सांगते तसा बदल करावाच लागेल. त्याची सुरुवात म्हणून सरकारने हे पाउल उचलले असे आम्ही समजतो.
या देशात आणि समाजात किती प्रचंड ताकद आहे, याची आपल्यापैकी अनेकांना अजून जाणीव नाही. ते देश आणि आपला समाज किती वाईट आहे, याचे चित्र रंगविण्यात आपली बुद्धी खर्च करत आहेत. आता, अर्थशास्त्रातील ‘मागणी’च्या बाजूने विचार करायचा तर भारतातील १३० कोटी लोक जेवढी ‘मागणी’ करू शकतात, तिला जगाच्या पाठीवर तोड नाही. त्यामुळे पुढील महिनाभरातया शस्त्रक्रियेच्या काही जखमा भरून येतील. पण यानिमित्ताने अर्थकारणावर देशभर जो जागर सुरु झाला आहे, तो सर्व भारतीय नागरिकांना खरे आर्थिक स्वातंत्र्य मिळाल्याशिवाय म्हणजे एक रक्तविहीन अर्थक्रांती झाल्याशिवाय थांबणार नाही.
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*रक्तविहीन क्रांतीची सुरुवात..!!*
यमाजी मालकर
ymalkar@gmail.com
मोठ्या नोटा अंशत: रद्द केल्या गेल्याच्या निमित्ताने अर्थकारणावर देशभर जो जागर सुरु झाला आहे, तो सर्व भारतीय नागरिकांना खरे आर्थिक स्वातंत्र्य मिळाल्याशिवाय म्हणजे एक रक्तविहीन अर्थक्रांती झाल्याशिवाय आता थांबणार नाही.
अर्थक्रांती प्रतिष्ठान गेले १६ वर्षे ज्या आमूलाग्र बदलांचा आग्रह धरत होते, त्याची सुरुवात मोठ्या नोटा अंशतः बंद करून केंद्र सरकारने केली आहे. अर्थक्रांतीचा एक प्रस्ताव आहे आणि त्याचे पाच महत्वाचे मुद्दे आहेत. त्याआधारे देशात दोन वर्षांत आमूलाग्र बदल होऊ शकतो. या सर्व बदलांची सुरुवात एकाच वेळी केली तर हा बदल अतिशय सुरळीत होईल, असे प्रतिष्ठानचे म्हणणे आहे आणि त्यासंबधीचा काही अभ्यास प्रतिष्ठानने केला आहे. या प्रस्तावाचा अभ्यास करण्यासाठी सरकारने एक उच्चस्तरीय आयोग नेमावा आणि विशिष्ट कालमर्यादेत त्याचा अहवाल देशालासादर करावा, यासाठी विनम्र आग्रह उपक्रम गेल्या ११, १२ आणि १३ नोव्हेंबर रोजी पुण्यात शनिवारवाड्यासमोर झाला. योगायोग असा की त्यापूर्वी केवळ चार दिवस आधी म्हणजे ८ नोव्हेंबर रोजी पंतप्रधान नरेंद्र मोदी यांनी मोठ्या नोटांच्या संदर्भातील हा ऐतिहासिक निर्णय जाहीर केला. ५०० आणि १००० रुपयांचे चलनातील मूल्य ८६ टक्क्यांवर पोचले असून ते देशासाठी चांगले नाही, अशी मांडणी या देशात फक्त अर्थक्रांती प्रतिष्ठान करत होते. अर्थतज्ज्ञ त्याविषयी कधीच आग्रही नव्हते. त्यामुळे हा निर्णय जाहीर झाल्यावर सरकारने अर्थक्रांती प्रतिष्ठानचे म्हणणे अखेर ऐकले, अशा प्रतिक्रिया उमटल्या आणि त्या साहजिकच होत्या.
देशाची आर्थिक स्थिती लक्षात घेतली तर हे ऑपरेशन केले गेले पाहिजे होते, याविषयी माजी पंतप्रधान आणि अर्थतज्ञ मनमोहनसिंग यांच्यासह कोणाचेच दुमत नाही. पण ते ज्या पद्धतीने केले गेले, त्याविषयी प्रत्येकाचे काही म्हणणे आहे. पंतप्रधान नरेंद्र मोदी यांनी हे ऑपरेशन करण्याचे जाहीर केले, तेव्हा त्यांच्या सरकारकडे याविषयी आपल्यापेक्षा अधिक माहिती असेल आणि त्या आधारे त्यांनी हा निर्णय घेतला, असे आम्ही समजतो. मूळात एकदा ऑपरेशन अत्यावश्यक होते, हे मान्य केले की ते करताना रक्त किती गेले, याला फार महत्व उरत नाही. युद्धात जसे आपल्या देशाचे संरक्षण महत्वाचे ठरते, तसेच हे आहे. अर्थात या निर्णयाची अंमलबजावणी कशी केली पाहिजे, हा सरकारचा विषय असून सरकार त्याच्या बाजूने परिस्थिती सुधारण्याचे प्रयत्न करते आहे. ऑपरेशन यशस्वी व्हावे आणि हा देश पुढे जावा, अशी प्रार्थना आपण करू यात.
हा रोग किती जुना आणि तो शरीरात किती भिनला होता, हे पाहिले की त्याचा एवढा त्रास का झाला, हे लगेच लक्षात येते. शेतसारा रुपयांतच दिला पाहिजे, अशी सक्ती ब्रिटीशांनी भारतीय शेतकऱ्यांवर केली तेव्हापासून आपल्या देशाचे पैशीकरण सुरु झाले. तोपर्यंत भारतीयांना चांदी आणि सोन्याची नाणी पैसे म्हणून वापरण्याची सवय होती. काही राजांचे चलन चलनात होते, मात्र त्यात एकवाक्यता नव्हती. ही संधी साधून ब्रिटीशांनी सर्व भारतात चालणाऱ्या रुपया नावाच्या नव्या चलनाला जन्म दिला. पण हे कागदी चलन भारतीयांना काही पटले नाही. त्यामुळे हे कागदी चलन सर्वमान्य होण्यासाठी बराच कालावधी गेला. बहुसंख्य असलेल्या शेतकऱ्यांनी ते स्वीकारावे, यासाठी अखेर त्याची सक्ती करावी लागली. या कागदी पैशांत अडकलेला शेतकरी वर्ग त्यातून अजूनही म्हणजे पावणे दोनशेवर्षे झाली तरी बाहेर पडू शकला नाही. शेतकऱ्यांचे आणि या देशाचे शोषण करण्यासाठी ब्रिटीशांनी रुपया वापरला आणि आज स्वतंत्र भारतात ज्यांनी रुपयाचे म्हणजे पैशांचे महत्व ओळखले, त्या वर्गानेही त्याच मार्गाने शेतकऱ्यांचे शोषण सुरूच ठेवले आहे.
सर्वकष्ट, उत्पादन आणि संपत्ती आम्ही आज रुपयांत मोजतो आहोत आणि आधुनिक जगात त्याला दुसरा मार्ग नाही. त्यामुळे चलन नावाचे हे गारुड सर्वांना वापरायला मिळाले पाहिजे आणि ते प्रवाही असले पाहिजे, याविषयी शंका असण्याचे कारण नाही. कारण चलनाची निर्मितीच मुळात माध्यम म्हणून झाली आहे. पण मोठ्या मूल्याच्या चलनामुळे ती वस्तू म्हणून वापरले जात असल्याने आज आर्थिक कोंडी झाली आहे. हवेवर आणि भाषेवर आपली खासगी मालकी दाखविले तर चालेल का?
कागदाला सरकारने ‘लीगल टेंडर’ म्हटले की त्याचा पैसा होतो. त्याची किती निर्मिती करायची, याचा अधिकार ब्रिटीश सरकारने घेतला आणि नोटांची अधिक छपाई करून भारतीय कष्ट आणि उत्पादने स्वस्तात विकत घेण्यास सुरुवात केली. तो शिरस्ता स्वतंत्र भारतातील सरकारे आणि या जादुई कागदाचे महत्व ओळखणाऱ्या वर्गाने आजपर्यंत चालू ठेवला आहे. गेल्या काही दिवसांत बँकेत जमा झालेल्या सात आठ लाख कोटी रुपयांनी आणि सर्वत्र सापडणाऱ्या नोटांच्या पोत्यांनी ते सिद्धच केले आहे. ३० डिसेंबर अखेर किती लाख कोटी रुपये जमा होतील, हे पाहिल्यावर हा पैसा बँकेबाहेर होता, तरी हा देश जिवंत कसा होता, असा प्रश्न पडेलच. एकेकाळी कागदी नोटांना हात न लावणारा समाज त्या नोटा म्हणजे सबकुछ आहे, असे आता मानू लागला होता, हे फार भयानक सत्य आहे.
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांनी एक अर्थतज्ञ म्हणून या प्रश्नाचा सर्वात आधी उलगडा केला आणि रुपयांत भारतीयांचे होणारे शोषण किती भयानक आहे, हे दाखवून दिले आहे. ‘ईस्ट इंडिया कंपनी: प्रशासन आणि वित्तप्रणाली’ हा त्यांचा याविषयावरील पहिला ग्रंथ. या शोधनिबंधात त्यांनी १७९२ ते १८५८ या कालखंडातील ईस्ट इंडिया कंपनीच्या प्रशासन आणि वित्तप्रणाली संबंधीच्या धोरणातील बदलाचा आढावा घेतला आहे. ‘ब्रिटीश भारतातील प्रांतिक वित्ताची उत्क्रांती’ हा त्यांनी पीएच.डीसाठी कोलंबिया विद्यापीठाला सादर केलेला प्रबंध. (१९२७) लंडन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्समध्ये डॉक्टर ऑफ सायन्स या अत्युच्च पदवीसाठी लिहिलेला ‘रुपयाचा प्रश्न: उद्गम आणि उपाय’ या प्रबंधात त्यांनी भारतीय चलनाचा विनिमयाचे साधन म्हणून झालेला विकास आणि सोने, चांदी अशा मौल्यवान धातूंच्या संदर्भातील त्याची सममूल्यता याची चर्चा केली आहे.
डॉ. आंबेडकर यांना, भारताला आर्थिक साक्षर करण्याचा मार्ग सोडून जातीभेदाविरुद्धचा लढा हाती घ्यावा लागला. देशाच्या दृष्टीने एवढा महत्वाचा विषय इतक्या पोटतिडकीने मांडण्याचे धाडस पुढे कोणी केले नाही. त्यामुळे रुपयाचे गुपित कळणारा वर्ग मर्यादितच राहिला, एवढेच नव्हे तर गेली किमान दीडशे वर्षे बहुजन भारतीय समाज रुपयाच्या या चक्रव्ह्यूवात फसत राहिला. स्वतंत्र भारतातही गेली ७० वर्षे त्यात मोठा बदल होऊ शकला नाही. सरकारने मोठ्या नोटा कमी करण्याचापरवा निर्णय घेतल्यानंतर तो भांबावला, त्याचे कारण हे आहे.
पण या भांबावण्यात एक गोष्ट खूप चांगली झाली. अर्थकारणाविषयी तो अजिबात बोलत नव्हता, कागदी नोटा, त्यांचे प्रमाण, रिझर्व बँक, करव्यवस्था, व्याजदर हे त्याचे कधीच विषय नव्हते. ते त्याचे विषय झाले. एकूणचज्या अर्थकारणाने त्याचे सारे आयुष्य बांधून टाकले आहे, त्याविषयी तो कालपर्यंत मूक होता. तो आता उघडपणे बोलू लागला आहे. वाद घालू लागला आहे. काय झाले पाहिजे, हे सांगू लागला आहे. देशाला मिळालेल्या स्वातंत्र्यासोबत जे राजकीय स्वातंत्र्य मिळाले, ते पुरेसे नाही, राजकारणाला चालविणाऱ्या अर्थकारणाविषयीही आता आपण बोलले पाहिजे, याची त्याला जाणीव होऊ लागली आहे आणि हे फार महत्वाचे आहे. एवढे महत्वाचे की, स्वतंत्र भारतात ज्या आर्थिक स्वातंत्र्याचे स्वप्न सर्वसामान्य नागरिकपाहतो आहे, त्यादिशेने जाण्याची सुरुवात आता झाली आहे.
अर्थात, लाखो शेतकऱ्यांनी, आपण या व्यवस्थेत जगू शकत नाही, म्हणून आत्महत्या केल्या, हे कसे विसरता येईल? त्या आत्महत्या हा आपल्या देशातील उरफाट्या अर्थकारणाचा थेट परिणाम आहे. या ऑपरेशनला आज सुरुवात केली नसती तर भविष्यात अशा किती आत्महत्या पाहण्याची वेळ आपल्यावर आली असती, याची कल्पना करवत नाही. लोकसंख्येची घनता प्रति चौरस किलोमीटर तब्बल ४२५ इतकी असलेला देश पैसा नावाच्या राक्षसाला शरण गेला आणि त्याने मागणी केल्यानुसार आपल्याच माणसांना बळी देत गेला. हे बळी जाणे, आता आपल्या आजूबाजूला दिसू लागले होते आणि त्याला वेगवेगळी नावे देण्याचे काम आपल्यातलीच काही मंडळी हिरीरीने करत होती. आपल्याला त्या राक्षसाचे बोलावणे येऊ नये, एवढा संकुचित विचार करणे, खरे तर पाप होते. पण ते पाप आपल्यातील अनेकांनी केले. असो..
हे ऑपरेशन अवघड खरे, पण ते टाळता येणार नाही. ते टाळले, तर आपल्याला फक्त पोस्टमार्टेम करावे लागेल, असे अर्थक्रांती म्हणत होती. कारण हा इलाज आत्ताच केला नसता, तर या देश रक्तरंजित क्रांतीला सामोरा गेला असता. विषमतेचे पीक इतके माजले आहे की त्याला उखडून टाकणे, हे एक समाज म्हणून आपली जबाबदारी आहे. त्या जबाबदारीच्या भावनेतून अर्थक्रांती प्रतिष्ठान पाच मुद्द्यांचा प्रस्ताव गेली १६ वर्षे मांडते आहे. केवळ मोठ्या नोटा कमी करून प्रश्न सुटणार नाहीत. त्यासाठी करपद्धतीत अर्थक्रांती सांगते तसा बदल करावाच लागेल. त्याची सुरुवात म्हणून सरकारने हे पाउल उचलले असे आम्ही समजतो.
या देशात आणि समाजात किती प्रचंड ताकद आहे, याची आपल्यापैकी अनेकांना अजून जाणीव नाही. ते देश आणि आपला समाज किती वाईट आहे, याचे चित्र रंगविण्यात आपली बुद्धी खर्च करत आहेत. आता, अर्थशास्त्रातील ‘मागणी’च्या बाजूने विचार करायचा तर भारतातील १३० कोटी लोक जेवढी ‘मागणी’ करू शकतात, तिला जगाच्या पाठीवर तोड नाही. त्यामुळे पुढील महिनाभरातया शस्त्रक्रियेच्या काही जखमा भरून येतील. पण यानिमित्ताने अर्थकारणावर देशभर जो जागर सुरु झाला आहे, तो सर्व भारतीय नागरिकांना खरे आर्थिक स्वातंत्र्य मिळाल्याशिवाय म्हणजे एक रक्तविहीन अर्थक्रांती झाल्याशिवाय थांबणार नाही.
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