--लीना मेहेंदळे
देशबन्धु दि 15 सित. 2012 में प्रकाशित
व्यवस्था परिवर्तन के लिए आवश्यक कई महत्वपूर्ण सूत्र हैं। आखिर हम व्यवस्था समाप्ति की नहीं, बल्कि व्यवस्था परिवर्तन की बात कर रहे हैं। इसका अर्थ हुआ कि जब हम अपने उद्देश्य में सफल होंगे तब हमें व्यवस्था की अवधारणा से मुक्ति लेकर संपूर्णतया अव्यवस्था की ओर नहीं जाना है, बल्कि कोई न कोई व्यवस्था हमें तब भी चाहिए होगी और उस व्यवस्था का निर्वहन करनेवाले लोग भी चाहिए होंगे। आज उन लोगों को हम नौकरशाही (या अफसरशाही) कहते हैं- कल शायद कोई और नाम देंगे। लेकिन एक नई या परिवर्तित व्यवस्था भी रहनेवाली है और उसका निर्वहन या अनुपालन करवाने वाले लोग भी रहने वाले हैं। इसीलिए हम उन सूत्रों का अन्वेषण कर रहे हैं जो हमारी नई व्यवस्था के मार्गदर्शक सूत्र होंगे। आज मैं एक दूसरे सिध्दांत की ओर अंगुली निर्देश कर रही हूं- वह है सरल एवं प्रभावी अनुपालन और उसके एक छोटे पहलू का जिक्र मैं करने जा रही हूं। यह पहलू हमारे अपराधी कानून से संबंधित है। अपराधी कानून के तीन विषय या तीन पलड़े हैं- सीपीसी (क्रिमिनल प्रोसेडयूर कोड), आईपीसी (भारतीय दंड संहिता) तथा आईईए (इंडियन एविडेंस एक्ट) ये तीनों आपस में पूरक हैं। इन तीनों कानूनों की सारी नियमावली में से मैं केवल दो सेक्शनों की चर्चा यहां उपस्थित कर रही हूं वह है- सेक्शन 154 व 156। सेक्शन 154 हमें बताता है- अपराध दर्ज कराने व उसकी छानबीन की बाबत। इस सेक्शन की चर्चा क्यों आवश्यक है और किस तरह का परिवर्तन हमें चाहिए? यह जानने के लिए पहले 156 व दो-तीन और सेक्शन्स को समझते हैं, और उससे भी पहले समझते हैं कि सैध्दांतिक रूप से सामान्य नागरिक का कर्तव्य और अधिकार क्या हैं। सामान्य नागरिक के कर्तव्य और अधिकार का वर्णन एक शब्द में किया जा सकता है- जिजीविषा अर्थात् बुराई से लड़ने का जोश। यदि आपके सामने कोई चोर-चोरी करके भाग रहा है तो स्वाभाविक रूप से आप उसे पकड़ने के लिए दौड़ते हैं, क्योंकि मन में कहीं न कहीं यह अवधारणा है कि यदि यह आदमी आज किसी और का नुकसान कर रहा है जो कल मेरा भी कर सकता है। इसलिए मैं आज ही इसे रोकूं। लेकिन इस स्वाभाविक कर्तव्य और अधिकार इस जिजीविषा के आड़े आता है कानून का यह सेक्शन 154 जो कहता है कि ऐसे अपराधी को आप पकड़ भले ही लें- पर उसके बाद उसे व्यवस्था को सौंप दीजिए अर्थात् पुलिस के हवाले करिए, और फिर जब पुलिस अपने नियम-कानून के अनुसार उस अपराधी की जांच कर लेगी, तभी उस पर चार्जशीट दायर की जाएगी और वह अपराधी जब न्यायालय में लाया जाएगा, तब आप होंगे केवल एक साक्ष्य देने वाले उससे अधिक कुछ नहीं। ऐसी कानूनी व्यवस्था के दो पक्ष होते हैं- समर्थन का पक्ष कहता है कि किसी अपराधी के अपराध की जांच का एक सूत्रबध्द तरीका होता है, खास कर साक्ष्य जुटाने का और साक्ष्य को नष्ट होने से बचाने का और पुलिस ही ऐसी प्रशिक्षित व प्रोफेशनल संस्था है जो इस जांच के काम को ठीक से अंजाम देकर अपनी मंजिल तक अर्थात् न्यायालय के चौखट तक पहुंचा सकती है। इसका विरोधी पक्ष कहता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के 65 वर्षों के बाद हमने देख लिया कि ऐसे सारे अपराधों में पुलिस इन्वेस्टीगेशन और चार्जशीट दाखिल होने में कई वर्ष लग जाते हैं। अत: यह तरीका प्रभावहीन होता दिखता है।मजे की बात यह है कि समर्थक और विरोधी दोनों पक्षों में गलत कोई नहीं। दोनों पक्षों में गलत कोई नहीं- दोनों अपनी-अपनी जगह सही हैं। एक तीसरा पक्ष है जो आज इन दोनों से बड़ा हो गया है और उसी की चर्चा मेरे व्यवस्था परिवर्तन के सूत्र की आज की चर्चा है। वह तीसरा पक्ष निकलता है सेक्शन 156 से। यह हमें बताता है कि जब एक सामान्य व्यक्ति सोचे कि कहीं कोई अपराध घटा है। लेकिन पुलिस उसकी छानबीन नहीं कर रही है या नहीं कर पाई है तो वह सामान्य व्यक्ति कोर्ट में गुहार लगा सकता है कि ऐसी छानबीन हो और यदि कोर्ट यह समझे कि हां, ऐसी छानबीन होनी चाहिए तो वह पुलिस को निर्देश देकर छानबीन करवा सकती है। ऐसी हालात में उस सामान्य व्यक्ति से जो भी सबूत या रिकार्ड इकट्ठा किया हो (जैसा कि कई स्टिंग ऑपरेशनों में हुआ है।) वह सारा रिकार्ड फिर से पुलिस के पास लाया जाता है। पुलिस फिर से अपने हिसाब से उसकी जांच पड़ताल करती है और फिर उसे न्यायालय तक पहुंचाने का जिम्मा दुबारा पुलिस का ही है। इसी प्रावधान के अंतर्गत सुब्रह्मण्यम स्वामी ने मांग की थी कि राजा ने अपराध किया है और उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया जाए और जब कोर्ट को लगा कि इस बात में प्राथमिक तौर पर कोई दम नजर आता है तब कोर्ट ने मामले को सीबीआई को सौंपी और फिर ए. राजा पर एफआईआर दर्ज हुआ। इसकी जांच फिर से सीबीआई ने की और जब कोर्ट में यह माामला उठाया जाएगा तो आईपीओ की जिम्मेदारी फिर से पुलिस या सीबीआई का ही कोई अफसर उठाएगा। अब एक प्रैक्टीकल बात देखते हैं- पुलिस के अलावा सरकार के कई कानूनों के अंतर्गत कई विभाग हैं और उनके विभागीय अधिकारी जो अपराधिक जांच करते हैं उसमें उन्हें सबूत जुटाने का और समन जाने का अधिकार प्राप्त है। यथा फूड एंड ड्रग ऍडल्टरेशन कंट्रोल एक्ट के अंतर्गत या फिर जब किसी फैक्ट्री से प्रदूषण होता है तब पॉल्यूशन कंट्रोल एक्ट के अंतर्गत उन विभागोें के अधिकारी यह जांच कर सकते हैं। हम एक उदाहरण देख सकते हैं कि फूड एंड ड्रग ऍडल्टरेशन एक्ट के अंतर्गत कई मामले सामने आते हैं लेकिन कोई बड़ी कार्रवाई हुई हो, ऐसा बहुत कम होता है। हम छापे मारे जाने की खबरें तो पढ़ते हैं लेकिन किसी बड़ी गैंग को बड़ी सजा हुई हो ऐसी खबरें अधिक पढ़ने में नहीं आतीं। इसका कारण है उनमें लगने वाली देर और कई बार लम्बी कानूनी प्रक्रिया। इसलिए कि जब वे अधिकारी जांच करते हैं और सबूत इकट्ठा करते हैं और पंचनामा इत्यादि करते हैं, तब उन्हें दो अधिकार नहीं दिये गए हैं। पहले तो उन्हें अपराधी को गिरफ्तार करने का अधिकार नहीं है, दूसरा उन्हें चार्जशीट दाखिल करने का अधिकार नहीं है। उनका दर्जा पुलिस के इन्वेस्टीगेशन ऑफिसर का नहीं है। उसका दर्जा महज शिकायत करने वाले सामान्य नागरिक का दर्जा है। अतएव या तो उसे सामान्य व्यक्ति की तरह किसी पुलिस थाने जाकर एफआईआर लिखवाना पड़ेगा ताकि पुलिस यदि माने तो अपराधी तो गिरफ्तार करे या फिर उसे कोर्ट में जाकर एक प्रायवेट शिकायत लिखवानी पडेग़ी जिसमें कोर्ट संबंधित दर्ुव्यवहारी व्यक्ति को नोटिस देकर बुलाएंगे और उनका बयान दर्ज करने पर यदि लगा कि प्राथमिकी तौर पर अपराध होने की संभावना दिखती है, तो किसी पुलिस थाने को दुबारा पूरी जांच-पड़ताल करने को कहा जाएगा। उस दुबारा जांच में कई तथ्य उलटफेर कर दिए जाते हैं। कई कागजात गायब हो जाते हैं और अन्य सबूत नष्ट होते हैं। सबसे महत्व की बात कि समय नष्ट हो जाता है। और विभाग के जिस अधिकारी ने छानबीन की उसका हौसला भी। इसीलिए यह आवश्यक सुधार हमें लाना होगा कि जो इस तरह के संबंधित अधिकारी हैं, उन्हें आईओ का दर्जा दिया जाए और उनके द्वारा की गई जांच को एफआईआर में की गई जांच का दर्जा मिले और कोर्ट में ले जाने पर उन केसों की सुनवाई तुरंत आरंभ हो। इस प्रकार हमारा पुलिस विभाग अपने मुख्य काम के लिए अर्थात् आतंकवाद-गैंगवार इत्यादि 'ऑर्गेनाइड क्राइम' की ओर अधिक ध्यान दें।
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