deshbandhu Tuesday , Oct 26
सरकारी छुट्टी थी। कहाँ-कहाँ से आयोजनों की घोषणा हो चुकी थी। टीव्ही के हर चैनल पर
''वैष्णव-जन...'' की धुन आकर तुरंत गायब हो जाती थी मानों कह रही हो ''ये तो केवल
आपके मन में एक तड़का लगाने के लिये है आपके मनोरंजन में बाधा डालने के लिये
नहीं।'' बीच-बीच में नीचे के कोने में गाँधीजी की छोटी-सी छवि भी झलक जाती
थी।
बंगलोर में मेरे पास आनेवाले कन्नड़ के अखबार हों, अंगरेजी के या मराठी के
कहीं भी लाल बहादुर शास्त्री का उल्लेख नहीं था। देशबन्धु जैसे कुछ अखबारों ने जरूर
उनको याद किया था, लेकिन देश के एक दिवंगत प्रधानमंत्री को जिस सम्मान के साथ याद
किया जाना चाहिये, मीडिया या सरकारी कार्यालयों में वैसा कुछ भी नहीं था।
माना
कि बतौर प्रधानमंत्री उनका कार्यकाल छोटा ही था, लेकिन उपलब्धि बहुत बड़ी थी और दु:ख
इसी बात का है कि उस उपलब्धि को भी भुलाया जा रहा था।
मुझे उनकी वो छोटी-छोटी
बातें याद आईं जिन्होंने उस जमाने में हमारे किशोर-मनों को प्रभावित किया था।
मुझे आज भी याद है 1965 के वो दिन। उन दिनों टीव्ही जैसी कोई वस्तु नही थी
परन्तु रेडियो की खबरें बडे ध्यान से सुनी जाती थीं। पाकिस्तान के साथ लड़ाई छिड़
चुकी थी। सितम्बर की एक शाम का समय था और रेडियो से घोषणा हो चुकी थी कि लड़ाई के
मुद्दों पर प्रधानमंत्री राष्ट्र को संबोधित करेंगे। उसी वर्ष सूखे की स्थिति थी और
देश में अनाज की कमी का संकट भी था। हम सभी प्रधानमंत्री का संबोधन सुनने को उत्सुक
थे। तीन वर्ष पूर्व चीन के साथ हुई लड़ाई में हार खाने का दु:ख सभी को घेरे हुए था।
संबोधन शुरु हुआ और सुना भी, और उसकी दो बातों ने न केवल दिल के अंदर घर कर लिया
वरन् उनके लिये एक अटूट आदर भी जगा दिया। उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान यह समझ ले
कि हमारा सबसे पहला गुण शांतिप्रियता है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि आमण की
स्थिति में हम मुकाबला करने से पीछे हटेंगे। पाकिस्तान किसी गलतफहमी में न रहे, हम
डटकर मुकाबला करेंगे और जरूरत पड़ी तो आामक भी हो जायेंगे। दूसरी ओर देशवासियों से
उन्होंने अपील की कि देश पर विदेशी आमण के साथ-साथ अकाल का खतरा भी है, अत: हर
भारतीय का कर्तव्य है कि अनाज की बरबादी को रोके। सीमा क्षेत्र में लड़ रहे जवानों
तक अन्न पहुँचाना आवश्यक है अत: प्रत्येक भारतीय से अपील है कि हफ्ते में एक दिन एक
ही समय भोजन कर एक वक्त का उपवास रखे। इसके बाद उन्होंने अत्यंत भावभीने शब्दों में
कहा, ''मैं स्वयं यह प्रण लेता हूँ कि आज से आरंभ कर हर सोमवार को एकभुक्त होने का
व्रत रखूँगा।'' भाषण समाप्त करते हुए नारा लगाया ''जय जवान, जय किसान।'' उसी पल
हमारे घर के सभी सदस्यों ने सोमवार को एक वक्त का भोजन त्यागने का संकल्प लिया।
थोड़ी देर बाद घर से बाहर निकलकर औरों के साथ बातें होने लगीं तो पता चला कि कई सारे
घरों में यह प्रण लिया गया है। कारण यह था कि उनके भाषण की प्रामाणिकता सबको छू गई
थी और लोग इस युध्द के इतिहास में अपना हाथ बँटाने को लालायित हो गये थे। सच पूछें
तो सप्ताह में एक दिन उपवास भारतीयों के लिये कोई नई बात नहीं है, लेकिन उस आह्वान
के कारण लोगों का मन सीमा पर लड़ने वालों के साथ जुड़ गया और उन्हें लगा कि जवानों के
साथ हम भी अपना गिलहरी-सा छोटा सामर्थ्य तो लगा ही रहे हैं। युध्द जीतने के लिये यह
मानसिकता बड़ी ही आवश्यक वस्तु होती है।
दूसरे दिन क्या कॉलेज और क्या बाजार हर
जगह शास्त्रीजी के प्रसंग ही एक दूसरे को बताए जा रहे थे। एक प्रसंग यह भी था कि कई
वर्ष पहले जब वे रेल मंत्री थे (1956 में) तब तमिलनाडु में हुई एक रेल-दुर्घटना में
करीब डेढ़ सौ व्यक्तियों की मौत हुई थी, और इस घटना की नैतिक जिम्मेवारी स्वीकारते
हुए उन्होंने अपने रेलमंत्री के पद से त्यागपत्र दिया था। तब नेहरूजी ने कहा था कि
दुर्घटना के जिम्मेवार शास्त्रीजी नही हैं फिर भी देश के सामने एक नैतिक मापदण्ड
प्रस्तुत होने के उद्देश्य से शास्त्रीजी त्यागपत्र दे रहे हैं और वे भी त्यागपत्र
को इसी कारण स्वीकार कर रहे हैं। मुझे यह भी याद आता है कि कई वर्षों पश्चात् एक
ऐसी ही बड़ी रेल दुर्घटना में कई व्यक्तियों की मृत्यु हुई तो तत्कालीन रेलमंत्री ने
रहा कि मुझे त्यागपत्र देने की कोई आवश्यकता नहीं, यह तो व्यवस्था कि भूलचूक है
(स्4ह्यह्लद्गद्वद्बष् स्नड्डद्बद्यह्वह्मद्ग) तब मेरे पिताजी ने तिलमिलाकर कहा था
अरे, इन्हें जरा शास्त्रीजी की याद तो दिलाओ, वरना इस देश में यही प्रवाह रूढ़ हो
जायेगा कि हर दुर्घटना का ठीकरा व्यवस्था पर टाल दिया जायगा और सुधार का कोई प्रयास
नहीं होगा। आज भी जब कॉमनवेल्थ गेमों में कई हजार करोड़ का भ्रष्टाचार हो रहा है, तो
हम इसे व्यवस्था की कमजोरी बताकर स्वीकार करने को मजबूर हो गए हैं।
उनकी एक और
कहानी सुनने में आई कि बचपन में कैसे एक समय नदी पार करने के लिये पैसे न होने पर
उन्होंने किसी के सामने हाथ फैलाकर उधार लेने की अपेक्षा तैरकर नदी पार की और इस
तरह अपनी खुद्दारी का परिचय दिया। यही खुद्दारी उस दिन उनके भाषण में भी साफ दिख
रही थी जब उन्होंने पाकिस्तान को चेतावनी दी । यही खुद्दारी तब भी दिखी जब उनकी
मृत्यु के पश्चात् पता चला कि अन्य कई राजनेताओं की तरह उन्होंने काला धन नहीं
बटोरा था।
एक घटना यह भी सुनने को मिली कि 1930 में जब उन्हें ढाई वर्ष के लिये
जेल की सजा हुई तब उस समय का उपयोग करते हुए कई पुस्तकें पढ़ डालीं। एक पुस्तक
प्रसिध्द वैज्ञानिक मेरी क्यूरी का चरित्र था। मेरी की लगन और काम के प्रति श्रध्दा
से वे इतने अभिभूत हो गये कि इस पुस्तक का हिंदी भाषांतर कर डाला । मेरे जीवन के
प्रलम्बित कामों की लिस्ट में यह काम भी है कि उस हिन्ही अनुवाद को पढ़ना (कोई
प्रकाशक सुन रहा है?) और यह जानना कि मेरी के चरित्र के किस पहलू ने उन्हें
सर्वाधिक प्रभावित किया और अपने भाषांतर में उस पहलू को किस तरह उजागर किया है। एक
बार बहुत प्रयास के बाद मुझे अनिल शास्त्री से मिलने का मौका लगा। लेकिन इस पुस्तक
के विषय में पूछने पर उनका उत्तर था कि पिताजी के पुस्तकों में से वह खोज निकालनी
पडेग़ी।
जय जवान, जय किसान का जो नारा उन्होंने दिया उसके पीछे भी एक भावनात्मक
संबंध था । 1964 में जब पंडित नेहरू की मृत्यु पश्चात् वे प्रधानमंत्री बने तब देश
में अकाल का माहौल था और अनाज की कमी थी। इसीलिए कृषि नीति को सही दिशा देना आवश्यक
था। वह शायद उनकी अकालमृत्यु के कारण न हो पाया हो, लेकिन कृषक व कृषि का महत्व
लोगों के दिल-दिमाग में पैठ गया। आज भी जब किसानों की आत्महत्या की खबर आती है तो
लगता है कि काश उनके इस नारे को सही मायनों में अपनाकर अमल किया होता तो आज किसानों
की यह दुर्दशा न होती।
उनके उस दिन के भाषण की खुद्दारी ने तथा जिस बहादुरी से
भारतीय जवानों ने पाकिस्तान को मुँहतोड़ जबाब देकर संधि-प्रस्ताव के लिए मजबूर कर
दिया, उस बहादुरी ने हर भारतीय का सर गर्व से उँचा कर दिया और चीन-युध्द की हार से
आई ग्लानी को एक प्रकार से कम कर दिया। उसी युध्द के अमर शहीद हवलदार अब्दुल हमीद
(मृत्युदिवस 10 सितम्बर 1965) को तत्काल मरणोपरान्त परमवीर-च की घोषणा कर
शास्त्रीजी ने दिखा दिया कि जवानों का मनोबल बढ़ाने में सरकार पीछे नहीं हटेगी । उन
दिनों अखबार में छपी हवलदार अब्दुल हमीद की फोटो (कई गोलियाँ खाकर जख्मी अवस्था में
लेटे हुए) कई वर्षों तक मेरी किताबों में रखी थी शायद अब भी कहीं हो। इसी दौर में
चीन ने फिर से एक दुष्ट रणनीति के तहत भारत पर कुछ आरोप लगाए थे जिसके लिए
शास्त्रीजी का उत्तर था कि यदि इस बार चीन आमण करेगा तो उसका भी दृढ़ता से मुकाबला
किया जायगा। इस बात पर किसी ने कह दिया कि अरे, ये तो गुदड़ी के लाल निकले बेशकीमती।
सबके मन में एक जोश-सा भर गया था कि युध्द नहीं हारेंगे और वाकई एक ओर चीन ने
चुप्पी साध ली तो दूसरी ओर एक मजबूत स्थिति में पहुँचकर हमारे जवानों ने पाकिस्तान
को संधि के लिए मजबूर कर दिया। जय जवान का नारा यथार्थ सिध्द हुआ। बाइस दिन का वह
युध्द तेइस सितम्बर को रुक गया।
फिर संधि-वार्ता की बारी आई। जनवरी में
प्रधानमंत्री रशिया को रवाना हुए जहाँ वार्ता होनी थी। एक शाम वार्ता संपन्न होने
की खबर आई, दस्तावेजों पर दोनों देशों ने अपनी मुहर लगाई। और तत्काल दूसरे दिन
शास्त्रीजी की मृत्यु की खबर आई। पूरा देश शोकसागर में डूब गया। हरेक के दिल में एक
ही भावना थी अरे, यह कैसे हो गया जो इस पड़ाव पर हरगिज नहीं होना चाहिये था। उनके
शव के साथ खुद पाकिस्तानी प्रेसिडेण्ट जनरल अयूब खान और रशिया के प्रधानमंत्री
कोसिजिन भारत आए।
उन दिनों धर्मयुग साप्ताहिक में काका हाथरसी के व्यंग-छक्के
छपते थे जो ताजी घटनाओं पर करारे हास्य-व्यंग हुआ करते थे। शास्त्रीजी की मृत्यु पर
काका को लिखना पड़ा कि मैं ठहरा एक हास्यकवि इस दु:खद घटना का वर्णन मैं भला कैसे
कर सकूँगा लेकिन उस छक्के की अंतिम पंक्तियाँ थीं कह काका कविराय, न देखा ऐसा बन्दा
दौ दौ देसन के प्रधान जाको
दे कान्धा ॥दो अक्तूबर को गांधी जयन्ती के दिन ही शास्त्रीजी का
भी जन्मदिन आता रहा है और हर वर्ष उन्हें याद कर श्रध्दांजलि देनेवाले लोगों की
संख्या क्षीण होती जा रही है। इस अकृतज्ञता भाव को छोड़ते हुए हमें उनकी उपलब्धियों
का स्मरण रखना चाहिये और उनके 'जय किसान...' नारे पर भी पर्याप्त ध्यान देना
चाहिए।
Wednesday, August 15, 2012
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