देशबन्धु 27, Aug, 2012, Monday
व्यवस्था परिवर्तन सूत्र 1
लीना
मेहेंदले
देश के सम्मुख आज अनगिनत
समस्याएं हैं और सभी व्यवस्था परिवर्तन की बात करते हैं। लेकिन व्यवस्था परिवर्तन
का अर्थ हमेशा क्रांति नहीं होता और केवल क्रांति से बात नहीं बनती। आमूलाग्र
परिवर्तन के साथ कई छोटे-छोटे परिवर्तन भी आवश्यक हैं, लेकिन इन सब के पीछे पहले
दर्जे का आवश्यक सूत्र है- जानकारी। वह भी ऐसी जानकारी कि सामान्य व्यक्ति उसकी मूल
अवधारणा को पलभर में पकड़ सके, समझ सके और उस पर अपनी अभिव्यक्ति दे सके।
यहां
मैं जानकारी के बाबत एक छोटे पहलू की चर्चा करना चाहती हूं। एक ऐसा पहलू जो बिहारी
के दोहों की याद दिलाये और कहे- देखन में छोटे लगे, घाव करें गंभीर। यह पहलू है
सांख्यिकी का। हमें अपनी सांस्थिकी पद्धति में सुधार लाना पड़ेगा और उसे मॉडयूलर
बनाना पड़ेगा। उनकी रचना ऐसा होनी चाहिये जैसे एक के अंदर एक फिट बैठने वाले बरतनों
का एक सेट। कुछ नमूनों के माध्यम से इसे समझाया जा सकता है। कृषि उत्पादन का नमूना
देखते हैं। देश के छह प्रमुख झोन हैं। पूर्वोत्तर, पूर्व, उत्तर, पश्चिम, मध्य,
दक्षिण और मध्य।
पूर्वोत्तर -- आसाम मेघालय मणिपूर त्रिपुरा मिझोराम नागालँण्ड अरुणाचल
पूर्वी -- बंगाल, सिक्किम, बिहार, झारखंड, ओरिसा
उत्तरी -- उत्तराखंड, जम्मू-काश्मीर, हिमाचल, पंजाब, हरयाणा, चंडीगड, दिल्ली.
पश्चिमी -- राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, दमण-दीव, दादरा-नगरहवेली,
दक्षिणी -- केरल, तामलनाडु, आंध्र, पांडिचेरी, अंदमान-निकोबार,
मध्य -- मध्य प्रदेश, छत्तीसगड, उत्तर प्रदेश
कृषि उत्पादनों का वर्गीकरण भी इस प्रकार किया जा सकता है। अनाज (गेहूं,
चावल, बाजरा, मकई, ज्वार अन्य मोटा अनाज) दलहन (मूंग, अरहर, चना, मसूर, अन्य) तेलहन
(मूंगफली, सोयाबीन, सरसों, तिल, नारियल, पाम, सूर्यमुखी का फूल, अन्य), फल-सब्जी,
फूल, घास तथा अन्य उत्पाद।
यहां राज्यों के बांई ओर जहां औसत उपज लिख सकते हैं,
वहीं कॉलम का शीर्षक बदलकर उन उत्पादों का मूल्य भी लिखा जा सकता है। राज्यों के
कॉलम में एक-एक झोन के सभी राज्यों के नाम लिखे जा सकते हैं और यदि एक ही राज्य की
जानकारी लेनी हो तो उस राज्य के विभाग और फिर उनके जिले और फिर उनके तहसील और उनके
अंचल और अंचलों के गांव तक जा सकते हैं। बीच वाला ाोन का कॉलम कायम रखकर दांई ओर
देश के उद्योग समूहों में होने वाले उत्पादों की जानकारी ली जा सकती है। उदाहरण के
लिये सारे उद्योगों का यूं वर्गीकरण कर सकते हैं। खनिज, धातु-खनिज, मशीनरी, पावर,
वस्त्र, कृषि-खाद्य, फिर कुल जानकारी का विस्तार जानने के लिये प्रत्येक वर्ग के
उपवर्ग बनाकर उनकी जानकारी इसी फॉर्मेट में ली जा सकती है। इसी इसी फॉर्मेट में देश
के अपराधिक मामलों की जानकारी ले सकते हैं।
हमारे कोर्ट में जानेवाले मामले की
अत्यधिक हैं। सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट के अंतर्गत बाकी सारे कोर्ट आते हैं। कई बार
अलग-अलग कानूनों के अंतर्गत स्पेशल कोर्ट भी आते हैं। यथा पब्लिक ट्रस्ट एक्ट के
अंतर्गत चैरिटी कमिशनर का कोर्ट अथवा विभिन्न प्रकार के ट्रिब्यूनल्स। इनमें तय
किये मामले अपील में सीधे हाईकोर्ट तक जाते हैं। इनके अलावा प्रत्येक जिले में जिला
न्यायालय के साथ तालुका स्तर पर या मेट्रो शहरों में मेट्रोपालिटन मजिस्ट्रेट भी
होते हैं।
न्याय के लिये उठाये जाने वाले मामलों को पांच वर्गों में गिना जा
सकता है- अपराध व दंडविधान से संबंधित मामले, दीवानी मामले, छोटे-मोटे मामले (स्मॉल
कॉज केसेस) या खास-खास न्याय प्रक्रियाओं में जाने वाले मामले- ट्रिव्यूनल इत्यादि।
इनके अलावा कृषि-जमीन से संबंधित मामले रेवेन्यू मशीनरी अर्थात् पटवारी, तहसीलदार,
जिलाधीश इत्यादि द्वारा तय किये जाते हैं। इन सभी प्रकार के न्यायालयों में
प्रलंबित पड़े मामले करोड़ों की संख्या में हैं और उनका प्रलंबन काल भी पंद्रह
बीस-पचीस वर्ष की अवधि तक का हो सकता है। सबसे चिंता की बात यह है कि कहीं भी एक
जगह ऐसी कोई व्यवस्था नहीं जहां तत्काल पता चल सके कि भारत के कुल न्यायालयों में
कितने मामले प्रलंबित हैं। हां, इतनी जानकारी सबको है कि प्रलंबित मामलों की संख्या
सौ करोड़ से अधिक है। इसी सांख्यिकी की जानकारी हर वर्ष जनता के सामने आनी चाहिये।
इस सांख्यिकी सारणी को बनाने के लिये हमें वहीं नया तरीका अपनाना चाहिये जो मॉडयूलर
हो और एक के अंदर एक फिट बैठता हो। एक ही पन्ने पर हमें मोटामोटी तौर पर समूचे देश
के स्तर पर जो चल रहा है उसकी जानकारी मिल जाएगी। यदि हमें केवल दीवानी मामलों की
जानकारी चाहिये तो बांई ओर के पांच कॉलमों के शीर्षक जो क्रिमिनल, सिविल, स्माल
केसेस, रेवेन्यू और स्पेशल कोर्ट इस प्रकार हैं, उन्हें बदलकर सिविल केसेस के ही
अंतगर्त पांच प्रमुख केटेगरीा का नाम उन कॉलम- शीर्षकों में लिखा जा सकता है।
इसी प्रकार यदि हम केवल किसी एक राज्य की बात करें, यथा महाराष्ट्र, तो उसके
लिये हम केवल महाराष्ट्र के हाईकोर्ट और जिलों के कोर्ट या महाराष्ट्र की भौगोलिक
सीमा में आने वाले स्पेशल ट्रिब्यूनल्स की जानकारी एक पन्ने पर लेंगे। यदि केवल एक
ही जिले की जानकारी चाहिये तो केवल उस एक जिले का ब्यौरा लिया जा सकता है।
इसी
प्रकार यदि हमें प्रलंबित मामलों की विस्तृत जानकारी चाहिये हो तो बांई ओर के पांच
कॉलमों के शीर्षक बदल सकते हैं। केवल 1950-1980 के बीच उठे प्रलंबित मुद्दे भी
1950-1960, 1960-1965, 1965-1970, 1970-1975, 1975-1980 इस प्रकार विस्तार से देखे
जा सकते हैं। ऐसे मॉडयूलर फॉर्मेट का बड़ा फायदा यह है कि इन्हें फटाफट जोड़ा भी जा
सकता है। अर्थात् जब चाहें विस्तार कर लें और जब चाहें समेट लें- एक जपानी पंखे की
तरह। इस प्रकार यदि जानकारी इकट्ठी की जाय तो लोक जागृति का काम सरल होगा। ऐसी
जानकारी पाने का अच्छा तरीका होगा। जानकारी का कानून अर्थात् आरटीआई
एक्ट!
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Monday, August 27, 2012
Monday, August 20, 2012
Are Indians corrupt? by Sankrant Sanu
Are Indians corrupt?
by Sankrant Sanu
Posted on 05 Mar 2004
In his recent Republic Day address, Indian president Abdul Kalam spoke about what has become a hot topic in India today. He said:
“…There are only three members of the society who can remove corruption… They are father, mother and elementary school teacher.”
The implication of his remarks is that widespread problem of corruption in India is ultimately a problem of moral character. President Kalam is not alone in these views in India: in fact, it is a common assumption.
It cannot be denied that the average citizen encounters more petty corruption in India than in the United States. If this corruption is a factor of relative moral character, then this must imply that Americans possess a higher moral character than Indians, which results in the United States having a lower degree of corruption than India. Examining data like the Corruption Perception Index published by Transparency International[1], we find that a number of countries ravaged by European colonization show up as some of the most corrupt. It must then be concluded that the people in all these countries are moral imbeciles, who can't distinguish right from wrong and haven't been taught so by their parents and teachers.
While President Kalam is right that parents and teachers play a key role in building the values of a child, we argue here that widespread corruption in society is not simply a function of morality. The phenomena of what is seen as widespread corruption is a failure of the system rather than simply of individuals, and it is in the transformation of the system that we must seek primary remedies.
Are Indians Immoral Or Is It The System?
Firstly, let us examine the question of morality. If it is indeed the case that corruption is a result of character flaws of Indians rather than problems with the system, then this character flaw must be widely seen even when Indians are removed from the Indian system. However, we don't find that Indians in America, for instance, are perceived to be especially corrupt. They are generally regarded as honest, hard-working entrepreneurs, employees and citizens. How is it that the same mothers, fathers and teachers, who have presumably failed in India, appear to have not done a terribly bad job when their children land in the US? Are our friends and neighbors in India really so much less moral than the people we meet in the US? Is high morality the prerogative of a particular race or religion?
That is, if individuals with similar backgrounds appear to act differently within two different systems, understanding the difference in the two systems is likely to provide clues to understanding the difference in perceived corruption in India and the United States.
A Moral Issue Or A Legal Issue?
Let us take a classic example in India of petty corruption. I have applied for a phone but the telephone linesman is demanding a payment to install it. (Recent changes have made this example somewhat dated, but that will allow useful insight.) This bribe demanded by the linesman appears to be a clear instance of corruption. Yet, one may argue – isn't this a straightforward business transaction? [6]I'm paying for a service to the lineman and he is installing the phone. On giving the payment, I am certain that the line will be installed, it would be very unusual for the fellow to run away with my money. So, on one level, this business transaction has a high level of integrity – and in that sense, the linesman doesn't appear to be fundamentally dishonest. On the other hand, one can argue that this is clearly corruption because he is already getting paid by the government to perform this service and he is not doing his job.
But, what if we legalized that? What if the government made a regulation that the linesman could collect a fee of five hundred rupees per line that he installs? The same transaction is taking place but we have now privatized it and we would no longer call it corruption. Has the integrity of the person changed or have we merely changed the rules? Are we defining corruption simply within the bounds of legality or can we determine right and wrong beyond those bounds?
Let us take another example. Top public accounting firms in America have come under a cloud for taking consulting assignments from the companies that they were auditing. There was no law to prevent this, but after Enron broke out, this became a major scandal. It was clear that the paid consulting assignments to the auditor were a legal tactic to “grease the wheels” of the audit and this was a practice that was widely being done in corporate America. Even though this was legal, can we deny that this is a form of corruption? If we examine the moral basis, public auditors were obligated to report on corporate accounts to the shareholders and the public. Accepting paid consulting assignments from the companies one is supposed to monitor to possibly give a more favorable picture of the accounts can only be seen as a clear instance of high-level bribery.
Similarly, many of the major financial services firms in the US are being accused of inflating the stock ratings of companies that they were doing business with to the detriment of their retail clients. Internal communications in the brokerage firms showed that analysts put out buy recommendations on stocks that they did not think would perform well, simply because those companies were giving them investment banking business[2]. Aren't the payments that the corporate clients make to the analyst firms a form of bribery for illegitimate ratings? If we were considering the moral rather than simply the legal implications of the fact that this was done by nearly all the top financial services firms, would we then be forced to admit that there is widespread corruption in corporate America?
Certainly, this becomes even more apparent in the political space. Cronyism and handing out large defense contracts to companies that have been campaign contributors has been part of the course in Washington. Money readily changes hands in Washington at the instance of special interest groups and multi-million dollar lobbying firms to buy influence. Legislative outcomes cater to the influence of big money. While this might not have the on-camera impact of a Bangaru Laxman accepting money for “the party” from the fictitious defense firm in the Tehelka setup; yet the difference might well be attributed to a lack of sophistication in comparison to the Washington counterparts rather than to any fundamental difference in morality.
Yet, even if we accept that the perceived difference in corruption between India and the US is not a question of relative morality, it is an undeniable fact that petty corruption does exist at a much higher level for the common citizen in India than in the US. If Indians are fundamentally no more “corrupt”, as a character flaw, than the people in America, why is the actual experience of the common man in India in getting basic government services like obtaining a telephone line or getting a police report filed so significantly different than the experience in America? Understanding this is a key to solving the problem of corruption that engages so many commentators in India.
Examining the System
The first major difference between the US and India is in the systems of governance. Traveling extensively in rural India, I find that the relationship and attitude of the people to the government is still that of a colonizing power, not something that either belongs to them or is in touch with their aspirations. After living in the US for many years, it is clear that there is a far higher degree of ownership and accountability of the local government to the local communities. Furthermore, the common citizen, for most of his or her needs, interfaces with the government in the local city or township rather than at the state or the national level. Power and accountability are devolved to a much greater level to the local administration. Also, American enterprise is far more privatized than is the case with India and there is less involvement of the government in daily life.
By contrast, in the Indian system, power is centralized to a much greater degree at the level of the national and state governments. Further, the centralized colonial state apparatus, right from its inception, was never designed to serve the people. As an example, the government official at the district level was called a collector, his primary role in the system was extortion, not service. Similarly, the power of the police apparatus devolved downwards as a means of control of the local population for the benefit of the rulers, not as an arm of the community for its own protection and service. The laws themselves were created and imposed in a top-down manner – and these laws were both alien to the people (the Indian penal code today is still based on the penal code created by the British in 1860, with a basis in the British system) and were created and directed for the benefit of the ruler, not the ruled. This included laws that outlawed many of the traditional sources of livelihood of the people, including textile manufacturing and metallurgy, as well as forms of traditional medicine to further the economic interests of the British.
Furthermore, even in the administrative structure, there was a clear class system. To implement the system on behalf of the rulers was the Indian Civil Service (later the Indian Administrative Service) that was originally only open to whites. Later on, the ICS also included an elite section of Indians who had been “made white” – i.e., who had gone through the colonial system of education and been indoctrinated to identify themselves with the rulers rather than the ruled. The layer of native Indian clerks and “sepoys” at the bottom were often enforcing rules and laws that they did not believe in on people who did not understand them. These natives could, of course, never rise up to the ranks of the officers or aspire to join their class.
At the top of this system was the Viceroy, drawing his authority from the Queen of England. It was a centralized and alien power structure, sprawling like a gigantic bear on the aspirations of the people. An understanding of this system and its origins is very relevant to understanding India today. This is because, despite independence and democracy, the administrative system of India remains completely continuous with colonial India (and completely discontinuous with pre-colonial India). While at the top layer the authority of the Viceroy was replaced by the authority of the elected cabinet and the Parliament, the entire structure of the government administration essentially remains colonial in its origin and attitudes.
The system in America was, ironically, also started by people who were originally English. The dramatic difference comes from the fact that America was a colony of settlement, while India was a colony of exploitation. In America, the natives were largely exterminated since the wealth of the land lay mainly in its natural resources and not in the produce of the natives and the systems of governance that evolved were what the settlers chose for themselves. In India, the wealth lay mainly in the output of the locals. The system was designed not for the settlement of the English, but for the most efficient exploitation and control of the Indians for obtaining the local produce via extortive taxation to be carted away to England
Thus, in America, the police force, for instance, evolved from the need of local communities forself-policing. Thus, as in the settlement of the West, a sheriff would be appointed by the community from within the local populace to maintain order. Thus the sheriff was a member of the community, not an imposed elite, enforcing the laws of the central rulers. In some ways, the American experience allowed for an even greater community involvement and accountability than England since it was difficult to have centralized authoritarian control in a far-flung land with different groups of settlers, even though the overall Anglican system rested on a strong belief in a centralized “rule of law” enforced and created by the authority of the Church and the Sovereign Ruler.
While coming back to the problems in the contemporary Indian system, it is worth examining briefly the system that existed in pre-colonial India. It appears that this system was far more community-based in terms of village and jati laws than the colonial system. Even during the Mughal rule, though there were some centralized laws, the law-making and enforcement authority of the local communities were largely left undisturbed. Further, a large percentage of the local revenue remained with the local community by which local civil services – such as water resource management, education and order -- could be maintained. The local community, in many respects, devolved power upwards, to greater aggregates, rather than having a centralized power structure devolve power downwards[3]. In colonial times, this equation was reversed with much of the local produce being taken away by extortive British taxation, causing local institutions to decay. Furthermore, a centralized system was steadily imposed that took away the power from local communities and concentrated it into the hands of government officials.
As we mention below, this system remained largely unchanged post independence, though people like Mahatma Gandhi realized the harm that the destruction of the local community had caused. While there have been some reforms in the system, in the form of the Panchayati Raj act, yet more progress remains stymied by the fact that the panchayats have very little relative authority and control over the sources of revenue, which remain in the hands of bureaucrats.
From Colonization to Socialism
The post-independence socialist system further strengthened the approach of an essential patriarchic system – where the state knew best and private enterprise was something to be controlled by spools and spools of red tape.
Along with the politicians, the popular media projected the image of the corrupt, greedy, rapacious businessman, colluding with the corrupt politician and cruelly suppressing the people. The difficulties faced by an honest businessman in the legitimate and necessary enterprise of creating wealth for himself and for the nation were rarely appreciated. In the book, `India Unbounded', Gurcharan Das, former CEO of Proctor and Gamble India, documents the insanity of the license raj that sought to reduce business to the same level of low-performance as the government. You could actually be penalized for producing efficiently or more than the allotted quota.
Even now, despite some liberalization with respect to business, there is a dramatic contrast between the ease by which one can set up a new business in the United States as compared to India. In the former case, the state is geared to assist you. In the latter case, it is often standing in the way.
Finally, both the colonial period with its widespread poverty and the breakdown of job security in traditional occupations, as well as the controlled economy of the socialist period led to the creation of a culture of scarcity. This culture of scarcity itself led to a desperation, an attitude of every man for himself, a need to break the symbolic and literal queue and get in front, since it was doubtful whether staying in the queue would get one served at all.
Thus, to the inherited colonial system was added the license raj with its opposition to private enterprise, where the rules were not designed to serve the people and encouraged a culture of scarcity where one had to circumvent the rules to succeed – and we were headed into the inevitability of what we call corruption.
The Creation Of A Parallel System
So, what does all this tell us about corruption? The first and foremost idea we must realize is that the people and the state, for well over a century, have been antagonistic to each other. The colonial government apparatus has been designed to control the people, not to support them. For the common people, the business community and even the lower-level government functionaries, the system has been both incomprehensible as well as an obstacle to their needs and desires. In this situation, the system is something that needs to be overcome and avoided rather than something to be abided by. A huge amount of creativity and energy of the people is thus expended in finding ways to circumvent the system rather than support it.
Furthermore, there is little or no performance accountability within the administrative system. It is very difficult to fire corrupt or non-performing employees, and very few rewards for honest and conscientious employees within the system. As a result, corruption is a form of subverting the system, both by the employees as well as by their customers, the general public – by creating an unofficial, but functioning system of private transactions in lieu of the dysfunctional and often antagonistic official one from the perspective of the people. This is one aspect of understanding why a large number of countries that show up at the bottom of Transparency International's Corruption Perception Index are former colonies.
Why is the unofficial system functioning? Going back to the telephone example, making a payment to the linesman will ensure that the work is done. The linesman will probably himself have a system of “revenue-sharing” with other officials and employees, as a result of which a parallel system and economy is created. What are the characteristics of this economy? That one's job will get done relatively efficiently, that the bribe-receiver will be accountable to the bribe-giver, and the people who are more productive in this system will make more money than the people who are less productive. In other words, this system partly restores the very characteristics of accountability, efficiency and recognition of performance that should be part of any well-functioning system and which is largely missing in the official system.
This does not imply that all is well. There are plenty of problems with the parallel system, including the fact that there is a high degree of overall inefficiency in having two systems -- and this ultimately is debilitating and costly for the nation. Over times, it erodes the very foundations on which the institutions of the state rest. But before we can talk of eliminating or minimizing this parallel system of bribe taking and giving, it is critical to understand the real problems with it.
One of the biggest problems with the colonial apparatus of government is that it is a corruptingsystem. That is, it is a system that is more challenging for an honest individual than for a dishonest one. How is that?
Let us take the example of an honest telephone linesman. He goes about his job installing a telephone line without demanding a bribe. The problem is that he now becomes a threat to the revenue of the unofficial system. This means that he will be targeted by his peers who are operating within the unofficial system and in the likely case of his boss being part of the “cut”, he will get transferred to some other, less privileged location, so that the unofficial system can continue unhindered. Obviously, he will also be making less money than his peers. All in all, the system will make it both harder and much less attractive for him to remain honest – that he does so will be as a result of the sheer force of his will.
Similarly, for the ambitious businessman interested in growing (and thus creating jobs), the system has stood as an obstacle. He had to succeed despite the system, not because of it. Are Indian business people fundamentally dishonest? I would say not. In fact, business in India has traditionally relied on a very high degree of trust – with word of mouth agreements often standing in lieu of signed contracts. It is this high degree of mutual integrity that has enabled Indian traders to control a majority of the world diamond trade today, for instance. Yet, like the government employee, the successful businessman has been penalized by the system, making him complicit in its corruption.
Thus, rather than fundamentally corrupt individuals, we have a corrupting system – a system in which it is more difficult and less rewarding for someone to be honest than to be corrupt. A well-functioning system is one in which exactly the opposite is true – the cost of being dishonest is far greater than the rewards of being honest. A corrupting system is corrosive to all that encounter it – it literally breeds corruption and transforms honest people into corrupt people over time. Ultimately, this corrosive system completely dissolves the integrity of the official system – to survive at all, one needs to start playing by the unofficial rules. Of course, the unofficial rules soon need their own enforcement mechanisms and the money power starts combining with muscle power. This raises the importance of non-state enforcers and the spiral into criminality begins. One can see a higher degree of such breakdown in places such as Bihar, for instance, where parallel “senas” and private justice have replaced even these non-functional state institutions.
Why then have we tended to study corruption largely as a symptom of social morality and culture? We need to remember that the larger system also consists of the institutions of education and media, all of which relate very differently to the people in the Indian context than in the United States. There is a noticeable difference between social science programs in India and the United States in how they study their own societies. The Indian elite intelligentsia tends to study their own society largely through colonially inspired categories and lenses. As such, it is programmed to construct cultural blame for criminal acts in a way that academics in the United States are not[4]. This creation of culture blame (and culture shame) is a phenomenon found in most colonial societies. It was an original construction of the colonizing powers that set up and controlled the institutions to make the natives easier to rule by having them accept the cultural superiority of their masters (and the relative inferiority of their own). Social science studies in India thus show continuity from colonial times and institutions and a disjunction from the people at large.
A Culture Of Entrepreneurship?
If there were a cultural generalization that can be drawn about the Indian response to a non-functioning and antagonistic system, one would hazard the generalization of Indian entrepreneurship.
Even in a repressive state-controlled economy, entrepreneurs like Dhirubhai Ambani managed to circumvent the system and succeed. People such as JRD Tata, stymied by government control at home, established industrial enterprises throughout South-East Asia. Indians that migrated throughout the world demonstrated a talent for entrepreneurship – from low-tech hotels and restaurants to the high-tech software revolution.
We needn't look only at large entrepreneurs, but at small ones as well. The unorganized sector – small businessman, traders and others -- remains a very large part of the Indian economy and employment base. From the vendors boarding buses at strategic stops selling knick-knacks to the mushrooming STD operators, people found creative ways to innovate.
In fact, large hierarchical institutions have rarely been part of the Indian ethos, whether in religion, government, or even private enterprise. Our religious ideas themselves were entrepreneurial and not controlled by large centralized hierarchical institutions, unlike Western Christianity. Our pre-colonial laws themselves were highly diverse, localized and community-based rather than all of them being handed down and enforced by a single central authority. Even functions such as the maintenance of land-records were not state-run, but managed by private individuals – the dependence of their livelihood on their reputation for honesty assured the integrity of the system. A network of specialist contractors rather than monolithic institutions managed even large projects, such as the construction of fabulous buildings or the manufacture of ships. In contemporary times, the now famous Mumbai tiffinwalas, profiled in Forbes, distribute 175,000 tiffins a day exceeding Six Sigma quality of delivery, based solely on a network of private operators[5].
So, we are no strangers to either free enterprise or small government. Corruption can then be regarded as forced, perverse manifestation of this spirit or even a form of dissent in the context of an alien and antagonistic system. If the system were changed to support and harness this entrepreneurial spirit rather than stymie it, the sky is the limit to what we can achieve.
Towards Change
How then do we create change in the system so that it is more responsive to the people, more fulfilling to the employees and more effective for the nation? The following steps should be considered, in order of importance:
- 1. Reducing the size of the government and privatizing non-essential functions.
- 2. De-centralizing government functions away from large hierarchical bureaucracies and creating greater local accountability.
- 3. Simplifying laws, rules and procedures, taking into account the actual needs and practices of the people and creating a greater focus on customer service in public institutions
- 4. Simplifying taxation, reducing duties on property taxes and property transfers and creating greater transparency and “buy-in” for the use of tax-proceeds by devolving more taxation and spending to local administration from the center and states
- 5. Tackling campaign finance reform – realizing that elections today involve large expenditures and creating rules for legal campaign contributions that take this into account while reducing the influence of criminal/black money
- 6. Creating a clear performance-based reward system within the government to create greater incentive for honesty and performance
- 7. More effective enforcement and prosecution of the remaining corrupt personnel to increase the cost for the corrupt
The first fact to realize is that the answer is not more rules and larger bureaucracies, but a more transparent, accountable and responsive system. One option there is simply greater privatization where market demand and competition will drive accountability. The telephone example is again a good one. If we are fundamentally corrupt, why is it that we do not have to pay a bribe in India to get a mobile phone? How would the situation have been different if mobile phones were to be a government monopoly instead? The answer is simple – in the case of competitive private enterprise, it is in the interests of the private operator to provide greater customer service – it is only in a monopoly where these interests are divergent. Some of these aligning of interests can also happen in semi-private models. In a recent journey on a local bus in Delhi, I was pleased to find courteous service and the conductor making sure that I got a ticket. Later I was told that the driver and conductor now get a percentage of the proceeds and both the quality of service and the revenue that is collected by the government has gone up as a result.
Secondly, a restructuring of government function needs to happen so that there is far greater local accountability. Let us take the example of education. Currently, appointments and administration of teachers for schools are centralized at the level of the entire state. This means that accountability flows into the state level bureaucracy that is itself only accountable to the ministers. Since the ministers are elected, it turns out that the loop of accountability to the consumers is closed only at the highest level. This is inefficient and frustrating at all levels. The teachers find that they are subject to arbitrary transfers by bureaucrats, the end consumers are not in the loop at all of teacher accountability or performance, the ministers find themselves deluged with personal requests for low-level appointments and the bureaucrats find themselves at the mercy of politicians. I recently met one of the senior-most bureaucrats in the state of Rajasthan with a reputation for honesty. A visit to his house showed that he had a very simple lifestyle. However, he was despondent about his lack of ability to make change. “Everything in this system is delegated upwards,” he said. “Even the transfer of a chapprassi will come as an order from the minister.” Clearly, the system serves no one well.
In contrast, the accountability in the US in areas of day-to-day contact of citizens, such as education or the police force, is usually far more local. School boards operate at a city or school district level. The boards are elected and accountable to the parents. Similarly, the mayor of the city and the local police chief are the highest level of authority that concern the citizens in most local matters – not state level police chiefs, secretaries or governors.
The importance of having a more performance oriented government system can also not be over-emphasized. A job that is satisfying and rewarding is itself an incentive not to look for other avenues of gratification. I was recently talking with a government executive engineer who had been posted at the Bhakra-Nangal Dam for many years. I was surprised to learn that he was a civil engineer. When I asked what work was there for a civil engineer on a dam that was constructed several decades ago, he replied laconically, “There is no work.” This is a sad commentary on the affairs of the government – what kind of performance will such a system monitor?
Taxation is another area of reform. Land and property transactions as well as local retail sales remain areas of high black money generation. There was a time when capital gains on sales of property were as high as 66%. No one in their right mind, after holding property for twenty years, would pay 66% of it in tax to the government – especially when the government appeared as a black hole of antagonistic incompetence, serving very little useful purpose. While this has been reduced, property transfers still remain expensive transaction with high stamp duties. Devolving more taxes down to the local community level, where the benefits of the government expenditures are both more visible and more accountable, will also help in this regard.
It is also worth noting that greater prosecution of corrupt officials has been placed last in this list even though it often receives the greatest emphasis from anti-corruption crusaders. This is because enforcement, while necessary, will remain ineffective in tackling the magnitude of the problem in the absence of systematic reform. At the present time, community activism can yield better long-term results when directed towards crafting a more responsive system than simply pursuing a few high-profile enforcement cases.
Similarly, continuing to harp on corruption as simply a moral problem without addressing first the issues of systemic reform exacerbates the problem of corruption rather than helping it. This is because if the problem is that we are corrupt, it becomes very difficult to change anything, since it is obviously very difficult to change who we are as people. It is no surprise that in the light of this belief, very few people in India believe that we can fix the problem of corruption. Realizing that much of it is a problem of the system can be an empowering and actionable idea, even while the road may be long.
It is worth remembering that, even with all the problems in the Indian system, it still survives and functions because there remain a remarkable number of honest people trying to do their jobs, despite all the difficulties and disincentives. It is this honesty that we must build on and nourish as we create a blueprint for deep, systematic changes.
Beyond Systematic Corruption: Re-Examining Individual Morality
While in this article we have discussed the systematic origins of petty corruption, this is not meant to imply that values are not important. It also does not imply that fixing the system will create some kind of utopia, where no corruption or criminality will occur. However well functioning the system, there will always remain criminals and outliers – no society is free from that. A dysfunctional system, however, makes it easier for criminal tendencies to come to the fore. Also, the survival of the parallel system, profitable to vested interests, is always in conflict with those that seek to uphold the primary system and not play by the rules of the secondary one. Thus the parallel system creates its own forms of extra-legal enforcement, where criminal elements readily find room, to ensure its survival.
Reforming the system can go a long way towards a different relationship between the people and the state, where it makes sense for most people to play by the rules. However, as we mentioned earlier, even societies like the US where rules are generally not set up in opposition to the people, the problem of corruption remains. Also, in any situation, there are always criminal elements that will tend towards making the quick buck irrespective of the system. Reform of the system is unlikely to change these people, but it changes the tolerance of the system towards these elements.
To tackle these kinds of corruption, which goes beyond systematic reform, we would need to return to the question of values that president Kalam spoke about, literally what a society learns tovalue. If excessive, unbalanced materialism becomes the over-arching value, with all means considered legitimate to get it and no training in self-control, then it is inevitable that there will be corruption in society. But tackling this is a question of inner transformation, where it is recognized that the legitimate human strivings for artha and kama need to be guided by dharma.
Certainly in the traditional Indian context, the teachers and the parents transmitted values. The teacher was interestingly called acharya, a word that is based on the root achar, or conduct. Thus the transmission of values was by personal example and conduct of the teacher, not by “moral science” lessons. Values were embedded in the role models of daily life.
The other form of transmittal of values is via stories and exemplars. Stories that were told by grandparents and parents during childhood also have a positive role in the creation of values. Finally, the example set by parents as well as those portrayed as “successful” role models to emulate is certainly also important. In the contemporary world, mass media is a very powerful force in the creation of samskara. In a responsible society, mass media would recognize this role rather than view its role solely as “anything goes” entertainment, blindly aping western mores or measuring its success in purely materialistic terms. But this is ultimately a matter of awakening to responsibility, not ham-handed government censorship.
So, once the systematic problems are tackled, we will be at the level of the “developed” world in terms of corruption. As we mentioned earlier, the developed world is certainly no exemplar as far as morality goes. To go beyond this, one comes back to the messages of the rishis on inner transformation. This inner transformation is ultimately what can enable us to go beyond greed, avarice and a consumerism that obsessively seeks satisfaction outside oneself to move towards “santosh”, a santosh that is ultimately the basis for the elimination of all corruption.
Notes:
[2]Wall Street faces prospect of criminal charges, http://www.guardian.co.uk/ business/story/0,3604,689537, 00.html
[3]For a picture of Indian society in pre-colonial and early British times, the mult-volume Collected Works of Shri Dharampal are highly recommended.
[4]An interesting example is the fact that prevalent spousal killing for insurance money in the United States is not dissimilar with spousal killing for “dowry” in India. The former is not tracked or studied as a crime attributed to “culture” in the US while the latter is studied solely in that category in India. Similarly, “abortion” is treated in liberal discourse in the US as a matter of “a woman's right to choose”, while in Indian liberal discourse it is labeled as “foeticide”, to emphasize its relation to murder, and studied as a culture-attributed crime. Similarly, marriages under 18 are studied as the phenomenon of “child marriage” in India and labeled as “evil” in scholarly writing. A similar phenomenon is studied as “teenage marriage” in the US. Interestingly, even in the case of “child marriage” in India, the consummation of the marriage almost invariably happens post-puberty in India so the phenomena are not dissimilar. Interestingly, states such as Massachusetts have a legal age of marriage as low as 12, and nearly 15% of marriages in the US took place in the 15-17 age group (1970 figures).
[6]This example was first given to me by Prof. S. N. Balagangadhara in a discussion. His inspirational insight into this topic is gratefully acknowledged.
Wednesday, August 15, 2012
janmdin ek Lal ka
deshbandhu Tuesday , Oct 26
सरकारी छुट्टी थी। कहाँ-कहाँ से आयोजनों की घोषणा हो चुकी थी। टीव्ही के हर चैनल पर ''वैष्णव-जन...'' की धुन आकर तुरंत गायब हो जाती थी मानों कह रही हो ''ये तो केवल आपके मन में एक तड़का लगाने के लिये है आपके मनोरंजन में बाधा डालने के लिये नहीं।'' बीच-बीच में नीचे के कोने में गाँधीजी की छोटी-सी छवि भी झलक जाती थी।
बंगलोर में मेरे पास आनेवाले कन्नड़ के अखबार हों, अंगरेजी के या मराठी के कहीं भी लाल बहादुर शास्त्री का उल्लेख नहीं था। देशबन्धु जैसे कुछ अखबारों ने जरूर उनको याद किया था, लेकिन देश के एक दिवंगत प्रधानमंत्री को जिस सम्मान के साथ याद किया जाना चाहिये, मीडिया या सरकारी कार्यालयों में वैसा कुछ भी नहीं था।
माना कि बतौर प्रधानमंत्री उनका कार्यकाल छोटा ही था, लेकिन उपलब्धि बहुत बड़ी थी और दु:ख इसी बात का है कि उस उपलब्धि को भी भुलाया जा रहा था।
मुझे उनकी वो छोटी-छोटी बातें याद आईं जिन्होंने उस जमाने में हमारे किशोर-मनों को प्रभावित किया था।
मुझे आज भी याद है 1965 के वो दिन। उन दिनों टीव्ही जैसी कोई वस्तु नही थी परन्तु रेडियो की खबरें बडे ध्यान से सुनी जाती थीं। पाकिस्तान के साथ लड़ाई छिड़ चुकी थी। सितम्बर की एक शाम का समय था और रेडियो से घोषणा हो चुकी थी कि लड़ाई के मुद्दों पर प्रधानमंत्री राष्ट्र को संबोधित करेंगे। उसी वर्ष सूखे की स्थिति थी और देश में अनाज की कमी का संकट भी था। हम सभी प्रधानमंत्री का संबोधन सुनने को उत्सुक थे। तीन वर्ष पूर्व चीन के साथ हुई लड़ाई में हार खाने का दु:ख सभी को घेरे हुए था। संबोधन शुरु हुआ और सुना भी, और उसकी दो बातों ने न केवल दिल के अंदर घर कर लिया वरन् उनके लिये एक अटूट आदर भी जगा दिया। उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान यह समझ ले कि हमारा सबसे पहला गुण शांतिप्रियता है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि आमण की स्थिति में हम मुकाबला करने से पीछे हटेंगे। पाकिस्तान किसी गलतफहमी में न रहे, हम डटकर मुकाबला करेंगे और जरूरत पड़ी तो आामक भी हो जायेंगे। दूसरी ओर देशवासियों से उन्होंने अपील की कि देश पर विदेशी आमण के साथ-साथ अकाल का खतरा भी है, अत: हर भारतीय का कर्तव्य है कि अनाज की बरबादी को रोके। सीमा क्षेत्र में लड़ रहे जवानों तक अन्न पहुँचाना आवश्यक है अत: प्रत्येक भारतीय से अपील है कि हफ्ते में एक दिन एक ही समय भोजन कर एक वक्त का उपवास रखे। इसके बाद उन्होंने अत्यंत भावभीने शब्दों में कहा, ''मैं स्वयं यह प्रण लेता हूँ कि आज से आरंभ कर हर सोमवार को एकभुक्त होने का व्रत रखूँगा।'' भाषण समाप्त करते हुए नारा लगाया ''जय जवान, जय किसान।'' उसी पल हमारे घर के सभी सदस्यों ने सोमवार को एक वक्त का भोजन त्यागने का संकल्प लिया। थोड़ी देर बाद घर से बाहर निकलकर औरों के साथ बातें होने लगीं तो पता चला कि कई सारे घरों में यह प्रण लिया गया है। कारण यह था कि उनके भाषण की प्रामाणिकता सबको छू गई थी और लोग इस युध्द के इतिहास में अपना हाथ बँटाने को लालायित हो गये थे। सच पूछें तो सप्ताह में एक दिन उपवास भारतीयों के लिये कोई नई बात नहीं है, लेकिन उस आह्वान के कारण लोगों का मन सीमा पर लड़ने वालों के साथ जुड़ गया और उन्हें लगा कि जवानों के साथ हम भी अपना गिलहरी-सा छोटा सामर्थ्य तो लगा ही रहे हैं। युध्द जीतने के लिये यह मानसिकता बड़ी ही आवश्यक वस्तु होती है।
दूसरे दिन क्या कॉलेज और क्या बाजार हर जगह शास्त्रीजी के प्रसंग ही एक दूसरे को बताए जा रहे थे। एक प्रसंग यह भी था कि कई वर्ष पहले जब वे रेल मंत्री थे (1956 में) तब तमिलनाडु में हुई एक रेल-दुर्घटना में करीब डेढ़ सौ व्यक्तियों की मौत हुई थी, और इस घटना की नैतिक जिम्मेवारी स्वीकारते हुए उन्होंने अपने रेलमंत्री के पद से त्यागपत्र दिया था। तब नेहरूजी ने कहा था कि दुर्घटना के जिम्मेवार शास्त्रीजी नही हैं फिर भी देश के सामने एक नैतिक मापदण्ड प्रस्तुत होने के उद्देश्य से शास्त्रीजी त्यागपत्र दे रहे हैं और वे भी त्यागपत्र को इसी कारण स्वीकार कर रहे हैं। मुझे यह भी याद आता है कि कई वर्षों पश्चात् एक ऐसी ही बड़ी रेल दुर्घटना में कई व्यक्तियों की मृत्यु हुई तो तत्कालीन रेलमंत्री ने रहा कि मुझे त्यागपत्र देने की कोई आवश्यकता नहीं, यह तो व्यवस्था कि भूलचूक है (स्4ह्यह्लद्गद्वद्बष् स्नड्डद्बद्यह्वह्मद्ग) तब मेरे पिताजी ने तिलमिलाकर कहा था अरे, इन्हें जरा शास्त्रीजी की याद तो दिलाओ, वरना इस देश में यही प्रवाह रूढ़ हो जायेगा कि हर दुर्घटना का ठीकरा व्यवस्था पर टाल दिया जायगा और सुधार का कोई प्रयास नहीं होगा। आज भी जब कॉमनवेल्थ गेमों में कई हजार करोड़ का भ्रष्टाचार हो रहा है, तो हम इसे व्यवस्था की कमजोरी बताकर स्वीकार करने को मजबूर हो गए हैं।
उनकी एक और कहानी सुनने में आई कि बचपन में कैसे एक समय नदी पार करने के लिये पैसे न होने पर उन्होंने किसी के सामने हाथ फैलाकर उधार लेने की अपेक्षा तैरकर नदी पार की और इस तरह अपनी खुद्दारी का परिचय दिया। यही खुद्दारी उस दिन उनके भाषण में भी साफ दिख रही थी जब उन्होंने पाकिस्तान को चेतावनी दी । यही खुद्दारी तब भी दिखी जब उनकी मृत्यु के पश्चात् पता चला कि अन्य कई राजनेताओं की तरह उन्होंने काला धन नहीं बटोरा था।
एक घटना यह भी सुनने को मिली कि 1930 में जब उन्हें ढाई वर्ष के लिये जेल की सजा हुई तब उस समय का उपयोग करते हुए कई पुस्तकें पढ़ डालीं। एक पुस्तक प्रसिध्द वैज्ञानिक मेरी क्यूरी का चरित्र था। मेरी की लगन और काम के प्रति श्रध्दा से वे इतने अभिभूत हो गये कि इस पुस्तक का हिंदी भाषांतर कर डाला । मेरे जीवन के प्रलम्बित कामों की लिस्ट में यह काम भी है कि उस हिन्ही अनुवाद को पढ़ना (कोई प्रकाशक सुन रहा है?) और यह जानना कि मेरी के चरित्र के किस पहलू ने उन्हें सर्वाधिक प्रभावित किया और अपने भाषांतर में उस पहलू को किस तरह उजागर किया है। एक बार बहुत प्रयास के बाद मुझे अनिल शास्त्री से मिलने का मौका लगा। लेकिन इस पुस्तक के विषय में पूछने पर उनका उत्तर था कि पिताजी के पुस्तकों में से वह खोज निकालनी पडेग़ी।
जय जवान, जय किसान का जो नारा उन्होंने दिया उसके पीछे भी एक भावनात्मक संबंध था । 1964 में जब पंडित नेहरू की मृत्यु पश्चात् वे प्रधानमंत्री बने तब देश में अकाल का माहौल था और अनाज की कमी थी। इसीलिए कृषि नीति को सही दिशा देना आवश्यक था। वह शायद उनकी अकालमृत्यु के कारण न हो पाया हो, लेकिन कृषक व कृषि का महत्व लोगों के दिल-दिमाग में पैठ गया। आज भी जब किसानों की आत्महत्या की खबर आती है तो लगता है कि काश उनके इस नारे को सही मायनों में अपनाकर अमल किया होता तो आज किसानों की यह दुर्दशा न होती।
उनके उस दिन के भाषण की खुद्दारी ने तथा जिस बहादुरी से भारतीय जवानों ने पाकिस्तान को मुँहतोड़ जबाब देकर संधि-प्रस्ताव के लिए मजबूर कर दिया, उस बहादुरी ने हर भारतीय का सर गर्व से उँचा कर दिया और चीन-युध्द की हार से आई ग्लानी को एक प्रकार से कम कर दिया। उसी युध्द के अमर शहीद हवलदार अब्दुल हमीद (मृत्युदिवस 10 सितम्बर 1965) को तत्काल मरणोपरान्त परमवीर-च की घोषणा कर शास्त्रीजी ने दिखा दिया कि जवानों का मनोबल बढ़ाने में सरकार पीछे नहीं हटेगी । उन दिनों अखबार में छपी हवलदार अब्दुल हमीद की फोटो (कई गोलियाँ खाकर जख्मी अवस्था में लेटे हुए) कई वर्षों तक मेरी किताबों में रखी थी शायद अब भी कहीं हो। इसी दौर में चीन ने फिर से एक दुष्ट रणनीति के तहत भारत पर कुछ आरोप लगाए थे जिसके लिए शास्त्रीजी का उत्तर था कि यदि इस बार चीन आमण करेगा तो उसका भी दृढ़ता से मुकाबला किया जायगा। इस बात पर किसी ने कह दिया कि अरे, ये तो गुदड़ी के लाल निकले बेशकीमती। सबके मन में एक जोश-सा भर गया था कि युध्द नहीं हारेंगे और वाकई एक ओर चीन ने चुप्पी साध ली तो दूसरी ओर एक मजबूत स्थिति में पहुँचकर हमारे जवानों ने पाकिस्तान को संधि के लिए मजबूर कर दिया। जय जवान का नारा यथार्थ सिध्द हुआ। बाइस दिन का वह युध्द तेइस सितम्बर को रुक गया।
फिर संधि-वार्ता की बारी आई। जनवरी में प्रधानमंत्री रशिया को रवाना हुए जहाँ वार्ता होनी थी। एक शाम वार्ता संपन्न होने की खबर आई, दस्तावेजों पर दोनों देशों ने अपनी मुहर लगाई। और तत्काल दूसरे दिन शास्त्रीजी की मृत्यु की खबर आई। पूरा देश शोकसागर में डूब गया। हरेक के दिल में एक ही भावना थी अरे, यह कैसे हो गया जो इस पड़ाव पर हरगिज नहीं होना चाहिये था। उनके शव के साथ खुद पाकिस्तानी प्रेसिडेण्ट जनरल अयूब खान और रशिया के प्रधानमंत्री कोसिजिन भारत आए।
उन दिनों धर्मयुग साप्ताहिक में काका हाथरसी के व्यंग-छक्के छपते थे जो ताजी घटनाओं पर करारे हास्य-व्यंग हुआ करते थे। शास्त्रीजी की मृत्यु पर काका को लिखना पड़ा कि मैं ठहरा एक हास्यकवि इस दु:खद घटना का वर्णन मैं भला कैसे कर सकूँगा लेकिन उस छक्के की अंतिम पंक्तियाँ थीं कह काका कविराय, न देखा ऐसा बन्दा
दौ दौ देसन के प्रधान जाको दे कान्धा ॥दो अक्तूबर को गांधी जयन्ती के दिन ही शास्त्रीजी का भी जन्मदिन आता रहा है और हर वर्ष उन्हें याद कर श्रध्दांजलि देनेवाले लोगों की संख्या क्षीण होती जा रही है। इस अकृतज्ञता भाव को छोड़ते हुए हमें उनकी उपलब्धियों का स्मरण रखना चाहिये और उनके 'जय किसान...' नारे पर भी पर्याप्त ध्यान देना चाहिए।
सरकारी छुट्टी थी। कहाँ-कहाँ से आयोजनों की घोषणा हो चुकी थी। टीव्ही के हर चैनल पर ''वैष्णव-जन...'' की धुन आकर तुरंत गायब हो जाती थी मानों कह रही हो ''ये तो केवल आपके मन में एक तड़का लगाने के लिये है आपके मनोरंजन में बाधा डालने के लिये नहीं।'' बीच-बीच में नीचे के कोने में गाँधीजी की छोटी-सी छवि भी झलक जाती थी।
बंगलोर में मेरे पास आनेवाले कन्नड़ के अखबार हों, अंगरेजी के या मराठी के कहीं भी लाल बहादुर शास्त्री का उल्लेख नहीं था। देशबन्धु जैसे कुछ अखबारों ने जरूर उनको याद किया था, लेकिन देश के एक दिवंगत प्रधानमंत्री को जिस सम्मान के साथ याद किया जाना चाहिये, मीडिया या सरकारी कार्यालयों में वैसा कुछ भी नहीं था।
माना कि बतौर प्रधानमंत्री उनका कार्यकाल छोटा ही था, लेकिन उपलब्धि बहुत बड़ी थी और दु:ख इसी बात का है कि उस उपलब्धि को भी भुलाया जा रहा था।
मुझे उनकी वो छोटी-छोटी बातें याद आईं जिन्होंने उस जमाने में हमारे किशोर-मनों को प्रभावित किया था।
मुझे आज भी याद है 1965 के वो दिन। उन दिनों टीव्ही जैसी कोई वस्तु नही थी परन्तु रेडियो की खबरें बडे ध्यान से सुनी जाती थीं। पाकिस्तान के साथ लड़ाई छिड़ चुकी थी। सितम्बर की एक शाम का समय था और रेडियो से घोषणा हो चुकी थी कि लड़ाई के मुद्दों पर प्रधानमंत्री राष्ट्र को संबोधित करेंगे। उसी वर्ष सूखे की स्थिति थी और देश में अनाज की कमी का संकट भी था। हम सभी प्रधानमंत्री का संबोधन सुनने को उत्सुक थे। तीन वर्ष पूर्व चीन के साथ हुई लड़ाई में हार खाने का दु:ख सभी को घेरे हुए था। संबोधन शुरु हुआ और सुना भी, और उसकी दो बातों ने न केवल दिल के अंदर घर कर लिया वरन् उनके लिये एक अटूट आदर भी जगा दिया। उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान यह समझ ले कि हमारा सबसे पहला गुण शांतिप्रियता है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि आमण की स्थिति में हम मुकाबला करने से पीछे हटेंगे। पाकिस्तान किसी गलतफहमी में न रहे, हम डटकर मुकाबला करेंगे और जरूरत पड़ी तो आामक भी हो जायेंगे। दूसरी ओर देशवासियों से उन्होंने अपील की कि देश पर विदेशी आमण के साथ-साथ अकाल का खतरा भी है, अत: हर भारतीय का कर्तव्य है कि अनाज की बरबादी को रोके। सीमा क्षेत्र में लड़ रहे जवानों तक अन्न पहुँचाना आवश्यक है अत: प्रत्येक भारतीय से अपील है कि हफ्ते में एक दिन एक ही समय भोजन कर एक वक्त का उपवास रखे। इसके बाद उन्होंने अत्यंत भावभीने शब्दों में कहा, ''मैं स्वयं यह प्रण लेता हूँ कि आज से आरंभ कर हर सोमवार को एकभुक्त होने का व्रत रखूँगा।'' भाषण समाप्त करते हुए नारा लगाया ''जय जवान, जय किसान।'' उसी पल हमारे घर के सभी सदस्यों ने सोमवार को एक वक्त का भोजन त्यागने का संकल्प लिया। थोड़ी देर बाद घर से बाहर निकलकर औरों के साथ बातें होने लगीं तो पता चला कि कई सारे घरों में यह प्रण लिया गया है। कारण यह था कि उनके भाषण की प्रामाणिकता सबको छू गई थी और लोग इस युध्द के इतिहास में अपना हाथ बँटाने को लालायित हो गये थे। सच पूछें तो सप्ताह में एक दिन उपवास भारतीयों के लिये कोई नई बात नहीं है, लेकिन उस आह्वान के कारण लोगों का मन सीमा पर लड़ने वालों के साथ जुड़ गया और उन्हें लगा कि जवानों के साथ हम भी अपना गिलहरी-सा छोटा सामर्थ्य तो लगा ही रहे हैं। युध्द जीतने के लिये यह मानसिकता बड़ी ही आवश्यक वस्तु होती है।
दूसरे दिन क्या कॉलेज और क्या बाजार हर जगह शास्त्रीजी के प्रसंग ही एक दूसरे को बताए जा रहे थे। एक प्रसंग यह भी था कि कई वर्ष पहले जब वे रेल मंत्री थे (1956 में) तब तमिलनाडु में हुई एक रेल-दुर्घटना में करीब डेढ़ सौ व्यक्तियों की मौत हुई थी, और इस घटना की नैतिक जिम्मेवारी स्वीकारते हुए उन्होंने अपने रेलमंत्री के पद से त्यागपत्र दिया था। तब नेहरूजी ने कहा था कि दुर्घटना के जिम्मेवार शास्त्रीजी नही हैं फिर भी देश के सामने एक नैतिक मापदण्ड प्रस्तुत होने के उद्देश्य से शास्त्रीजी त्यागपत्र दे रहे हैं और वे भी त्यागपत्र को इसी कारण स्वीकार कर रहे हैं। मुझे यह भी याद आता है कि कई वर्षों पश्चात् एक ऐसी ही बड़ी रेल दुर्घटना में कई व्यक्तियों की मृत्यु हुई तो तत्कालीन रेलमंत्री ने रहा कि मुझे त्यागपत्र देने की कोई आवश्यकता नहीं, यह तो व्यवस्था कि भूलचूक है (स्4ह्यह्लद्गद्वद्बष् स्नड्डद्बद्यह्वह्मद्ग) तब मेरे पिताजी ने तिलमिलाकर कहा था अरे, इन्हें जरा शास्त्रीजी की याद तो दिलाओ, वरना इस देश में यही प्रवाह रूढ़ हो जायेगा कि हर दुर्घटना का ठीकरा व्यवस्था पर टाल दिया जायगा और सुधार का कोई प्रयास नहीं होगा। आज भी जब कॉमनवेल्थ गेमों में कई हजार करोड़ का भ्रष्टाचार हो रहा है, तो हम इसे व्यवस्था की कमजोरी बताकर स्वीकार करने को मजबूर हो गए हैं।
उनकी एक और कहानी सुनने में आई कि बचपन में कैसे एक समय नदी पार करने के लिये पैसे न होने पर उन्होंने किसी के सामने हाथ फैलाकर उधार लेने की अपेक्षा तैरकर नदी पार की और इस तरह अपनी खुद्दारी का परिचय दिया। यही खुद्दारी उस दिन उनके भाषण में भी साफ दिख रही थी जब उन्होंने पाकिस्तान को चेतावनी दी । यही खुद्दारी तब भी दिखी जब उनकी मृत्यु के पश्चात् पता चला कि अन्य कई राजनेताओं की तरह उन्होंने काला धन नहीं बटोरा था।
एक घटना यह भी सुनने को मिली कि 1930 में जब उन्हें ढाई वर्ष के लिये जेल की सजा हुई तब उस समय का उपयोग करते हुए कई पुस्तकें पढ़ डालीं। एक पुस्तक प्रसिध्द वैज्ञानिक मेरी क्यूरी का चरित्र था। मेरी की लगन और काम के प्रति श्रध्दा से वे इतने अभिभूत हो गये कि इस पुस्तक का हिंदी भाषांतर कर डाला । मेरे जीवन के प्रलम्बित कामों की लिस्ट में यह काम भी है कि उस हिन्ही अनुवाद को पढ़ना (कोई प्रकाशक सुन रहा है?) और यह जानना कि मेरी के चरित्र के किस पहलू ने उन्हें सर्वाधिक प्रभावित किया और अपने भाषांतर में उस पहलू को किस तरह उजागर किया है। एक बार बहुत प्रयास के बाद मुझे अनिल शास्त्री से मिलने का मौका लगा। लेकिन इस पुस्तक के विषय में पूछने पर उनका उत्तर था कि पिताजी के पुस्तकों में से वह खोज निकालनी पडेग़ी।
जय जवान, जय किसान का जो नारा उन्होंने दिया उसके पीछे भी एक भावनात्मक संबंध था । 1964 में जब पंडित नेहरू की मृत्यु पश्चात् वे प्रधानमंत्री बने तब देश में अकाल का माहौल था और अनाज की कमी थी। इसीलिए कृषि नीति को सही दिशा देना आवश्यक था। वह शायद उनकी अकालमृत्यु के कारण न हो पाया हो, लेकिन कृषक व कृषि का महत्व लोगों के दिल-दिमाग में पैठ गया। आज भी जब किसानों की आत्महत्या की खबर आती है तो लगता है कि काश उनके इस नारे को सही मायनों में अपनाकर अमल किया होता तो आज किसानों की यह दुर्दशा न होती।
उनके उस दिन के भाषण की खुद्दारी ने तथा जिस बहादुरी से भारतीय जवानों ने पाकिस्तान को मुँहतोड़ जबाब देकर संधि-प्रस्ताव के लिए मजबूर कर दिया, उस बहादुरी ने हर भारतीय का सर गर्व से उँचा कर दिया और चीन-युध्द की हार से आई ग्लानी को एक प्रकार से कम कर दिया। उसी युध्द के अमर शहीद हवलदार अब्दुल हमीद (मृत्युदिवस 10 सितम्बर 1965) को तत्काल मरणोपरान्त परमवीर-च की घोषणा कर शास्त्रीजी ने दिखा दिया कि जवानों का मनोबल बढ़ाने में सरकार पीछे नहीं हटेगी । उन दिनों अखबार में छपी हवलदार अब्दुल हमीद की फोटो (कई गोलियाँ खाकर जख्मी अवस्था में लेटे हुए) कई वर्षों तक मेरी किताबों में रखी थी शायद अब भी कहीं हो। इसी दौर में चीन ने फिर से एक दुष्ट रणनीति के तहत भारत पर कुछ आरोप लगाए थे जिसके लिए शास्त्रीजी का उत्तर था कि यदि इस बार चीन आमण करेगा तो उसका भी दृढ़ता से मुकाबला किया जायगा। इस बात पर किसी ने कह दिया कि अरे, ये तो गुदड़ी के लाल निकले बेशकीमती। सबके मन में एक जोश-सा भर गया था कि युध्द नहीं हारेंगे और वाकई एक ओर चीन ने चुप्पी साध ली तो दूसरी ओर एक मजबूत स्थिति में पहुँचकर हमारे जवानों ने पाकिस्तान को संधि के लिए मजबूर कर दिया। जय जवान का नारा यथार्थ सिध्द हुआ। बाइस दिन का वह युध्द तेइस सितम्बर को रुक गया।
फिर संधि-वार्ता की बारी आई। जनवरी में प्रधानमंत्री रशिया को रवाना हुए जहाँ वार्ता होनी थी। एक शाम वार्ता संपन्न होने की खबर आई, दस्तावेजों पर दोनों देशों ने अपनी मुहर लगाई। और तत्काल दूसरे दिन शास्त्रीजी की मृत्यु की खबर आई। पूरा देश शोकसागर में डूब गया। हरेक के दिल में एक ही भावना थी अरे, यह कैसे हो गया जो इस पड़ाव पर हरगिज नहीं होना चाहिये था। उनके शव के साथ खुद पाकिस्तानी प्रेसिडेण्ट जनरल अयूब खान और रशिया के प्रधानमंत्री कोसिजिन भारत आए।
उन दिनों धर्मयुग साप्ताहिक में काका हाथरसी के व्यंग-छक्के छपते थे जो ताजी घटनाओं पर करारे हास्य-व्यंग हुआ करते थे। शास्त्रीजी की मृत्यु पर काका को लिखना पड़ा कि मैं ठहरा एक हास्यकवि इस दु:खद घटना का वर्णन मैं भला कैसे कर सकूँगा लेकिन उस छक्के की अंतिम पंक्तियाँ थीं कह काका कविराय, न देखा ऐसा बन्दा
दौ दौ देसन के प्रधान जाको दे कान्धा ॥दो अक्तूबर को गांधी जयन्ती के दिन ही शास्त्रीजी का भी जन्मदिन आता रहा है और हर वर्ष उन्हें याद कर श्रध्दांजलि देनेवाले लोगों की संख्या क्षीण होती जा रही है। इस अकृतज्ञता भाव को छोड़ते हुए हमें उनकी उपलब्धियों का स्मरण रखना चाहिये और उनके 'जय किसान...' नारे पर भी पर्याप्त ध्यान देना चाहिए।
Friday, August 10, 2012
team anna -- देशबन्धु १० अगस्त २०१२
लीना मेहेंदले -- देशबन्धु - 10, Aug, 2012, Friday
आखिर उपोषण इत्यादि से जनलोकपाल बिल नहीं लाया जा सकता- यह बात समझ में आने पर टीम अन्ना ने फैसला लिया कि अब वे इसे लाने के लिए राजकीय रास्ता अपनाएंगे और इसीलिए 2014 के लोकसभा चुनाव में एक राजकीय पक्ष के रूप में उतरने का निर्णय लिया। इस निर्णय पर तीव्र प्रतिक्रियाएं हुई हैं जिनमें क्रोध, हतबलता, उपहास और आशा ये चारों रंग अलग-अलग प्रतिशत में घुले हुए हैं।
मैं इस निर्णय को सही या गलत तो नहीं मानती लेकिन मेरे विचार में यह नितांत अपर्याप्त है। इसी कारण इसके कुछ पहलुओं को जांचना चाहती हूं। किशोरावस्था में पढ़ी हुई विनोबाजी की एक स्मृति याद आती है। स्वतंत्रता पाए हुए अभी आधा दशक भी पूरा नहीं हुआ था। विनोबाजी ने भूदान यज्ञ चलाया। बड़े जमींदारों को प्रोत्साहित किया कि वे अपनी जमीन भूमिहीनों के लिए दें। उन्हें बिहार, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश में काफी यश मिला। यज्ञ अभी चल रहा था। भूमि का बंटवारा शुरू हुआ था। एक अभूतपूर्व घटना घट रही थी।
नेहरूजी ने बुलावा भेजा विनोबाजी से कहलवाया 'आप सरकार से बाहर रहकर इतना इच्छा काम कर रहे हैं- सोचिए सरकारी ताकत भी इस अच्छे काम के पीछे लग जाए तो यह काम कई गुना अधिकता से हो सकता है, अत: आप सरकार में आ जाइए- कृषि मंत्री का पद स्वीकार करिए और सरकार की प्रतिभा को भी चमकाइए।'
विनोबा ने उत्तर दिया- 'नहीं आऊंगा। हमारे देश ने लोकतंत्र को अपनाया है- राजतंत्र को नहीं। लोकतंत्र की आवश्यकता है कि इसमें लोगों को लगना चाहिए कि उनके अच्छे इरादे और अच्छे कामों से समाज का विकास हो सकता है- हर विकास के लिए सरकार की या सरकारी सत्ता की आवश्यकता नहीं है। यदि लोगों को लगा कि कोई विकास सरकार के बिना नहीं हो सकता है, तो यह लोकतंत्र के लिए मनोबल घटाने वाली बात होगी। लोकतंत्र में लोगों के विश्वास को बचाने के लिए आवश्यक है कि मैं यह काम सरकार से बाहर रहकर करूं-भले ही छोटे स्तर पर होता हो।'
1952 और 2012- साठ वर्ष बीत गए। इस दौरान धीरे-धीरे सामाजिक कार्यों की व्याप्ति और पहुंच और दृष्टि व दायरा-सभी सिमटते चले गए हैं। अब यह स्थिति आ गई है कि कोई अच्छा काम करना हो तो लगता है कि इसके लिए सरकार में सत्ता हासिल किए बिना बात नहीं बनेगी।
और सत्ता का खेल भी अब खेल नहीं रहा, बल्कि एक मारो या मरो वाला मुकाम सा बन गया है। सत्ता में आने के लिए पहले चाहिए पैसा। फिर चाहिए बडी संख्या- उसके लिए बड़ा संगठन-उसके लिए बड़ा पैसा। यह केवल एक आवश्यकता है। दूसरी आवश्यकता है कि लोगों में अलगाव, आवेश, आक्रोश भर दिया जाए और दावा किया जाए कि हम ही हैं- तारनहार। आज प्रत्येक पार्टी किसी न किसी भौगोलिक हिस्से में इस प्रकार के अलगाव को प्रोत्साहन देती हुई दिखाई देगी। इसी के लिए बाहुबली भी पालने पड़ेंगे। तीसरी आवश्यकता है कि दूसरों के अच्छे कामों का विरोध करो, उसे सफल न होने दो, क्योंकि दूसरे 'अच्छे' दिखे तो सत्ता में अपने लिए स्पर्धा खड़ी हो जाती है। चौथी आवश्यकता है समय की । इतने कम समय में बडी सत्ता नहीं मिल सकती। फिर गठबंधन- जोड़-घटाव, लेन-देन का व्यापार शुरू हो जाता है।
इन चारों आवश्यकताओं को ध्यान रखने में किसी भी राजकीय पक्ष को इतना समय लगाना पड़ता है कि इनकी पूर्ति ही साध्य बन जाती है। फिर वह लक्ष्य कोसों दूर चला जाता है जिसे 'साधने के लिए' सत्ता को साधन बनाने का फैसला लिया गया था। टीम अन्ना के निर्णय से लोगों में यदि क्रोध, उपहास या हतबलता की भावना आई है उसका कारण भी यही विवंचना है, भले ही इसे इतनी स्पष्टता से अभी नहीं देखा जा रहा हो।
अब दो प्रश्न पूछे जा सकते हैं- क्या कभी भी किसी नए व्यक्ति का राजनीति में प्रवेश हो ही नही सकता? ऐसा नहीं है- यदि किसी की सामाजिक कार्य की प्रतिमा बन गई हो तो वह चुनाव में जीतकर आ सकते हैं- इसका एक उदाहरण है गुजरात के एक पुलिस कमिश्नर (शायद सूरत के) जो नौकरी छोड़कर राजनीति में उतरे, जीते भी। लेकिन आज वे कहां हैं? या फिर आंध्र में हाली चुनाव में एक सीट जीतने वाला प्रजातंत्र पक्ष जो अब कांग्रेस में विलीन हो गया है। इसलिए यदि टीम अन्ना ने राजकीय पक्ष की स्थापना का निर्णय लिया हो तो लोग पहले उसके उम्मीदवारों का सामाजिक कार्य पूछेंगे। आज अन्ना हजारे को छोड़ किसी और सदस्य का सामाजिक कार्य क्या है? वह कहीं दिखाई नहीं देता तब तक चुनाव लडने का सपना कोई खास सफलता नहीं देने वाला।
एक दूसरा प्रश्न भी पूछा जा सकता है यदि लोकतंत्र में सत्ता पाने के लिए उन चार आवश्यकताओं को पूरा करना पड़ता है तो कई अन्य राष्ट्रों में यही लोकतंत्र प्रणाली क्यों विकास-गंगा बन पाई। उदाहरण स्वरूप यदि यूरोपीय देशों को देखें तो लगता है कि वहां लोकतंत्र सशक्त है और विकास का रास्ता प्रशस्त कर रहा है। फिर भारत में ऐसा क्यों नहीं तो इसका भी कारण है उन नागरिकों की सार्थक समाज कार्य करने की क्षमता। इसका पाठ वहां विद्यार्थी दशा से ही आरंभ होता है जबकि अपने यहां छात्र-संगठन भी भ्रष्ट राजनीति में लिप्त हो जाते हैं। मैं मानती हूं कि राजनीति में घुसकर सत्ता पाने का प्रयास एक शार्टकट की तरह है। जबकि सामाजिक काम के रास्ते अपना साध्य पाने के लिए एक लम्बा सफर तय करना पड़ता है। अत: किसी भी टीम को यह लगना स्वाभाविक है कि शॉर्टकट का रास्ता लिया जाए। लेकिन मुझे नहीं लगता कि ठोस सामाजिक कार्य के बगैर वह मंजिल तक पहुंचाएगा।
टीम अन्ना राजनीति में असफल होती है तो यह पूरे देश के लिए दुखद घटना होगी क्योंकि भ्रष्टाचार हटने का कोई दूसरा रास्ता नहीं दिखता। लेकिन उनकी सफलता का रास्ता हजारों-लाखों के छोटे- बड़े सामाजिक कार्यों के पड़ाव से ही गुजरना है शॉर्टकट से चिरंतन कुछ भी हासिल नहीं होगा।
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- Leena Mehendale लेकिन हमारे हाथमें एक बात है, यदि हम कोई छोटा-बडा समाज-कार्य कर रहे हैं और ऐसे हजारों लाखों छोटे-छोटे कामोंको उनके अभियान से जोडें तो संभावना बनती है, लेकिन यह जुडना दोनों ओरसे हो तभी सार्थक होगा।22 hours ago · · 4
- स्वप्निल कल्याणकरI'm not yet that good or prepared to write in detail but if ppl can accept sons and daughters of politicians based on father's 'social'/political work...then there should not be a problem to accept most of candidates from IAC....mainly bc...See More22 hours ago · · 1
- Leena Mehendale वे बेटे -बेटी जो बापकी विरासतपर राजनीतीमें उतरते हैं, उनके पास बापका कमाया धन और बाकी सब हथकंडे भी तो होते हैं।21 hours ago · · 1
- Vinod M. Jadhav क्या आपने स्वामी रामदेवजी के कार्यों के बारे में सुना/ देखा है? जमीनी स्तर पर उन्होने जो कार्य अब तक किया है और स्थायी रूप जो आगे चलता रहेगा वह समझने लायक है।
स्वदेशी से और स्वावलंबन से ही देश की प्रगति संभव है। इस बात को उन्होने करके दिखाया है। दुसरों के भरोसे (FDI ya World Bank के कर्ज से) हम कभी भी प्रगती कर नहीं सकते।
हर भारतवासी को अपनी कार्यक्षमता को बढ़ाना होगा।21 hours ago · Edited · - Sudhakar Jadhav राजकीय गटारगंगा साफ करण्यासाठी व्यवस्थात्मक बदलाची गरज आहे हे लक्षात घेतल्याशिवाय नवा राजकीय पर्याय उभा राहू शकत नाही हे टीम अण्णाला समजेल त्या दिवशी टीम अण्णा कडून राजकीय पर्यायाची मुहूर्तमेढ रोवल्या जाईल.
Blog: common non sense
Post: जंतर मंतरचे डॉन क्विझोट
Link: http://myblog-common-nonsense.blog spot.com/2012/08/ blog-post_9.html 20 hours ago · · - Anil Garg विनेबा भावे का कथन ,मैं यह काम सरकार से बाहर रह कर करूँ, भले ही छोटे स्तर पर होता हो, अपनी जगह ठीकलेकिन जिस काम का बीडा अन्ना ने उठाया है वो तो बडे स्तर पर ही हो सकता है और उसके लिये राजनीति में आने का फैसला मुझे तो सही लगा।
यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा किवह लक्ष्य कोसों दूर चला जायेजिसे साधने के लिये सत्ता को साधन बनाने का फैसला लिया जा रहा है।20 hours ago · · 2 - सत्ता एवं राजनिती हर मसले का हल नहीं है. वह एक साधन है,साध्य नही.मैं अण्णा हजारेके किसीभी आंदोलनका समर्थक नही हूं.क्योंकी परिवर्तन भावानिकतासे नही बल्की व्यवहार्य कृतीसे होता है.इस आंदोलनने जनांदोलन कि सीमाकोही ध्वस्त किया. यह दिखनेमे जनांद...See More
- Dinkar Wasekar · Friends with Seema Redkarटीम अण्णाबद्दल सुरवातीपासुन राजकिय पक्षाच्या आरोपाला अण्णा राजकिय आखाडात उतरण्याचा विचार नांडून बळकटी दिली.मुळात समाज सुधारणा करण्यासाठी राजकिय विचाराची गरज नसते, तर समाजसुधारणेबाबत ठोस कार्यक्रम घेऊन चालावे लागते.भ्रष्टाचार ही समाजमनाला ला...See More
- Leena Mehendaleजो समाज-कार्य राजनितिको प्रभावित करे वह चिरंचन होता है -- जैसे RTI Act, उससे पहले कन्झ्यूमर प्रोटेक्शन ऍक्ट , उससे पहले नॅशनल कमिशन फॉर वूमेन ऍक्ट -- ये सभी ताजा उदाहरण है। खुद संविधानमें आरक्षणकी कल्पना इसलिये स्वीकार हुइ क्योंकि इसके पीछे डॉ आंबेडकरका सामाजिक कार्य था -- या गांधीजी भी सबसे अधिक लोकप्रिय राजनेता हुए क्योंकि न केवल अहिंसा का फलसफा, बल्कि खादी, स्वदेशी, स्त्रियोंका सहभाग, हरिजन पत्रिका, टॉलस्टाय आश्रम जैसे कई सामाजिक व रचनात्मक कार्य उन्होंने किये। खूद टीम अण्णाको अण्णाकी आवश्यकता क्यों हुई -- क्योंकि अण्णाका व्यक्तिगत किया हुआ समाजकार्य -- जो भले ही उनके गाँव तक सीमित रहा हो। आज केवल पक्ष बना देना टीम अण्णाके लिये अपर्याप्त ही रहेगा यदि सामाजिक कामोंकी एक लम्बी परंपरा (भले ही विभिन्न लोगोंद्वारा किये गये) उनके साथ नही जुडती।
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