Also kept on janta_ki_ray
हम किले पर रहते थे |
मजबूत दीवारों का अभेद्य किला
बुर्जों पर चौकसी करते हुए
हमें कोई तनाव न था |
हमें दीखते थे सामने फैले
विस्तृत मैदान
और वहीं झाडियों में छिपा हमारा शत्रु
वे हमें क्योंकर जीत पाते ?
हमारे पास शस्त्र-अस्त्र थे भरपूर
हमारे सैनिक जाँबाज - शूर
और मैदान पार के रास्तों पर
निश्चित रुप से पास आ रही थीं
हमारे मित्र देशों की सेनाएँ |
पर हाँ ....
हमारे किले के कोने में एक छोटा मायावी द्बार था |
द्बारपाल ने एक दिन उसे खोल दिया |
शत्रु उसी रास्ते से आया |
बिना लडे ही हमपर जय किया |
शर्म की बात, पर सच्चाई की है |
सोने का हथियार
लोहे के हथियार पर भारी है |
किसी जमाने में पढी थी एडविन मूर की यह कविता The Castle | उसी का भावानुवाद मैंने किया है, जो मुंबई पर हुए आतंकी हमले की घटना पर फिट है | 26/11 की रात यह कविता बारबार चेतना में गूँजती रही |
क्रिकेट मॅच में हम जीत की कगार पर पहुँच चुके थे कि अचानक खबर आई कि मुंबई रेल्वे स्टेशन -- सीएसटी (छत्रपती शिवाजी टर्मिनस) पर गोलाबारी हो रही है | मेरा निवास मंत्रालय के ठीक सामने है | वहाँ से ताज की ओर जाती हुई गाडियों की सायरन सुनाई पडने लगी | तभी टी. वी. स्क्रीनपर एटीएस चीफ हेमंत करकरे, सीएसटी स्टेशन पर पहुँच कर बुलेट प्रुफ जाकिट पहनते दिखाई दिये | अपने जाँबाज पुलिस अफसर की इसी बात से सिपाहियों का मनोबल तत्काल दो-चार गुना बढा होगा | तब से लगातार आतंकी हमले की खबरें आती रही | कामा अस्पताल में गोलीबारी, हॉटेल लियोपोल्ड पर गोलीबारी, फिर पार्ला के हायवे पर बम फटने की खबर, फिर मंत्रालय के आसपास गोलाबारी, चौपाटी पर आतंकवादियों से मुठभेड, एक आतंकवादी मारा गया और एक पकडा गया - ये सारी खबरें ऐसी थीं जिसमें संकट आ रहा था और दसेक मिनटों में टल रहा था | मेरी दृष्टिसे वही महत्वपूर्ण था कि संकट टल रहा था |लगा कि ऐसे ही ताज, ओबेराय और नरीमन हाऊस का संकट भी टल जायेगा - अगले दो घंटो में या चार घंटों में | रातभर इसी अपेक्षा में टीवी के सामने गुजारी | कई मुंबईवासियों की वह रात टीवी के सामने ही गुजरी होगी|
अगले तीन दिनों में आतंकवाद का भयानक चेहरा दिखा | उस पर सभी की भावनाएँ एक सी थीं | आक्रोश, क्रोध, हताशा, दुख, शहीदों के प्रति गहरी संवेदना व आदर, जख्मियों की देखभाल, उनके लिये रक्तदान, जानकारी का आदान-प्रदान | जन सामान्य इससे अधिक कर भी क्या सकता था ? जो कुछ करना था केवल सरकारी यंत्रणा को ही करना था |
लेकिन अब जगह जगह थम कर लोग कह रहे हैं - यह परिस्थिती नही चलेगी | दूसरोंकी निष्क्रियता के कारण हमारी बली चढे यह हम नही सह सकते | हम नही कह सकते और न कहेंगे कि हमारे हाथ में क्या है | हमें आगे आकर कुछ करना ही होगा | लेकिन क्या करना है? उसके लिये लम्बे समय तक टटोलते ही न रह जायें - इसीलिये
वह मूर की कविता याद आई | AK-47 का मुकाबला करना हो तो वह AK-47 से हो सकता है | पर जब रिश्वत का सोने ही हथियार बन कर आ जाये तो उसका मुकाबला कैसे हो ?
जिस प्रकार आतंकियों ने मुंबई हमले की पूर्व तैयारी की, ताज में महीनों तक शेफ की अप्रेंटिसशिप की, कोलकाता में उन्हें सिम कार्डस मुहैया कराये, सावधानी की सूचनाएँ अनदेखी रह गई - ये सब बातें ऊपरी सतह पर तो आलस और असावधानता, बेफिकिर और उदासीनता दर्शाती है लेकिन गहराई में देखो तो भ्रष्टता और रिश्वतखोरी के संकेत भी देती हैं |
अर्थात् हमें दोनों ही मुद्दों को सोचना है | असावधानता का भी और भ्रष्टाचार का भी |
सरकार की गुप्तचर यंत्रणआ में कई खामियाँ है - एक है तालमेल की कमी, दूसरी है सर्वसमावेशकता का अभाव | समाज के हर तबके से गुप्तचर यंत्रणा के लिये खबरियों का संगठन आवश्यक है | लोगों से सुझाव व सूचनाएँ पाने की, उनकी तुरंत फुरंत छानबीन और अमल की भी व्यवस्था हो, और इनकी मॉनिटरिंग भी एक सर्व समावेशक समिती द्बारा हो जो देखे कि सुझावों पर कारवाई किस जरह की गई | संक्षेप में यह कहना होगा की गुप्तचर यंत्रणा के सजग होने की बात को सजगता से परखने की भी यंत्रणा होनी चाहिये | आज यह रिपोर्टिंग टॉप बॉस तक सीमित रहती है और उसकी सजगता की कोई पडताल नही होती | इस यंत्रणा में लोकसहभाग की व्यवस्था नही रही तो आज की तरह हतबलता की भावना और उसके चलते क्रोध से उफान आनेवाले समय में तीव्रतर होता रहेगा |
जहाँ तक भ्रष्टाचार का सवाल है - लोगोंकी प्रखर राय है की राजकीय नेता और सरकारी बाबू इसमें लिप्त है और दोनों के प्रति जनता का रोष है | अब फिर से सवाल उठाया गया है कि भ्रष्ट नेताओं के चुने जाने की जिम्मेदारी किसकी है ? क्या उन साठ प्रतिशत की जो चुनाव में वोट डालते हैं या उन चालीस प्रतिशत की जो वोट डाल नही जाते ?
पिछलें चुनाव में मैं भी उन चालीस प्रतिशत की पंक्ति में जा बैठी | क्यों कि उससे पहले के चुनाव में मैंने मतपत्रिका पर ही कलम से लिख दिया था कि मुझे कोई उम्मीदवार पसंद नही |मैं जानती थी कि ऐसा करने से मेरी मतपत्रिका गिनती से बाहर हो जाती है | दुख इसी बात का है | मेरे मत को गिनती के बाहर क्यों किया जाता है ?
आजकल एक ईमेल काफी घूम रही है | इसमें इलेक्शन रुल्स 1961 के सेक्शन 49-0 का हवाला देकर समझाया है कि आपको अपनी नापसंदगी का मत दर्ज कराने का अधिकार है और चुनाव के दिन घर बैठने की अपेक्षा हमें जाकर अपनी नापसंदगी दर्ज करनी चाहिये | ईमेल में इस सेक्शन का उल्लेख गलती से Constitution सेक्शन 49-0 किया गया है लेकिन यह ईमेल इतनी घूम चुकी है कि गूगल सर्च पर कॉन्स्टिट्युशन सेक्शन 49-0 लिखने से पूरी
जानकारी, ईमेल, उसपर लोगों की प्रतिक्रिया इत्यादि सब कुछ पढा जा सकता है |
इस नियम को ध्यान से देखा जाय तो पता चलता है कि यह अपर्याप्त, कठिन और पुरातन पड चुका नियम है जिसे व्यवहार्य और उपयोगी बनाने के लिये उसमें सुधार आवश्यक है |
प्रचलित नियम के अनुसार आपको यदि कोई उम्मीदवार पसंद न हो तो आप अपनी मतपत्रिका प्रिसायडिंग अफसर क पास ले जाएंगे | वह उसे रख लेगा और कहीं से ढूँढकर आपको एक Form No. 17 A देगा जिसपर - आपको अपना नाम, पता, पूरी जानकारी देनी है |गोपनीयता का सवाल ही नही है | फिर उस पर लिखना है कि आप किसी उम्मीवार को मत नही देना चाहते | प्रिसायडिंग ऑफिसर उस कागज को एक अलग लिफाफे में बंद कर रख देगा | बस
| मतगणना के समय उसकी कोई गिनती नही होगी |अर्थात् आपके मत की कदर और कीमत है - जीरो | ऐसे नियम बनेंगे और पचासों साल चलते रहेंगे तो मतदाता भी कहेंगे कि - छोडो, क्या करना है वोट देकर |
अपने ही देश में, क्या मुझे यह कहने का हक नही होना चाहिये कि मुझे कोई उम्मीदवार पसंद नही ? लेकिन केवल फार्म नं. 17 भरने का अपर्याप्त हक अब नही चलेगा | मेरा यह मत वोटिंगमशीन में दर्ज होना चाहिये, दर्ज करते समय उसकी गोपनीयता कायम रहनी चाहिये और मतगणना के समय उसकी गिनती भी होनी चाहिये | तभी यह कहा जा सकता है कि मुझे अपना मत व्यक्त करने का अधिकार सही तौर पर मिला | वरना मुझे आर. के. लक्ष्मण का एक कार्टून याद आता है जिसमें एक “कॉमन मॅन” चुनावी बक्से में अपना मत डालते हुए बुदबुदाता है -“गुलाम को केवल यह चुनने का हक है कि उसका मास्टर कौन हो” |
सही अर्थ में लोकशाही तभी उतरेगी - जब हरेक को अपना नापसंदगी दर्ज कराने का हक मिले | और यदि मतगणना में पाया गया कि नापसंदगी को ही सबसे अधिक वोट पडे हैं तो उन सभी उम्मीदवारों को दुबारा खडे होने का मौका न दिया जाय | फिर हर उम्मीदवार सतर्क होगा कि उसे अधिक अच्छा काम करना है| आज जिसे कोई उम्मीदवार पसंद न हो वह कुछ नहीं कहता - कुछ नही कह पाता - बस निष्क्रिय हो जाता है - निर्वीर्य, हतबल हो जाता है | ऐसे निष्क्रिय व्यक्तियों के मत सम्मान कोई उम्मीदवार क्यों करे या उनकी नापसंदगी से क्यों डरे ? ऐसी हालत में जनक्षोभ चाहे कितना ही क्यों न हो, उसकी तपिश उम्मेदवार या नेता को नही लगती |
और अब एक बार फिर चलें पैसे और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर | पैसे देकर आज कोई भी बनावटी ड्रायव्हिंग लायसेन्स ले सकता है, रेशनकार्ड ले सकता है, बँक से क्रेडिट और डेबिट कार्ड ले सकता है, बैंक में बेनामी अकाऊंट खुलवा सकता है, बिना लायसेंस हथियार, बन्दूक या AK-47 रख सकता है, समुद्री मार्ग पर बिना रजिस्ट्रेशन के आवाजाही कर सकता है, ड्रग्ज और आरडीएक्स की खेपें ला सकता है | लेकिन मेरे विचार में इनसे भी भयावह तथ्य यह हैं कि कोई उम्मीदवार चुनाव में लाखों-करोडों रुपये खर्च किये बगैर जीत नही सकता | जिसे लोग स्वयंस्फूर्ति से बिना खर्चे के जिता दें ऐसा उम्मीदवार हजारों में एकाध हीं निकलता है | बाकी सबको लाखें रुपये खर्च करने पडते हैं और जीतने के बाद यह लागत वसूलना ही सबसे पहली प्राथमिकता बन जाती है - उनके लिये अलग अलग भ्रष्ट रास्ते चुने जाते हैं ताकि लागत से कई गुनी अधिक वसूली भी हो सके | सारांश यह कि चुनाव लडना सत्ता में आना और सत्ता के माध्यम से अकूत संपत्ति इकठ्ठा करना | यह सारा एक व्यापार बन जाता है | अमर सिंह के शब्दों में “हाय रिस्क हाय गेन“ बिझिनेस | फिर बिझिनेस में समाज चिंतन या देश-चिंतन का मुद्दा महत्वपूर्ण नही रह जाता | उसकी अहमियत केवल भोजन का स्वाद बढावाले चटनी पापड जितनी ही रह जाती है | लागत का पैसा मुकम्मल नफे समेत वसूलने के लिये सत्ता का खेला
शुरू हो जाता है और उसमें बाबूओं को भी घसीट लिया जाता है| कई बाबू भी इसमें खुशीखुशी शामिल होते हैं। इसीलिये जनता जब इस भ्रष्टता पर रुष्ट होती है तो नेताओं के साथ साथ प्रशासन के बाबूओं को भी दोषी मानती है|मुंबई में जगह जगह जो जन क्षोभ व्यक्त हुआ उसमें यह चित्र साफ दीखता है |
शेषन और उनके पश्चात् कई चुनाव आयुक्तों ने चुनाव प्रक्रिया में कई अच्छे सुधार किये | उम्मीदवारों के खर्चेपर पाबंदी लगाने, उनके खर्चे का लेखा जोखा रखने के कई उपाय किये गये |लेकिन वे अभी भी अपर्याप्त हैं | चुनावी उम्मीदवार जिनकी संपत्ति लाखों करोडों में है ऐसे लोगों के पिछले पंद्रह बीस वर्षों के इन्कम टॅक्स रिटर्न देखने का हक
पब्लिक को मिलना चाहिये | खेती की आयपर भले ही टॅक्स न लगे लेकिन रिटर्न में उसपर ब्यौरा लेना चाहिये | राजकीय पक्षों का इन्कम टॅक्स रिटर्न भरा जाना चाहिये और वह भी लोगों की जाँच के दायरे में आना चाहिये | ऐसे कई उपायों की आवश्यकता है जो लोकतंत्र की प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनायें|
और यह सब करने के बावजूद भी यदि आतंकवादि या आर्थिक भ्रष्टाचार की अदालती सुनवाई वर्षों तक चलती रहे और किसीकों सजा न मिले तो क्या फायदा ?
मैंने कभी पढा कि जापानमें एक विचार-सभा हुई कि अदालती सुनवाई में देर लग जाती है - इसे और अधिक गतिमान बनाया जाय | फिर कई शिफारसें हुई ताकि औसत देरी को कम किया जा सके | उसे तीस दिनों से पंद्रह दिन पर लाया जा सके | फिर मुझे मौका लगा जापान जानेका - और वहाँ मुझे दिखाया गया उनका सुप्रीम कोर्ट - एक भव्य सुंदर इमारत | लेकिन बंद | मैंने पूछा यह बंद क्यों है ? उत्तर मिला - हमारी जनता को हमारी न्याय प्रणाली में इतना विश्वास है कि पिछले कई सालों से किसीने किसी फैसले के विरुध्द अपील करने की जरुरत ही नही समझी | मैंने पूछा - तो फिर इस इमारत को किसी दूसरे काम में क्यों नही लगाते ? उत्तर मिला - यदि देश का एक भी नागरिक कभी भी चाहे कि उसे अपील करनी है तो उसे यह भरोसा होना चाहिये कि देश में उसके अपील की सुनवाई की व्यवस्था है | यह इमारत उस भरोसे को बनाये रखने के लिये है |
जब इतनी मूलगामी सोच देखती हूँ तो सोचती हूँ कि हम कितने पीछे हैं | मुंबई पर आतंकवादी हमले की पृष्ठभूमि में ऐसे हजारों विचार हों - उन्हें क्रियान्वित किया जाय | वह विचार और कृति हमें आने वाले दिनों के लिये विरासत में चाहिये | संकट को मौका मानकर उससे कुछ न सीखा तो क्या सीखा ?
-------- लीना मेहेंदळे
13.12.2008
यहाँ पढें सोने के हथियार से लडने के लिये
Thursday, December 18, 2008
Wednesday, December 10, 2008
Monday, December 01, 2008
समाजकारण रोडावल, भ्रष्ट अर्थकारण फोफावल
समाजकारण रोडावल, भ्रष्ट अर्थकारण फोफावल
(minor corrections and uploading on geo, still to do)
राजकारण म्हणजे सत्ता चालवणं, त्या सत्तेच्या जोरावर इतरेजनांना आपल्या मताप्रमाणे चालवणं, आपली मते त्यांच्याकडून मान्य ठरवून घेणे, त्या जोरावर आपल्या मनासारख्या योजना राबवणं इत्यादी. थोडक्यांत राजकारण म्हटलं की पुढारीपण आलंच. पण मग प्रश्न येतो तो हा की हे पुढारीपण आपण कशासाठी व कोणत्या प्रकाराने वापरायच ? किंवा असं म्हणू या की भारतामध्ये सन 1900 ते 2000 या काळात ते कशासाठी व कशाप्रकारे वापरल गेलं .
स्वातंत्र्यपूर्व आणि स्वातंत्र्यानंतर असे दोन कालखंडांचे टप्प्े आपल्याला स्वच्छ दिसतात. पहिल्या टप्प्यामधील विचारसरणी ही सर्वार्थाने स्वातंत्र्य मिळवण्याच्या दिशेने होती. सन 1905 मध्ये वंगभंगाविरुध्द सुरू झालेले आंदोलन, 1913 मध्ये जालियनवाला बाग हत्याकांड, 1920 मधील निधनापर्यंत लोकमान्य टिळकांनी केसरी मधून चालवलेली मोहीम, बिहारमधील निळीची शेती करणा-या शेतक-यांचा सत्याग्रह ज्यामध्ये - महात्मा गांधींनी पुढारीपण केले, - मुळशी सत्याग्रह, काकोरी कांड व त्यातून रामप्रसाद बिस्मिल आणि अशफ्फाक उल्ला यांना फाशी त्या पाठोपाठ असेम्बलीमध्ये बॉम्ब टाकून व अटक करवून भगत सिंग आणि बटुकेश्र्वर दत्त यांनी केलेले जनप्रबोधन, गांधींची दांडीयात्रा, भारत छोडो आंदोलन, नेताजी सुभाष यांनी केलेले आजाद हिंद सेनेचे संगठन व चलो दिल्ली ही मोहीम या सर्व घटनांमध्ये त्या त्या पुढा-यांचे अंतिम उद्देश्य होते - देशाला स्वातंत्र्य मिळवून देणे.
मात्र ते उद्देश समोर ठेवतांना त्याच बरोबर समाजकारण हे ही तितकेच महत्वाचे आहे हे भान कुणाचेच सुटलेले नव्हते.
त्या काळातील समाजापुढच्या समस्या होत्या - शेतीची हलाखीची स्थिती, दारिद्रय, अस्पृश्यता, स्त्रियांना दुय्यम वागणूक, शिक्षण आणि आरोग्याचा अभाव. या सर्वांविरूध्द टिळक, गांधींसकट सर्व नेत्यांनी समाज प्रबोधन केले व लढा दिला. महर्षि कर्वेंनी स्त्री शिक्षणाचा फुलेंचा वसा पुढे नेला. कर्मवीर भाऊराव पाटील यांनी रयत शिक्षण संस्थांच्या माध्यमातून शिक्षण प्रसार केला. गांधी व आंबेडकर यांनी अस्पृश्यतेविरुध्द आंदोलन केले. स्वदेशीचा प्रसार करण्यासाठी गांधींनी चरखा हाती घेतला व त्याला श्रम प्रतिष्ठेचे मूल्यही सोबत जोडले. सावरकरांनी वैज्ञानिकतेची कास धरून लोकांना तिकडे प्रेरित केले. सेनापती बापटांचा मुळशी सत्याग्रह आणि वल्लभभाईचा बारडोली सत्याग्रह हे शेतक-यांच्या प्रश्नावर होते. लोकमान्यांना तर तेली तांबोळ्यांचे पुढारी म्हटले जाई. स्त्रियांच्या प्रश्नावर जागृति व प्रबोधनासाठी कस्तुरबा गांधी, कमला नेहरु, सरोजिनी नायडू या सारख्या नेत्यांनी पुढाकार घेतला. आपल्या कारकीर्दीच्या सुरुवातीस सुभाष बाबू कलकत्ता महानगरपालिकेचे अध्यक्ष होते व तेथे त्यांनी अनेक प्रशासन सुधारणा केल्या.
स्वातंत्र्यानंतर चित्र एकदम बदलले. पूर्वीचे स्वातंत्र प्राप्तीचे उद्दिष्ट पूर्ण झाले. निव्वळ त्याच कारणांसाठी पुढे आलेली मंडळी मागे सरली. देशांत जवाहर लाल नेहरुंचे राजकीय वर्चस्व सर्वमान्य झाले. नेहरु हे साम्यवादी विचारसरणीने भारावलेले, त्याचबरोबर वैज्ञानिक प्रगतीचा ध्यास असलेले आणि देश विकासाचे स्वप्न पहाणारे पुढारी होते. त्यांचा सोशलिझमवर भर होता. मी समाजवाद हा शब्द वारपर नाही ते जाणीवपूर्वक. नेहरुंना जे समाजकारण अभिप्रेत होते त्यांत दारिद्य संपवणे, विषमता मिटवणे, अशिक्षा आणि अनारोग्य संपवणे, बेकारी संपवणे हा महत्वाचा भाग होता. कोण विचारवंत म्हणेल की आपण यासाठी झटू नये . स्वातंत्र्यानंतर पहिल्या वीस-तीस वर्षात हे उद्दिष्ट ठेऊन शासन-प्रणालीची पुनर्रचना झाली. तसेच सामाजिक क्षेत्रातही कित्येक चांगल्या संस्था पुढे आल्या.
विनोबांनी सर्वोदय चळवळीचा एक भाग म्हणून भूदान चळवळ चालवली. कृषी क्षेत्रात सुधारणेसाठी शेतक-याला मालकी मिळाली पाहिजे हे त्याच मुख्य सूत्र होते. हे त्यांनी मोठमोठ्या जमीन धारकांना शांती व सद्भावनेच्या मार्गाने समजावून दिले. त्यांना बिहार, महाराष्ट्र, आंध्र, कर्नाटक व मध्य प्रदेशांत प्रचंड प्रतिसाद मिळाला. चंबळ खो-यातील हजारो डाकूंच्या हदय परिवर्तनाचा प्रयोग त्यांनी यशस्वीरित्या संपन्न केला तो कशाच्या बळावर? तर डाकूगिरीत जी कुटुंबच्या कुटुंब पिढ्यान् पिढ्या रुतलेली होती, त्यांना वेगळ्या दिवसांचे क्षितिज दाखवून. शिक्षण, शेती व शंततामय जीवनाचे फायदे त्यांना पटवून देऊन.
सन 1950 मध्ये देशाने संविधानाचा अंगीकार केला. त्यामध्ये स्वातंत्र्य, समता, बंधुता व न्याय या सिध्दांताचा उद्घोष झाला. कायद्याने अस्पृश्यतेला हद्दपार केले. तेवढे पुरेसे नव्हते म्हणून अनुसूचित जाती व जमातींना वेगाने पुढे आणण्यासाठी राखीव जागांची संकल्पना आपण स्वीकार केली. महाराष्ट्रात कूळ कायदा येऊन कसेल त्याची जमीन हे तत्व लागू झाले. हेच तत्व लागू व्हावे म्हणून बंगालातील एका छोट्या खेड्यात एक छोटी चळवळ सुरु झाली पण अजूनही ही कृषी सुधारणा सर्वत्र लागू नाही. त्या छोट्या चळवळीने आज हिंसक रुप धारण केले आहे व नक्षलवादी ही देशांतील मोठ्या डोकेदुखीची समस्या झाली आहे.
एकूण काय तर स्वातंत्र्यानंतरची पहिली तीस-चाळीस वर्षे समाज धुरिणांनी समाजातील विषमता, दारिद्य, अज्ञान मिटवणे हीच प्रायोरिटी मानली. संत गाडगेबाबा व तुकडोजी महाराज यांनी तर कीर्तनाचा पंथ स्वीकारुन त्यातून समाज प्रबोधन केले. त्या काळातील समाज सुधारणेचे स्वप्न दोन सिनेगीतांमधून उत्तम व्यक्त होते ---
वो सुबह कभी तो आयेगी
इन काली सदियों के सरसे
जब रात का आंचल सरकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे
जब सुख का सागर छलकेगा
जब अंबर झूम के नाचेगा
जब धरती नग्में गायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी
आणि दुसरं गाणं होतं ---
यही पैगाम हमारा
हरेक महल से कहो की झोपडीयों में दिये जलाये
उंच नीच के बीच कोई अब फर्क नही रह जाये
सब के लिये सुख का बराबर हो बटवारा
यही पैगाम हमारा
त्या काळातील शासन योजनाही अशा होत्या , ज्यामध्ये हेच उद्दिष्ट होते. म्हणूनच ब्लॉक डेव्हलपमेंट कार्यक्रम, एक सशक्त पब्लिक सेक्टर तसेच वेगाने शिक्षण प्रसार अशा योजना पुढे आल्या. या व अशा समाजकारणाच्या कित्येक मुद्दयांवर पंडित नेहरु पंतप्रधान या अत्यंत व्यस्त पदावर असूनही स्वत: मुख्यमंत्र्यांना पत्र लिहित असत. त्यांत स्त्रियांचे सशक्तीकरणापासून, कृषि क्रांतिने वैज्ञानिक प्रगतीपर्यंत सर्व विषय हाताळीत आहेत.
मात्र या प्रकारे योजना आणतांना कांही मूलभूत गोष्टी हरवत गेल्या. सर्वांत पहिला बळी गेला तो समाजकारणाचा. शासनातील सत्ता आणि राजकारण हे समाजकारणाचे साधन आहे, हे तत्व विसरले गेले. त्या ऐवजी ते भ्रष्टाचाराच्या मार्गातून पैसा कमवण्याचे तंत्र म्हणून विकसित होऊ लागले. च्यथा राजा तथा प्रजाछ या न्यायाने पुढार्यांनी अस्तित्वांत आणलेली पध्दतच शासनातील नोकरशाहींना व समाजातील सामान्य व्यक्तीलाही स्वीकारार्ह वाटू लागली. स्वीकाराचे रुपांतर स्वागतात आणि स्वागताचे रुपांतर उद्दिष्टांत झाले. त्यामुळे गैर मार्गाने आलेला पैसा आधी फक्त चालत होता, आता तो ध्यासाचा विषय बनला.
विचारसरणीतील या बदलामुळे शासकीय योजना कशा बदलल्या, किंवा फोल ठरु लागल्या आहेत, त्याची कित्येक उदाहरणे देता येतील. याबाबत त्याआधी हे स्पष्ट करायला हवे की शासनकर्त्यांची पध्दती साम्यवादाकडे झुकणारी होती की अमेरिकन कॅपिटॅलिझ्मकडे हा मुद्दा मला तितकासा महत्वाचा वाटत नाही. कारण शेवटी त्या दोन्ही फक्त पध्दतीच (मेथोडॉलॉजी) आहेत - उद्दिष्ट नाही. जागतिक राजकारणांत विसाव्या शतकाच्या सुरुवातीस साम्यवादाने मूळ धरले व तो फोफावला. रशिया, पूर्व व यूरोपीय देश व चीन इथे तो प्रबळ झाला. तरीही या राष्ट्रांची खूप प्रगती झालेली आपल्याला दिसत नाही. मात्र इंग्लंड वगळता इतर बहुतेक पश्चिमी यूरोपीय देशांमध्ये साम्यवाद नसूनही व मुक्त अर्थव्यवस्थेचे अमेरिकन तत्वज्ञान वापरुनही त्यांनी पैगामच्या गाण्यांतील उद्दिष्ट साध्य केले आहे. तिथे विषमता अत्यंत कमी, आरोग्य, शिक्षण, वाहतूक आदि सेवा कमी दरांत आणि समानतेचे तत्व सर्वांना लागू अशा पध्दतीचे चित्र पहायला मिळते. भारतातही तेच अपेक्षित होते. तसे स्वप्न स्वातंत्र्यानंतर सर्वांनी पाहिले होते. पण तसे झाले नाही.
मी दोन उदाहरणांची चर्चा करणार आहे. सार्वत्रिक शिक्षणाबरोबरच उच्च शिक्षणामध्ये देखील शासनाने थोडी फार गुंतवणूक केली. देशात कांही चांगली मेडीकल कॉलेजेस निर्माण झाली. कित्येक ब्रिटिश काळापासूनही होतीच. पण पुढे पुढे चांगल्या विद्यार्थ्यांच्या मानाने ही कॉलेजेस कमी पडू लागली. त्यावर मार्ग म्हणून खाजगी मेडिकल कॉलेजचा पर्याय शासनाने स्वीकारताच ही सर्व केंद्रे भ्रष्ट व्यापारी संस्थाने बनली. इथे मी व्यापारी आणि भ्रष्ट व्यापारी यात फरक करते. व्यपार हा दोन व्यक्तींमधील समझोता असतो. एकाने चांगल्या मालाचा पुरवठा करायचा, दुसर्याने त्याचा योग्य मोबदला पुरवायचा. यामध्ये लुकाछुपी किंवा नाडणे हा प्रकार आला की, तो भ्रष्ट व्यापार होतो. कॅपिटेशन कॉलेजेस चालवणार्या संस्थांनी कोटयावधी रुपयांच्या शासकीय जागा च्शिक्षणासारख्या पवित्र क्षेत्राला कधी व्यापारी तत्व लागू करायचे नसते.छ (सबब शासनाने लागू नये) असे सांगत मातीमोलाने पदरांत पाडून घेतल्या. त्यानंतर बिनारिसिट व मनमानीपणे कॅपिटेशन फी घेऊन भ्रष्ट अर्थकारण सुरु केले. शासनातील चांगले, स्वच्छ, सज्जन म्हणवणार्या पुढार्यांचीदेखील हिंमत झाली नाही की, हे प्रकरण थोपवावे. उलट त्यातील कांहींनी स्वत: धडा घेऊन हेच भ्रष्ट अर्थकारण पुढे नेले. काही आपण हे करत नाही म्हणून हळहळले तर काही च्मी तर हे न करुन माझ्या पुरता स्वच्छ राहिलो नाछ अशी हतबल अल्पसंतुष्टी घेऊन राहिले. शेवटी एका कर्नाटकीय मुलीने शिक्षणाचा हक्क वगैरे मुद्दे मांडत सुप्रीम कोर्टात दाद मागितल्यावर 1991 मध्ये कोर्टाने अत्यंत उत्तम निकाल देऊन त्यांत धनवंतांनी आपण धनाच्या जोरावर शिक्षण घेतांना निदान एका तरी हुषार गरीब मुलाची सोय केलीच पाहिजे, त्याचप्रमाणे संस्थांनी विनारिसिट किंवा सर्वमान्य फी वगळता अतिरिक्त फी घेता कामा नये असे दोन निर्देश दिले. सन 1992 ते 2004 या 12 वर्षात या निकालाने कित्येक हुषार मुलांना परवडणारे उच्च शिक्षण घेता आले. या निकालातील कित्येक उदात्त तत्वांचे प्रतिपादन व त्यात ठरवून दिलेल्या कार्यपध्दतीने खर्या अर्थाने समाजकारण घडत होते. पण दुर्दैवाने राजकीय पुढारी किंवा नोकरशाहीने हे न ओळखल्यामुळे एका संस्थाचालकाच्या अर्जामुळे सुप्रीम कोर्टाने सन 2004 मध्ये वरील निर्णय फिरवला. पुन्हा एकदा सुमारे हजारोंच्या संस्थेने हुषार विद्यार्थी वाजगी दरातील तसेच भ्रष्ट व्यवहाराशिवाय मिळणार्या उच्च शिक्षणाला मुकतील, ते ही दरवर्षी. पण सत्तेच्या माध्यमातून ज्यांना हे समाजकारण सुधारता येईल त्यांना याची दखलही नाही.
याचा अति भयानक तोटा पुढील दहा-पंधरा वर्षांतच कसा दिसेल याचे चित्र नुकतेच एका सेवानिवृत्त शासकीय डॉक्टरने माझ्यासमोर उभे केले. त्यांचा मुद्दा होता की, त्यांच्या काळांत जसे कित्येक निष्णात डॉक्टर सेवाभावनेने शासकीय आरोग्य खात्यात आले तसे चित्र पुढील दहा वर्षानंतर, म्हणजे त्यांची पिढी रिटायर झाल्यानंतर दिसणारच नाही. कारण आता तयार होणारा प्रत्येक डॉक्टर हा 40-50 लाख रुपये कॅपिटेशन फी भरुनच डॉक्टर होऊ शकतो. तर मग तो सरकारची च्फाटकीछ नोकरी करुन आपल्या खर्चाची भरपाई कशी करणार ? एकूण काय तर लौकरच तुम्हाला सर्व सरकारी दवाखाने खाजगी संस्थांना चालवायला दिलेली दिसतील. सरकार ती स्वत: चालवू शकणारच नाही !
आपले आरोग्याचे आणि शिक्षणाचे धोरण असं भरकटले की, ज्या रुग्णालयांनी आरोग्य सेवेचे पवित्र (हे पण व्यापारी तत्व न लावण्याचे क्षेत्र अशी पोपटपंची) कर्तव्य करतो, असे सांगून सरकारची कोटयावधी किंमतीची जागा मातीमोल भावांत घेतली व त्या बदल्यांत 10 टक्के गोरगरीब रुग्णांना आरोग्यसेवा देण्याचे बचन दिले त्यांनी तसे केले नाही. पण ती सर्व धनिक
रुग्णालये असल्याने सरकार त्यांना काही आदेश करु इच्छित नाही. तसेच, सेवाभावी डॉक्टर्स निर्माण न करु शकणार्या आपल्या शैक्षणिक धोरणाबाबतही काही करता येत नाही.
समाजकारण खालावल्याचे आणखी एक भयानक उदाहरण म्हणजे मोठया शहरांत बिल्डर या धनिक संस्थांचा सुळसुळाट. यातील कित्येक दमदाटी, भाडेकरुंना हुसकावणे, लाच देऊन अधिक लाभ पदरात पाडून घेणे असे प्रकार सर्रास करतात. यासाठी त्यांनी काही छोटे-बडे च्भाईछ व च्दलालछ पण पदरी बाळगलेत. त्या भाईंची रोजीरोटी कशावर चालते, तर बिन मेहनतीच्या पैशावर. आज एका व्यक्तीला दहशतीने हुसकावण्यासाठी पंधरा-वीस हजार रुपये घेऊ शकणारा अंडरवर्ल्डचा माणूस उद्या टेररिस्ट गँगने पाच लाख दिले तर कांय कांय करेंल ? थोडक्यांत अशा छुटभैय्या अंडरवर्ल्डला गाठीशी ठेवणारे, विनाश्रमाच्या पैशांनी श्रीमंत होण्याची वाट दाखवणारे सर्व एका मोठया संकटाला आमंत्रण देत आहेत. पण आजचे राजकारण या धनिक वर्गाची मर्जी राखण्यातच असेल तर समाजाचे काय होणार ?
विसाव्या शतकाची सुरुवात व शेवट या काळात हा एक मोठा फरक दिसून येतो. समाजकारण मागे पडून आता भ्रष्ट अर्थकारणाचा सुळसुळाट होऊ लागला आहे हे स्थित्यंतर थोपवणे आवश्यक आहे
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शब्ददर्वळ, इंदूर, दिवाळी अंक, 2008
(minor corrections and uploading on geo, still to do)
राजकारण म्हणजे सत्ता चालवणं, त्या सत्तेच्या जोरावर इतरेजनांना आपल्या मताप्रमाणे चालवणं, आपली मते त्यांच्याकडून मान्य ठरवून घेणे, त्या जोरावर आपल्या मनासारख्या योजना राबवणं इत्यादी. थोडक्यांत राजकारण म्हटलं की पुढारीपण आलंच. पण मग प्रश्न येतो तो हा की हे पुढारीपण आपण कशासाठी व कोणत्या प्रकाराने वापरायच ? किंवा असं म्हणू या की भारतामध्ये सन 1900 ते 2000 या काळात ते कशासाठी व कशाप्रकारे वापरल गेलं .
स्वातंत्र्यपूर्व आणि स्वातंत्र्यानंतर असे दोन कालखंडांचे टप्प्े आपल्याला स्वच्छ दिसतात. पहिल्या टप्प्यामधील विचारसरणी ही सर्वार्थाने स्वातंत्र्य मिळवण्याच्या दिशेने होती. सन 1905 मध्ये वंगभंगाविरुध्द सुरू झालेले आंदोलन, 1913 मध्ये जालियनवाला बाग हत्याकांड, 1920 मधील निधनापर्यंत लोकमान्य टिळकांनी केसरी मधून चालवलेली मोहीम, बिहारमधील निळीची शेती करणा-या शेतक-यांचा सत्याग्रह ज्यामध्ये - महात्मा गांधींनी पुढारीपण केले, - मुळशी सत्याग्रह, काकोरी कांड व त्यातून रामप्रसाद बिस्मिल आणि अशफ्फाक उल्ला यांना फाशी त्या पाठोपाठ असेम्बलीमध्ये बॉम्ब टाकून व अटक करवून भगत सिंग आणि बटुकेश्र्वर दत्त यांनी केलेले जनप्रबोधन, गांधींची दांडीयात्रा, भारत छोडो आंदोलन, नेताजी सुभाष यांनी केलेले आजाद हिंद सेनेचे संगठन व चलो दिल्ली ही मोहीम या सर्व घटनांमध्ये त्या त्या पुढा-यांचे अंतिम उद्देश्य होते - देशाला स्वातंत्र्य मिळवून देणे.
मात्र ते उद्देश समोर ठेवतांना त्याच बरोबर समाजकारण हे ही तितकेच महत्वाचे आहे हे भान कुणाचेच सुटलेले नव्हते.
त्या काळातील समाजापुढच्या समस्या होत्या - शेतीची हलाखीची स्थिती, दारिद्रय, अस्पृश्यता, स्त्रियांना दुय्यम वागणूक, शिक्षण आणि आरोग्याचा अभाव. या सर्वांविरूध्द टिळक, गांधींसकट सर्व नेत्यांनी समाज प्रबोधन केले व लढा दिला. महर्षि कर्वेंनी स्त्री शिक्षणाचा फुलेंचा वसा पुढे नेला. कर्मवीर भाऊराव पाटील यांनी रयत शिक्षण संस्थांच्या माध्यमातून शिक्षण प्रसार केला. गांधी व आंबेडकर यांनी अस्पृश्यतेविरुध्द आंदोलन केले. स्वदेशीचा प्रसार करण्यासाठी गांधींनी चरखा हाती घेतला व त्याला श्रम प्रतिष्ठेचे मूल्यही सोबत जोडले. सावरकरांनी वैज्ञानिकतेची कास धरून लोकांना तिकडे प्रेरित केले. सेनापती बापटांचा मुळशी सत्याग्रह आणि वल्लभभाईचा बारडोली सत्याग्रह हे शेतक-यांच्या प्रश्नावर होते. लोकमान्यांना तर तेली तांबोळ्यांचे पुढारी म्हटले जाई. स्त्रियांच्या प्रश्नावर जागृति व प्रबोधनासाठी कस्तुरबा गांधी, कमला नेहरु, सरोजिनी नायडू या सारख्या नेत्यांनी पुढाकार घेतला. आपल्या कारकीर्दीच्या सुरुवातीस सुभाष बाबू कलकत्ता महानगरपालिकेचे अध्यक्ष होते व तेथे त्यांनी अनेक प्रशासन सुधारणा केल्या.
स्वातंत्र्यानंतर चित्र एकदम बदलले. पूर्वीचे स्वातंत्र प्राप्तीचे उद्दिष्ट पूर्ण झाले. निव्वळ त्याच कारणांसाठी पुढे आलेली मंडळी मागे सरली. देशांत जवाहर लाल नेहरुंचे राजकीय वर्चस्व सर्वमान्य झाले. नेहरु हे साम्यवादी विचारसरणीने भारावलेले, त्याचबरोबर वैज्ञानिक प्रगतीचा ध्यास असलेले आणि देश विकासाचे स्वप्न पहाणारे पुढारी होते. त्यांचा सोशलिझमवर भर होता. मी समाजवाद हा शब्द वारपर नाही ते जाणीवपूर्वक. नेहरुंना जे समाजकारण अभिप्रेत होते त्यांत दारिद्य संपवणे, विषमता मिटवणे, अशिक्षा आणि अनारोग्य संपवणे, बेकारी संपवणे हा महत्वाचा भाग होता. कोण विचारवंत म्हणेल की आपण यासाठी झटू नये . स्वातंत्र्यानंतर पहिल्या वीस-तीस वर्षात हे उद्दिष्ट ठेऊन शासन-प्रणालीची पुनर्रचना झाली. तसेच सामाजिक क्षेत्रातही कित्येक चांगल्या संस्था पुढे आल्या.
विनोबांनी सर्वोदय चळवळीचा एक भाग म्हणून भूदान चळवळ चालवली. कृषी क्षेत्रात सुधारणेसाठी शेतक-याला मालकी मिळाली पाहिजे हे त्याच मुख्य सूत्र होते. हे त्यांनी मोठमोठ्या जमीन धारकांना शांती व सद्भावनेच्या मार्गाने समजावून दिले. त्यांना बिहार, महाराष्ट्र, आंध्र, कर्नाटक व मध्य प्रदेशांत प्रचंड प्रतिसाद मिळाला. चंबळ खो-यातील हजारो डाकूंच्या हदय परिवर्तनाचा प्रयोग त्यांनी यशस्वीरित्या संपन्न केला तो कशाच्या बळावर? तर डाकूगिरीत जी कुटुंबच्या कुटुंब पिढ्यान् पिढ्या रुतलेली होती, त्यांना वेगळ्या दिवसांचे क्षितिज दाखवून. शिक्षण, शेती व शंततामय जीवनाचे फायदे त्यांना पटवून देऊन.
सन 1950 मध्ये देशाने संविधानाचा अंगीकार केला. त्यामध्ये स्वातंत्र्य, समता, बंधुता व न्याय या सिध्दांताचा उद्घोष झाला. कायद्याने अस्पृश्यतेला हद्दपार केले. तेवढे पुरेसे नव्हते म्हणून अनुसूचित जाती व जमातींना वेगाने पुढे आणण्यासाठी राखीव जागांची संकल्पना आपण स्वीकार केली. महाराष्ट्रात कूळ कायदा येऊन कसेल त्याची जमीन हे तत्व लागू झाले. हेच तत्व लागू व्हावे म्हणून बंगालातील एका छोट्या खेड्यात एक छोटी चळवळ सुरु झाली पण अजूनही ही कृषी सुधारणा सर्वत्र लागू नाही. त्या छोट्या चळवळीने आज हिंसक रुप धारण केले आहे व नक्षलवादी ही देशांतील मोठ्या डोकेदुखीची समस्या झाली आहे.
एकूण काय तर स्वातंत्र्यानंतरची पहिली तीस-चाळीस वर्षे समाज धुरिणांनी समाजातील विषमता, दारिद्य, अज्ञान मिटवणे हीच प्रायोरिटी मानली. संत गाडगेबाबा व तुकडोजी महाराज यांनी तर कीर्तनाचा पंथ स्वीकारुन त्यातून समाज प्रबोधन केले. त्या काळातील समाज सुधारणेचे स्वप्न दोन सिनेगीतांमधून उत्तम व्यक्त होते ---
वो सुबह कभी तो आयेगी
इन काली सदियों के सरसे
जब रात का आंचल सरकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे
जब सुख का सागर छलकेगा
जब अंबर झूम के नाचेगा
जब धरती नग्में गायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी
आणि दुसरं गाणं होतं ---
यही पैगाम हमारा
हरेक महल से कहो की झोपडीयों में दिये जलाये
उंच नीच के बीच कोई अब फर्क नही रह जाये
सब के लिये सुख का बराबर हो बटवारा
यही पैगाम हमारा
त्या काळातील शासन योजनाही अशा होत्या , ज्यामध्ये हेच उद्दिष्ट होते. म्हणूनच ब्लॉक डेव्हलपमेंट कार्यक्रम, एक सशक्त पब्लिक सेक्टर तसेच वेगाने शिक्षण प्रसार अशा योजना पुढे आल्या. या व अशा समाजकारणाच्या कित्येक मुद्दयांवर पंडित नेहरु पंतप्रधान या अत्यंत व्यस्त पदावर असूनही स्वत: मुख्यमंत्र्यांना पत्र लिहित असत. त्यांत स्त्रियांचे सशक्तीकरणापासून, कृषि क्रांतिने वैज्ञानिक प्रगतीपर्यंत सर्व विषय हाताळीत आहेत.
मात्र या प्रकारे योजना आणतांना कांही मूलभूत गोष्टी हरवत गेल्या. सर्वांत पहिला बळी गेला तो समाजकारणाचा. शासनातील सत्ता आणि राजकारण हे समाजकारणाचे साधन आहे, हे तत्व विसरले गेले. त्या ऐवजी ते भ्रष्टाचाराच्या मार्गातून पैसा कमवण्याचे तंत्र म्हणून विकसित होऊ लागले. च्यथा राजा तथा प्रजाछ या न्यायाने पुढार्यांनी अस्तित्वांत आणलेली पध्दतच शासनातील नोकरशाहींना व समाजातील सामान्य व्यक्तीलाही स्वीकारार्ह वाटू लागली. स्वीकाराचे रुपांतर स्वागतात आणि स्वागताचे रुपांतर उद्दिष्टांत झाले. त्यामुळे गैर मार्गाने आलेला पैसा आधी फक्त चालत होता, आता तो ध्यासाचा विषय बनला.
विचारसरणीतील या बदलामुळे शासकीय योजना कशा बदलल्या, किंवा फोल ठरु लागल्या आहेत, त्याची कित्येक उदाहरणे देता येतील. याबाबत त्याआधी हे स्पष्ट करायला हवे की शासनकर्त्यांची पध्दती साम्यवादाकडे झुकणारी होती की अमेरिकन कॅपिटॅलिझ्मकडे हा मुद्दा मला तितकासा महत्वाचा वाटत नाही. कारण शेवटी त्या दोन्ही फक्त पध्दतीच (मेथोडॉलॉजी) आहेत - उद्दिष्ट नाही. जागतिक राजकारणांत विसाव्या शतकाच्या सुरुवातीस साम्यवादाने मूळ धरले व तो फोफावला. रशिया, पूर्व व यूरोपीय देश व चीन इथे तो प्रबळ झाला. तरीही या राष्ट्रांची खूप प्रगती झालेली आपल्याला दिसत नाही. मात्र इंग्लंड वगळता इतर बहुतेक पश्चिमी यूरोपीय देशांमध्ये साम्यवाद नसूनही व मुक्त अर्थव्यवस्थेचे अमेरिकन तत्वज्ञान वापरुनही त्यांनी पैगामच्या गाण्यांतील उद्दिष्ट साध्य केले आहे. तिथे विषमता अत्यंत कमी, आरोग्य, शिक्षण, वाहतूक आदि सेवा कमी दरांत आणि समानतेचे तत्व सर्वांना लागू अशा पध्दतीचे चित्र पहायला मिळते. भारतातही तेच अपेक्षित होते. तसे स्वप्न स्वातंत्र्यानंतर सर्वांनी पाहिले होते. पण तसे झाले नाही.
मी दोन उदाहरणांची चर्चा करणार आहे. सार्वत्रिक शिक्षणाबरोबरच उच्च शिक्षणामध्ये देखील शासनाने थोडी फार गुंतवणूक केली. देशात कांही चांगली मेडीकल कॉलेजेस निर्माण झाली. कित्येक ब्रिटिश काळापासूनही होतीच. पण पुढे पुढे चांगल्या विद्यार्थ्यांच्या मानाने ही कॉलेजेस कमी पडू लागली. त्यावर मार्ग म्हणून खाजगी मेडिकल कॉलेजचा पर्याय शासनाने स्वीकारताच ही सर्व केंद्रे भ्रष्ट व्यापारी संस्थाने बनली. इथे मी व्यापारी आणि भ्रष्ट व्यापारी यात फरक करते. व्यपार हा दोन व्यक्तींमधील समझोता असतो. एकाने चांगल्या मालाचा पुरवठा करायचा, दुसर्याने त्याचा योग्य मोबदला पुरवायचा. यामध्ये लुकाछुपी किंवा नाडणे हा प्रकार आला की, तो भ्रष्ट व्यापार होतो. कॅपिटेशन कॉलेजेस चालवणार्या संस्थांनी कोटयावधी रुपयांच्या शासकीय जागा च्शिक्षणासारख्या पवित्र क्षेत्राला कधी व्यापारी तत्व लागू करायचे नसते.छ (सबब शासनाने लागू नये) असे सांगत मातीमोलाने पदरांत पाडून घेतल्या. त्यानंतर बिनारिसिट व मनमानीपणे कॅपिटेशन फी घेऊन भ्रष्ट अर्थकारण सुरु केले. शासनातील चांगले, स्वच्छ, सज्जन म्हणवणार्या पुढार्यांचीदेखील हिंमत झाली नाही की, हे प्रकरण थोपवावे. उलट त्यातील कांहींनी स्वत: धडा घेऊन हेच भ्रष्ट अर्थकारण पुढे नेले. काही आपण हे करत नाही म्हणून हळहळले तर काही च्मी तर हे न करुन माझ्या पुरता स्वच्छ राहिलो नाछ अशी हतबल अल्पसंतुष्टी घेऊन राहिले. शेवटी एका कर्नाटकीय मुलीने शिक्षणाचा हक्क वगैरे मुद्दे मांडत सुप्रीम कोर्टात दाद मागितल्यावर 1991 मध्ये कोर्टाने अत्यंत उत्तम निकाल देऊन त्यांत धनवंतांनी आपण धनाच्या जोरावर शिक्षण घेतांना निदान एका तरी हुषार गरीब मुलाची सोय केलीच पाहिजे, त्याचप्रमाणे संस्थांनी विनारिसिट किंवा सर्वमान्य फी वगळता अतिरिक्त फी घेता कामा नये असे दोन निर्देश दिले. सन 1992 ते 2004 या 12 वर्षात या निकालाने कित्येक हुषार मुलांना परवडणारे उच्च शिक्षण घेता आले. या निकालातील कित्येक उदात्त तत्वांचे प्रतिपादन व त्यात ठरवून दिलेल्या कार्यपध्दतीने खर्या अर्थाने समाजकारण घडत होते. पण दुर्दैवाने राजकीय पुढारी किंवा नोकरशाहीने हे न ओळखल्यामुळे एका संस्थाचालकाच्या अर्जामुळे सुप्रीम कोर्टाने सन 2004 मध्ये वरील निर्णय फिरवला. पुन्हा एकदा सुमारे हजारोंच्या संस्थेने हुषार विद्यार्थी वाजगी दरातील तसेच भ्रष्ट व्यवहाराशिवाय मिळणार्या उच्च शिक्षणाला मुकतील, ते ही दरवर्षी. पण सत्तेच्या माध्यमातून ज्यांना हे समाजकारण सुधारता येईल त्यांना याची दखलही नाही.
याचा अति भयानक तोटा पुढील दहा-पंधरा वर्षांतच कसा दिसेल याचे चित्र नुकतेच एका सेवानिवृत्त शासकीय डॉक्टरने माझ्यासमोर उभे केले. त्यांचा मुद्दा होता की, त्यांच्या काळांत जसे कित्येक निष्णात डॉक्टर सेवाभावनेने शासकीय आरोग्य खात्यात आले तसे चित्र पुढील दहा वर्षानंतर, म्हणजे त्यांची पिढी रिटायर झाल्यानंतर दिसणारच नाही. कारण आता तयार होणारा प्रत्येक डॉक्टर हा 40-50 लाख रुपये कॅपिटेशन फी भरुनच डॉक्टर होऊ शकतो. तर मग तो सरकारची च्फाटकीछ नोकरी करुन आपल्या खर्चाची भरपाई कशी करणार ? एकूण काय तर लौकरच तुम्हाला सर्व सरकारी दवाखाने खाजगी संस्थांना चालवायला दिलेली दिसतील. सरकार ती स्वत: चालवू शकणारच नाही !
आपले आरोग्याचे आणि शिक्षणाचे धोरण असं भरकटले की, ज्या रुग्णालयांनी आरोग्य सेवेचे पवित्र (हे पण व्यापारी तत्व न लावण्याचे क्षेत्र अशी पोपटपंची) कर्तव्य करतो, असे सांगून सरकारची कोटयावधी किंमतीची जागा मातीमोल भावांत घेतली व त्या बदल्यांत 10 टक्के गोरगरीब रुग्णांना आरोग्यसेवा देण्याचे बचन दिले त्यांनी तसे केले नाही. पण ती सर्व धनिक
रुग्णालये असल्याने सरकार त्यांना काही आदेश करु इच्छित नाही. तसेच, सेवाभावी डॉक्टर्स निर्माण न करु शकणार्या आपल्या शैक्षणिक धोरणाबाबतही काही करता येत नाही.
समाजकारण खालावल्याचे आणखी एक भयानक उदाहरण म्हणजे मोठया शहरांत बिल्डर या धनिक संस्थांचा सुळसुळाट. यातील कित्येक दमदाटी, भाडेकरुंना हुसकावणे, लाच देऊन अधिक लाभ पदरात पाडून घेणे असे प्रकार सर्रास करतात. यासाठी त्यांनी काही छोटे-बडे च्भाईछ व च्दलालछ पण पदरी बाळगलेत. त्या भाईंची रोजीरोटी कशावर चालते, तर बिन मेहनतीच्या पैशावर. आज एका व्यक्तीला दहशतीने हुसकावण्यासाठी पंधरा-वीस हजार रुपये घेऊ शकणारा अंडरवर्ल्डचा माणूस उद्या टेररिस्ट गँगने पाच लाख दिले तर कांय कांय करेंल ? थोडक्यांत अशा छुटभैय्या अंडरवर्ल्डला गाठीशी ठेवणारे, विनाश्रमाच्या पैशांनी श्रीमंत होण्याची वाट दाखवणारे सर्व एका मोठया संकटाला आमंत्रण देत आहेत. पण आजचे राजकारण या धनिक वर्गाची मर्जी राखण्यातच असेल तर समाजाचे काय होणार ?
विसाव्या शतकाची सुरुवात व शेवट या काळात हा एक मोठा फरक दिसून येतो. समाजकारण मागे पडून आता भ्रष्ट अर्थकारणाचा सुळसुळाट होऊ लागला आहे हे स्थित्यंतर थोपवणे आवश्यक आहे
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शब्ददर्वळ, इंदूर, दिवाळी अंक, 2008
Saturday, September 27, 2008
जानने का हक -- The spirit of RTI Act
जानने का हक
Composed by
(known only to) Kabir
E-169, shanti marg
West vinod nagar
Delhi -110092
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ph- 09868875898
Another add
KABIR , D - 59, THIRD FLOOR,
PANDAV NAGAR,
DELHI - 110092,
PH : 22485139
Video Availble on
http://uk.youtube.com/watch?v=iZ1yvrMDUMU
or here
मेरे सपनोंको जानने का हक रे
मेरे सपनोंको जानने का हक रे
क्यों सदियोंसे टूट रहे हैं
इन्हें सजने का नाम नही।
मेरे हाथोंको ये जानने का हक रे
मेरे हाथोंको ये जानने का हक रे
क्यों बरसोंसे खाली पडे हैं
इन्हें आज भी काम नही।
मेरे पैरोंको ये जानने का हक रे
मेरे पैरोंको ये जानने का हक रे
क्यों गाँव गाँव चलना पडे रे
क्यों बसका निशान नही।
मेरी भूखको ये जानने का हक रे
मेरी भूखको ये जानने का हक रे
क्यों गोदामोंमें सडते हैं दाने
मुझे मुट्ठी भर धान नही।
मेरी बूढी माँ को जानने का हक रे
मेरी बूढी माँ को जानने का हक रे
क्यों गोली नही सुई दवाखाने
पट्टी टाँके का सामान नही।
मेरे खेतोंको ये जानने का हक रे
मेरे खेतोंको ये जानने का हक रे
क्यों बाँध बने रे बडे बडे
तो भी फसलों में जान नही।
मेरे जंगलोंको जानने का हक रे
मेरे जंगलोंको जानने का हक रे
कहाँ डालियाँ वो, पत्ते, तने, मिट्टी
क्यों झरनों का नाम नही।
मेरी नदियोंको जानने का हक रे
मेरी नदियोंको जानने का हक रे
क्यों जहर मिलायें कारखाने
जैसे नदियोंमें जान नही।
मेरे गाँवको ये जानने का हक रे
मेरे गाँवको ये जानने का हक रे
क्यों बिजली न सडकें न पानी
खुली राशन की दुकान नही।
मेरे वोटोंको ये जानने का हक रे
मेरे वोटोंको ये जानने का हक रे
क्यों एक दिन बडे बडे वादे
फिर पाँच साल काम नही।
मेरे रामको ये जानने का हक रे
रहमान को ये जानने का हक रे
क्यों खून बहे रे सडकों पे
क्या सब इनसान नही।
मेरी जिंदगीको जीने का हक रे
मेरी जिंदगीको जीने का हक रे
अब हक के बिना भी क्या जीना
ये जीने के समान नही।
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Composed by
(known only to) Kabir
E-169, shanti marg
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मेरे सपनोंको जानने का हक रे
मेरे सपनोंको जानने का हक रे
क्यों सदियोंसे टूट रहे हैं
इन्हें सजने का नाम नही।
मेरे हाथोंको ये जानने का हक रे
मेरे हाथोंको ये जानने का हक रे
क्यों बरसोंसे खाली पडे हैं
इन्हें आज भी काम नही।
मेरे पैरोंको ये जानने का हक रे
मेरे पैरोंको ये जानने का हक रे
क्यों गाँव गाँव चलना पडे रे
क्यों बसका निशान नही।
मेरी भूखको ये जानने का हक रे
मेरी भूखको ये जानने का हक रे
क्यों गोदामोंमें सडते हैं दाने
मुझे मुट्ठी भर धान नही।
मेरी बूढी माँ को जानने का हक रे
मेरी बूढी माँ को जानने का हक रे
क्यों गोली नही सुई दवाखाने
पट्टी टाँके का सामान नही।
मेरे खेतोंको ये जानने का हक रे
मेरे खेतोंको ये जानने का हक रे
क्यों बाँध बने रे बडे बडे
तो भी फसलों में जान नही।
मेरे जंगलोंको जानने का हक रे
मेरे जंगलोंको जानने का हक रे
कहाँ डालियाँ वो, पत्ते, तने, मिट्टी
क्यों झरनों का नाम नही।
मेरी नदियोंको जानने का हक रे
मेरी नदियोंको जानने का हक रे
क्यों जहर मिलायें कारखाने
जैसे नदियोंमें जान नही।
मेरे गाँवको ये जानने का हक रे
मेरे गाँवको ये जानने का हक रे
क्यों बिजली न सडकें न पानी
खुली राशन की दुकान नही।
मेरे वोटोंको ये जानने का हक रे
मेरे वोटोंको ये जानने का हक रे
क्यों एक दिन बडे बडे वादे
फिर पाँच साल काम नही।
मेरे रामको ये जानने का हक रे
रहमान को ये जानने का हक रे
क्यों खून बहे रे सडकों पे
क्या सब इनसान नही।
मेरी जिंदगीको जीने का हक रे
मेरी जिंदगीको जीने का हक रे
अब हक के बिना भी क्या जीना
ये जीने के समान नही।
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Friday, September 26, 2008
कायद्याचे अधिष्ठान --Legal philosophy
लीगल फिलॉसॉफी
दि. 25 सप्टेंबर 2008 रोजी गोखले एज्यूकेशन सोसायटी नाशिक च्या सेंटर फॉर एक्सलन्स चे उद्घाटन प्रसंगी दिलेले बीजभाषण (कीनोट)
The theme of this article is to establish the need of a subject called legal philosophy which will promt and teach students to question existing legal systems (inclu. law itself) and thereby prepare them to look at law as a dynamic system rather than static.
kept on hindi_lekh_2
कायद्याचे अधिष्ठान
लीना मेहेंदळे
leenameh@yahoo.com
“लीगल फिलॉसॉफी किंवा कायद्याचे अधिष्ठान’’ हा विषय आपल्याकडे शिकवला जात नाही. परंतु कुठलाही कायदा करीत असताना त्या कायद्याचे नैतिक अधिष्ठान काय, हा प्रश्न महत्वाचा असतो. आपल्या देशात आतापर्यंत केलेल्या विभिन्न कायद्यांची संख्या मोजली तर शेकडोच्या घरात जाईल. यातील एक-एक कायदा सुटासुटा वाचला तर त्या प्रत्येक कायद्याला एक Preamble असते व ते त्या कायद्याचे नैतिक अधिष्ठान असते. त्याचप्रमाणे कायद्याचा अभ्यासात ज्यूरिसप्रूडन्स नावाचा एक विषय असतो मात्र त्या मधे कायदा या विषयाचा इतिहास व शास्त्र तसेच नियमावली, सूत्रे यांचा विचार केला जातो. परंतु एकूणच कायदे का करावे लागतात, त्यांची जपणूक कशाप्रकारे होते, त्यांची उपयोगिता कशी मोजतात, कशी टिकवतात किंवा कशी वाढवतात, आणि त्यांच्यामध्ये कालपरत्वे काय बदल होणे आवश्यक आहे, याची चर्चा कोण करतो इत्यादि सर्व मुद्दे लीगल फिलॉसॉफी या विषयांतर्गत मोडतात. “तेथे पाहिजे अधिष्ठान भगवंताचे’’ असे आपल्या संतांनी म्हटले आहे. भगवत् गीतेत देखील अधिष्ठान, कर्ता , करण, विविध प्रयत्न व दैव अशा ज्या पाच गोष्टींची आवश्यकता प्रत्येक कार्यासाठी सांगितली आहे, त्यामध्ये अधिष्ठान हे सर्व प्रथम आवश्यक मानले आहे. तसेच कायद्यासाठीही अधिष्ठान लागते.
सर्व प्रथम आपण कायदा का करतात, याचे विवेचन करु या :-
मनुष्य हा सामाजिक प्राणी आहे. आदी काळातील गुहेत राहणार्या मानवाला एकटेपणाने राहण्याऐवजी कळपात राहण्याचे फायदे समजलेले होते. समाजात राहण्याचा सर्वात मोठा फायदा म्हणजे एका व्यक्तीने मिळविलेले ज्ञान, वेगाने (शीघ्र) व चांगल्या तर्हेने इतरांपर्यंत पोहाचविले जाते. यामुळे ज्ञानाचा प्रसार वाढतो. त्याचप्रमाणे कलागुणांचा प्रसार, संचय केलेल्या धनसमृध्दीचा वापर, या गोष्टी देखील सामाजिक आयुष्यामुळे सुकर होतात. यासाठी कळपात व पर्यायाने समाजात राहण्याचे ठरल्यानंतर मानवाच्या लक्षात आले की, समाजातील प्रत्येक व्यक्तीच्या अंगात काही खासखास गुण भिनवले तर समाजाची प्रगती जलद गतीने होते. उदा. खरे बोलण्याचा गुण, ज्यामुळे ज्ञानाचा प्रसार वेगाने होवू शकतो तसेच समाजातील सुव्यवस्था टिकते. किंवा अतिथी सत्काराचा गुण ज्यामुळे समाजातील प्रत्येक व्यक्तीची अन्न सुरक्षा (food security) वाढते. बहुतांशी हे गुण शिक्षणाच्या व संस्काराच्या माध्यमातून लोकांमध्ये उतरविले जातात. या गुणांची सवय समाजातील प्रत्येक व्यक्तीत उतरण्यासाठी शेकडो वर्षाचा कालावधी गरजेचा असतो. त्याचप्रमाणे हे गुण अंगी बाळगणार्या समाजातून ते गुण नष्ट करण्याला देखील कित्येक मोठा काळ लागतो. थोडक्यात असे दीर्घ मुदतीच्या सरावाने किंवा संस्काराने आलेले गुण, तितकेच चिरस्थायी देखील असतात व त्यातून समाजाची स्वत:ची अशी एक शिस्त निर्माण होते.
परंतु कित्येक प्रसंगी असे गुण समाजात उतरण्यासाठी शेकडो वर्षे वाट पहाणे शक्य नसते. तेव्हा अशा गुणांचा सराव समाजाला जास्त वेगाने व्हावा, यासाठी त्या त्या काळी अस्तित्वात असलेल्या राज्य शासन चालविणार्या गटाला कायदे करावे लागतात. जे कायदे लोकांच्या अंगवळणी पडून त्यांचे संस्कृतीत रुपांतर झाले त्या विशिष्ट कायद्याची गरज उरत नाही. परंतु तशी परिस्थिती निर्माण होईपर्यंत त्या त्या कायद्याची गरज राहते.
कायद्याची गरज निर्माण होण्याचे दुसरे महत्वाचे कारण की, कायदा मोडणार्या व्यक्तीला शिक्षा करावयाची असेल तर शिक्षा करणार्या शासनकर्त्याला तसा नैतिक अधिकार असणे आवश्यक असते. तरच अशी शिक्षा समाजमान्य होवू शकते. तसे न झाल्यास बळी तो कान पिळी ही प्रक्रिया तात्काळ उदयाला येईल. यासाठी कायद्याचा भंग झाल्यास काय शिक्षा असेल व ती शिक्षा देण्याचा अधिकार कोणकोणत्या व्यक्तीपुरता मर्यादित राहील, हे देखील निर्बंध घातले जातात. परंतु ज्यांना असे अधिकार मिळतात त्यांनी हे विसरता कामा नये की, हे अधिकार त्यांच्याकडे स्वयंभूपणाने आलेले नसून हे समाजाकडून बहाल केलेले अधिकार आहेत (Delegated Power).
आपल्या विभिन्न लॉ कॉलेजमधून लीगल फिलॉसॉफी हा विषय शिकवावा का व त्यामध्ये कोणते मुद्दे समाविष्ट असावेत, हे प्रश्न स्वाभाविकरित्या उत्पन्न होवू शकतात. याची गरज आहे याबाबत मी काही उदाहरणे देवू शकेन :-
(1)जेसिका लाल खून खटल्यामध्ये सेशन जजने असे म्हटले होते की, या केसमध्ये तपासी यंत्रणेने जाणुनबूजून कच्चे दुवे ठेवलेले आहेत. त्यामुळे माझ्या समोरील संशयीत आरोपी हाच निश्चितपणे गुन्हेगार आहे असे स्पष्ट दिसत असूनही मी त्याला गुन्हेगार घोषित करु शकत नाही किंवा शिक्षा करु शकत नाही.
यानंतर लोकमताच्या रेटयामुळे जेसिका लालची केस पुन्हा उभी राहीली. परंतु अशा लोकमताचा रेटा प्रत्येक वेळी मिळेल याचा शाश्वती नसते. अशा वेळी तपासणी यंत्रणेबाबत काय करावे, काय केले जाते इत्यादि प्रश्नांची चर्चा लीगल फिलॉसॉफी या विषयाअंतर्गत होवू शकते. परंतु असा अभ्यासाचा विषय नसल्यामुळे या प्रक्रियेतील ही जी मोठी त्रुटी आपल्याला जागोजागी दिसते त्याचे संपूर्ण गांभीर्य चर्चेत येत नाही व त्या त्रुटीची दुरुस्ती पध्दतशीररित्या (Systematically) होत नाही.
(2) एकूण गुन्हयापैकी छोटे गुन्हे बाजूला काढून त्यांची त्वरीत सुनावणी, त्वरीत निकाल, व होणारी शिक्षा छोटीशीच असली तरी त्वरीत लागू अशी न्याय व्यवस्था न आणता आपण पूर्वापार चालत आलेली दीर्घ प्रक्रियेची न्याय व्यवस्था चालू ठेवली आहे. याचे एक उदाहरण पाहू या. कटक येथील अंजना मिश्रा या उच्चशिक्षीत व उच्च आर्थिक वर्गातील स्त्रीवर बंदुकीचा धाक दाखवून सामुहिक बलात्कार करण्यात आला, त्यात पोलीसांनी नोंदविलेले गुन्हे खालीलप्रमाणे आहेत :-
अ) (सर्वात कमी गांभीर्याचा) आर्म लायसन्स नसताना पिस्तुल बाळगणे.
आ) (त्याहून अधिक गांभीर्याचा गुन्हा) तीच्या ड्रायव्हरला जीवे मारण्याची धमकी देणे.
इ) (त्याहून अधिक गांभीर्याचा गुन्हा) बलात्कार,
ई) (त्याहून अधिक गांभीर्याचा गुन्हा) सामुहिक बलात्कार,
उ) (त्याहून सर्वात अधिक गांभीर्याचा गुन्हा) कट रचून सामुहिक बलात्कार व या कटात
महाअधिवक्ता यासारख्या उच्चपदस्थ व्यक्तीचा सहभाग असणे.
फिर्यादीमध्ये पकडल्या गेलेल्या 4 गुन्हेगारांपैकी 3 गुन्हेगारांनी पहिले दोन्ही गुन्हे कबूल केलेले आहेत. प्रमुख आरोपी साहू याने पुढील दोन गुन्हेही कबूल केलेले आहेत. तरी देखील सुमारे 150 वर्षापूर्वी ब्रिटिशांनी केलेला कायदा जो आजही आपल्या देशात तसाच लागू आहे, तो उद्धृत केला जातो. त्यामध्ये एकाच प्रसंगी घडलेले सर्व गुन्हे एकत्रितपणे चौकशी करुन एकत्रितपणे न्यायालयासमोर आणावे असा नियम लिहून ठेवला असल्याने व वरील प्रकरणातील पाचव्या गुन्हयामध्ये महाअधिवक्ता सामील असल्यामुळे चौकशी पूर्ण करण्यासाठी विलंब लागत असल्याने अद्यापपर्यंत ही केस चौकशीसाठी न्यायालयासमोर उभी राहीलेली नाही.
ही घटना सन 1999 मधील आहे. अशा प्रसंगी कमी गांभीर्याचा, सबब कमी शिक्षा होणारा, परंतु तात्काळ सिध्द होवू शकणारा गुन्हा महणजेच पहला गुन्हा वेगळा करुन तातडीने सुनावणीस आणला तर आपले शासन गुन्हेगाराला छोटी का होईना, पण त्वरित शिक्षा करते असा विश्वास लोकांमधे बसेल. परंतु तसे होत नाही.
तेलगी प्रकरणात बर्याच छोटया गुन्हयांचे पुरावे तात्काळ उपलब्ध असूनही त्यासोबत घडलेल्या मोठया गुन्हयांच्या तपासाच्या कारणासाठी कित्येक वर्षे केस सुनावणीस न येता, कित्येक आरोपी जामीनावर सुटले गेलेत. याच प्रमाणे BMW केसमधील नंदा तसेच सलमान खान यांनी दारुच्या नशेत गाडी चालवून मनुष्य वध करुनही खटले रेंगाळलेले आहेत किंवा चिंकारा हत्या प्रकरणी सलमान खान, पतौडीचा नबाब इत्यादि काही आरोपी कित्येक वर्षे जामीन मिळवून मोकळेपणाने फिरत आहेत. तसेच बॉम्बस्फोटातील खटल्याचे निकाल लागायला किंवा वरिष्ठांकडून झालेल्या भ्रष्टाचाराच्या खटल्यांना देखील कित्येक वर्ष वेळ लागलेला आहे.
सबब, प्रश्न उपस्थित होतो की, आपल्याला प्रदीर्घ चौकशी करुन प्रदीर्घ काळानंतर निकाल देणारी व त्यांत कदाचित झालीच तर खूप मोठी शिक्षा देणारी न्याय संस्था हवी की, त्यामधील छोटया चौकशा जलद गतीने पूर्ण करुन त्यातील छोटया गुन्हयांची छोटी शिक्षा तातडीने देवू शकणारी न्याय व्यवस्था हवी. लीगल फिलॉसॉफी हा विषय अभ्यासक्रमात घेतल्याखेरीज या मुद्यांची तड लागू शकत नाही.
(3) सुमारे दीड-दोनशे वर्षापूर्वी केलेला इंडियन एव्हिडन्स ऍक्ट आपण अजूनही जसाच्या जसा वापरतो. यातील एका नियमाने एखाद्या साक्षीदारास कोर्टात बोलावण्यासाठी समन्स काढण्याचे अधिकार कोर्टाला आहेत व साक्षीदाराने हजर राहण्यास टाळाटाळ केली तर पकड वॉरंट काढण्याचे अधिकार कोर्टाला आहेत. हा नियम करताना साक्षीदाराला नेमक्या कोणत्या शब्दात समन्स जारी करावेत, ते ठरवून दिलेले आहेत. समन्सची ही भाषा प्रथम दर्शनी अतिशय बोचणारी, व उर्मट आहे. साक्षीदार या स्थायीभाव असतो. अगदी आपला देश स्वतंत्र आणी कल्याणकारी म्हणवत असला तरी.
देशाचा सुजाण नागरिक आहे व त्याच्या योग्य साक्षीमुळे कायदा आणि सुव्यवस्था पुढे नेण्यास मदत होणार असल्याने तो शासनाचा व न्यायप्रक्रियेचा उपकारकर्ता आहे ही जाणीव सर्वथा नसणारी भाषा वापरण्यात आलेली आहे. ब्रिटिश राजवटीत त्यांच्या दृष्टीने या देशातील सर्व नागरिक (नेंटिव) कःपदार्थ होते. परंतु आता देश स्वतंत्र झाल्यानंतरही एखाद्या प्रकरणी मला माहितीसाठी बोलावताना पोलीसांनी किंवा न्यायसंस्थेने ती मग्रुरीची भाषा वापरावी का? याचा विचारही न करू शकणारी आपली संवेदनाशून्य न्यायव्यवस्था असावी कां ? पण आजपर्यंत कोण्याही समन्स काढणा-या न्यायमूर्तीला आपण देशातील सुजाण व उपकारक अशा नागरिकाला उर्मट वागणूक देत आहोत हे कळलेले नाही. कारण उर्मट वागणे हाच शासनाचा स्थायीभाव आहे, अगदी हा देश माझा माझाच आहे असं कुणीही घोकलं तरी.
शिवाय आपल्या न्यायालयाची किंवा शासनाची भूमिका अशी असते की “It has been brought to our notice” त्यामुळे कुणीतरी पुढे होऊन नजरेला आणून न्याय मागितला नाही तर कुणीही पुढाकार घेत नाही, घेतलाच तर जणू कांही सर्व धावपळ करण्याची त्याचीच जबाबदारी आहे व त्याचा प्रस्ताव सर्व बाजूंनी perfect आहे हे सिद्ध होईपर्यंत त्याचे पुढे कांहीही न होऊ देण्याची जबाबदारी आपली आहे अशा भावनेने शासनातील इतर सर्व वागतात.
(4) यातील शेवटचे उदाहरण पाहू या. एखाद्या आरोपीने गुन्हा केलेला असतो व बचाव पक्षाच्या वकीलालाही या प्रकरणातील सत्य काय आहे हे माहित असते. अशा वकीलांनी न्यायप्रक्रियेची प्रतिष्ठा टिकवून ठेवण्याची शपथ घेतलेली आहे. कोर्टात युक्तिवाद करतांना त्याच्या डोळयासमोर सत्यमेव जयते हे वाक्य लिहिलेले असते व सत्याचा विजय झाला तरच न्यायाची प्रतिष्ठा टिकते हे ही त्याला कळत असते. सत्याची प्रतिष्ठा वाढली व गुन्हेगाराला योग्य शिक्षा मिळाली तरच समाजाची एकूण सुरक्षा टिकते व तशी टिकण्यानेच न्यायदान करणा-या जजची आणी स्वतः त्या वकिलाची सुरक्षा टिकते हे ही त्या दोघांना कळते. तरी देखील गुन्हा कबूल करुन गुन्हयाची शिक्षा कमी करावी असा युक्तीवाद न करता किंवा गुन्हा घडण्याला परिस्थिती कारणीभूत होते सबब निर्दोष सोडावे किंवा कमी शिक्षा करावी असा युक्तिवाद न करता, गुन्हा झालाच नव्हता अशा प्रकारचा युक्तिवाद केला जातो. तो ही अशीलाचा बचाव हीच माझी नैतिक जबाबदारी असा नैतिक आव आणून. परंतू अशा प्रकारे समाजात असत्य पसरण्यास तो वकीलही कारणीभूत असतो. या नैतिक बाबीकडे कोणाचेही लक्ष जात नाही. “मी तुझ्यापेक्षा अधिक चलाखी करु शकतो, तू जास्त चलाख असशील तर दाखव गुन्हा सिध्द करुन” अशी बचाव पक्षाची भूमिका असते आणि यालाच नैतिकता असे म्हटले जाते.
कित्येक स्मॉल केसेस कोर्टात रोजच्या रोज भाडयाने आणल्या जाणा-या खोटया साक्षीदारांची ओळख त्या न्यायालयांच्या आवारात सर्वांनाच असते परंतू ज्या शपथेवर अशा साक्षीदारांची जराही निष्ठा नाही, अशा साक्षीदारांने फक्त तोंडातून "मी शपथपूर्वक खरे सांगतो की," एवढे शब्द उच्चारले की, आपल्या न्यायदानासाठी ते पुरेसे ठरते.
न्यायदानाचे मूळ उद्दिष्ट काय असते किंवा कायदयाचे मुळ उद्दिष्ट काय असते? एखाद्या परिस्थितीला पुरेसे उत्तर देणारे कायदे अस्तित्वात नसतील तर अशा वेळेला एकेका केसपरत्वे सुप्रीम कोर्टाने दिलेले निकाल हा कायदा आहे असे मानून त्याप्रमाणे शासन व्यवहार चालवावे व शासनाने समग्र कायदा करेपर्यन्त सुप्रीम कोर्टाचा निर्णय हाच कायदा प्रमाण मानावा, असा आपल्याकडे संकेत आहे. या तत्वाला अनुसरुन सुप्रीम कोर्टाने कित्तेक महत्वाचे व समाजोपयोगी निर्णय दिलेले आहेत. अशा निर्णयांचे कायद्यात रूपांतर झाले नसेल तोपर्यन्त त्याच विषयाबाबत समाजात कितपत चर्चा होते? किंवा का होत नाही? हा सर्वांच्या दृष्टीने महत्वाचा मुद्दा आहे. लीगल फिलॉसॉफी हा विषय शिक्षणक्रमात ठेवला तर अशा मुद्याची चर्चा पध्दतशीरपणे होऊ शकेल.
यासंदर्भात सुप्रीम कोर्टाच्या सन 1992 मध्ये उन्नीकृष्णन या मुलीच्या केसमध्ये दिलेला निकाल महत्वाचा आहे. कॅपिटेशन फी च्या नावाने भरपूर काळा पैसा जमा करणार्या शिक्षण सम्रांटांविरुध्द निकाल देतांना व उन्नीकृष्णन हिचा, उच्च शिक्षणाचा अधिकार मान्य ठरवितांना सुप्रीम कोर्टाने तीन महत्वाचे निर्देश निकालात नमूद केले.—
क) जास्त पैसे देवून प्रवेश मिळवू इच्छिणार्या प्रत्येक विद्यार्थ्यांसोबत 1:1 या तत्वाने शासकीय फी इतकीच (कमी) फी भरणार्या एका मुलास प्रवेश देणे हे कॅपिटेशन फी घेणार्या त्या शिक्षण संस्थेस बंधनकारक राहील. थोडक्यात एका धनी बाळाच्या पाठीमागे एका गुणी
बाळाला कमी फी देवून प्रवेश मिळू शकेल.
ख) फीची सर्व रक्कम मग ती कमी दराने असो किंवा वाढीव दराने असो, ती शासनाने ठरवून
दिलेली असेल व त्यासाठी रीतसर पावती दिली जाईल.
ग) प्रवेश देणार्या सर्व शिक्षण संस्थांनी त्यांच्याकडे आलेल्या अर्जाची मेरीट लिस्ट लावून मेरीट प्रमाणे ज्या विद्यार्थ्याचा अगोदर नंबर लागतो, त्यालाच पहिली संधी दिली पाहिजे. असे तत्व कमी फी देणार्या व वाढीव फी देणारा अशा दोन्ही तर्हेच्या विद्यार्थ्यांसाठी लागू राहील.
सन 1992 ते 2004 या 12 वर्षाच्या काळात सुप्रीम कोर्टाच्या या निर्णयामुळे लाखो हुशार परंतु भ्रष्टाचाराने पैसे न देवू शकणार्या मुलांचा फायदा झाला व समाजात बुध्दिमत्ता आणि भ्रष्टाचारी नसणे या दोन गुणांना वाव आहे असे चित्र त्या संस्कारक्षम मुलांच्या मनावर अप्रत्यक्षरितीने का होईना नोंदले गेले.
या केसची प्रदीर्घ चर्चा झाली असती तर हा महत्वाचा समाज-गुण प्रत्यक्षपणे सर्वांच्या जाणिवेत उतरला असता तसेच त्याची उपयोगिता समाजाला पटली असती. पण तसे न झाल्याने सन 2004 मध्ये एका कॅपिटेशन फी घेणार्या शिक्षण संस्थेने पुन्हा सुनावणीची मागणी करुन मागील निकाल रद्द ठरवून घेतला, तेव्हा समाजातील गरजू, बुध्दिमान व भ्रष्टाचाराला थारा न देणार्या विद्यार्थ्यांची बाजू मांडायला कोणीही नव्हते. त्यामुळे पहिला निकाल पुन्हा एकदा फिरवून सुप्रीम कोर्टाने शिक्षण संस्थांना मनमानेल ती कॅपिटेशन फी घेण्यास परवानगी दिली आहे.
याच प्रमाणे सध्या डाऊ कंपनीमुळे उपस्थित झालेल्या डाऊ विरुध्द वारकरी या संघर्षात देखील डाऊ कंपनीने कोर्टात शासनाविरुध्द अर्ज करुन शासनाने संरक्षण दिले पाहिजे, अशी मागणी केली. त्यास शासनाने कबूली दिली व कोर्टाने आदेश दिले की, डाऊ कंपनीला शासनाने संरक्षण द्यावे. परंतु ज्या वारकरी आंदोलनाच्या कारणासाठी संरक्षण मागण्याची वेळ आली त्या वारकर्यांचे व गावकर्यांचे मत काय होते, याची चर्चा झालीच नाही. याच मालिकेत बसणा-या कित्येक भूखंड बळकाव केसेस माझा माहितीत आहेत. त्यामध्ये एखाद्या शासकीय संस्थेची जागा (किंवा बांधलेली घरे) कोणीतरी बळकावतो. त्याला नोटीस काढून जागा खाली करणयास सांगितल्यावर तो कोर्टात जातो. तिकडे सरकार तर्फे बाजू मांडली जात नाही किंवा थातूर-मातूर मांडली जाते. कारण सर्व सरकारी वकील हे शासनातील या त्या राजकीय पक्षांची मर्जी राखणारे असल्यानेच त्यांची नेमणूक झालेली असते. त्यांना पुरेपूर माहीत असते की केसमधे बळकावणारी बाजू जिंकेल हे पहायचे आहे. अशा प्रकारे कोर्टाचा निकाल त्या जमीन बळकाव टोळीच्या बाजूने लागतो. त्याचे सोयर सुतक सरकार नावाच्या कुणालाही नसते. मात्र टोळीच्या फायद्यामधील वाटा रीतसर संबंधितांना मिळतोच. थोडक्यात आपल्या बेकायदेशीर व्यवहारांना कोर्टाकडून अधिष्ठान मिळवून घेण्याचा हा सर्व कारभार राजरोस चालतो. यांची दखल घेण्यासाठी फोरम काय?
अशा प्रकारची शेकडो केसेसची उदाहरणे देता येतील.
हे सर्व पाहिल्यानंतर आपली लीगल फिलॉसॉफी काय आहे, आपल्या कायद्यांचे नैतिक अधिष्ठान काय आहे, ते कोण जपेल व त्या जपण्यामध्ये कायद्याचे शिक्षण देणार्या संस्थांची काय भूमिका असेल ही चर्चा कायद्याच्या शिक्षणक्रमामध्येच होणे गरजेचे वाटते.
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for Antarnad
दि. 25 सप्टेंबर 2008 रोजी गोखले एज्यूकेशन सोसायटी नाशिक च्या सेंटर फॉर एक्सलन्स चे उद्घाटन प्रसंगी दिलेले बीजभाषण (कीनोट)
The theme of this article is to establish the need of a subject called legal philosophy which will promt and teach students to question existing legal systems (inclu. law itself) and thereby prepare them to look at law as a dynamic system rather than static.
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कायद्याचे अधिष्ठान
लीना मेहेंदळे
leenameh@yahoo.com
“लीगल फिलॉसॉफी किंवा कायद्याचे अधिष्ठान’’ हा विषय आपल्याकडे शिकवला जात नाही. परंतु कुठलाही कायदा करीत असताना त्या कायद्याचे नैतिक अधिष्ठान काय, हा प्रश्न महत्वाचा असतो. आपल्या देशात आतापर्यंत केलेल्या विभिन्न कायद्यांची संख्या मोजली तर शेकडोच्या घरात जाईल. यातील एक-एक कायदा सुटासुटा वाचला तर त्या प्रत्येक कायद्याला एक Preamble असते व ते त्या कायद्याचे नैतिक अधिष्ठान असते. त्याचप्रमाणे कायद्याचा अभ्यासात ज्यूरिसप्रूडन्स नावाचा एक विषय असतो मात्र त्या मधे कायदा या विषयाचा इतिहास व शास्त्र तसेच नियमावली, सूत्रे यांचा विचार केला जातो. परंतु एकूणच कायदे का करावे लागतात, त्यांची जपणूक कशाप्रकारे होते, त्यांची उपयोगिता कशी मोजतात, कशी टिकवतात किंवा कशी वाढवतात, आणि त्यांच्यामध्ये कालपरत्वे काय बदल होणे आवश्यक आहे, याची चर्चा कोण करतो इत्यादि सर्व मुद्दे लीगल फिलॉसॉफी या विषयांतर्गत मोडतात. “तेथे पाहिजे अधिष्ठान भगवंताचे’’ असे आपल्या संतांनी म्हटले आहे. भगवत् गीतेत देखील अधिष्ठान, कर्ता , करण, विविध प्रयत्न व दैव अशा ज्या पाच गोष्टींची आवश्यकता प्रत्येक कार्यासाठी सांगितली आहे, त्यामध्ये अधिष्ठान हे सर्व प्रथम आवश्यक मानले आहे. तसेच कायद्यासाठीही अधिष्ठान लागते.
सर्व प्रथम आपण कायदा का करतात, याचे विवेचन करु या :-
मनुष्य हा सामाजिक प्राणी आहे. आदी काळातील गुहेत राहणार्या मानवाला एकटेपणाने राहण्याऐवजी कळपात राहण्याचे फायदे समजलेले होते. समाजात राहण्याचा सर्वात मोठा फायदा म्हणजे एका व्यक्तीने मिळविलेले ज्ञान, वेगाने (शीघ्र) व चांगल्या तर्हेने इतरांपर्यंत पोहाचविले जाते. यामुळे ज्ञानाचा प्रसार वाढतो. त्याचप्रमाणे कलागुणांचा प्रसार, संचय केलेल्या धनसमृध्दीचा वापर, या गोष्टी देखील सामाजिक आयुष्यामुळे सुकर होतात. यासाठी कळपात व पर्यायाने समाजात राहण्याचे ठरल्यानंतर मानवाच्या लक्षात आले की, समाजातील प्रत्येक व्यक्तीच्या अंगात काही खासखास गुण भिनवले तर समाजाची प्रगती जलद गतीने होते. उदा. खरे बोलण्याचा गुण, ज्यामुळे ज्ञानाचा प्रसार वेगाने होवू शकतो तसेच समाजातील सुव्यवस्था टिकते. किंवा अतिथी सत्काराचा गुण ज्यामुळे समाजातील प्रत्येक व्यक्तीची अन्न सुरक्षा (food security) वाढते. बहुतांशी हे गुण शिक्षणाच्या व संस्काराच्या माध्यमातून लोकांमध्ये उतरविले जातात. या गुणांची सवय समाजातील प्रत्येक व्यक्तीत उतरण्यासाठी शेकडो वर्षाचा कालावधी गरजेचा असतो. त्याचप्रमाणे हे गुण अंगी बाळगणार्या समाजातून ते गुण नष्ट करण्याला देखील कित्येक मोठा काळ लागतो. थोडक्यात असे दीर्घ मुदतीच्या सरावाने किंवा संस्काराने आलेले गुण, तितकेच चिरस्थायी देखील असतात व त्यातून समाजाची स्वत:ची अशी एक शिस्त निर्माण होते.
परंतु कित्येक प्रसंगी असे गुण समाजात उतरण्यासाठी शेकडो वर्षे वाट पहाणे शक्य नसते. तेव्हा अशा गुणांचा सराव समाजाला जास्त वेगाने व्हावा, यासाठी त्या त्या काळी अस्तित्वात असलेल्या राज्य शासन चालविणार्या गटाला कायदे करावे लागतात. जे कायदे लोकांच्या अंगवळणी पडून त्यांचे संस्कृतीत रुपांतर झाले त्या विशिष्ट कायद्याची गरज उरत नाही. परंतु तशी परिस्थिती निर्माण होईपर्यंत त्या त्या कायद्याची गरज राहते.
कायद्याची गरज निर्माण होण्याचे दुसरे महत्वाचे कारण की, कायदा मोडणार्या व्यक्तीला शिक्षा करावयाची असेल तर शिक्षा करणार्या शासनकर्त्याला तसा नैतिक अधिकार असणे आवश्यक असते. तरच अशी शिक्षा समाजमान्य होवू शकते. तसे न झाल्यास बळी तो कान पिळी ही प्रक्रिया तात्काळ उदयाला येईल. यासाठी कायद्याचा भंग झाल्यास काय शिक्षा असेल व ती शिक्षा देण्याचा अधिकार कोणकोणत्या व्यक्तीपुरता मर्यादित राहील, हे देखील निर्बंध घातले जातात. परंतु ज्यांना असे अधिकार मिळतात त्यांनी हे विसरता कामा नये की, हे अधिकार त्यांच्याकडे स्वयंभूपणाने आलेले नसून हे समाजाकडून बहाल केलेले अधिकार आहेत (Delegated Power).
आपल्या विभिन्न लॉ कॉलेजमधून लीगल फिलॉसॉफी हा विषय शिकवावा का व त्यामध्ये कोणते मुद्दे समाविष्ट असावेत, हे प्रश्न स्वाभाविकरित्या उत्पन्न होवू शकतात. याची गरज आहे याबाबत मी काही उदाहरणे देवू शकेन :-
(1)जेसिका लाल खून खटल्यामध्ये सेशन जजने असे म्हटले होते की, या केसमध्ये तपासी यंत्रणेने जाणुनबूजून कच्चे दुवे ठेवलेले आहेत. त्यामुळे माझ्या समोरील संशयीत आरोपी हाच निश्चितपणे गुन्हेगार आहे असे स्पष्ट दिसत असूनही मी त्याला गुन्हेगार घोषित करु शकत नाही किंवा शिक्षा करु शकत नाही.
यानंतर लोकमताच्या रेटयामुळे जेसिका लालची केस पुन्हा उभी राहीली. परंतु अशा लोकमताचा रेटा प्रत्येक वेळी मिळेल याचा शाश्वती नसते. अशा वेळी तपासणी यंत्रणेबाबत काय करावे, काय केले जाते इत्यादि प्रश्नांची चर्चा लीगल फिलॉसॉफी या विषयाअंतर्गत होवू शकते. परंतु असा अभ्यासाचा विषय नसल्यामुळे या प्रक्रियेतील ही जी मोठी त्रुटी आपल्याला जागोजागी दिसते त्याचे संपूर्ण गांभीर्य चर्चेत येत नाही व त्या त्रुटीची दुरुस्ती पध्दतशीररित्या (Systematically) होत नाही.
(2) एकूण गुन्हयापैकी छोटे गुन्हे बाजूला काढून त्यांची त्वरीत सुनावणी, त्वरीत निकाल, व होणारी शिक्षा छोटीशीच असली तरी त्वरीत लागू अशी न्याय व्यवस्था न आणता आपण पूर्वापार चालत आलेली दीर्घ प्रक्रियेची न्याय व्यवस्था चालू ठेवली आहे. याचे एक उदाहरण पाहू या. कटक येथील अंजना मिश्रा या उच्चशिक्षीत व उच्च आर्थिक वर्गातील स्त्रीवर बंदुकीचा धाक दाखवून सामुहिक बलात्कार करण्यात आला, त्यात पोलीसांनी नोंदविलेले गुन्हे खालीलप्रमाणे आहेत :-
अ) (सर्वात कमी गांभीर्याचा) आर्म लायसन्स नसताना पिस्तुल बाळगणे.
आ) (त्याहून अधिक गांभीर्याचा गुन्हा) तीच्या ड्रायव्हरला जीवे मारण्याची धमकी देणे.
इ) (त्याहून अधिक गांभीर्याचा गुन्हा) बलात्कार,
ई) (त्याहून अधिक गांभीर्याचा गुन्हा) सामुहिक बलात्कार,
उ) (त्याहून सर्वात अधिक गांभीर्याचा गुन्हा) कट रचून सामुहिक बलात्कार व या कटात
महाअधिवक्ता यासारख्या उच्चपदस्थ व्यक्तीचा सहभाग असणे.
फिर्यादीमध्ये पकडल्या गेलेल्या 4 गुन्हेगारांपैकी 3 गुन्हेगारांनी पहिले दोन्ही गुन्हे कबूल केलेले आहेत. प्रमुख आरोपी साहू याने पुढील दोन गुन्हेही कबूल केलेले आहेत. तरी देखील सुमारे 150 वर्षापूर्वी ब्रिटिशांनी केलेला कायदा जो आजही आपल्या देशात तसाच लागू आहे, तो उद्धृत केला जातो. त्यामध्ये एकाच प्रसंगी घडलेले सर्व गुन्हे एकत्रितपणे चौकशी करुन एकत्रितपणे न्यायालयासमोर आणावे असा नियम लिहून ठेवला असल्याने व वरील प्रकरणातील पाचव्या गुन्हयामध्ये महाअधिवक्ता सामील असल्यामुळे चौकशी पूर्ण करण्यासाठी विलंब लागत असल्याने अद्यापपर्यंत ही केस चौकशीसाठी न्यायालयासमोर उभी राहीलेली नाही.
ही घटना सन 1999 मधील आहे. अशा प्रसंगी कमी गांभीर्याचा, सबब कमी शिक्षा होणारा, परंतु तात्काळ सिध्द होवू शकणारा गुन्हा महणजेच पहला गुन्हा वेगळा करुन तातडीने सुनावणीस आणला तर आपले शासन गुन्हेगाराला छोटी का होईना, पण त्वरित शिक्षा करते असा विश्वास लोकांमधे बसेल. परंतु तसे होत नाही.
तेलगी प्रकरणात बर्याच छोटया गुन्हयांचे पुरावे तात्काळ उपलब्ध असूनही त्यासोबत घडलेल्या मोठया गुन्हयांच्या तपासाच्या कारणासाठी कित्येक वर्षे केस सुनावणीस न येता, कित्येक आरोपी जामीनावर सुटले गेलेत. याच प्रमाणे BMW केसमधील नंदा तसेच सलमान खान यांनी दारुच्या नशेत गाडी चालवून मनुष्य वध करुनही खटले रेंगाळलेले आहेत किंवा चिंकारा हत्या प्रकरणी सलमान खान, पतौडीचा नबाब इत्यादि काही आरोपी कित्येक वर्षे जामीन मिळवून मोकळेपणाने फिरत आहेत. तसेच बॉम्बस्फोटातील खटल्याचे निकाल लागायला किंवा वरिष्ठांकडून झालेल्या भ्रष्टाचाराच्या खटल्यांना देखील कित्येक वर्ष वेळ लागलेला आहे.
सबब, प्रश्न उपस्थित होतो की, आपल्याला प्रदीर्घ चौकशी करुन प्रदीर्घ काळानंतर निकाल देणारी व त्यांत कदाचित झालीच तर खूप मोठी शिक्षा देणारी न्याय संस्था हवी की, त्यामधील छोटया चौकशा जलद गतीने पूर्ण करुन त्यातील छोटया गुन्हयांची छोटी शिक्षा तातडीने देवू शकणारी न्याय व्यवस्था हवी. लीगल फिलॉसॉफी हा विषय अभ्यासक्रमात घेतल्याखेरीज या मुद्यांची तड लागू शकत नाही.
(3) सुमारे दीड-दोनशे वर्षापूर्वी केलेला इंडियन एव्हिडन्स ऍक्ट आपण अजूनही जसाच्या जसा वापरतो. यातील एका नियमाने एखाद्या साक्षीदारास कोर्टात बोलावण्यासाठी समन्स काढण्याचे अधिकार कोर्टाला आहेत व साक्षीदाराने हजर राहण्यास टाळाटाळ केली तर पकड वॉरंट काढण्याचे अधिकार कोर्टाला आहेत. हा नियम करताना साक्षीदाराला नेमक्या कोणत्या शब्दात समन्स जारी करावेत, ते ठरवून दिलेले आहेत. समन्सची ही भाषा प्रथम दर्शनी अतिशय बोचणारी, व उर्मट आहे. साक्षीदार या स्थायीभाव असतो. अगदी आपला देश स्वतंत्र आणी कल्याणकारी म्हणवत असला तरी.
देशाचा सुजाण नागरिक आहे व त्याच्या योग्य साक्षीमुळे कायदा आणि सुव्यवस्था पुढे नेण्यास मदत होणार असल्याने तो शासनाचा व न्यायप्रक्रियेचा उपकारकर्ता आहे ही जाणीव सर्वथा नसणारी भाषा वापरण्यात आलेली आहे. ब्रिटिश राजवटीत त्यांच्या दृष्टीने या देशातील सर्व नागरिक (नेंटिव) कःपदार्थ होते. परंतु आता देश स्वतंत्र झाल्यानंतरही एखाद्या प्रकरणी मला माहितीसाठी बोलावताना पोलीसांनी किंवा न्यायसंस्थेने ती मग्रुरीची भाषा वापरावी का? याचा विचारही न करू शकणारी आपली संवेदनाशून्य न्यायव्यवस्था असावी कां ? पण आजपर्यंत कोण्याही समन्स काढणा-या न्यायमूर्तीला आपण देशातील सुजाण व उपकारक अशा नागरिकाला उर्मट वागणूक देत आहोत हे कळलेले नाही. कारण उर्मट वागणे हाच शासनाचा स्थायीभाव आहे, अगदी हा देश माझा माझाच आहे असं कुणीही घोकलं तरी.
शिवाय आपल्या न्यायालयाची किंवा शासनाची भूमिका अशी असते की “It has been brought to our notice” त्यामुळे कुणीतरी पुढे होऊन नजरेला आणून न्याय मागितला नाही तर कुणीही पुढाकार घेत नाही, घेतलाच तर जणू कांही सर्व धावपळ करण्याची त्याचीच जबाबदारी आहे व त्याचा प्रस्ताव सर्व बाजूंनी perfect आहे हे सिद्ध होईपर्यंत त्याचे पुढे कांहीही न होऊ देण्याची जबाबदारी आपली आहे अशा भावनेने शासनातील इतर सर्व वागतात.
(4) यातील शेवटचे उदाहरण पाहू या. एखाद्या आरोपीने गुन्हा केलेला असतो व बचाव पक्षाच्या वकीलालाही या प्रकरणातील सत्य काय आहे हे माहित असते. अशा वकीलांनी न्यायप्रक्रियेची प्रतिष्ठा टिकवून ठेवण्याची शपथ घेतलेली आहे. कोर्टात युक्तिवाद करतांना त्याच्या डोळयासमोर सत्यमेव जयते हे वाक्य लिहिलेले असते व सत्याचा विजय झाला तरच न्यायाची प्रतिष्ठा टिकते हे ही त्याला कळत असते. सत्याची प्रतिष्ठा वाढली व गुन्हेगाराला योग्य शिक्षा मिळाली तरच समाजाची एकूण सुरक्षा टिकते व तशी टिकण्यानेच न्यायदान करणा-या जजची आणी स्वतः त्या वकिलाची सुरक्षा टिकते हे ही त्या दोघांना कळते. तरी देखील गुन्हा कबूल करुन गुन्हयाची शिक्षा कमी करावी असा युक्तीवाद न करता किंवा गुन्हा घडण्याला परिस्थिती कारणीभूत होते सबब निर्दोष सोडावे किंवा कमी शिक्षा करावी असा युक्तिवाद न करता, गुन्हा झालाच नव्हता अशा प्रकारचा युक्तिवाद केला जातो. तो ही अशीलाचा बचाव हीच माझी नैतिक जबाबदारी असा नैतिक आव आणून. परंतू अशा प्रकारे समाजात असत्य पसरण्यास तो वकीलही कारणीभूत असतो. या नैतिक बाबीकडे कोणाचेही लक्ष जात नाही. “मी तुझ्यापेक्षा अधिक चलाखी करु शकतो, तू जास्त चलाख असशील तर दाखव गुन्हा सिध्द करुन” अशी बचाव पक्षाची भूमिका असते आणि यालाच नैतिकता असे म्हटले जाते.
कित्येक स्मॉल केसेस कोर्टात रोजच्या रोज भाडयाने आणल्या जाणा-या खोटया साक्षीदारांची ओळख त्या न्यायालयांच्या आवारात सर्वांनाच असते परंतू ज्या शपथेवर अशा साक्षीदारांची जराही निष्ठा नाही, अशा साक्षीदारांने फक्त तोंडातून "मी शपथपूर्वक खरे सांगतो की," एवढे शब्द उच्चारले की, आपल्या न्यायदानासाठी ते पुरेसे ठरते.
न्यायदानाचे मूळ उद्दिष्ट काय असते किंवा कायदयाचे मुळ उद्दिष्ट काय असते? एखाद्या परिस्थितीला पुरेसे उत्तर देणारे कायदे अस्तित्वात नसतील तर अशा वेळेला एकेका केसपरत्वे सुप्रीम कोर्टाने दिलेले निकाल हा कायदा आहे असे मानून त्याप्रमाणे शासन व्यवहार चालवावे व शासनाने समग्र कायदा करेपर्यन्त सुप्रीम कोर्टाचा निर्णय हाच कायदा प्रमाण मानावा, असा आपल्याकडे संकेत आहे. या तत्वाला अनुसरुन सुप्रीम कोर्टाने कित्तेक महत्वाचे व समाजोपयोगी निर्णय दिलेले आहेत. अशा निर्णयांचे कायद्यात रूपांतर झाले नसेल तोपर्यन्त त्याच विषयाबाबत समाजात कितपत चर्चा होते? किंवा का होत नाही? हा सर्वांच्या दृष्टीने महत्वाचा मुद्दा आहे. लीगल फिलॉसॉफी हा विषय शिक्षणक्रमात ठेवला तर अशा मुद्याची चर्चा पध्दतशीरपणे होऊ शकेल.
यासंदर्भात सुप्रीम कोर्टाच्या सन 1992 मध्ये उन्नीकृष्णन या मुलीच्या केसमध्ये दिलेला निकाल महत्वाचा आहे. कॅपिटेशन फी च्या नावाने भरपूर काळा पैसा जमा करणार्या शिक्षण सम्रांटांविरुध्द निकाल देतांना व उन्नीकृष्णन हिचा, उच्च शिक्षणाचा अधिकार मान्य ठरवितांना सुप्रीम कोर्टाने तीन महत्वाचे निर्देश निकालात नमूद केले.—
क) जास्त पैसे देवून प्रवेश मिळवू इच्छिणार्या प्रत्येक विद्यार्थ्यांसोबत 1:1 या तत्वाने शासकीय फी इतकीच (कमी) फी भरणार्या एका मुलास प्रवेश देणे हे कॅपिटेशन फी घेणार्या त्या शिक्षण संस्थेस बंधनकारक राहील. थोडक्यात एका धनी बाळाच्या पाठीमागे एका गुणी
बाळाला कमी फी देवून प्रवेश मिळू शकेल.
ख) फीची सर्व रक्कम मग ती कमी दराने असो किंवा वाढीव दराने असो, ती शासनाने ठरवून
दिलेली असेल व त्यासाठी रीतसर पावती दिली जाईल.
ग) प्रवेश देणार्या सर्व शिक्षण संस्थांनी त्यांच्याकडे आलेल्या अर्जाची मेरीट लिस्ट लावून मेरीट प्रमाणे ज्या विद्यार्थ्याचा अगोदर नंबर लागतो, त्यालाच पहिली संधी दिली पाहिजे. असे तत्व कमी फी देणार्या व वाढीव फी देणारा अशा दोन्ही तर्हेच्या विद्यार्थ्यांसाठी लागू राहील.
सन 1992 ते 2004 या 12 वर्षाच्या काळात सुप्रीम कोर्टाच्या या निर्णयामुळे लाखो हुशार परंतु भ्रष्टाचाराने पैसे न देवू शकणार्या मुलांचा फायदा झाला व समाजात बुध्दिमत्ता आणि भ्रष्टाचारी नसणे या दोन गुणांना वाव आहे असे चित्र त्या संस्कारक्षम मुलांच्या मनावर अप्रत्यक्षरितीने का होईना नोंदले गेले.
या केसची प्रदीर्घ चर्चा झाली असती तर हा महत्वाचा समाज-गुण प्रत्यक्षपणे सर्वांच्या जाणिवेत उतरला असता तसेच त्याची उपयोगिता समाजाला पटली असती. पण तसे न झाल्याने सन 2004 मध्ये एका कॅपिटेशन फी घेणार्या शिक्षण संस्थेने पुन्हा सुनावणीची मागणी करुन मागील निकाल रद्द ठरवून घेतला, तेव्हा समाजातील गरजू, बुध्दिमान व भ्रष्टाचाराला थारा न देणार्या विद्यार्थ्यांची बाजू मांडायला कोणीही नव्हते. त्यामुळे पहिला निकाल पुन्हा एकदा फिरवून सुप्रीम कोर्टाने शिक्षण संस्थांना मनमानेल ती कॅपिटेशन फी घेण्यास परवानगी दिली आहे.
याच प्रमाणे सध्या डाऊ कंपनीमुळे उपस्थित झालेल्या डाऊ विरुध्द वारकरी या संघर्षात देखील डाऊ कंपनीने कोर्टात शासनाविरुध्द अर्ज करुन शासनाने संरक्षण दिले पाहिजे, अशी मागणी केली. त्यास शासनाने कबूली दिली व कोर्टाने आदेश दिले की, डाऊ कंपनीला शासनाने संरक्षण द्यावे. परंतु ज्या वारकरी आंदोलनाच्या कारणासाठी संरक्षण मागण्याची वेळ आली त्या वारकर्यांचे व गावकर्यांचे मत काय होते, याची चर्चा झालीच नाही. याच मालिकेत बसणा-या कित्येक भूखंड बळकाव केसेस माझा माहितीत आहेत. त्यामध्ये एखाद्या शासकीय संस्थेची जागा (किंवा बांधलेली घरे) कोणीतरी बळकावतो. त्याला नोटीस काढून जागा खाली करणयास सांगितल्यावर तो कोर्टात जातो. तिकडे सरकार तर्फे बाजू मांडली जात नाही किंवा थातूर-मातूर मांडली जाते. कारण सर्व सरकारी वकील हे शासनातील या त्या राजकीय पक्षांची मर्जी राखणारे असल्यानेच त्यांची नेमणूक झालेली असते. त्यांना पुरेपूर माहीत असते की केसमधे बळकावणारी बाजू जिंकेल हे पहायचे आहे. अशा प्रकारे कोर्टाचा निकाल त्या जमीन बळकाव टोळीच्या बाजूने लागतो. त्याचे सोयर सुतक सरकार नावाच्या कुणालाही नसते. मात्र टोळीच्या फायद्यामधील वाटा रीतसर संबंधितांना मिळतोच. थोडक्यात आपल्या बेकायदेशीर व्यवहारांना कोर्टाकडून अधिष्ठान मिळवून घेण्याचा हा सर्व कारभार राजरोस चालतो. यांची दखल घेण्यासाठी फोरम काय?
अशा प्रकारची शेकडो केसेसची उदाहरणे देता येतील.
हे सर्व पाहिल्यानंतर आपली लीगल फिलॉसॉफी काय आहे, आपल्या कायद्यांचे नैतिक अधिष्ठान काय आहे, ते कोण जपेल व त्या जपण्यामध्ये कायद्याचे शिक्षण देणार्या संस्थांची काय भूमिका असेल ही चर्चा कायद्याच्या शिक्षणक्रमामध्येच होणे गरजेचे वाटते.
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for Antarnad
माहिती अधिकारी यांचे उत्तर असे प्रसन्न असावे.-- A good method for RTI replies
माझ्या विभागांत काम करणारे सर्व जन माहिती अधिकारी यांना सूचना दिलेली आहे की त्यांनी खालील नमुन्याप्रमाणे माहिती द्यावी. याप्रकारे उत्तर देण्याने हळूहळू त्यांच्या मानसिकतेत बदल होऊन आता त्यांना माहिती अधिकाराखालील प्रश्न हे संकट वाटत नाहीत.
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नमुना
महाराष्ट्र शासन
क्रमांक :
सामान्य प्रशासन विभाग,
मंत्रालय, मुंबई - 400 032.
दिनांक :
प्रति,
विषय : माहिती अधिकार कायदा - 2005 अंतर्गत आपला अर्ज.
महोदय,
महिती अधिकार कायदा 2005 अंतर्गत आपला दिनांक .....................चा अर्ज दिनांक ..................... रोजी या विभागास प्राप्त झाला.
2. आपण माहिती अधिकाराअंतर्गत जी माहिती विचारलेली आहे त्याबद्दल आपले आभार व्यक्त करत आहोत कारण आपण विचारलेल्या माहितीमुळे लोकशाही सुदृढ होण्यास मदत होते, शासनात पारदर्शकता निर्माण होते. तसेच ाम्हाला आमचे चांगले उपक्रम आपणापर्यंत पोचवण्याची संधी मिळते.
3. याप्रकरणी अपिलीय अधिकारी ................................... हे आहेत. आता आम्ही पाठवीत असलेल्या उत्तराने आपले समाधान न झाल्यास आपण आम्हांला पुन्हा लिहू शकता किंवा अपीलीय अधिकारी यांचेकडे अपील करू शकता.
4. यापुढेही आपण माहिती अधिकाराअंतर्गत माहिती विचारल्यास ती आपणांस पुरविण्यास आम्हाला आनंद होईल.
5. आमच्या विभागाबाबत माहिती साठी संकेत स्थळ
http://gad.maharashtra.gov.in/english/dcmNew/news/reservationMainShow.php?
6. आपण विचारलेले उत्तर खालीलप्रमाणे
उत्तर................................................................................................
................................................................................................................. आपला,
(.................)
जन माहिती अधिकारी तथा
अवर सचिव, महाराष्ट्र शासन
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नमुना
महाराष्ट्र शासन
क्रमांक :
सामान्य प्रशासन विभाग,
मंत्रालय, मुंबई - 400 032.
दिनांक :
प्रति,
विषय : माहिती अधिकार कायदा - 2005 अंतर्गत आपला अर्ज.
महोदय,
महिती अधिकार कायदा 2005 अंतर्गत आपला दिनांक .....................चा अर्ज दिनांक ..................... रोजी या विभागास प्राप्त झाला.
2. आपण माहिती अधिकाराअंतर्गत जी माहिती विचारलेली आहे त्याबद्दल आपले आभार व्यक्त करत आहोत कारण आपण विचारलेल्या माहितीमुळे लोकशाही सुदृढ होण्यास मदत होते, शासनात पारदर्शकता निर्माण होते. तसेच ाम्हाला आमचे चांगले उपक्रम आपणापर्यंत पोचवण्याची संधी मिळते.
3. याप्रकरणी अपिलीय अधिकारी ................................... हे आहेत. आता आम्ही पाठवीत असलेल्या उत्तराने आपले समाधान न झाल्यास आपण आम्हांला पुन्हा लिहू शकता किंवा अपीलीय अधिकारी यांचेकडे अपील करू शकता.
4. यापुढेही आपण माहिती अधिकाराअंतर्गत माहिती विचारल्यास ती आपणांस पुरविण्यास आम्हाला आनंद होईल.
5. आमच्या विभागाबाबत माहिती साठी संकेत स्थळ
http://gad.maharashtra.gov.in/english/dcmNew/news/reservationMainShow.php?
6. आपण विचारलेले उत्तर खालीलप्रमाणे
उत्तर................................................................................................
................................................................................................................. आपला,
(.................)
जन माहिती अधिकारी तथा
अवर सचिव, महाराष्ट्र शासन
Wednesday, June 18, 2008
पावले टाकतच रहायचे आहे.
पावले टाकतच रहायचे आहे.
- लीना मेहेंदळे, भा.प्र.से.
माझा जन्म एका मध्यमवर्गी सामान्य कुटुंबातला पण IA S मधे आले - मोठ्या अधिकारपदाची नोकरी मिळाली - कौतुक झाल. थोड फार लेखन करत राहिले - त्याचही कौतुक झाल. नोकरीत सामाजिक भावना जपून ठेवली - म्हणूनही लोकमानसांत आपुलकी, कौतुक आणि आदर ही टिकून राहिला.
या सर्व प्रवासाकडे वळून बघतांना आणि पुढचाही विचार करतांना दिसते ती एक किशोर वयीन मुलगी - बारा तेरा वर्षांची. समाजात कांही तरी घडवायच आहे - कांही रूजवायच आहे - चांगुलपणा रुजवायचा आहे - ज्ञान वाढवायचे आहे - विचार आणि कार्यप्रवीणता वाढवायची आहे - ही भावना जपणारी एक मुलगी. आपण ते करू शकतो आणि येस, तेच करणार आहोत - ही भावना असलेली. तो पल्ला खूप लांबचा आणि तरीही नजरेच्या टप्प्यांत आहे असं तेंव्हाही वाटत होत आणि अजूनही वाटत. बरच कांही केल - खूप कांही करता आल नाही, पण करायचे दिवस तर अजून पुढे खूप लांब पर्यंत दिसतात. तेंव्हा न थकता करत रहायच आहे. आजही मला माझ्या जागी ती बारा तेरा वर्षांची मुलगीच दिसते. तिने अजून कांहीच केलेल नाही आणि करायच तर खूप खूप आहे.
मी IA S च्या नोकरीत आले त्याच सुमारास लग्नही झाले. मला महाराष्ट्र कॅडर मिळाल्यामुळे मी आणि मिस्टर मेहेंदळे यांनी पुण्यांत स्थिर होण्याचा निर्णय घेतला. नोकरीच्या अनुषंगाने बदल्यांचे प्रसंग आले ते स्वीकारायची मनाची तयारी केलेली होती. दोन मुले झाली त्यांना नीटपणे वाढवायची व चांगले संस्कार घडवण्याची जबाबदारी देखील याच काळांत आली. त्यांत माहेर व सासर मधील सा-यांनीच मदत केली.
मला लहानपणापासून खरेपणाचे नितांत मोल वाटत आलेले आहे. स्वन्पातले वचन देखील चुकवणार नाही असे म्हणणारा सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र, सत्यवचनामुळे जो मर्यादा पुरूषोत्तम ठरला तो श्रीराम आणि सत्य वचनामुळे ज्याचा रथ जमीनीपासून दोन अंगुळ वरून चालायचा युधिष्ठिर - या कथांनी माझ्यावर खरे बोलण्याचे संस्कार केले. तसेच युधिष्ठिराची न्यायप्रियता खूप भावली.
योग: कर्मसु कौशलम् हा कर्मकुशलतेचा सिद्घान्त, तसेच झाडे - पशु - पक्षी - माती - एकंदर पर्यावरणाचे संरक्षण, सत्य व न्यायबुद्घी हे संस्कार मुलांमधे यायचे असतील तर ते आपण आपल्या उदाहरणावरून दाखवल्या शिवाय मुलांमधे कसे उतरणार? म्हणूनच बालपणापासून मनावर उमटलेले हे संस्कार मुलांना वाढवण्याच्या काळांत अधिकच पक्के झाले. म्हणूनच नोकरीतले कामही उठावदार होऊ शकले.
मी असिस्टंट कलेक्टर व ऍडिशनल कलेक्टर म्हणून पुण्यांत काम केले. त्या आठवणींबाबतचा लेख माझी प्रांतसाहेबी मौजने 1998 दिवाळी अंकात प्रसिद्घ केला. मधेच दहा महिने मंत्रालयात शिक्षण विभागात उप सचिव म्हणून आले. त्याच वेळी व्यवसाय शिक्षण हा नवीन विषय मांडला जात होता ते सर्व काम माझ्याकडे आले. व्यवसाय शिक्षणाची किती मोठी गरज आहे, त्याचे फायदे, त्याची व्याप्ती इत्यादी धोरणात्मक टिप्पण्या तयार केल्या. पुण्याला संचालनालय उघडले. पण आज 30 वर्षानंतर आपण कुठे आहोत ? महाराष्ट्रांत दहा ते पस्तीस वयोगटात सुमारे साडेचार कोटी लोकसंख्या आहे. या पैकी फार कमी लोकांना प्रचलित शिक्षणातून चांगली नोकरी मिळू शकते. इतरांना व्यवसाय शिक्षणच तारू शकते. पण आजही आपल्याकडे वर्षाला फक्त जेमतेम अडीच लाख विद्यार्थीच व्यवसाय शिक्षण घेऊ शकतात. म्हणजे माझे तेंव्हाचे प्रयत्न वाया गेले असे म्हणायचे कां ? पण इतर पोस्टिंग्स करतांना विशेषत: W M D C व P C R A च्या काळांत याच संकल्पना उपयोगी पडल्या आणि आता सामाजिक विकास समन्वय ही जबाबदारी पार पाडतांना समाजाच्या विकासातील मोठा गॅप भरून काढण्यासाठी व्यवसाय शिक्षणाची व्याप्ति वाढवा, तसेच त्यातील प्रचलित रटाळ पद्घती काढून नवीन पद्घती वापरा - उदा. व्हिडीयो - अस मी ठामपणे सांगू शकते.
औरंगाबाद आणि सांगली जिल्हापरिषदेत असतांना वॉटर कन्झर्व्हेशन, शिक्षण, ग्रामीण स्वच्छता, गोबर गॅस प्लॅन्ट या विषयांवर खूप शिकायला आणि प्रयोग करायला मिळाले. सांगलीला कलेक्टर असतांना जत तालुक्यांतील येलम्माच्या देवळांत देवदासी म्हणून मुलींना सोडायची प्रथा होती - ती बंद करायला गेले आणि त्यांतून देवदासींच्या आर्थिक पुनर्वसनाचा अभिनव कार्यक्रम हाती घेतला. पुढील चार वर्षांत या कामाला चांगले यश आले, पण माझी W M D C ची पोस्टिंग संपली आणि हे काम W M D C ने हे काम हळू हळू मागे टाकले. त्या कामांतून कितीतरी गोष्टी पुढे आल्या. शासनाची अतिशय चुकीची ऑडिट सिस्टम, विकासाच्या योजनांमधे रिस्क ऍनॅलिसिस चे तंत्र न शिकवल्यामुळे व रिस्क फॅक्टर ची दखल न घेतल्यामुळे काम न करणारा अधिकारी सगळ्यांत सेफ - कारण त्याच्याकडून ऑडिटच्या चुका घडूच शकत नाहीत, काम करणारा अधिकारी मात्र अनसेफ कारण प्रसंगी त्याचे निर्णय चुकू शकतात, तंत्र शिक्षणातील एकांगीपणा - त्यामध्ये उद्योजकता व फॉरवर्ड - बॅकवर्ड - लिंकेजेसच्या प्रशिक्षणाचा अभाव असें सर्व मुद्दे प्रकर्षाने जाणवले. स्त्रियांच्या प्रश्नांचे
विविध कंगोरे या दोन ग्रामीण पोस्टिंग मधून कळले. सांगलीच्या एका दूरस्थ गांवातील वृद्घ महिलेने म्हटलेले शब्द नेहमी आठवतात - “बाई, कधी नव्हे ते तू बाईमाणूस कलेक्टर झालीस. मग दारूपायी कसे बायामाणसांचे संसार धुळीला मिळतात ते बघ - नवरा मारहाण करतो - मुलांचे हाल बघवत नाहीत - या काबाडकष्टांत बाई कशी जगते ते पहा आणि तुझी कलेक्टरकी वापरून आधी सर्व दारूची दुकानं बंद कर. त्या शिवाय ग्रामीण स्त्रीच आयुष्य सुखी होणार नाही”.
माझ्या पटीने मी शाळेच्या किंवा धार्मिक स्थळांच्या आसपास चालणारी, अनधिकृतपणे चालणारी दुकाने बंद करू लागले. एका शाळेजवळील अनधिकृत दुकान काढण्यासाठी मी जातीने तिथे उभी राहिले. आजूबाजूला कित्येक गांवकरी, शाळकरी - मुले ते दृश्य पहात होती. खूप वर्षांनी एका व्यक्तीने फोनवर आठवण सांगितली - बाई, त्या दिवशी मी पण तिथेच होतो - शाळेच्या सातवीचा विद्यार्थी. मी व माझ्या मित्रांनी म्हटले - असाच अधिकारी पाहिजे. त्याच दिवशी आमच्या शिक्षकाच्या मुलीचे बारसे झाले. सर्व विद्यार्थ्यांनी आग्रहाने तिचे नांव लीना ठेवले. आज मी केंद्र शासनात क्लास वन अधिकारी आहे. माझ्या तर्फे शक्य तेवढे सिन्सिअरली व ईमानदारीने काम करतो. काही लोकोपयोगी काम होईल हा प्रयत्न करतो.
सांगलीहून बदलून W M D C मधे रूजू झाल्यावर सांगलीला सुरू केलेले देवदासी आर्थिक पुनर्वसनाचे काम आता सोडून द्यावे लागणार अशी खंत होती - कारण हे पडले उद्योग खाते. ही खंत घेऊन विद्यार्थी सहायक समितीच्या डॉ. अच्युतराव आपटे यांना भेटले आणि त्यांनी ब्यूरोक्रसीच्या झापडबंद चौकटी कशा तोडाव्यात ते शिकवले - “W M D C मधे तुम्हाला देवदासींचे काम का करता येणार नाही - बघा एकदा W M D C चे सर्व नियम उलगडून”. मी पाहिले - खरेच त्यांना शेवटचे सर्वसमावेशक कलम होते - उद्योजकता वाढीसाठी जे करावे लागेल ते सर्व. मग आम्हीं तरी देवदासींना उद्योगाकडेच वळवायचे म्हणत होतो ना ! या मुद्याला अध्यक्ष श्री.उल्हास पवार व सर्व सदस्य आणि अधिका-यांनी साथ दिली आणि आम्हीं पुढील तीन वर्षे तो उपक्रम राबवला. शासनस्तरावर मात्र हे काम समाज कल्याण विभागानेच करायचे (आता महिला कल्याण विभागाने) असा दंडक होता कां - हा अजूनही अनुत्तरित प्रश्न त्यांना उद्योजकता या शब्दाची - अनभिज्ञता. त्यामुळे देवदासी असेल तर पेन्शन आणि लग्नांत मंगळसूत्र अशा दोन योजना !
आपल्या योजना आत्मनिर्भरतेकडे नेणा-या कां नसाव्यात ? कारण तशा योजना राबवायला चिकाटी, वाट पहाण्याची तयारी आणि ध्यास हे गुण अत्यावश्यक आहेत. त्याऐवजी पटकन - दिले म्हणणं कितीतरी सोपं. मला एका रिटायर्ड मुख्याध्यापकांनी सांगितलेली शिकवण आठवते - शंकराला अभिषेक करायचा असेल तर अभिषेकपात्र धाडकन उपड करून नाही चालत. थेंबा थेंबाने अभिषेक व्हावा लागतो आणि तेवढा वेळ - तुम्हाला समोर बसावे लागते. तेवढी चिकाटी नसेल तर अभिषेकाचा संकल्प सोडू नका.
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मटा. दि. 22 जून 2008
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- लीना मेहेंदळे, भा.प्र.से.
माझा जन्म एका मध्यमवर्गी सामान्य कुटुंबातला पण IA S मधे आले - मोठ्या अधिकारपदाची नोकरी मिळाली - कौतुक झाल. थोड फार लेखन करत राहिले - त्याचही कौतुक झाल. नोकरीत सामाजिक भावना जपून ठेवली - म्हणूनही लोकमानसांत आपुलकी, कौतुक आणि आदर ही टिकून राहिला.
या सर्व प्रवासाकडे वळून बघतांना आणि पुढचाही विचार करतांना दिसते ती एक किशोर वयीन मुलगी - बारा तेरा वर्षांची. समाजात कांही तरी घडवायच आहे - कांही रूजवायच आहे - चांगुलपणा रुजवायचा आहे - ज्ञान वाढवायचे आहे - विचार आणि कार्यप्रवीणता वाढवायची आहे - ही भावना जपणारी एक मुलगी. आपण ते करू शकतो आणि येस, तेच करणार आहोत - ही भावना असलेली. तो पल्ला खूप लांबचा आणि तरीही नजरेच्या टप्प्यांत आहे असं तेंव्हाही वाटत होत आणि अजूनही वाटत. बरच कांही केल - खूप कांही करता आल नाही, पण करायचे दिवस तर अजून पुढे खूप लांब पर्यंत दिसतात. तेंव्हा न थकता करत रहायच आहे. आजही मला माझ्या जागी ती बारा तेरा वर्षांची मुलगीच दिसते. तिने अजून कांहीच केलेल नाही आणि करायच तर खूप खूप आहे.
मी IA S च्या नोकरीत आले त्याच सुमारास लग्नही झाले. मला महाराष्ट्र कॅडर मिळाल्यामुळे मी आणि मिस्टर मेहेंदळे यांनी पुण्यांत स्थिर होण्याचा निर्णय घेतला. नोकरीच्या अनुषंगाने बदल्यांचे प्रसंग आले ते स्वीकारायची मनाची तयारी केलेली होती. दोन मुले झाली त्यांना नीटपणे वाढवायची व चांगले संस्कार घडवण्याची जबाबदारी देखील याच काळांत आली. त्यांत माहेर व सासर मधील सा-यांनीच मदत केली.
मला लहानपणापासून खरेपणाचे नितांत मोल वाटत आलेले आहे. स्वन्पातले वचन देखील चुकवणार नाही असे म्हणणारा सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र, सत्यवचनामुळे जो मर्यादा पुरूषोत्तम ठरला तो श्रीराम आणि सत्य वचनामुळे ज्याचा रथ जमीनीपासून दोन अंगुळ वरून चालायचा युधिष्ठिर - या कथांनी माझ्यावर खरे बोलण्याचे संस्कार केले. तसेच युधिष्ठिराची न्यायप्रियता खूप भावली.
योग: कर्मसु कौशलम् हा कर्मकुशलतेचा सिद्घान्त, तसेच झाडे - पशु - पक्षी - माती - एकंदर पर्यावरणाचे संरक्षण, सत्य व न्यायबुद्घी हे संस्कार मुलांमधे यायचे असतील तर ते आपण आपल्या उदाहरणावरून दाखवल्या शिवाय मुलांमधे कसे उतरणार? म्हणूनच बालपणापासून मनावर उमटलेले हे संस्कार मुलांना वाढवण्याच्या काळांत अधिकच पक्के झाले. म्हणूनच नोकरीतले कामही उठावदार होऊ शकले.
मी असिस्टंट कलेक्टर व ऍडिशनल कलेक्टर म्हणून पुण्यांत काम केले. त्या आठवणींबाबतचा लेख माझी प्रांतसाहेबी मौजने 1998 दिवाळी अंकात प्रसिद्घ केला. मधेच दहा महिने मंत्रालयात शिक्षण विभागात उप सचिव म्हणून आले. त्याच वेळी व्यवसाय शिक्षण हा नवीन विषय मांडला जात होता ते सर्व काम माझ्याकडे आले. व्यवसाय शिक्षणाची किती मोठी गरज आहे, त्याचे फायदे, त्याची व्याप्ती इत्यादी धोरणात्मक टिप्पण्या तयार केल्या. पुण्याला संचालनालय उघडले. पण आज 30 वर्षानंतर आपण कुठे आहोत ? महाराष्ट्रांत दहा ते पस्तीस वयोगटात सुमारे साडेचार कोटी लोकसंख्या आहे. या पैकी फार कमी लोकांना प्रचलित शिक्षणातून चांगली नोकरी मिळू शकते. इतरांना व्यवसाय शिक्षणच तारू शकते. पण आजही आपल्याकडे वर्षाला फक्त जेमतेम अडीच लाख विद्यार्थीच व्यवसाय शिक्षण घेऊ शकतात. म्हणजे माझे तेंव्हाचे प्रयत्न वाया गेले असे म्हणायचे कां ? पण इतर पोस्टिंग्स करतांना विशेषत: W M D C व P C R A च्या काळांत याच संकल्पना उपयोगी पडल्या आणि आता सामाजिक विकास समन्वय ही जबाबदारी पार पाडतांना समाजाच्या विकासातील मोठा गॅप भरून काढण्यासाठी व्यवसाय शिक्षणाची व्याप्ति वाढवा, तसेच त्यातील प्रचलित रटाळ पद्घती काढून नवीन पद्घती वापरा - उदा. व्हिडीयो - अस मी ठामपणे सांगू शकते.
औरंगाबाद आणि सांगली जिल्हापरिषदेत असतांना वॉटर कन्झर्व्हेशन, शिक्षण, ग्रामीण स्वच्छता, गोबर गॅस प्लॅन्ट या विषयांवर खूप शिकायला आणि प्रयोग करायला मिळाले. सांगलीला कलेक्टर असतांना जत तालुक्यांतील येलम्माच्या देवळांत देवदासी म्हणून मुलींना सोडायची प्रथा होती - ती बंद करायला गेले आणि त्यांतून देवदासींच्या आर्थिक पुनर्वसनाचा अभिनव कार्यक्रम हाती घेतला. पुढील चार वर्षांत या कामाला चांगले यश आले, पण माझी W M D C ची पोस्टिंग संपली आणि हे काम W M D C ने हे काम हळू हळू मागे टाकले. त्या कामांतून कितीतरी गोष्टी पुढे आल्या. शासनाची अतिशय चुकीची ऑडिट सिस्टम, विकासाच्या योजनांमधे रिस्क ऍनॅलिसिस चे तंत्र न शिकवल्यामुळे व रिस्क फॅक्टर ची दखल न घेतल्यामुळे काम न करणारा अधिकारी सगळ्यांत सेफ - कारण त्याच्याकडून ऑडिटच्या चुका घडूच शकत नाहीत, काम करणारा अधिकारी मात्र अनसेफ कारण प्रसंगी त्याचे निर्णय चुकू शकतात, तंत्र शिक्षणातील एकांगीपणा - त्यामध्ये उद्योजकता व फॉरवर्ड - बॅकवर्ड - लिंकेजेसच्या प्रशिक्षणाचा अभाव असें सर्व मुद्दे प्रकर्षाने जाणवले. स्त्रियांच्या प्रश्नांचे
विविध कंगोरे या दोन ग्रामीण पोस्टिंग मधून कळले. सांगलीच्या एका दूरस्थ गांवातील वृद्घ महिलेने म्हटलेले शब्द नेहमी आठवतात - “बाई, कधी नव्हे ते तू बाईमाणूस कलेक्टर झालीस. मग दारूपायी कसे बायामाणसांचे संसार धुळीला मिळतात ते बघ - नवरा मारहाण करतो - मुलांचे हाल बघवत नाहीत - या काबाडकष्टांत बाई कशी जगते ते पहा आणि तुझी कलेक्टरकी वापरून आधी सर्व दारूची दुकानं बंद कर. त्या शिवाय ग्रामीण स्त्रीच आयुष्य सुखी होणार नाही”.
माझ्या पटीने मी शाळेच्या किंवा धार्मिक स्थळांच्या आसपास चालणारी, अनधिकृतपणे चालणारी दुकाने बंद करू लागले. एका शाळेजवळील अनधिकृत दुकान काढण्यासाठी मी जातीने तिथे उभी राहिले. आजूबाजूला कित्येक गांवकरी, शाळकरी - मुले ते दृश्य पहात होती. खूप वर्षांनी एका व्यक्तीने फोनवर आठवण सांगितली - बाई, त्या दिवशी मी पण तिथेच होतो - शाळेच्या सातवीचा विद्यार्थी. मी व माझ्या मित्रांनी म्हटले - असाच अधिकारी पाहिजे. त्याच दिवशी आमच्या शिक्षकाच्या मुलीचे बारसे झाले. सर्व विद्यार्थ्यांनी आग्रहाने तिचे नांव लीना ठेवले. आज मी केंद्र शासनात क्लास वन अधिकारी आहे. माझ्या तर्फे शक्य तेवढे सिन्सिअरली व ईमानदारीने काम करतो. काही लोकोपयोगी काम होईल हा प्रयत्न करतो.
सांगलीहून बदलून W M D C मधे रूजू झाल्यावर सांगलीला सुरू केलेले देवदासी आर्थिक पुनर्वसनाचे काम आता सोडून द्यावे लागणार अशी खंत होती - कारण हे पडले उद्योग खाते. ही खंत घेऊन विद्यार्थी सहायक समितीच्या डॉ. अच्युतराव आपटे यांना भेटले आणि त्यांनी ब्यूरोक्रसीच्या झापडबंद चौकटी कशा तोडाव्यात ते शिकवले - “W M D C मधे तुम्हाला देवदासींचे काम का करता येणार नाही - बघा एकदा W M D C चे सर्व नियम उलगडून”. मी पाहिले - खरेच त्यांना शेवटचे सर्वसमावेशक कलम होते - उद्योजकता वाढीसाठी जे करावे लागेल ते सर्व. मग आम्हीं तरी देवदासींना उद्योगाकडेच वळवायचे म्हणत होतो ना ! या मुद्याला अध्यक्ष श्री.उल्हास पवार व सर्व सदस्य आणि अधिका-यांनी साथ दिली आणि आम्हीं पुढील तीन वर्षे तो उपक्रम राबवला. शासनस्तरावर मात्र हे काम समाज कल्याण विभागानेच करायचे (आता महिला कल्याण विभागाने) असा दंडक होता कां - हा अजूनही अनुत्तरित प्रश्न त्यांना उद्योजकता या शब्दाची - अनभिज्ञता. त्यामुळे देवदासी असेल तर पेन्शन आणि लग्नांत मंगळसूत्र अशा दोन योजना !
आपल्या योजना आत्मनिर्भरतेकडे नेणा-या कां नसाव्यात ? कारण तशा योजना राबवायला चिकाटी, वाट पहाण्याची तयारी आणि ध्यास हे गुण अत्यावश्यक आहेत. त्याऐवजी पटकन - दिले म्हणणं कितीतरी सोपं. मला एका रिटायर्ड मुख्याध्यापकांनी सांगितलेली शिकवण आठवते - शंकराला अभिषेक करायचा असेल तर अभिषेकपात्र धाडकन उपड करून नाही चालत. थेंबा थेंबाने अभिषेक व्हावा लागतो आणि तेवढा वेळ - तुम्हाला समोर बसावे लागते. तेवढी चिकाटी नसेल तर अभिषेकाचा संकल्प सोडू नका.
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मटा. दि. 22 जून 2008
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वेब 16 वर मंगल व pdf file.
हक्कांची जपणूक आणि न्यायबुद्धी.
हक्कांची जपणूक आणि न्यायबुद्धी.
- लीना मेहेंदळे, भा.प्र.से.
नुकतेच ऑल इंडिया सर्व्हिसेसच्या परीक्षांचे निकाल लागले त्यांत पारधी समाजातून पहिल्यांदाच अधिकारी निवडले गेले. त्यांचे मन:पूर्वक अभिनंदन. ग्रामीण भागातूनही चांगल्या प्रमाणात अधिकारी निवडले गेले. या अधिकार्यांनी आपापल्या भागाचे, जाती जमातींचे प्रश्न व दु:ख डोळयापुढे ठेऊन सचोटी व न्यायबुध्दीने काम केले तर भारतीय नोकरशाहीला एक वेगळे वळण मिळू शकेल. महात्मा गांधी म्हणत त्याप्रमाणे खेडोपाडीचा भारत काय आहे हे समजून घेतले तरच देशाची प्रगती होऊ शकेल. यासाठीच जेंव्हा खेड्यापाड्यांतील मुली-मुले प्रशासनात येतात तेंव्हा त्यांचे स्वागतच करायला हवे.
माझा जन्म खेडगांवातला - खान्देशातील धरणगांवचा. ते धाब्याच ऐसपैस घर, आजोबांची लाकडाची वखार, तिथले गल्ल्या, रस्ते, मंदिर, आठवडा बाजार, धरण, शेत - सगळ आजही एवढ स्वच्छ आहे की अंधारात डोळे मिटून मी कूठूनही कुठेही जाऊ शकते. शाळा कॉलेजचं शिक्षण मात्र लांब बिहारच्या दरभंगा या गांवात. हे जिल्ह्याचं ठिकाण असल तरी विचारसरणी जुनाटच होती. मुलींसाठी वेगळी शाळा - शाळेची जुनी पुराणी बस. ती किंवा ड्रायव्हर बिघडले की शाळेला सुट्टी कारण मुली पायी पायी शाळेत कशा जाणार? सुदैवाने ग्रॅज्युएट पालक म्हणून आई शाळेच्या पालक कमिटीवर आली आणि तिने आग्रह धरला की मुलींना पायी किंवा रिक्शाने शाळेत येऊ द्या. मग ती खटारा बसही विकून टाकली गेली आणि एका मानसिक कैदेतून मुली - शिक्षक, पालक आणि शाळा चालक सगळ्यांचीच सुटका झाली. तेंव्हा वडीलांनी एक धाडसी निर्णय घेऊन टाकला - मला सायकल घेऊन दिली - शाळेत, कॉलेजात मी सायकल ने जात राहिले. आठवी ते बी एस्सी - मी सायकल वरून जावं आणि लोकांना रस्त्यांत “छोरी साइकिल चलावै छे” अस म्हणत माझ्याकडे बघत उभ रहावं याची खूप सवय झाली. पहाणा-यांच्या नजरेत आश्चर्य असे - बायका असल्या तर आनंद असे पण चेष्टा मस्करी नव्हती. आपल्याकडे बिहारी कल्चर बद्दल निष्कारणच खूप गैरसमज आहेत. मात्र हे ही खरे की माझ्यानंतरची पुढली सायकल चालवणारी मुलगी तब्बल पंधरा वर्षांनी आली - माझीच सायकल वापरून.
त्या सायकलने मला एक शिकवल - हातात वेग असेल तर आपला आत्मविश्र्वास वाढतो. खूप खूप वर्षानंतर तामिळनाडुच्या मुख्यमंत्री जयललिता यांनी फतवा काढला - सरकारी नोकरीतील सर्व स्त्रियांना मोफत सायकल देण्याचा - आणि मी राष्ट्रीय महिला आयोगात होते तेंव्हा एका अभ्यासात असे दिसले की या सायकल वाटपानंतर पुढील पाच - दहा वर्ष तामिळनाडुमधली महीलांवरील अत्याचाराची टक्केवारी कमी झाली होती. आजतर स्त्रियांचे सवलीकरण आणि शिवाय पर्यावरण रक्षणासाठी आपण सायकलकडे वळणे गरजेचे आहे.
शाळेत मी हुषार विद्यार्थिनी होते. पुस्तकातल्या धड्यांमुळे तसेच शिक्षकांच्या शिकवण्यामुळे राणा प्रताप, शिवाजी, विवेकानंद, लोकमान्य, सुभाषचंद्र बोस, एवरेस्ट सर करणारा शेरपा तेनसिंग, नर्सिंग व्यवसायांत वेगळे कौशल्य आणि सेवाभाव आणणारी फ्लॉरेन्स नाईटिंगेल आणि सर्व क्रांतिकारक हे माझे आयडॉल्स होते. अभ्यासात सर्वच विषयांची गोडी होती. पण भौतिक शास्त्राची गोष्ट वेगळीच होती. मला आठवतात पहिले दोन प्रयोग - पहिल्यांत फुटपट्टीच्या सहाय्याने लाकडी ठोकळ्याची लांबी मोजतांना पट्टीवरील दोन रेषांच्या मधे ठोकळ्याची कडा येत असेल तर अनुमानाने तीन दशांश का सहा दशांश ते लिहायला शिकवल गेल. फूटपट्टीवर आपण मिलीमीटर पर्यंत अंतर मोजू शकतो. पण त्याहून छोटे अंतर अनुमानाने न मोजता काटेकोर मोजायचे असेल तर कांय? या साठी दुसरा प्रयोग व्हर्नियर कॅलिपर्सचा होता. यामधे दोन पट्टया असतात. एकीवर दहा मिलीमीटर च्या दहा रेषा असतात, पण दुसरीवर नऊ मिलीमीटर अंतराला दहा सम भागात वाटून त्यावर दहा खुणा केलेल्या असतात. त्यामुळे दोन पट्टयांच्या मधे एखादा ठोकळा अडकवल्यावर दुस-या पट्टीची चौथी रेघ पहिल्या पट्टीच्या एखाद्या रेघशी जुळत असेल तर ते काटेकोर मोजमाप चार दशांश मिलीमीटरचे असेल. थोडक्यांत दोन पट्टयांच्या स्केल मधे फरक निर्माण करून आपण एक मिलीमीटरहून छोटे अंतर मोजण्याची युक्ति निर्माण केली. या युक्तिचे मला एवढे अप्रूप वाटले की भौतिक शास्त्र म्हणजे विचार करायला शिकवणारे शास्त्र असे माझे समीकरण बनले. भौतिक शास्त्रातील पुढच्या अभ्यासाने (उदा. आर्किमिडीसचा पाण्यांत उतरल्यावर हलकं कां वाटत हा सिध्दान्त) हे समीकरण वारंवार पक्के होत गेले.
नला लहानपणापासून खरेपणाइतकेच न्यायप्रियतेचेही मोल वाटू लागले. महाभारतातील यक्ष प्रश्न या आख्यानात यक्षाच्या प्रश्नांना उत्तर न देताच तलावाचे पाणी घेण्याचा प्रयत्न करणारे भीम अर्जुन नकुल सहदेव मरून पडतात. युधिष्ठिर तिथे पोचतो. यक्षाने अडवल्यावर तो थांबतो आणि त्याच्या प्रश्नांना समर्पक उत्तरे देतो. तेंव्हा यक्ष प्रसन्न होऊन म्हणतो – चल, मी इतका खूष आहे की तू पाणी तर घेच, पण तुझ्या एका भावालाही जिवंत करतो. सांग कुणाला करू ? युधिष्ठिर म्हणतो नकुलाला कर. यक्ष आश्चर्याने विचारतो - भीम - अर्जुन कां नाहीत ? ते नसतील तर तुझे गमावलेले राज्यही मिळणार नाही. इथे आपल्याला युधिष्ठिराची न्यायबुद्घी दिसून येते. तो म्हणतो मला राज्याची पर्वा नाही. माझ्या वडिलांच्या दोन पत्नी होत्या. त्यापैकी मी - कुंतीपुत्र जिवंत आहे. आता जर एकच भाऊ जिवंत होऊ शकत असेल तर तो माद्रीपुत्र असावा, म्हणजे माझ्या दोन्हीं आयांचा एक एक मुलगा जगेल. यावर अतिप्रसन्न होऊन यक्ष चारही भावांना जिवंत करतो. तुम्ही न्यायबुद्घी दाखवाल तर त्याचे चांगले फळ तत्काळ मिळू शकते. स्वतः केलेली कामे देखील या न्यायबुद्धीच्या तराजूतच तोलली पाहिजेत.
माझ्या नोकरीची सुरुवात आणि मध्य एवढया वर्षाच्या कालावधीत देशाची संपूर्ण आर्थिक विचार प्रणालीच झपाटयाने बदलत होती. पंडित नेहरुंच्या काळात समाजवादी लोकशाहीची संकल्पना रुजली होती. त्यामध्ये कित्येक उद्योगधंदे शासनानेच सुरु करण्याचे धोरण असल्याने पब्लिक सेक्टरची झपाटयाने वाढ झाली. दुसरे धोरण देशांतर्गत उद्योगधंदे वाढीचे होते. त्यासाठी पूरक धोरण असेही होते की देशांतील कच्चा माल देशभरातील सर्व उद्योजकांना उपलब्ध व्हावा. यासाठी कच्च्या मालाचे उत्पादन सरकारी क्षेत्रांच्या मक्तेदारीत राहिले व सरकारी अधिका-यांकडे उद्योगधंद्यांचे लायसेन्स, कच्च्या मालाचा कोटा इत्यादी देण्याचे अधिकार आले. अशा या लायसेन्स राज्यांत काही सरकारी व पब्लिक सेक्टर कंपन्यांनी खूप चांगली कामगिरी करुन दाखवली. पण हळूहळू मोनोपोलीमुळे येणारा उर्मटपणा, आळस, बेदरकारी, बेपर्वा वृत्ती हे अवगुण पण पुढे येऊ लागले. अकौंटेबिलिटीची वाट लागली. आणि मग अचानक प्रायव्हेट सेक्टरचे गोडवे गायले जाऊ लागले. देश जणू लंबकाच्या एका टोकावर होता तो झपाटयाच्या वेगाने फिरला आणि दुस-या टोकावर गेला. या संक्रमणात फक्त आर्थिक धोरणच दुस-या टोकावर नाही गेले तर नैतिकतेचे कित्येक संकेतही उलटे पालटे झाले. आणि आता तर ‘दाग अच्छे हैं’, किंवा ‘जॉब्स युवर पेरेंट्स डोन्ट अंडरस्टॅण्ड’ हे संस्कृतीचे परवलीचे शब्द मानले जाऊ लागले आहेत. हे जे समाजात घडले तेच राजकारणात आणि प्रशासनांतही घडले आहे.
या संक्रमणाची आखणी विचारपूवर्क केली होती असेही नाही. यामुळे देशांतील पूर्वी न सुटलेले प्रश्न तसेच राहिले. लोकसंख्या वाढीचा प्रश्न, अशिक्षण, गरीबी, बेकारी, बालमजुरी, खेडयांकडून शहराकडे पलायन, कृषी क्षेत्राची दुरवस्था --- वाईट सीझन मध्ये तसे नुकसान आणि चांगल्या सीझनमध्ये भाव पडल्याने नुकसान -- फसलेले पुनर्वसन आणि त्यांतच पाणी धोरणाचे अपयश, हे सर्वच मुद्दे तसेच राहिले. स्त्रीभ्रूण हत्ये सारखे नवे प्रश्न निर्माण झाले. मात्र अवकाश - विज्ञान, सागरी विज्ञान, धरणे रस्ते व काही ठराविक प्रांतांनी उद्योग क्षेत्रात केलेली प्रगती ही जमेची बाजू म्हणता येईल. सस्टेनेबिलिटीचा मुद्दा मात्र पार विसरला गेला. यशदा येथे माझे पोस्टिंग ऍडिशनल डायरेक्टर व प्रोफेसर रूरल डेव्हलपमेंट आशी होती. त्या वेळी प्रशिक्षणार्थींना शिकवतांना मी या मुद्यावर भर देत असे.
नव्वदीच्या दशकांत संगणक आले आणि पुढल्या कित्येक - पोस्टवर मी कार्यालयांत संगणक कल्चर आणण्याचे काम प्राथम्याने केले. संगणकातल्या कित्येक युक्त्या शिकून घेतल्या - इतरांना शिकवल्या. त्याचा उपयोग जसा कार्यालयात धाला तसाच स्वतःची वेबसाइट, ब्लॉगसाइट इत्यादी करण्यासाठी पण झाला. बव्हंशी युक्त्या माझ्या मुलांनी मला शिकवल्या आणि आम्हीच कसे गुरू म्हणत आईचा गुरू होण्याची हौस भागवून घेतली. (तू रोज पाढे म्हणून घेतेस - या गोड तक्रारीचा वचपा). तसेच मुलांच्या हक्कासंबंधात त्यांचा आग्रही दृष्टिकोण होता की मुलांच्या मताचा योग्य आदर झालाच पाहिजे. मोठ्या माणसांनी त्यांच्या मताची वकिली करावी किंवा करू नये पण त्यांचा सम्मान मात्र जरूर राखावा. आम्हीही याची कदर केली. आता असे जाणवते की लहानपणी माझ्या आईवडिलांनी देखील आम्हां मुलांच्या मतांची कदर ठेवली होती. नुकताच माझ्याकडे बालहक्क संरक्षण आयोगाचे अतिरिक्त काम देण्यांत आले तेंव्हां मुलांनी पुन्हां आपल्या मुद्याची आठवण करून दिली.
मला केंद्र शासनाकडे मिळालेली पोस्टिंग - नॅचरोपथीची डायरेक्टर, राष्ट्रीय महिला आयोगात संयुक्त सचिव व पेट्रोलियम कन्झर्व्हेशन साठी एक्झीक्यूटिव्ह डायरेक्टर - या तीनही कामांनी मला दिल्लीचे एक्सपोजर तर दिलेच पण खूप वेगळे विषय हाताळतांना त्यांच्या मूळ समस्येपर्यंत जाऊन कस भिडायच ते ही शिकवल. पीसीआरए साठी आकाशवाणीवर “ बूंद बूंद की बात ” कार्यक्रमाचे अडीचशे एपिसोड तर दूरदर्शन वर “ खेल खेल मे बदलो दुनिया ” या कार्यक्रमाचे दोनशे एपिसोड आम्ही केले. त्यातून माझी एक आवडता सिद्घान्त पारखून घेण्याची संधी मिळाली. या दोन्ही माध्यमांचा वापर आनंददायी शिक्षण आणि व्यवसाय शिक्षणासाठी करता येतो आणि करायलाच हवा ही माझी थियरी. तिला भरघोस यश मिळाले. एक दिवस इंटरनेट सर्फिंगमध्ये एका पानवर कॉलेज विद्यार्थ्याचे प्राचार्यांना पत्र वाचायला मिळाले “पीसीआरएचा कार्यक्रम पाहून मी व माझ्या मित्रांनी आपल्या कॉलेजात एनर्जी कन्झर्व्हेशन क्लब स्थापन करायचे ठरवले आहे” - वगैरे. तर एक दिवस आम्ही भोपाळच्या सोयाबीन इन्स्टिटयूटवर दाखवलेला प्रोग्राम पाहून बिहारचा एक तरुण आला - आमच्या मदतीने त्या इन्स्टिटयूटमध्ये महिन्याचे प्रशिक्षण घेतले, स्वत:चा कारखाना काढला आणि एक दिवस नफ्यांत असलेला बॅलेन्स -- शीट घेऊन दाखवायला आला. पण दूरदर्शनचे हे सामर्थ्य अजून दूरदर्शननेही ओळखलेले नाही. मला अजूनही असे वाटते की आत्महत्येपासून शेतकर्यांना परावृत्त करण्यासाठी शासनाला दूरदर्शनचा प्रभावी उपयोग करुन घेता येईल.
महिला आयोगांत असतांना महिलांचे किती म्हणून प्रश्न समोर यावेत ? त्यांना मिळणारी दुटप्पी वागणूक, महिलांच्या तक्रारींच्या निमित्ताने वारंवार जाणवली. सर्व प्रयत्न केले जातात स्त्रीला पुढे न येऊ देण्याचे, तिला हक्क न मिळू देण्याचे - तिला सत्तेत वाटेकरी न होऊ देण्याचे देशाचे ग्रॉस डोमेस्टिक प्रॉडक्ट GDP मोजतांना डोमेस्टिक महिलांच्या - म्हणजे गृहिणींच्या सर्व श्रमांची किंमत शुन्य एवढीच मोजली जाते. त्यांना जमीन नाही, घर नाही, शिक्षण नाही, पोषण नाही, आधार नाही, सुरक्षा नाही, सन्मान नाही, माणूस म्हणून जगण्याचा हक्क नाही --- इतकच नव्हे तर माणूस म्हणून जन्म घेण्याचाही हक्क नाही. महिलांविरुध्द होणार्या अत्याचारांचा विशेष अभ्यास मी 2000-01 या काळात केला. त्यांत बलात्काराचा प्रश्न आहे. हुंडाबळींचा आहे. जाळून मारल्या जाणार्या इतक्या स्त्रिया असतांनाही जळालेल्या स्त्रीला त्वरित प्रभावी उपचार -- देण्यासाठी स्पेशल वार्ड असलेले एकही हॉस्पिटल आपल्या देशात नाही. मुलींचा गर्भ पाडला नाही म्हणून पोटावर लाथा - बुक्क्या खाल्लेल्या स्त्रियाही मी पाहिल्या आहेत. तर डायन असा ठपका लावून गावातून निर्वस्त्र धिंड काढलेल्या स्त्रियांचे अश्रूही पाहिले आहेत. दहा - बारा वर्षानंतर बलात्काराची केस चालवतांना त्या स्त्रियांचे दु:ख साक्षीत दिसून आले नाही, म्हणून आरोपींवर गुन्हा शाबीत होत नाही, अस म्हणणारी आपली एकंदर न्याय व्यवस्था पाहिली तेव्हा वाटल - आपल बोट काल कापल तर आजच त्याच्या दु:खाची तीव्रता कमी होते - आपल्याला जगता यावा म्हणून आपल्या मेंदूत निसर्गानेच तशी सोय केली असते. मग दहा वर्षापूर्वीच्या दु:खाची, जखमांची आणि अपमानाची तीव्रता आजही तितक्याच वेदनेसह व्यक्त करण्याची शिक्षा त्या मुलींना कां? उशीर करायचा शासन यंत्रणेने आणि छळ करुन घ्यायचा त्या मुलींनी ? कां नाही दहा दिवसाच्या आंत तिची साक्ष नोंदवून ठेवता येत ? तिच्यावर झालेल्या गंभीर जखमांचे वर्णन देऊन शेवटी डॉक्टर्स अत्यंत कातडी बचावू निष्कर्ष काढतात --- बलात्कार झाला असल्याची शक्यता नाकारता येत नाही. त्या डॉक्टरांचे प्रशिक्षण कोण करणार ? निव्वळ निर्वाह -- भत्ता मिळावा म्हणून वर्षानुवर्ष कोर्टाच्या चकरा मारणार्या महिलांच्या चकरा कमी करण्यासाठी ज्युडिशिअल रिफॉर्मस कोण आणणार ?
वी हॅव माइल्स ऍण्ड माइल्स ऍण्ड माइल्स टू गो, तेव्हा नेटाने पावले टाकत रहाणे हे तरी आपल्या हातात असतेच ना !
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मटा. दि. 22 जून 2008
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वेब 16 वर मंगल व pdf file.
- लीना मेहेंदळे, भा.प्र.से.
नुकतेच ऑल इंडिया सर्व्हिसेसच्या परीक्षांचे निकाल लागले त्यांत पारधी समाजातून पहिल्यांदाच अधिकारी निवडले गेले. त्यांचे मन:पूर्वक अभिनंदन. ग्रामीण भागातूनही चांगल्या प्रमाणात अधिकारी निवडले गेले. या अधिकार्यांनी आपापल्या भागाचे, जाती जमातींचे प्रश्न व दु:ख डोळयापुढे ठेऊन सचोटी व न्यायबुध्दीने काम केले तर भारतीय नोकरशाहीला एक वेगळे वळण मिळू शकेल. महात्मा गांधी म्हणत त्याप्रमाणे खेडोपाडीचा भारत काय आहे हे समजून घेतले तरच देशाची प्रगती होऊ शकेल. यासाठीच जेंव्हा खेड्यापाड्यांतील मुली-मुले प्रशासनात येतात तेंव्हा त्यांचे स्वागतच करायला हवे.
माझा जन्म खेडगांवातला - खान्देशातील धरणगांवचा. ते धाब्याच ऐसपैस घर, आजोबांची लाकडाची वखार, तिथले गल्ल्या, रस्ते, मंदिर, आठवडा बाजार, धरण, शेत - सगळ आजही एवढ स्वच्छ आहे की अंधारात डोळे मिटून मी कूठूनही कुठेही जाऊ शकते. शाळा कॉलेजचं शिक्षण मात्र लांब बिहारच्या दरभंगा या गांवात. हे जिल्ह्याचं ठिकाण असल तरी विचारसरणी जुनाटच होती. मुलींसाठी वेगळी शाळा - शाळेची जुनी पुराणी बस. ती किंवा ड्रायव्हर बिघडले की शाळेला सुट्टी कारण मुली पायी पायी शाळेत कशा जाणार? सुदैवाने ग्रॅज्युएट पालक म्हणून आई शाळेच्या पालक कमिटीवर आली आणि तिने आग्रह धरला की मुलींना पायी किंवा रिक्शाने शाळेत येऊ द्या. मग ती खटारा बसही विकून टाकली गेली आणि एका मानसिक कैदेतून मुली - शिक्षक, पालक आणि शाळा चालक सगळ्यांचीच सुटका झाली. तेंव्हा वडीलांनी एक धाडसी निर्णय घेऊन टाकला - मला सायकल घेऊन दिली - शाळेत, कॉलेजात मी सायकल ने जात राहिले. आठवी ते बी एस्सी - मी सायकल वरून जावं आणि लोकांना रस्त्यांत “छोरी साइकिल चलावै छे” अस म्हणत माझ्याकडे बघत उभ रहावं याची खूप सवय झाली. पहाणा-यांच्या नजरेत आश्चर्य असे - बायका असल्या तर आनंद असे पण चेष्टा मस्करी नव्हती. आपल्याकडे बिहारी कल्चर बद्दल निष्कारणच खूप गैरसमज आहेत. मात्र हे ही खरे की माझ्यानंतरची पुढली सायकल चालवणारी मुलगी तब्बल पंधरा वर्षांनी आली - माझीच सायकल वापरून.
त्या सायकलने मला एक शिकवल - हातात वेग असेल तर आपला आत्मविश्र्वास वाढतो. खूप खूप वर्षानंतर तामिळनाडुच्या मुख्यमंत्री जयललिता यांनी फतवा काढला - सरकारी नोकरीतील सर्व स्त्रियांना मोफत सायकल देण्याचा - आणि मी राष्ट्रीय महिला आयोगात होते तेंव्हा एका अभ्यासात असे दिसले की या सायकल वाटपानंतर पुढील पाच - दहा वर्ष तामिळनाडुमधली महीलांवरील अत्याचाराची टक्केवारी कमी झाली होती. आजतर स्त्रियांचे सवलीकरण आणि शिवाय पर्यावरण रक्षणासाठी आपण सायकलकडे वळणे गरजेचे आहे.
शाळेत मी हुषार विद्यार्थिनी होते. पुस्तकातल्या धड्यांमुळे तसेच शिक्षकांच्या शिकवण्यामुळे राणा प्रताप, शिवाजी, विवेकानंद, लोकमान्य, सुभाषचंद्र बोस, एवरेस्ट सर करणारा शेरपा तेनसिंग, नर्सिंग व्यवसायांत वेगळे कौशल्य आणि सेवाभाव आणणारी फ्लॉरेन्स नाईटिंगेल आणि सर्व क्रांतिकारक हे माझे आयडॉल्स होते. अभ्यासात सर्वच विषयांची गोडी होती. पण भौतिक शास्त्राची गोष्ट वेगळीच होती. मला आठवतात पहिले दोन प्रयोग - पहिल्यांत फुटपट्टीच्या सहाय्याने लाकडी ठोकळ्याची लांबी मोजतांना पट्टीवरील दोन रेषांच्या मधे ठोकळ्याची कडा येत असेल तर अनुमानाने तीन दशांश का सहा दशांश ते लिहायला शिकवल गेल. फूटपट्टीवर आपण मिलीमीटर पर्यंत अंतर मोजू शकतो. पण त्याहून छोटे अंतर अनुमानाने न मोजता काटेकोर मोजायचे असेल तर कांय? या साठी दुसरा प्रयोग व्हर्नियर कॅलिपर्सचा होता. यामधे दोन पट्टया असतात. एकीवर दहा मिलीमीटर च्या दहा रेषा असतात, पण दुसरीवर नऊ मिलीमीटर अंतराला दहा सम भागात वाटून त्यावर दहा खुणा केलेल्या असतात. त्यामुळे दोन पट्टयांच्या मधे एखादा ठोकळा अडकवल्यावर दुस-या पट्टीची चौथी रेघ पहिल्या पट्टीच्या एखाद्या रेघशी जुळत असेल तर ते काटेकोर मोजमाप चार दशांश मिलीमीटरचे असेल. थोडक्यांत दोन पट्टयांच्या स्केल मधे फरक निर्माण करून आपण एक मिलीमीटरहून छोटे अंतर मोजण्याची युक्ति निर्माण केली. या युक्तिचे मला एवढे अप्रूप वाटले की भौतिक शास्त्र म्हणजे विचार करायला शिकवणारे शास्त्र असे माझे समीकरण बनले. भौतिक शास्त्रातील पुढच्या अभ्यासाने (उदा. आर्किमिडीसचा पाण्यांत उतरल्यावर हलकं कां वाटत हा सिध्दान्त) हे समीकरण वारंवार पक्के होत गेले.
नला लहानपणापासून खरेपणाइतकेच न्यायप्रियतेचेही मोल वाटू लागले. महाभारतातील यक्ष प्रश्न या आख्यानात यक्षाच्या प्रश्नांना उत्तर न देताच तलावाचे पाणी घेण्याचा प्रयत्न करणारे भीम अर्जुन नकुल सहदेव मरून पडतात. युधिष्ठिर तिथे पोचतो. यक्षाने अडवल्यावर तो थांबतो आणि त्याच्या प्रश्नांना समर्पक उत्तरे देतो. तेंव्हा यक्ष प्रसन्न होऊन म्हणतो – चल, मी इतका खूष आहे की तू पाणी तर घेच, पण तुझ्या एका भावालाही जिवंत करतो. सांग कुणाला करू ? युधिष्ठिर म्हणतो नकुलाला कर. यक्ष आश्चर्याने विचारतो - भीम - अर्जुन कां नाहीत ? ते नसतील तर तुझे गमावलेले राज्यही मिळणार नाही. इथे आपल्याला युधिष्ठिराची न्यायबुद्घी दिसून येते. तो म्हणतो मला राज्याची पर्वा नाही. माझ्या वडिलांच्या दोन पत्नी होत्या. त्यापैकी मी - कुंतीपुत्र जिवंत आहे. आता जर एकच भाऊ जिवंत होऊ शकत असेल तर तो माद्रीपुत्र असावा, म्हणजे माझ्या दोन्हीं आयांचा एक एक मुलगा जगेल. यावर अतिप्रसन्न होऊन यक्ष चारही भावांना जिवंत करतो. तुम्ही न्यायबुद्घी दाखवाल तर त्याचे चांगले फळ तत्काळ मिळू शकते. स्वतः केलेली कामे देखील या न्यायबुद्धीच्या तराजूतच तोलली पाहिजेत.
माझ्या नोकरीची सुरुवात आणि मध्य एवढया वर्षाच्या कालावधीत देशाची संपूर्ण आर्थिक विचार प्रणालीच झपाटयाने बदलत होती. पंडित नेहरुंच्या काळात समाजवादी लोकशाहीची संकल्पना रुजली होती. त्यामध्ये कित्येक उद्योगधंदे शासनानेच सुरु करण्याचे धोरण असल्याने पब्लिक सेक्टरची झपाटयाने वाढ झाली. दुसरे धोरण देशांतर्गत उद्योगधंदे वाढीचे होते. त्यासाठी पूरक धोरण असेही होते की देशांतील कच्चा माल देशभरातील सर्व उद्योजकांना उपलब्ध व्हावा. यासाठी कच्च्या मालाचे उत्पादन सरकारी क्षेत्रांच्या मक्तेदारीत राहिले व सरकारी अधिका-यांकडे उद्योगधंद्यांचे लायसेन्स, कच्च्या मालाचा कोटा इत्यादी देण्याचे अधिकार आले. अशा या लायसेन्स राज्यांत काही सरकारी व पब्लिक सेक्टर कंपन्यांनी खूप चांगली कामगिरी करुन दाखवली. पण हळूहळू मोनोपोलीमुळे येणारा उर्मटपणा, आळस, बेदरकारी, बेपर्वा वृत्ती हे अवगुण पण पुढे येऊ लागले. अकौंटेबिलिटीची वाट लागली. आणि मग अचानक प्रायव्हेट सेक्टरचे गोडवे गायले जाऊ लागले. देश जणू लंबकाच्या एका टोकावर होता तो झपाटयाच्या वेगाने फिरला आणि दुस-या टोकावर गेला. या संक्रमणात फक्त आर्थिक धोरणच दुस-या टोकावर नाही गेले तर नैतिकतेचे कित्येक संकेतही उलटे पालटे झाले. आणि आता तर ‘दाग अच्छे हैं’, किंवा ‘जॉब्स युवर पेरेंट्स डोन्ट अंडरस्टॅण्ड’ हे संस्कृतीचे परवलीचे शब्द मानले जाऊ लागले आहेत. हे जे समाजात घडले तेच राजकारणात आणि प्रशासनांतही घडले आहे.
या संक्रमणाची आखणी विचारपूवर्क केली होती असेही नाही. यामुळे देशांतील पूर्वी न सुटलेले प्रश्न तसेच राहिले. लोकसंख्या वाढीचा प्रश्न, अशिक्षण, गरीबी, बेकारी, बालमजुरी, खेडयांकडून शहराकडे पलायन, कृषी क्षेत्राची दुरवस्था --- वाईट सीझन मध्ये तसे नुकसान आणि चांगल्या सीझनमध्ये भाव पडल्याने नुकसान -- फसलेले पुनर्वसन आणि त्यांतच पाणी धोरणाचे अपयश, हे सर्वच मुद्दे तसेच राहिले. स्त्रीभ्रूण हत्ये सारखे नवे प्रश्न निर्माण झाले. मात्र अवकाश - विज्ञान, सागरी विज्ञान, धरणे रस्ते व काही ठराविक प्रांतांनी उद्योग क्षेत्रात केलेली प्रगती ही जमेची बाजू म्हणता येईल. सस्टेनेबिलिटीचा मुद्दा मात्र पार विसरला गेला. यशदा येथे माझे पोस्टिंग ऍडिशनल डायरेक्टर व प्रोफेसर रूरल डेव्हलपमेंट आशी होती. त्या वेळी प्रशिक्षणार्थींना शिकवतांना मी या मुद्यावर भर देत असे.
नव्वदीच्या दशकांत संगणक आले आणि पुढल्या कित्येक - पोस्टवर मी कार्यालयांत संगणक कल्चर आणण्याचे काम प्राथम्याने केले. संगणकातल्या कित्येक युक्त्या शिकून घेतल्या - इतरांना शिकवल्या. त्याचा उपयोग जसा कार्यालयात धाला तसाच स्वतःची वेबसाइट, ब्लॉगसाइट इत्यादी करण्यासाठी पण झाला. बव्हंशी युक्त्या माझ्या मुलांनी मला शिकवल्या आणि आम्हीच कसे गुरू म्हणत आईचा गुरू होण्याची हौस भागवून घेतली. (तू रोज पाढे म्हणून घेतेस - या गोड तक्रारीचा वचपा). तसेच मुलांच्या हक्कासंबंधात त्यांचा आग्रही दृष्टिकोण होता की मुलांच्या मताचा योग्य आदर झालाच पाहिजे. मोठ्या माणसांनी त्यांच्या मताची वकिली करावी किंवा करू नये पण त्यांचा सम्मान मात्र जरूर राखावा. आम्हीही याची कदर केली. आता असे जाणवते की लहानपणी माझ्या आईवडिलांनी देखील आम्हां मुलांच्या मतांची कदर ठेवली होती. नुकताच माझ्याकडे बालहक्क संरक्षण आयोगाचे अतिरिक्त काम देण्यांत आले तेंव्हां मुलांनी पुन्हां आपल्या मुद्याची आठवण करून दिली.
मला केंद्र शासनाकडे मिळालेली पोस्टिंग - नॅचरोपथीची डायरेक्टर, राष्ट्रीय महिला आयोगात संयुक्त सचिव व पेट्रोलियम कन्झर्व्हेशन साठी एक्झीक्यूटिव्ह डायरेक्टर - या तीनही कामांनी मला दिल्लीचे एक्सपोजर तर दिलेच पण खूप वेगळे विषय हाताळतांना त्यांच्या मूळ समस्येपर्यंत जाऊन कस भिडायच ते ही शिकवल. पीसीआरए साठी आकाशवाणीवर “ बूंद बूंद की बात ” कार्यक्रमाचे अडीचशे एपिसोड तर दूरदर्शन वर “ खेल खेल मे बदलो दुनिया ” या कार्यक्रमाचे दोनशे एपिसोड आम्ही केले. त्यातून माझी एक आवडता सिद्घान्त पारखून घेण्याची संधी मिळाली. या दोन्ही माध्यमांचा वापर आनंददायी शिक्षण आणि व्यवसाय शिक्षणासाठी करता येतो आणि करायलाच हवा ही माझी थियरी. तिला भरघोस यश मिळाले. एक दिवस इंटरनेट सर्फिंगमध्ये एका पानवर कॉलेज विद्यार्थ्याचे प्राचार्यांना पत्र वाचायला मिळाले “पीसीआरएचा कार्यक्रम पाहून मी व माझ्या मित्रांनी आपल्या कॉलेजात एनर्जी कन्झर्व्हेशन क्लब स्थापन करायचे ठरवले आहे” - वगैरे. तर एक दिवस आम्ही भोपाळच्या सोयाबीन इन्स्टिटयूटवर दाखवलेला प्रोग्राम पाहून बिहारचा एक तरुण आला - आमच्या मदतीने त्या इन्स्टिटयूटमध्ये महिन्याचे प्रशिक्षण घेतले, स्वत:चा कारखाना काढला आणि एक दिवस नफ्यांत असलेला बॅलेन्स -- शीट घेऊन दाखवायला आला. पण दूरदर्शनचे हे सामर्थ्य अजून दूरदर्शननेही ओळखलेले नाही. मला अजूनही असे वाटते की आत्महत्येपासून शेतकर्यांना परावृत्त करण्यासाठी शासनाला दूरदर्शनचा प्रभावी उपयोग करुन घेता येईल.
महिला आयोगांत असतांना महिलांचे किती म्हणून प्रश्न समोर यावेत ? त्यांना मिळणारी दुटप्पी वागणूक, महिलांच्या तक्रारींच्या निमित्ताने वारंवार जाणवली. सर्व प्रयत्न केले जातात स्त्रीला पुढे न येऊ देण्याचे, तिला हक्क न मिळू देण्याचे - तिला सत्तेत वाटेकरी न होऊ देण्याचे देशाचे ग्रॉस डोमेस्टिक प्रॉडक्ट GDP मोजतांना डोमेस्टिक महिलांच्या - म्हणजे गृहिणींच्या सर्व श्रमांची किंमत शुन्य एवढीच मोजली जाते. त्यांना जमीन नाही, घर नाही, शिक्षण नाही, पोषण नाही, आधार नाही, सुरक्षा नाही, सन्मान नाही, माणूस म्हणून जगण्याचा हक्क नाही --- इतकच नव्हे तर माणूस म्हणून जन्म घेण्याचाही हक्क नाही. महिलांविरुध्द होणार्या अत्याचारांचा विशेष अभ्यास मी 2000-01 या काळात केला. त्यांत बलात्काराचा प्रश्न आहे. हुंडाबळींचा आहे. जाळून मारल्या जाणार्या इतक्या स्त्रिया असतांनाही जळालेल्या स्त्रीला त्वरित प्रभावी उपचार -- देण्यासाठी स्पेशल वार्ड असलेले एकही हॉस्पिटल आपल्या देशात नाही. मुलींचा गर्भ पाडला नाही म्हणून पोटावर लाथा - बुक्क्या खाल्लेल्या स्त्रियाही मी पाहिल्या आहेत. तर डायन असा ठपका लावून गावातून निर्वस्त्र धिंड काढलेल्या स्त्रियांचे अश्रूही पाहिले आहेत. दहा - बारा वर्षानंतर बलात्काराची केस चालवतांना त्या स्त्रियांचे दु:ख साक्षीत दिसून आले नाही, म्हणून आरोपींवर गुन्हा शाबीत होत नाही, अस म्हणणारी आपली एकंदर न्याय व्यवस्था पाहिली तेव्हा वाटल - आपल बोट काल कापल तर आजच त्याच्या दु:खाची तीव्रता कमी होते - आपल्याला जगता यावा म्हणून आपल्या मेंदूत निसर्गानेच तशी सोय केली असते. मग दहा वर्षापूर्वीच्या दु:खाची, जखमांची आणि अपमानाची तीव्रता आजही तितक्याच वेदनेसह व्यक्त करण्याची शिक्षा त्या मुलींना कां? उशीर करायचा शासन यंत्रणेने आणि छळ करुन घ्यायचा त्या मुलींनी ? कां नाही दहा दिवसाच्या आंत तिची साक्ष नोंदवून ठेवता येत ? तिच्यावर झालेल्या गंभीर जखमांचे वर्णन देऊन शेवटी डॉक्टर्स अत्यंत कातडी बचावू निष्कर्ष काढतात --- बलात्कार झाला असल्याची शक्यता नाकारता येत नाही. त्या डॉक्टरांचे प्रशिक्षण कोण करणार ? निव्वळ निर्वाह -- भत्ता मिळावा म्हणून वर्षानुवर्ष कोर्टाच्या चकरा मारणार्या महिलांच्या चकरा कमी करण्यासाठी ज्युडिशिअल रिफॉर्मस कोण आणणार ?
वी हॅव माइल्स ऍण्ड माइल्स ऍण्ड माइल्स टू गो, तेव्हा नेटाने पावले टाकत रहाणे हे तरी आपल्या हातात असतेच ना !
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मटा. दि. 22 जून 2008
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वेब 16 वर मंगल व pdf file.
Tuesday, June 03, 2008
प्रकाशित साहित्य -- हिन्दी
साहित्यिक-परिचय
1. नाम : लीना मेहेंदळे
२. जन्मतिथि : ३१ जनवरी १९५०
३. जन्मस्थल : धरणगाँव (महाराष्ट्र)
४. शिक्षा : एम्०एस्०सी० (भौतिकी), पटना विश्वविद्यालय एम्०एस्०सी० प्रोजेक्ट प्लानिंग, ब्रेडफोर्ड विश्वविद्यालय
एल०एल०बी० (प्रथम वर्ष)
५. कार्यक्षेत्र : मगध महिला कॉलेज, पटना में एक वर्ष फिजिक्स प्रवक्ता रहने के पश्चात् सन् १९७४ में भारतीय प्रशासनिक सेवा में प्रवेश और महाराष्ट्र में कार्यरत। महाराष्ट्र प्रशासन में कलेक्टर, कमिशनर, उद्योग विभाग, स्वास्थ्य विभाग आदि कई पदों पर कार्य किया। सांगली के जिलाधिकारी के पद से चलाया गया देवदासी आर्थिक पुनर्वास कार्यक्रम का देश-विदेश में काफी सराहा गया।
केन्द्र सरकार में संयुक्त सचिव पद से स्वास्थ्य मंत्रालय, महिला आयोग तथा पेट्रोलियम कंजर्वेशन रिसर्च एसोसिएशन, में कार्यरत रहे। वर्तमान में महाराष्ट्र प्रशासन में प्रधान सचिव सामान्य प्रशासन।
६. साहित्यिक उपलब्धि
प्रकाशित लेख :
प्रमुख मराठी समाचार पत्र महाराष्ट्र टाइम्स, लोकसत्ता, सकाळ, गांवकरी, लोक मत, देशदूत, अन्तर्नाद आदि में सामाजिक व प्रशासनिक मुद्दों पर ३०० से अधिक लेख प्रकाशित। जिसमें 'शिक्षणाने आपल्याला काय द्यावे', 'भ्रष्टाचार, चौकशी, शिक्षा, न्याय इत्यादि', 'माझी प्रांतसाहेबी' प्रमुख हैं।
महिलाओं पर होने वाले अपराधों के संबंध में गहन अध्ययन और लेखन।
प्रमुख हिन्दी समाचार पत्र नवभारत टाइम्स, जनसत्ता, देशबन्धु, हिन्दुस्तान, प्रभात खबर, कथादेश, हंस आदि में सामाजिक व प्रशासनिक मुद्दों पर ४०० से अधिक लेख प्रकाशित।
प्रकाशित मराठी पुस्तकें :
'ये ये पावसा', (वर्ष १९९५, )
'सोनं देणारे पक्षी', (वर्ष १९९९ )
'नित्य लीला' (वर्ष २००१,) अनूदित कथा-संग्रह मराठी
'लोकशाही, ऐंशी प्रश्न आणि उत्तरे' (वर्ष २००३,) युनेस्को-प्रकाशित अंग्रेजी पुस्तक का अनुवाद
इथे विचारांना वाव आहे (वर्ष २००८)
'खिंडीच्या पलीकडे' (वर्ष २००८) रवींद्र नाथ पराशर के अंग्रेजी उपन्यास का अनुवाद
प्रकाशित हिन्दी पुस्तकें :
फिर वर्षा आई (वर्ष 1999) बाल-कथा-संग्रह
जनता की राय (वर्ष ----)
सुवर्ण पंछी (वर्ष ----) पक्षी निरीक्षण
गुजारा भत्ते का कानून (वर्ष 2001)
आनन्दलोक' (वर्ष २००३) माननीय कुसुमाग्रज की १०८ कविताओं का हिन्दी अनुवाद
मन ना जाने मन को' (वर्ष २००५) अनूदित कथा-संग्रह
शीतला माता (वर्ष ----)
हमारा दोस्त टोटो (वर्ष ----)
एक था फेंगाड्या (वर्ष 2005) अरुण गद्रे के मराठी उपन्यास का अनुवाद
आकाशवाणी व दूरदर्शन :
पी०सी०आर०ए० के लिये ऊर्जा संरक्षण संबंधित टी०वी० कार्यक्रम 'खेल खेल में बदलो दुनियाँ' का आयोजन -- २०० एपिसोड
पी०सी०आर०ए० के लिये आकाशवाणी के एफएम गोल्ड चैनल पर कार्यक्रम 'बूंद बूंद की बात' का आयोजन -- २५० एपिसोड
इनके १६ एपिसोडों का संग्रह 'बूंद बूंद की बात' -- संपादित पुस्तक ।
महिला सशक्तीकरण तथा ऊर्जा संरक्षण के संयुक्त उद्देश्य से चलाए जा रहे पी०सी०आर०ए० के कार्यक्रमों से संबंधित पुस्तक 'युगंधरा' (हिन्दी) का संपादन।
पी०सी०आर०ए० की मासिक पत्रिका 'संरक्षण चेतना' तथा अंग्रेजी त्रैमासिक पत्रिका ACT का संपादन।
राष्ट्रीय प्राकृतिक चिकित्सा संस्थान के लिये मासिक पत्रिका 'निसर्गपचार वार्ता' का संपादन।
वेबसाइट http://www.leenamehendale.com
http://www.leenameh.blogspot.com
ई-मेल leenameh@yahoo.com
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1. नाम : लीना मेहेंदळे
२. जन्मतिथि : ३१ जनवरी १९५०
३. जन्मस्थल : धरणगाँव (महाराष्ट्र)
४. शिक्षा : एम्०एस्०सी० (भौतिकी), पटना विश्वविद्यालय एम्०एस्०सी० प्रोजेक्ट प्लानिंग, ब्रेडफोर्ड विश्वविद्यालय
एल०एल०बी० (प्रथम वर्ष)
५. कार्यक्षेत्र : मगध महिला कॉलेज, पटना में एक वर्ष फिजिक्स प्रवक्ता रहने के पश्चात् सन् १९७४ में भारतीय प्रशासनिक सेवा में प्रवेश और महाराष्ट्र में कार्यरत। महाराष्ट्र प्रशासन में कलेक्टर, कमिशनर, उद्योग विभाग, स्वास्थ्य विभाग आदि कई पदों पर कार्य किया। सांगली के जिलाधिकारी के पद से चलाया गया देवदासी आर्थिक पुनर्वास कार्यक्रम का देश-विदेश में काफी सराहा गया।
केन्द्र सरकार में संयुक्त सचिव पद से स्वास्थ्य मंत्रालय, महिला आयोग तथा पेट्रोलियम कंजर्वेशन रिसर्च एसोसिएशन, में कार्यरत रहे। वर्तमान में महाराष्ट्र प्रशासन में प्रधान सचिव सामान्य प्रशासन।
६. साहित्यिक उपलब्धि
प्रकाशित लेख :
प्रमुख मराठी समाचार पत्र महाराष्ट्र टाइम्स, लोकसत्ता, सकाळ, गांवकरी, लोक मत, देशदूत, अन्तर्नाद आदि में सामाजिक व प्रशासनिक मुद्दों पर ३०० से अधिक लेख प्रकाशित। जिसमें 'शिक्षणाने आपल्याला काय द्यावे', 'भ्रष्टाचार, चौकशी, शिक्षा, न्याय इत्यादि', 'माझी प्रांतसाहेबी' प्रमुख हैं।
महिलाओं पर होने वाले अपराधों के संबंध में गहन अध्ययन और लेखन।
प्रमुख हिन्दी समाचार पत्र नवभारत टाइम्स, जनसत्ता, देशबन्धु, हिन्दुस्तान, प्रभात खबर, कथादेश, हंस आदि में सामाजिक व प्रशासनिक मुद्दों पर ४०० से अधिक लेख प्रकाशित।
प्रकाशित मराठी पुस्तकें :
'ये ये पावसा', (वर्ष १९९५, )
'सोनं देणारे पक्षी', (वर्ष १९९९ )
'नित्य लीला' (वर्ष २००१,) अनूदित कथा-संग्रह मराठी
'लोकशाही, ऐंशी प्रश्न आणि उत्तरे' (वर्ष २००३,) युनेस्को-प्रकाशित अंग्रेजी पुस्तक का अनुवाद
इथे विचारांना वाव आहे (वर्ष २००८)
'खिंडीच्या पलीकडे' (वर्ष २००८) रवींद्र नाथ पराशर के अंग्रेजी उपन्यास का अनुवाद
प्रकाशित हिन्दी पुस्तकें :
फिर वर्षा आई (वर्ष 1999) बाल-कथा-संग्रह
जनता की राय (वर्ष ----)
सुवर्ण पंछी (वर्ष ----) पक्षी निरीक्षण
गुजारा भत्ते का कानून (वर्ष 2001)
आनन्दलोक' (वर्ष २००३) माननीय कुसुमाग्रज की १०८ कविताओं का हिन्दी अनुवाद
मन ना जाने मन को' (वर्ष २००५) अनूदित कथा-संग्रह
शीतला माता (वर्ष ----)
हमारा दोस्त टोटो (वर्ष ----)
एक था फेंगाड्या (वर्ष 2005) अरुण गद्रे के मराठी उपन्यास का अनुवाद
आकाशवाणी व दूरदर्शन :
पी०सी०आर०ए० के लिये ऊर्जा संरक्षण संबंधित टी०वी० कार्यक्रम 'खेल खेल में बदलो दुनियाँ' का आयोजन -- २०० एपिसोड
पी०सी०आर०ए० के लिये आकाशवाणी के एफएम गोल्ड चैनल पर कार्यक्रम 'बूंद बूंद की बात' का आयोजन -- २५० एपिसोड
इनके १६ एपिसोडों का संग्रह 'बूंद बूंद की बात' -- संपादित पुस्तक ।
महिला सशक्तीकरण तथा ऊर्जा संरक्षण के संयुक्त उद्देश्य से चलाए जा रहे पी०सी०आर०ए० के कार्यक्रमों से संबंधित पुस्तक 'युगंधरा' (हिन्दी) का संपादन।
पी०सी०आर०ए० की मासिक पत्रिका 'संरक्षण चेतना' तथा अंग्रेजी त्रैमासिक पत्रिका ACT का संपादन।
राष्ट्रीय प्राकृतिक चिकित्सा संस्थान के लिये मासिक पत्रिका 'निसर्गपचार वार्ता' का संपादन।
वेबसाइट http://www.leenamehendale.com
http://www.leenameh.blogspot.com
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Friday, May 30, 2008
सर्व ओझी निवारणासाठी - क्रिकेट
सर्व ओझी निवारणासाठी - क्रिकेट
- लीना मेहेंदळे
वाचकहो, सर्वत्र असते तसेच याही लेखातील सर्व घटना, स्थानांची व व्यक्तींची नांवे संपूर्णपणे काल्पनिक असून त्यात कोणताही तथ्यांश नाही. जर कोणत्याही व्यक्ती किंवा स्थानाचे नांव किंवा घटनेचा तपशील एखाद्या सत्य घटनेबरोबर मिळता-जुळता असेल तर तो निव्वळ योगायोग मानावा.
तर रसिक वाचकहो, आटपाट नगर होते- तिचे नांव मुंबई. तिथे एक मोठी वास्तू होती - जिचे नांव माहीत नाही. परंतु तिथे नित्यनेमाने नाट्यस्पर्धा होत असत. त्या यशस्वी होण्यासाठी एक मुख्य सूत्रधार व त्यांचेबरोबर इतर छप्पन सूत्रधार होते.
नाट्यस्पर्धा पहाण्यासाठी लोकांची झुंबड उडत असे. वास्तूच्या दारावर हीss गर्दी असायची. परत जाणारी मंडळी फारशी खूष असावीत असे मला वाटत नाही. कारण बहुतेक प्रेक्षक नाक मुरडीत, नावे ठेवीत जात- इथे येणार्याच्या पदरांत कांहीच पडत नाही. हे कसले नाटक - या कसल्या स्पर्धा ? कोण, कोणाशी काय संवाद बोलतो तेच कळत नाही. पडदे कधीही कुठल्याही प्रसंगी पडतात. शिवाय प्रत्येक पात्राच्या शिरावर एक ओझ असते. त्यामुळे त्यांचे चेहरे सदा ओढग्रस्त दिसतात. एक पात्र विंगेत जाऊन परत आले की त्याच्याकडील ओझ हमखास वाढलेलंच दिसत. काय असेल बुवा त्या विंगेत ?
शिवाय एखाद्या पात्रावर पडदा पडला की पुन: दर्शन केव्हा त्याचा पत्ताच नाही. प्रसंग तोच पण पात्र बदललेले - त्याच्या ओझ्याचा रंग बदललेला. आता एखाद्या दर्शकाला उत्सुकता लागली की जुन्या ओझ्याच काय झाल तर त्याने कांय करावे ? अशा वेळी सूत्रधारांकडून हळूच सूचना येई - त्या दर्शकाने ओझ्यासाठी एखादा रुमाल आणून द्यावा -की बांधून टाकू नवीन ओझ. ती हरवलेली पात्र आणि हरवलेली ओझी कुठे गेली याचा कधीच उलगडा होत नसे.
- 2 -
अशाप्रकारे नाट्यस्पर्धा दीर्घकाळ चालल्या व पुढेही दीर्घकाळ चालणारच आहेत. पण त्यातील काही स्थित्यंतरे प्रबोधनकारक तसेच मनोरंजकही आहेत.
नाट्यस्पर्धांना सुरुवात झाली तेव्हांपासूनच सूत्रधार हे चर्चेचे, उत्सुकतेचे व थोड्या कौतुकाचे विषय झालेले होते. कुणी म्हणत ते किती हुशार ! देशातील क्रीम निवडून आणलेले आहे हो ! कुणी म्हणत -हो, पण येऊन जाऊन नाटकांचे सूत्रधारच ना ! कधी नांदी म्हणतील तर कधी भरतवाक्य ! यापरती लाइमलाइटची परवानगी तर त्यांना नाही ना ! आम्ही बघा - राजे आहोत राजे. आम्हीच त्यांना नाटके करायला सांगतो. एकीकडे आमचे मनोरंजन व दुसरीकडे प्रेक्षकांना लावलेल्या तिकिटांचे उत्पन्न ! शिवाय यशस्वी नाटकांचे श्रेय राजांना व अयशस्वी नाटकांचे खापर सूत्रधारांवर - असे आमचे वर्क डिस्ट्रिब्युशन देखील ठरलेले आहे. नाट्यस्पर्धांना प्रचंड गर्दी होते आहे. छान, छान ! लोकही खूष, आम्हीही खूष - आणि सूत्रधार तर काय खूषच असणार !
पण सूत्रधार फारसे खूष राहिनासे झाले. त्यांच्या सूत्रांना गाठी पडत होत्या - रंग विटत चालले होते. आता प्रेक्षकांना नसेल माहीत - पण या सूत्राच्या सहाय्यानेच पात्रांच्या डोक्यावरील ओझ्याचे नियमन होत असे. ओझे मागे पुढे ओढणे, त्यांत भर घालणे, झालेच तर हरवलेली ओझी शोधून काढणे - ही कामे देखील त्यांच्याकडेच होती. त्यामुळे मार्मिक संवाद- लेखन, प्रॉम्प्टींग, अभिनय बसवून घेणे, रंगमंचावरील प्रकाश संयोजन - या कुठल्याच बाबींकडे लक्ष देणे जमेना झाले. शेवटी ओझी खूप खूप वाढली. त्यांमध्ये पात्रांचे संवाद, हावभाव लपून जाऊ लागले. एकेका सूत्रधाराला त्याची सर्व सूत्रे सांभाळणेच अवजड होऊ लागले. राजे लोक देखील वैतागले. प्रेक्षकांचे नाक मुरडणे तर वाढतच होते.
मग सर्व सूत्रधारांनी मिळून नारदमुनींना पाचारण केले. नारदांचा सर्वत्र संचार होताच - प्रेक्षकांमध्येही होता. त्यांनी कधीतरी खाजगीत बोलून पण दाखवले - हा ओझ्यांचा प्रकार म्हणजे मंत्रालयातील फाईलीच झाल्यात जणू. पण सूत्रधारांच्या बैठकीत त्यांनी आधी आपले मत नाही मांडले. त्यांनी आधी सर्वांना आपले आपले स्वॉट ऍनॅलिसिस करायला सांगितले.
- 3 -
स्वॉट ऍनॅलिसिस ? कशाकरता ? आमच्याकडे स्वॉट पैकी फक्त स्ट्रेंग्थच आहे. नो वीकनेस, नो थ्रेट. ऑल स्ट्रेंग्थ - सर्वांचे व्हेरी गुड ते आऊट स्टॅडींग परफॉर्मन्सेस आहेत. हां, आता दूर त्या दिल्ली शहरात सर्वांचेच आऊटस्टॅडींग परफॉर्मन्स असतात असे ऐकतो -पण आम्हाला त्याची गरज नाही. कारण सर्व आऊटस्टॅडींग परफॉरमन्सचे सूत्रधार असूनही तिथली नाटकं आमच्यापेक्षा जास्त फ्लॉप होतात. अहो मुनीवर, असले रुढीवादी उपाय सांगत बसण्यापेक्षा कांही नवीन सांगा की ! मग नारदानी सर्वांना लॅटरल थिंकिंगवर एक लेक्चर दिले!
तुमचे बलस्थान आहे म्हणता ना ! मग सूत्रांद्बारे ओझी हलवतांना तुमची दमछाक कां होते ? कारण तुम्ही नव्या युगाची चाहूल ओळखलेली नाही. पहा - पहा त्या क्षितिजाकडे - मन प्राण ओतून पहा - तिथे तुम्हाला दिसून येईल नवीन युगात प्रेक्षकांना काय हवे ते ! असे म्हणत नारदाने सर्वांना दूर क्षितिजापारचे कसे ओळखावे ते शिकवले.
मात्र एक झाले. क्षितिजपारचे सर्वांना ओळखता आले नाही. त्यांनी लॅटरल थिंकिंगच्या धड्यांवर समाधान मानले व आपले काम चालू ठेवले. पण ज्यांनी ते ओळखले त्यांना कळले की आपले बलस्थान नेमके कुठे असते. अरे गड्या, ते असते क्रिकेटमध्ये. हीच ती नव्या युगाची चाहूल. सूत्रधारांच्या टी क्लब व सूत्रधार असोसिएशनमध्ये क्रिकेटची चर्चा होऊ लागली - नवे बॉल्स, ग्लोव्हस्, विकेटस्, खेळाचे मैदान इत्यादी साधन सामुग्री गोळा झाली. क्रिकेटची स्ट्रेंग्थ वाढविण्यासाठी इतर संस्थांना विनंती करण्यात आली - तुमची टीम व्हर्सेस आमची टीम अशी प्रॅक्टीस मॅच खेळू या ! इतर कित्येक संस्थांनी सूत्रधार क्रिकेट टीमला सरावासाठी मदत करुन जास्तीत जास्त चांगले खेळण्याची संधी दिली. महत्त्वाचे सूत्रधार त्यांना व खेळाडूंना शाबासकी देऊ लागले.
क्रिकेट खेळल्याने काय झाले ? खेळाडूंचा दृष्टिकोन बदलला - त्यांना पात्रांच्या डोक्यावरील ओझी दिसेनाशी झाली - त्यामुळे सूत्रे हलवत रहाण्याची जबाबदारी संपली. प्रेक्षकांचे नाक मुरडणेही दिसेनासे झाले. त्यामुळे संवाद लेखन, प्रकाश नियोजन, नांदी म्हणणे इत्यादी जबाबदार्या देखील संपल्या. क्रिकेटमधील संधी व स्ट्रेंग्थ वाढवण्याला वाव मिळाला. नवीन दृष्टि तर एवढी मिळाली की नारदालाही न सुचलेले त्यांना लक्षांत आले - क्रिकेटमधून सर्व स्त्री सूत्रधारांना खड्यासारखे बाजूला
ठेवणे शक्य होते. बर झाल- फारच नाकाने कांदे सोलायच्या सर्वजणी. बसा म्हणाव ओझ्यांची सूत्रे ओढत. तरी पण त्यांनी इतर खेळाडू संस्थांचा सल्ला घेतला. सर्वांनी तेच सांगितले - क्रिकेट खेळतोय् ना आपण ! मग स्त्री सूत्रधारांना कुठे क्रिकेट खेळता येणार आहे ?
तर रसिक वाचकहो, ही झाली एका स्थित्यंतराची कथा - थोडी जुनी झाली असेल कदाचित आणि कदाचित इतरही कांही स्थित्यंतरांची कुणकुण तुम्हाला लागली असेल. पण सध्या ही साठा उत्तरांचे फळ देणारी कथा इथेच संपवावी म्हणते. कारण लक्षांत आले ना ? अहो, नारदाची दूरदृष्टी नाही लक्षांत आली ? बघा, बघा क्रिकेटला कसे सोन्याचे दिवस आले आहेत. कित्येक क्रिकेटपटू सूत्रधारांचे सुहास्यवदन पाहण्याचा आनंद काही औरच ! तेव्हा तुम्ही नाटके पहा - आम्ही सध्या पुरते त्यांना पहातो. पुढील भेट दुसर्या स्थित्यंतराची कथा सांगताना! -------------
लोकसत्ता दि.
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- लीना मेहेंदळे
वाचकहो, सर्वत्र असते तसेच याही लेखातील सर्व घटना, स्थानांची व व्यक्तींची नांवे संपूर्णपणे काल्पनिक असून त्यात कोणताही तथ्यांश नाही. जर कोणत्याही व्यक्ती किंवा स्थानाचे नांव किंवा घटनेचा तपशील एखाद्या सत्य घटनेबरोबर मिळता-जुळता असेल तर तो निव्वळ योगायोग मानावा.
तर रसिक वाचकहो, आटपाट नगर होते- तिचे नांव मुंबई. तिथे एक मोठी वास्तू होती - जिचे नांव माहीत नाही. परंतु तिथे नित्यनेमाने नाट्यस्पर्धा होत असत. त्या यशस्वी होण्यासाठी एक मुख्य सूत्रधार व त्यांचेबरोबर इतर छप्पन सूत्रधार होते.
नाट्यस्पर्धा पहाण्यासाठी लोकांची झुंबड उडत असे. वास्तूच्या दारावर हीss गर्दी असायची. परत जाणारी मंडळी फारशी खूष असावीत असे मला वाटत नाही. कारण बहुतेक प्रेक्षक नाक मुरडीत, नावे ठेवीत जात- इथे येणार्याच्या पदरांत कांहीच पडत नाही. हे कसले नाटक - या कसल्या स्पर्धा ? कोण, कोणाशी काय संवाद बोलतो तेच कळत नाही. पडदे कधीही कुठल्याही प्रसंगी पडतात. शिवाय प्रत्येक पात्राच्या शिरावर एक ओझ असते. त्यामुळे त्यांचे चेहरे सदा ओढग्रस्त दिसतात. एक पात्र विंगेत जाऊन परत आले की त्याच्याकडील ओझ हमखास वाढलेलंच दिसत. काय असेल बुवा त्या विंगेत ?
शिवाय एखाद्या पात्रावर पडदा पडला की पुन: दर्शन केव्हा त्याचा पत्ताच नाही. प्रसंग तोच पण पात्र बदललेले - त्याच्या ओझ्याचा रंग बदललेला. आता एखाद्या दर्शकाला उत्सुकता लागली की जुन्या ओझ्याच काय झाल तर त्याने कांय करावे ? अशा वेळी सूत्रधारांकडून हळूच सूचना येई - त्या दर्शकाने ओझ्यासाठी एखादा रुमाल आणून द्यावा -की बांधून टाकू नवीन ओझ. ती हरवलेली पात्र आणि हरवलेली ओझी कुठे गेली याचा कधीच उलगडा होत नसे.
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अशाप्रकारे नाट्यस्पर्धा दीर्घकाळ चालल्या व पुढेही दीर्घकाळ चालणारच आहेत. पण त्यातील काही स्थित्यंतरे प्रबोधनकारक तसेच मनोरंजकही आहेत.
नाट्यस्पर्धांना सुरुवात झाली तेव्हांपासूनच सूत्रधार हे चर्चेचे, उत्सुकतेचे व थोड्या कौतुकाचे विषय झालेले होते. कुणी म्हणत ते किती हुशार ! देशातील क्रीम निवडून आणलेले आहे हो ! कुणी म्हणत -हो, पण येऊन जाऊन नाटकांचे सूत्रधारच ना ! कधी नांदी म्हणतील तर कधी भरतवाक्य ! यापरती लाइमलाइटची परवानगी तर त्यांना नाही ना ! आम्ही बघा - राजे आहोत राजे. आम्हीच त्यांना नाटके करायला सांगतो. एकीकडे आमचे मनोरंजन व दुसरीकडे प्रेक्षकांना लावलेल्या तिकिटांचे उत्पन्न ! शिवाय यशस्वी नाटकांचे श्रेय राजांना व अयशस्वी नाटकांचे खापर सूत्रधारांवर - असे आमचे वर्क डिस्ट्रिब्युशन देखील ठरलेले आहे. नाट्यस्पर्धांना प्रचंड गर्दी होते आहे. छान, छान ! लोकही खूष, आम्हीही खूष - आणि सूत्रधार तर काय खूषच असणार !
पण सूत्रधार फारसे खूष राहिनासे झाले. त्यांच्या सूत्रांना गाठी पडत होत्या - रंग विटत चालले होते. आता प्रेक्षकांना नसेल माहीत - पण या सूत्राच्या सहाय्यानेच पात्रांच्या डोक्यावरील ओझ्याचे नियमन होत असे. ओझे मागे पुढे ओढणे, त्यांत भर घालणे, झालेच तर हरवलेली ओझी शोधून काढणे - ही कामे देखील त्यांच्याकडेच होती. त्यामुळे मार्मिक संवाद- लेखन, प्रॉम्प्टींग, अभिनय बसवून घेणे, रंगमंचावरील प्रकाश संयोजन - या कुठल्याच बाबींकडे लक्ष देणे जमेना झाले. शेवटी ओझी खूप खूप वाढली. त्यांमध्ये पात्रांचे संवाद, हावभाव लपून जाऊ लागले. एकेका सूत्रधाराला त्याची सर्व सूत्रे सांभाळणेच अवजड होऊ लागले. राजे लोक देखील वैतागले. प्रेक्षकांचे नाक मुरडणे तर वाढतच होते.
मग सर्व सूत्रधारांनी मिळून नारदमुनींना पाचारण केले. नारदांचा सर्वत्र संचार होताच - प्रेक्षकांमध्येही होता. त्यांनी कधीतरी खाजगीत बोलून पण दाखवले - हा ओझ्यांचा प्रकार म्हणजे मंत्रालयातील फाईलीच झाल्यात जणू. पण सूत्रधारांच्या बैठकीत त्यांनी आधी आपले मत नाही मांडले. त्यांनी आधी सर्वांना आपले आपले स्वॉट ऍनॅलिसिस करायला सांगितले.
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स्वॉट ऍनॅलिसिस ? कशाकरता ? आमच्याकडे स्वॉट पैकी फक्त स्ट्रेंग्थच आहे. नो वीकनेस, नो थ्रेट. ऑल स्ट्रेंग्थ - सर्वांचे व्हेरी गुड ते आऊट स्टॅडींग परफॉर्मन्सेस आहेत. हां, आता दूर त्या दिल्ली शहरात सर्वांचेच आऊटस्टॅडींग परफॉर्मन्स असतात असे ऐकतो -पण आम्हाला त्याची गरज नाही. कारण सर्व आऊटस्टॅडींग परफॉरमन्सचे सूत्रधार असूनही तिथली नाटकं आमच्यापेक्षा जास्त फ्लॉप होतात. अहो मुनीवर, असले रुढीवादी उपाय सांगत बसण्यापेक्षा कांही नवीन सांगा की ! मग नारदानी सर्वांना लॅटरल थिंकिंगवर एक लेक्चर दिले!
तुमचे बलस्थान आहे म्हणता ना ! मग सूत्रांद्बारे ओझी हलवतांना तुमची दमछाक कां होते ? कारण तुम्ही नव्या युगाची चाहूल ओळखलेली नाही. पहा - पहा त्या क्षितिजाकडे - मन प्राण ओतून पहा - तिथे तुम्हाला दिसून येईल नवीन युगात प्रेक्षकांना काय हवे ते ! असे म्हणत नारदाने सर्वांना दूर क्षितिजापारचे कसे ओळखावे ते शिकवले.
मात्र एक झाले. क्षितिजपारचे सर्वांना ओळखता आले नाही. त्यांनी लॅटरल थिंकिंगच्या धड्यांवर समाधान मानले व आपले काम चालू ठेवले. पण ज्यांनी ते ओळखले त्यांना कळले की आपले बलस्थान नेमके कुठे असते. अरे गड्या, ते असते क्रिकेटमध्ये. हीच ती नव्या युगाची चाहूल. सूत्रधारांच्या टी क्लब व सूत्रधार असोसिएशनमध्ये क्रिकेटची चर्चा होऊ लागली - नवे बॉल्स, ग्लोव्हस्, विकेटस्, खेळाचे मैदान इत्यादी साधन सामुग्री गोळा झाली. क्रिकेटची स्ट्रेंग्थ वाढविण्यासाठी इतर संस्थांना विनंती करण्यात आली - तुमची टीम व्हर्सेस आमची टीम अशी प्रॅक्टीस मॅच खेळू या ! इतर कित्येक संस्थांनी सूत्रधार क्रिकेट टीमला सरावासाठी मदत करुन जास्तीत जास्त चांगले खेळण्याची संधी दिली. महत्त्वाचे सूत्रधार त्यांना व खेळाडूंना शाबासकी देऊ लागले.
क्रिकेट खेळल्याने काय झाले ? खेळाडूंचा दृष्टिकोन बदलला - त्यांना पात्रांच्या डोक्यावरील ओझी दिसेनाशी झाली - त्यामुळे सूत्रे हलवत रहाण्याची जबाबदारी संपली. प्रेक्षकांचे नाक मुरडणेही दिसेनासे झाले. त्यामुळे संवाद लेखन, प्रकाश नियोजन, नांदी म्हणणे इत्यादी जबाबदार्या देखील संपल्या. क्रिकेटमधील संधी व स्ट्रेंग्थ वाढवण्याला वाव मिळाला. नवीन दृष्टि तर एवढी मिळाली की नारदालाही न सुचलेले त्यांना लक्षांत आले - क्रिकेटमधून सर्व स्त्री सूत्रधारांना खड्यासारखे बाजूला
ठेवणे शक्य होते. बर झाल- फारच नाकाने कांदे सोलायच्या सर्वजणी. बसा म्हणाव ओझ्यांची सूत्रे ओढत. तरी पण त्यांनी इतर खेळाडू संस्थांचा सल्ला घेतला. सर्वांनी तेच सांगितले - क्रिकेट खेळतोय् ना आपण ! मग स्त्री सूत्रधारांना कुठे क्रिकेट खेळता येणार आहे ?
तर रसिक वाचकहो, ही झाली एका स्थित्यंतराची कथा - थोडी जुनी झाली असेल कदाचित आणि कदाचित इतरही कांही स्थित्यंतरांची कुणकुण तुम्हाला लागली असेल. पण सध्या ही साठा उत्तरांचे फळ देणारी कथा इथेच संपवावी म्हणते. कारण लक्षांत आले ना ? अहो, नारदाची दूरदृष्टी नाही लक्षांत आली ? बघा, बघा क्रिकेटला कसे सोन्याचे दिवस आले आहेत. कित्येक क्रिकेटपटू सूत्रधारांचे सुहास्यवदन पाहण्याचा आनंद काही औरच ! तेव्हा तुम्ही नाटके पहा - आम्ही सध्या पुरते त्यांना पहातो. पुढील भेट दुसर्या स्थित्यंतराची कथा सांगताना! -------------
लोकसत्ता दि.
वेब 16 वर ठेवले dvbttsurekh, mangal, pdf
Tuesday, May 27, 2008
व्यवस्था की एक और विफलता
व्यवस्था की एक और विफलता
- लीना मेहेंदळे, भा.प्र.से.
व्यवस्था की एक और विफलता
- लीना मेहेंदळे, भा.प्र.से.
आज से पचास वर्ष पहले की बात है, तब देश के हर कोने से हर समझदार व्यक्ति स्वतंत्रता की लडाई मे अपना हाथ बँटा रहा था | ब्रिटीश सरकार देशवासियोंकी किसी दलील, किसी अपील को सुनने से इनकार कर रही थी | तब मुंबई में गावलिया, टैंक मैदान पर एक विशाल सभा का आयोजन हुआ | वहाँ नेताओं ने दो संदेश दिये, देशवासियों को संदेश दिया - "करो या मरो" और ब्रिटिश सरकार से कहा - "भारत छोडो" | सारा देश इन दो नारों से गूंज उठा | यह नारा किसी पार्टी का नहीं था बल्कि, उन सभी के दिलों की आवाज थी जो आजादी के दीवाने थे, मातृभूमि के लिये सिर पर कफन बांध कर चलते थे और जीवन से अपने लिये सत्ता, संपत्ति, यश, किर्ती, सम्मान या ऐसी किसी बात की मांग नहीं करते थे, वे दिन थे अगस्त 1942 के |
फिर भारत स्वतंत्र हुआ, उस घटना को पचास वर्ष पूरे हुए | यादगार स्वरूप फिर से मुंबई के उसी अगस्त क्रांति मैदान पर समारोह का आयोजन हुआ | देशवासियों को याद दिलाने के लिये कि वे दिन कैसे थे| संकट के, त्याग के, संकल्प पूर्ति के, वे देश के लिए मर मिटने की तमन्ना वाले लोगों के दिन थे | उन दिनों की और उन लोगों की याद दिलाने के लिये समारोह का आयोजन हुआ |
मुख्य समारोह 9 अगस्त को अगस्त क्रांति मैदान पर होना था, उसमे देश के प्रधानमंत्री आने वाले थे | उसके पहले 8 अगस्त को एक समारोह में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को श्रीमती मृणाल गोरे के साथ देखा गया | विषय था उन दैसी कई ज्येष्ठ स्वतंत्रता सेनानी महिलाओं का सम्मान व गौरव | इस समारोह के फोटो 9 अगस्त को कई अखबारों के पहले पन्ने पर छपे | लोगों ने उसे देखा, पुलिस वालों ने भी देखा ही होगा | उसी 9 अगस्त को प्रधानमंत्री का कार्यक्रम भी था | कार्यक्रम से पहले पुलिस ने कुछ महिलाओं पर लाठी चलाई जिसमें वही मृणाल गोरे भी थीं जिन्हें एक दिन पहले सरकार सम्मानित कर चुकी थी | महिलाओं का अपराध यही था कि वे एक मूक मोर्चा बनाकर अगस्त क्रांति मैदान में जाकर 1942 के शहीदों को मूक श्रध्दांजलि अर्पित करना चाहती थी, जो वे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हर वर्ष से करती आयी हैं |
वाह साहब, जिन क्रांतिकारियों की याद को उजागर करने प्रधानमंत्री आ रहे हों, उन्ही क्रांतिकारियों को श्रध्दांजलि देने के लिये जानेवालों पर लाठी चलाई गई| मोर्चे में प्रमिला जी दंडवते भी थीं जिन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले ऐसे कई मोर्चो में भाग लिया होगा और विदेशी सरकार के सिपाहियों से लाठियाँ खाई होंगी | आज सबने उन्ही दिनों की याद में फिर अपने ही पुलिस ज्यादतियाँ सहीं | पुलिस की दृष्टि में उनका अपराध यही था कि वे ऐसी जगह जाना चाहती थीं और वर्षों से जा भी रही थीं, जहाँ प्रधानमंत्री आनेवाले थे और पुलिस के लिए प्रधानमंत्री की सुरक्षा व्यवस्था का प्रश्न सर्वोपरि था | श्रीमती मृणाल जी ने उन्हें समझाया कि प्रधानमंत्री का आगमन समय बहुत दूर है, उनकी मुख्यमंत्री से इस विषय पर बातचीत हो चुकी है और मुख्यमंत्री ने उन्हें मुख्य कार्यक्रम से पहले अपने मोर्चे के साथ जाकर श्रध्दांजलि अर्पित करने की पूर्वानुमति दे दी है | लेकिन नही साहब, नही| आखिर उन्हें लाठियाँ खानी ही पडीं |
पुलिस की दृष्टी से शायद यह व्यवहार सर्वथा समर्थनीय हो - शायद नहीं | यह जानकारी जनता के लिये बडी लाभप्रद सिध्द होगी कि पुलिस के महकमे से कौन इस व्यवहार को अशोभनीय मानता है और क्यों ? यद्दापि, पुलिस के किसी वरिष्ठ अधिकारी की प्रतिक्रिया अखबार में पढने को नही मिली, फिर भी, अनुमान है कि नब्बे प्रतिशत पुलिस इस घटना का समर्थन ही करेगी| आखिर क्यों? तो उत्तर मिलेगा कि साहब पुलिस ऑर्गेनाइजेशन एक ऐसा विभाग है जहाँ वरिष्ठ की आज्ञापालन ही सर्वोपरि माना जाता है | ऐसा न हो तो वहाँ तहलका मच जाये, फिर प्रधानमंत्री की सुरक्षा ऐसा मामला है जहां रिस्क नही लिया जा सकता, इत्यादि |
लेकिन मेरी निगाह में पुलिस का व्यवहार हमारी कमजोर पडती शासकीय व्यवस्था का ही प्रतीक है और उसी शासकीय अव्यवस्था से उत्पन्न भी है | अच्छा शासन कैसा हो ? इस संबंध में महाराष्ट्र के संत राजनीतिज्ञ और शिवाजी के गुरु माने जानेवाले कवि रामदास का एक दोहा है | "जब तुम देखो कि बडे से बडा जनसमुदाय बिना रुकावट के चल रहा है तो वह शासन व्यवस्था अच्छी है, जब जनसमुदाय जगह जगह अटक रहा हो, तो समझो वह शासन अच्छा नही है" -- जनांचा प्रवाहो चालला, म्हणिजे कार्यभाग जाहला, जन ठायी - ठायी तुंबला म्हणिजे खोटे !"
हम भी अपनी शासन व्यवस्था में जगह जगह रुकावटें निर्माण कर रहे हैं | हमारे लिए आज नियम और प्रोसीजर सर्वोपरि बन गया है न कि वह व्यक्ति जिसे उस नियम से परेशानी होनेवाली है | अब नियम कहता है कि प्रधानमंत्री के कार्यक्रम स्थल पर किसी को नहीं आने दिया जाये, तो यह नियम सब पर लागू हो गया, भले ही वह व्यक्ति ऐसा क्यों न हो जिसकी प्रशंसा वही प्रधानमंत्री या राज्य के मुख्यमंत्री कर रहे हों| दु:ख इस बात का है कि नियम में बद्ध इस शासन व्यवस्था में प्रमिलाजी जैसी स्वतंत्रता सेनानी पर यह शक किया जा सकता है कि उनके कारण प्रधानमंत्री को खतरा होगा | जब कि प्रधानमंत्री खुद एक स्वतंत्रता सैनिक रह चुके हैं और उन जैसे स्वतंत्रता सैनिकों की यादें उजागर कर उन्हें सम्मानित करने के लिए आ रहे हैं, तो नियम के साथ साथ यह औचित्य-भान हम कब सीखेंगे ?
आज सोचने की आवश्यकता है कि ऐसी घटनाएं क्यों होती हैं| मुख्यमंत्री अवश्य ही मृणाल गोरे और अन्य सामान्य व्यक्ति के बीच का अंतर पहचानते है तभी मृणाल गोरे को घटनास्थल पर पहले जाकर श्रध्दांजलि अर्पित करने की अनुमति दी | फिर यह समझदारी कि मृणाल गोरे और अन्य व्यक्तियों में अंतर है, यह पुलिस के कनिष्ठ अधिकारियों या कांस्टेबलों के पास क्यों नहीं हैं ? उन्हे क्यों नही सिखाया जाता कि व्यक्ति - व्यक्ति में क्या और कैसे फर्क किया जाता है? पुलिस को केवल यही बताया गया था कि जो भी आदमी दिखे उसे रोको| चाहे, किसी तरीके से| यही कमजोरी शासन के अन्य हिस्सों में भी है | सामान्य जनों के प्रति आदर दिखाना, उनकी बात की तहमें जाने का प्रयास करना इत्यादि सद्गुण हैं जो सत्ता के वरिष्ठ अधिकारियों के पास भले ही हों लेकिन छोटे अधिकारियों और कर्मचारियोंके पास नही हैं | क्यों कि हाँ या ना कहने का अधिकार वरिष्ठ अधिकारी अपने पास रखना चाहते हैं | मृणाल गोरे के कार्य को पहचानकर उन्हें घटनास्थल पर जाने की अनुमति मुख्यमंत्री ने तो दे दी, लेकिन यही रवैया, यही डिस्क्रीशन यदि कार्यक्रम स्थल पर उपस्थित कोई डी.सी.पी. दिखाये तो उसे सराहा नही जायेगा बल्कि, शायद डाँट ही पडेगी | क्योंकि शासन मे यह भी मान लिया गया है कि आपके निचले अफसर मे डिस्क्रीशन देने की योग्यता नही है न तो उनकी योग्यता बढाने का कोई प्रयत्न किया जाता है और न उन्हें कोई डिस्क्रीशन दिया जाना चाहिये | परिणाम यह होता है कि वे भी डिस्क्रीशन का रिस्क नहीं लेना चाहते| हालाँकि, डी.सी.पी. का पद एक बहुत वरिष्ठ पद है, फिर भी 9 अगस्त की घटना में किसी डी.सी.पी. से यदि पूर्वानुमति माँगी भी जाती तो वह नहीं देता | शायद सी.पी. या आई.जी. भी नहीं देते क्योंकि वे भी नहीं जानते कि उनके वरिष्ठ इसे किस निगाह से देखेंगे| हारकर मृणाल गोरे या किसी भी ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री के पास ही जाना पडेगा |
इस घटना का एक पहलू और भी है | यदि मुख्यमंत्री ने पूर्वानुमति दे दी थी, तो यह बात नीचे तक क्यों नहीं पहुँची, क्यों कार्यक्रम स्थल की ड्यूटी पर तैनात पुलिस काँस्टेबल को इसकी सूचना नहीं थी ? फिर जब मृणाल जी ने उन्हें बताया तब पुलिस के पास ऐसे उपाय क्यों नहीं थे जिसके जरिये तत्काल ऊपर तक संपर्क कर इसके सच झूठ की पुष्टि की जा सके ? इसलिये की कनिष्ठ कर्मचारी ऐसी किसी जाँच को अपनी जिम्मेदारी नहीं मानते - वे तब तक आपको काई सुविधा नही देंगे जब तक आप स्वयं प्रयत्न कर वरिष्ठों के आदेश उनके पास नही पहुँचाते | वरिष्ठ खुद भी इसे अपनी जिम्मदारी नही मानते | शासन की एक तीसरी अव्यवस्था भी यहां उभरकर सामने आती है | मान लिया जाये कि मामला चूँकि प्रधानमंत्री की सुरक्षा का था इसलिए पुलिस ने मृणाल गोरे और प्रमिला दंडवते जैसी महिलाओं को भी रोकना उचित समझा | यह भी मान लिया जाये कि उत्सव की गडबडी के कारण न तो मुख्यमंत्री की अनुमति की सूचना काँस्टेबल तक पहुंच सकी और न क्रांति मैदान का कोई पुलिसकर्मी मृणाल जी के बताने पर भी पुष्टि नही करवा पाया या मुख्यमंत्री से संपर्क नहीं कर पाया | चलिए, उत्सव की गडबडी में ऐसी छोटी-मोटी घटनाएँ हो जाती हैं | लेकिन जिस तरीके से पुलिस उन महिलाओं से पेश आयी उसका क्या समर्थन हो सकता है ? कम से कम पुलिसकर्मी अच्छा व्यवहार तो दिखा सकते थे | लेकिन मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये तो यह भी असंभव है | जिसके पास लाठी है, शक्ति है, और लाठी चलाने का अधिकार है, उसे जबतक अच्छे बर्ताव का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता और अच्छे बर्ताव का डिस्क्रीशन नही दिया जाता तब तक वह अपने अधिकार का प्रदर्शन बुराई से ही करेगा |
मुख्यमंत्री ने घटनास्थल पर जाकर और महिलाओं से माफी माँग कर अपना बडप्पन ही दुबारा साबित कर दिया | लेकिन जब तक वे खुद फैसला करके यह कोशिश नहीं करते कि यही बडप्पन उनके निचले अधिकारियों में भी आये, तब तक ऐसी अशोभनीय घटनाएँ घटती ही रहेंगी |
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Also in mangal and pdf on janta_ki_ray
दै. हमारा महानगर में प्रकाशित, अगस्त 1997
- लीना मेहेंदळे, भा.प्र.से.
व्यवस्था की एक और विफलता
- लीना मेहेंदळे, भा.प्र.से.
आज से पचास वर्ष पहले की बात है, तब देश के हर कोने से हर समझदार व्यक्ति स्वतंत्रता की लडाई मे अपना हाथ बँटा रहा था | ब्रिटीश सरकार देशवासियोंकी किसी दलील, किसी अपील को सुनने से इनकार कर रही थी | तब मुंबई में गावलिया, टैंक मैदान पर एक विशाल सभा का आयोजन हुआ | वहाँ नेताओं ने दो संदेश दिये, देशवासियों को संदेश दिया - "करो या मरो" और ब्रिटिश सरकार से कहा - "भारत छोडो" | सारा देश इन दो नारों से गूंज उठा | यह नारा किसी पार्टी का नहीं था बल्कि, उन सभी के दिलों की आवाज थी जो आजादी के दीवाने थे, मातृभूमि के लिये सिर पर कफन बांध कर चलते थे और जीवन से अपने लिये सत्ता, संपत्ति, यश, किर्ती, सम्मान या ऐसी किसी बात की मांग नहीं करते थे, वे दिन थे अगस्त 1942 के |
फिर भारत स्वतंत्र हुआ, उस घटना को पचास वर्ष पूरे हुए | यादगार स्वरूप फिर से मुंबई के उसी अगस्त क्रांति मैदान पर समारोह का आयोजन हुआ | देशवासियों को याद दिलाने के लिये कि वे दिन कैसे थे| संकट के, त्याग के, संकल्प पूर्ति के, वे देश के लिए मर मिटने की तमन्ना वाले लोगों के दिन थे | उन दिनों की और उन लोगों की याद दिलाने के लिये समारोह का आयोजन हुआ |
मुख्य समारोह 9 अगस्त को अगस्त क्रांति मैदान पर होना था, उसमे देश के प्रधानमंत्री आने वाले थे | उसके पहले 8 अगस्त को एक समारोह में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को श्रीमती मृणाल गोरे के साथ देखा गया | विषय था उन दैसी कई ज्येष्ठ स्वतंत्रता सेनानी महिलाओं का सम्मान व गौरव | इस समारोह के फोटो 9 अगस्त को कई अखबारों के पहले पन्ने पर छपे | लोगों ने उसे देखा, पुलिस वालों ने भी देखा ही होगा | उसी 9 अगस्त को प्रधानमंत्री का कार्यक्रम भी था | कार्यक्रम से पहले पुलिस ने कुछ महिलाओं पर लाठी चलाई जिसमें वही मृणाल गोरे भी थीं जिन्हें एक दिन पहले सरकार सम्मानित कर चुकी थी | महिलाओं का अपराध यही था कि वे एक मूक मोर्चा बनाकर अगस्त क्रांति मैदान में जाकर 1942 के शहीदों को मूक श्रध्दांजलि अर्पित करना चाहती थी, जो वे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हर वर्ष से करती आयी हैं |
वाह साहब, जिन क्रांतिकारियों की याद को उजागर करने प्रधानमंत्री आ रहे हों, उन्ही क्रांतिकारियों को श्रध्दांजलि देने के लिये जानेवालों पर लाठी चलाई गई| मोर्चे में प्रमिला जी दंडवते भी थीं जिन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले ऐसे कई मोर्चो में भाग लिया होगा और विदेशी सरकार के सिपाहियों से लाठियाँ खाई होंगी | आज सबने उन्ही दिनों की याद में फिर अपने ही पुलिस ज्यादतियाँ सहीं | पुलिस की दृष्टि में उनका अपराध यही था कि वे ऐसी जगह जाना चाहती थीं और वर्षों से जा भी रही थीं, जहाँ प्रधानमंत्री आनेवाले थे और पुलिस के लिए प्रधानमंत्री की सुरक्षा व्यवस्था का प्रश्न सर्वोपरि था | श्रीमती मृणाल जी ने उन्हें समझाया कि प्रधानमंत्री का आगमन समय बहुत दूर है, उनकी मुख्यमंत्री से इस विषय पर बातचीत हो चुकी है और मुख्यमंत्री ने उन्हें मुख्य कार्यक्रम से पहले अपने मोर्चे के साथ जाकर श्रध्दांजलि अर्पित करने की पूर्वानुमति दे दी है | लेकिन नही साहब, नही| आखिर उन्हें लाठियाँ खानी ही पडीं |
पुलिस की दृष्टी से शायद यह व्यवहार सर्वथा समर्थनीय हो - शायद नहीं | यह जानकारी जनता के लिये बडी लाभप्रद सिध्द होगी कि पुलिस के महकमे से कौन इस व्यवहार को अशोभनीय मानता है और क्यों ? यद्दापि, पुलिस के किसी वरिष्ठ अधिकारी की प्रतिक्रिया अखबार में पढने को नही मिली, फिर भी, अनुमान है कि नब्बे प्रतिशत पुलिस इस घटना का समर्थन ही करेगी| आखिर क्यों? तो उत्तर मिलेगा कि साहब पुलिस ऑर्गेनाइजेशन एक ऐसा विभाग है जहाँ वरिष्ठ की आज्ञापालन ही सर्वोपरि माना जाता है | ऐसा न हो तो वहाँ तहलका मच जाये, फिर प्रधानमंत्री की सुरक्षा ऐसा मामला है जहां रिस्क नही लिया जा सकता, इत्यादि |
लेकिन मेरी निगाह में पुलिस का व्यवहार हमारी कमजोर पडती शासकीय व्यवस्था का ही प्रतीक है और उसी शासकीय अव्यवस्था से उत्पन्न भी है | अच्छा शासन कैसा हो ? इस संबंध में महाराष्ट्र के संत राजनीतिज्ञ और शिवाजी के गुरु माने जानेवाले कवि रामदास का एक दोहा है | "जब तुम देखो कि बडे से बडा जनसमुदाय बिना रुकावट के चल रहा है तो वह शासन व्यवस्था अच्छी है, जब जनसमुदाय जगह जगह अटक रहा हो, तो समझो वह शासन अच्छा नही है" -- जनांचा प्रवाहो चालला, म्हणिजे कार्यभाग जाहला, जन ठायी - ठायी तुंबला म्हणिजे खोटे !"
हम भी अपनी शासन व्यवस्था में जगह जगह रुकावटें निर्माण कर रहे हैं | हमारे लिए आज नियम और प्रोसीजर सर्वोपरि बन गया है न कि वह व्यक्ति जिसे उस नियम से परेशानी होनेवाली है | अब नियम कहता है कि प्रधानमंत्री के कार्यक्रम स्थल पर किसी को नहीं आने दिया जाये, तो यह नियम सब पर लागू हो गया, भले ही वह व्यक्ति ऐसा क्यों न हो जिसकी प्रशंसा वही प्रधानमंत्री या राज्य के मुख्यमंत्री कर रहे हों| दु:ख इस बात का है कि नियम में बद्ध इस शासन व्यवस्था में प्रमिलाजी जैसी स्वतंत्रता सेनानी पर यह शक किया जा सकता है कि उनके कारण प्रधानमंत्री को खतरा होगा | जब कि प्रधानमंत्री खुद एक स्वतंत्रता सैनिक रह चुके हैं और उन जैसे स्वतंत्रता सैनिकों की यादें उजागर कर उन्हें सम्मानित करने के लिए आ रहे हैं, तो नियम के साथ साथ यह औचित्य-भान हम कब सीखेंगे ?
आज सोचने की आवश्यकता है कि ऐसी घटनाएं क्यों होती हैं| मुख्यमंत्री अवश्य ही मृणाल गोरे और अन्य सामान्य व्यक्ति के बीच का अंतर पहचानते है तभी मृणाल गोरे को घटनास्थल पर पहले जाकर श्रध्दांजलि अर्पित करने की अनुमति दी | फिर यह समझदारी कि मृणाल गोरे और अन्य व्यक्तियों में अंतर है, यह पुलिस के कनिष्ठ अधिकारियों या कांस्टेबलों के पास क्यों नहीं हैं ? उन्हे क्यों नही सिखाया जाता कि व्यक्ति - व्यक्ति में क्या और कैसे फर्क किया जाता है? पुलिस को केवल यही बताया गया था कि जो भी आदमी दिखे उसे रोको| चाहे, किसी तरीके से| यही कमजोरी शासन के अन्य हिस्सों में भी है | सामान्य जनों के प्रति आदर दिखाना, उनकी बात की तहमें जाने का प्रयास करना इत्यादि सद्गुण हैं जो सत्ता के वरिष्ठ अधिकारियों के पास भले ही हों लेकिन छोटे अधिकारियों और कर्मचारियोंके पास नही हैं | क्यों कि हाँ या ना कहने का अधिकार वरिष्ठ अधिकारी अपने पास रखना चाहते हैं | मृणाल गोरे के कार्य को पहचानकर उन्हें घटनास्थल पर जाने की अनुमति मुख्यमंत्री ने तो दे दी, लेकिन यही रवैया, यही डिस्क्रीशन यदि कार्यक्रम स्थल पर उपस्थित कोई डी.सी.पी. दिखाये तो उसे सराहा नही जायेगा बल्कि, शायद डाँट ही पडेगी | क्योंकि शासन मे यह भी मान लिया गया है कि आपके निचले अफसर मे डिस्क्रीशन देने की योग्यता नही है न तो उनकी योग्यता बढाने का कोई प्रयत्न किया जाता है और न उन्हें कोई डिस्क्रीशन दिया जाना चाहिये | परिणाम यह होता है कि वे भी डिस्क्रीशन का रिस्क नहीं लेना चाहते| हालाँकि, डी.सी.पी. का पद एक बहुत वरिष्ठ पद है, फिर भी 9 अगस्त की घटना में किसी डी.सी.पी. से यदि पूर्वानुमति माँगी भी जाती तो वह नहीं देता | शायद सी.पी. या आई.जी. भी नहीं देते क्योंकि वे भी नहीं जानते कि उनके वरिष्ठ इसे किस निगाह से देखेंगे| हारकर मृणाल गोरे या किसी भी ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री के पास ही जाना पडेगा |
इस घटना का एक पहलू और भी है | यदि मुख्यमंत्री ने पूर्वानुमति दे दी थी, तो यह बात नीचे तक क्यों नहीं पहुँची, क्यों कार्यक्रम स्थल की ड्यूटी पर तैनात पुलिस काँस्टेबल को इसकी सूचना नहीं थी ? फिर जब मृणाल जी ने उन्हें बताया तब पुलिस के पास ऐसे उपाय क्यों नहीं थे जिसके जरिये तत्काल ऊपर तक संपर्क कर इसके सच झूठ की पुष्टि की जा सके ? इसलिये की कनिष्ठ कर्मचारी ऐसी किसी जाँच को अपनी जिम्मेदारी नहीं मानते - वे तब तक आपको काई सुविधा नही देंगे जब तक आप स्वयं प्रयत्न कर वरिष्ठों के आदेश उनके पास नही पहुँचाते | वरिष्ठ खुद भी इसे अपनी जिम्मदारी नही मानते | शासन की एक तीसरी अव्यवस्था भी यहां उभरकर सामने आती है | मान लिया जाये कि मामला चूँकि प्रधानमंत्री की सुरक्षा का था इसलिए पुलिस ने मृणाल गोरे और प्रमिला दंडवते जैसी महिलाओं को भी रोकना उचित समझा | यह भी मान लिया जाये कि उत्सव की गडबडी के कारण न तो मुख्यमंत्री की अनुमति की सूचना काँस्टेबल तक पहुंच सकी और न क्रांति मैदान का कोई पुलिसकर्मी मृणाल जी के बताने पर भी पुष्टि नही करवा पाया या मुख्यमंत्री से संपर्क नहीं कर पाया | चलिए, उत्सव की गडबडी में ऐसी छोटी-मोटी घटनाएँ हो जाती हैं | लेकिन जिस तरीके से पुलिस उन महिलाओं से पेश आयी उसका क्या समर्थन हो सकता है ? कम से कम पुलिसकर्मी अच्छा व्यवहार तो दिखा सकते थे | लेकिन मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये तो यह भी असंभव है | जिसके पास लाठी है, शक्ति है, और लाठी चलाने का अधिकार है, उसे जबतक अच्छे बर्ताव का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता और अच्छे बर्ताव का डिस्क्रीशन नही दिया जाता तब तक वह अपने अधिकार का प्रदर्शन बुराई से ही करेगा |
मुख्यमंत्री ने घटनास्थल पर जाकर और महिलाओं से माफी माँग कर अपना बडप्पन ही दुबारा साबित कर दिया | लेकिन जब तक वे खुद फैसला करके यह कोशिश नहीं करते कि यही बडप्पन उनके निचले अधिकारियों में भी आये, तब तक ऐसी अशोभनीय घटनाएँ घटती ही रहेंगी |
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Also in mangal and pdf on janta_ki_ray
दै. हमारा महानगर में प्रकाशित, अगस्त 1997
Sunday, May 25, 2008
Saturday, May 24, 2008
लीना मेहेंदळेः अल्पशी लेखन ओळख
लीना मेहेंदळेः अल्पशी लेखन ओळख
नांव : लीना मेहेंदळे
जन्मतिथी : 31 जानेवारी 1950, धरणगॉव (महराष्ट्र)
शिक्षण : एम.एस.सी. (भौतिकी) पटणा विद्यापीठ
एम.एस.सी. प्रोजेक्ट प्लानिंग, ब्रेडफोर्ड विद्यापीठ एल.एल.बी. (दुसरे वर्ष), मुंबई विद्यापीठ
कार्यक्षेत्र : पटणा येथे फिजीक्सची लेक्चररशिप. 1974 मध्ये भारतीय प्रशासनिक सेवेत प्रवेश. महाराष्ट्र शासनात कलेक्टर, कमिशनर, उद्योग तसेच केंद्र शासनाकडे स्वास्थ विभाग, महिला आयोग व पेट्रोलियम विभागात पदे भूषविली. सांगलीच्या जिल्हाधिकारी पदावरुन चालविलेल्या देवदासी आर्थिक पुनर्वसन कार्यक्रम देश-विदेशात भरपूर नावाजला गेला.
साहित्यिक उपलब्धि
महाराष्ट्र टाईम्स, लोकसत्ता, सकाळ, अन्तर्नाद गांवकरी, लोकमत, देशदूत इत्यादी दैनिकांत सामाजिक व प्रशासनिक मुद्यांवर सुमारे 400 लेख प्रकाशित. त्यांमधून “इथे विचारांना वाव आहे” हा लेखसंग्रह प्रकाशित आणि “प्रशासनाकडे वळून बघतांना” हा दुसरा संग्रह प्रकाशनाच्या वाटेवर. लेखाचे मुख्य विषय लोकशाही, शिक्षण-पद्धती, प्रशासन व्यवस्था, महिलांचे मुद्दे, निसर्ग, पर्यावरण, बालसाहित्य इत्यादि.
हिंदी दैनिकांतून यथा जनसत्ता, हिंदुस्तान, हमारा महानगर, राष्ट्रीय सहारा, नभाटा, देशबंधु, प्रभात खबर, सुमारे 300 लेख व त्यांचे लेखसंग्रह प्रकाशित.
प्रकाशित पुस्तके
ये ये पावसा (1995)
सोनं देणारे पक्षी (1999)
नित्य लीला (2001)
लोकशाही, ऐंशी प्रश्न आणि उत्तरे(2003)-
इथे विचारांना वाव आहे -- मराठी लेखांचे संकलन
प्रशासनाकडे वळून बघतांना -- मराठी लेखांचे संकलन प्रकाशनाधिन.
आनन्दलोक--माननीय कुसुमाग्रज यांच्या 108 कवितांचा हिन्दी अनुवाद. (2003)
या शिवाय हिंदीत एकूण 12 पुस्तके.
आकाशवाणी व दूरदर्शन कित्येक कार्यक्रमांत भाग.
पेट्रोलियम मंत्रालयासाठी आकाशवाणी वरून साप्ताहिक “बूंद बूंद की बात” सुमारे 250 एपिसोड
तसेच दूरदर्शनवर “खेल खेल में बदलो दुनियॉ” सुमारे 200 एपिसोड तयार करुन प्रसारीत केले.
छंद भटकन्ती, भारतीय दर्शन, संगीत, बासरी वादन, आयुर्वेद, पर्यावरण,
वेबसाइट : www.leenamehendale.com
ब्लॉग : www.leenameh.blogspot.com
email : leena.mehendale@gmail.com
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नांव : लीना मेहेंदळे
जन्मतिथी : 31 जानेवारी 1950, धरणगॉव (महराष्ट्र)
शिक्षण : एम.एस.सी. (भौतिकी) पटणा विद्यापीठ
एम.एस.सी. प्रोजेक्ट प्लानिंग, ब्रेडफोर्ड विद्यापीठ एल.एल.बी. (दुसरे वर्ष), मुंबई विद्यापीठ
कार्यक्षेत्र : पटणा येथे फिजीक्सची लेक्चररशिप. 1974 मध्ये भारतीय प्रशासनिक सेवेत प्रवेश. महाराष्ट्र शासनात कलेक्टर, कमिशनर, उद्योग तसेच केंद्र शासनाकडे स्वास्थ विभाग, महिला आयोग व पेट्रोलियम विभागात पदे भूषविली. सांगलीच्या जिल्हाधिकारी पदावरुन चालविलेल्या देवदासी आर्थिक पुनर्वसन कार्यक्रम देश-विदेशात भरपूर नावाजला गेला.
साहित्यिक उपलब्धि
महाराष्ट्र टाईम्स, लोकसत्ता, सकाळ, अन्तर्नाद गांवकरी, लोकमत, देशदूत इत्यादी दैनिकांत सामाजिक व प्रशासनिक मुद्यांवर सुमारे 400 लेख प्रकाशित. त्यांमधून “इथे विचारांना वाव आहे” हा लेखसंग्रह प्रकाशित आणि “प्रशासनाकडे वळून बघतांना” हा दुसरा संग्रह प्रकाशनाच्या वाटेवर. लेखाचे मुख्य विषय लोकशाही, शिक्षण-पद्धती, प्रशासन व्यवस्था, महिलांचे मुद्दे, निसर्ग, पर्यावरण, बालसाहित्य इत्यादि.
हिंदी दैनिकांतून यथा जनसत्ता, हिंदुस्तान, हमारा महानगर, राष्ट्रीय सहारा, नभाटा, देशबंधु, प्रभात खबर, सुमारे 300 लेख व त्यांचे लेखसंग्रह प्रकाशित.
प्रकाशित पुस्तके
ये ये पावसा (1995)
सोनं देणारे पक्षी (1999)
नित्य लीला (2001)
लोकशाही, ऐंशी प्रश्न आणि उत्तरे(2003)-
इथे विचारांना वाव आहे -- मराठी लेखांचे संकलन
प्रशासनाकडे वळून बघतांना -- मराठी लेखांचे संकलन प्रकाशनाधिन.
आनन्दलोक--माननीय कुसुमाग्रज यांच्या 108 कवितांचा हिन्दी अनुवाद. (2003)
या शिवाय हिंदीत एकूण 12 पुस्तके.
आकाशवाणी व दूरदर्शन कित्येक कार्यक्रमांत भाग.
पेट्रोलियम मंत्रालयासाठी आकाशवाणी वरून साप्ताहिक “बूंद बूंद की बात” सुमारे 250 एपिसोड
तसेच दूरदर्शनवर “खेल खेल में बदलो दुनियॉ” सुमारे 200 एपिसोड तयार करुन प्रसारीत केले.
छंद भटकन्ती, भारतीय दर्शन, संगीत, बासरी वादन, आयुर्वेद, पर्यावरण,
वेबसाइट : www.leenamehendale.com
ब्लॉग : www.leenameh.blogspot.com
email : leena.mehendale@gmail.com
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Friday, May 23, 2008
माहिती अधिकाराचा कायदा
माहिती अधिकाराचा कायदा
(लोकमत दि 6 जुलै 2008 रविवार)
सुप्रशासन म्हणजे काय याचे उत्तर देताना कार्यक्षमता (Efficiency), उत्तरदायित्व (Responsible), पारदर्शकता (Transparent), संवेदनशीलता (Sensitiveness), दूरदृष्टी ( Vision) व सुयोग्य कार्यपध्दती (System & Procedure) हे आवश्यक गुण आहेत. यापैकी पारदर्शकता हा गुण शासनामध्ये अभावानेच आढळतो अशी गेल्या कित्येक काळापासून तक्रार होत होती. त्याचे निराकरण म्हणजे माहितीचा कायदा.
लोकशाही टिकविण्यासाठी व समृद्घ करण्यासाठी लोकांनी कायमपणे सतर्कता ठेवली पाहिजे. The cost of democracy is continuous vigilience असे अब्राहम लिंकन यांनी म्हटले होते. ही सतर्कता बाळगून लोकांची लोकांसाठी व ख-या अर्थाने लोकांनी चालविलेली शासन व्यवस्था अस्तित्वात यायची असेल तर लोकांनी सतत माहिती घेणे व त्या माहितीकडे सतर्कतेने पाहणे आवश्यक ठरते. यासाठी माहितीचा कायदा अस्तित्वात आणलेला आहे.
केंद्र शासनाचा माहिती अधिकाराचा कायदा दिनांक 12 ऑक्टोबर 2005 पासून लागू झाला. तत्पूर्वी महाराष्ट्र राज्याने व इतर काही राज्यांनी त्यांचा स्वत:चा माहिती अधिकार कायदा अंमलात आणला होता. महाराष्ट्राचा कायदा ऑगस्ट 2003 पासून अंमलात आला होता. परंतु केंद्राचा कायदा अस्तित्वात आल्यापासून महाराष्ट्राचा कायदा आपोआपच निरसित झाला.
महाराष्ट्राने आधी केलेल्या कायद्याच्या तुलनेत आणि केंद्र शासनाच्या कायद्यामध्ये महत्वाची सुधारणा अशी आहे की, केंद्र शासनाच्या कायद्याप्रमाणे माहिती अधिकाराखाली माहिती मागविताना अर्जदाराला कारणमिमांसा देण्याची गरज नाही. तसेच सदर माहितीचा व आपला काय संबंध आहे किंवा त्या माहितीचा काय वापर करुन घेणार आहोत हेही उघड करण्याची गरज नाही. आधी ही माहिती द्यावी लागत असे व तिचेच कारण पुढें करुन कित्येक वेळा माहिती देण्याचे नाकारले जात असे.
नव्या केंद्रीय माहिती अधिकाराच्या कायद्याखाली महाराष्ट्रात डिसेंबर 2007 पर्यंत सुमारे सव्वा दो¬न लाख अर्ज प्राप्त झाले असून, त्यापैकी दोन लाखापेक्षा जास्त अर्ज निकाली काढण्यात आले आहेत. ही टक्केवारी 95 इतकी आहे. यामध्ये महाराष्ट्राचे काम निश्चितच इतर सर्व राज्यांच्या तुलनेने उत्कृष्ट आहे असे म्हणावे लागेल.
माहितीचा कायदा आल्यानंतर सुरुवातीच्या काळात आपल्याकडील माहिती सुसूत्र ठेवण्यासाठी सर्वच कार्यालयांना प्रयत्न करावे लागले.
हा कायदा लागू झाल्याबरोबर सर्व कार्यालयांनी आपले सर्व अभिलेख सूचिबध्द करुन आणि ज्यांचे संगणकीकरण करणे योग्य आहे, अशा सर्व अभिलेखांचे संगणकीकरण करावे असे निर्देश आहेत. यासाठी 120 दिवसांची मुदत देण्यात आली. यासाठी साधनसामुग्री विशेषत: संगणक उपलब्ध करुन देण्याची जबाबदारी विभाग प्रमुखांवर आहे. शिवाय असे अभिलेख पाहणे सोयीचे व्हावे म्हणून संपूर्ण देशातील विविध प्रणालीमध्ये नेटवर्कमार्फत ते जोडले जात आहेत ना, याची खातरजमा विभाग प्रमुखांनी करणे क्रम प्राप्त ठरले आहे.
कायद्याच्या कलम 4 ख अन्वये संगणकावर एकूण 17 प्रकारची माहिती उपलब्ध करु¬न देण्याचे निर्देश आहेत. त्यामध्ये त्या त्या कार्यालयाची रचना आणि कार्यपध्दती, तिथ अधिका-यांची आणि कर्मचा-यांची निर्देशिका, त्यांना मिळणारे मासिक वेतन, अधिका-यांना वाटून दिलेले काम, निर्णय घेण्याची पध्दत, त्यांचे पर्यवेक्षण (Monitoring) आणि जबाबदारी , स्वत:च्या कामाच्या मोजमापाबद्दल कार्यालयाने ठरविलेली मानके, त्यासाठी तयार केलेली नियमपुस्तिका, त्यांच्याकडे असलेल्या दस्तऐवजांचे विवरण, त्यांच्या नियंत्रणाखालील मंडळे, परिषदा किंवा समित्यांचे विवरण, हा तपशील देण्याचा आहे.
त्याच प्रमाणे धोरण आखतांना व त्यांची अंमलबजावणी करताना लोकांशी विचारविनिमय करण्यासाठी अस्तित्वात असलेल्या व्यवस्थेचा तपशील, विभागाच्या नियमांमधे तरतूद केल्याप्रमाणे नागरिकांना नुकसान भरपाई देण्याची पध्दती, माहिती मिळविण्यासाठी नागरिकांना उपलब्ध असणा-या सुविधांचा तपशील व वेळापत्रक तसेच सार्वजनिक वापरासाठी चालविण्यात येत असलेल्या ग्रंथालयाच्या किंवा वाचनालयाच्या कामकाजाच्या वेळांचा तपशील आणि त्या कार्यालयाने ठरवलेली नागरिकांची सनद अर्थात् किती दिवसांत, कुठल्या अर्जाचे निराकरण होईल - कोणता फॉर्म भरुन द्यावा लागेल इत्यादी माहिती द्यायची आहे.
या शिवाय सर्व योजनांचा तपशील, आपल्या प्रत्येक कनिष्ठ कार्यालयाला नेमून दिलेला अर्थसंकल्प आणि त्यांना दिलेल्या रकमांचा अहवाल व त्यांनी केलेल्या खर्चाचा तपशील, कार्यक्रमाच्या अंमलबजावणीची पध्दत, रकमा आणि त्यातील लाभधिका-यांचा तपशील, ज्या व्यक्तींना सवलती, परवाने किंवा प्राधिकारपत्रे दिलेली आहेत, अशा व्यक्तींचा तपशील, या सर्व माहितीच्या संबंधातील तपशील इलेक्ट्रॉनिक स्वरूपात उपलब्ध करून देणे गरजेचे आहे.
सर्वात महत्त्वाचे म्हणजे प्रत्येक कार्यालयाने आपल्या जन माहिती अधिका-यांची नावे, पदनामे आणि इतर तपशील द्यायचा आहे. यासाठी कायदा अस्तित्वात आल्यापासून पहिल्या चार महिन्यांच्या कालावधीत शास¬नाच्या सर्व विभागांनी व संस्थांनी आपापल्या कार्यालयातील जनमाहिती अधिकारी (Public Information Officer) घोषित करावेत व त्यांचा हुद्दा प्रशासनातील कक्ष अधिका-यापेक्षा कमी असू नये. त्याचप्रमाणे सर्व विभागांनी प्रथम अपिलीय अधिकारी नेमावेत व त्यांचा हुद्दा उप सचिव श्रेणीच्या खालील असू नये. अशा घोषित अधिका-यांची नावे कार्यालयाच्या दर्शनी भागात ठळकपणे लावावी. त्याचप्रमाणे हे संगणकाचे व इंटरनेटचे युग आहे म्हणूनच ही माहिती वेबसाईटवर टाकावी. कलम 4 प्रमाणे जर एखाद्या खात्याने किंवा कार्यालयाने ही माहिती वेबसाईटवर टाकलेली नसेल किंवा वेळोवेळी अद्यावत केली नसेल तर थेट त्या खात्याविरूध्दच राज्य माहिती आयुक्तांकडे दाद मागता येते.
माहितीचा अधिकार कायद्याची अंमलबजावणी प्रभावीपणे व्हावी व त्यातील निकाल शीघ्रगतीने लागावे त्यासाठी महाराष्ट्र राज्य माहिती आयोगाची स्थापना करून मुख्य माहिती आयुक्त यांची नेमणूक करण्यात आलेली आहे. या खेरीज दुस-या अपिलाचे काम शीघ्रगतीने चालावे व लोकांना येण्याजाण्यामध्ये सोय व्हावी यासाठी महसूल विभागीय पातळीवर प्रत्येकी एक राज्य विभागीय माहिती आयुक्त यांची नेमणूक केलेली आहे. त्याशिवाय मुंबई शहराकरिता वा बृहन्मुंबई शहराकरिता एक अतिरिक्त राज्य माहिती आयुक्तांची नेमणूक करण्यात आलेली आहे. अशाप्रकारे महाराष्ट्रात एकूण आठ राज्य माहिती आयुक्त काम पाहतात.
माहितीच्या अधिकाराच्या कायद्याखाली एकूण दो¬न वेळा अपिल करता येते. यापैकी पहिले अपिल हे ज्या त्या विभागाच्या उप सचिव स्तरावरील अधिका-याकडेच करावयाचे असते व दुसरे अपिल मात्र राज्य मुख्य माहिती आयुक्त किंवा विभागीय पातळीवरील राज्य माहिती आयुक्त यांच्याकडे करण्यात येते. अपिलाच्या कारणामध्ये माहिती ¬नाकारणे याच बरोबर वेळेत माहिती न देणे, असमाधा¬नकारक माहिती देणे ही कारणे असू शकतात. महाराष्ट्रात आतापर्यंत 21,000 प्रथम अपिल दाखल झाली आहेत. त्यापैकी 20000 अपिले निकाली काढण्यात आली आहेत. हे प्रमाण देखिल 95% आहे. त्याचप्रमाणे 15,000 अर्जावर दुसरे अपिल करण्यात आले व त्यापैकी 3,124 निकाली काढण्यात आले.
माहितीचा अधिकार कायदा कोणाला लागू आहे
माहितीच्या अधिकाराचा कायदा महाराष्ट्र शास¬नाच्या सर्व विभागां¬ना लागू आहे. तसेच शासनाने निर्माण केलेल्या विविध शासकीय संस्था, महामंडळे, कंपन्या व स्वायत्त संस्था यांना देखील लागू आहे. कायद्यातील व्याख्येप्रमाणे जी संस्था राज्याच्या एकत्रित निधीतून ( Consolidated Fund ) अर्थ सहाय्य मिळवित असेल अशा सर्व संस्थांना हा कायदा लागू होतो. उदाहरणार्थ, ज्या शैक्षणिक संस्था शासनाकडून ग्रँट मिळवितात त्या सर्वांना हा कायदा लागू आहे.
याहूनही महत्वाचे असे की, जरी एखादी संस्था शासनाकडून ग्रँट घेत नसेल तरीही संस्थेची स्थापना जर शासन अध्यादेशाद्बारे झाली असेल उदा. नफ्यात चालणारी महामंडळे, विद्यापिठे, धर्मदाय आयुक्त अशा कित्येक संस्था आहेत ज्या त्यांच्या आर्थिक समृध्दीमुळे शासनाच्या अर्थसहाय्यावर अवलंबून नाहीत, परंतु त्यांची निर्मिती शासनाच्या अध्यादेशातून झाली आहे वा त्यांना शासनाचे संरक्षण कवच लाभलेले आहेत अशा सर्व संस्थांना देखील माहिती अधिकाराचा कायदा लागू होतो. याच कलमाचा वापर करून नुकतेच धर्मादाय आयुक्तांकडून एका प्रकरणी माहिती मागविल्यावर लक्षांत आले की, अद्यापही त्यांच्या कडील काही संस्थांच्या कागदपत्रांमध्ये महाराष्ट्रातील मुख्यमंत्र्यांचे नांव वसंतराव नाईक हेच कायम आहे व ते अद्यावत करुन घेतलेले नाही. माहिती अधिकाराच्या कायद्याखाली घडणा-या काही गंमती जमतीचा हा एक भाग म्हणायचा.
या सर्व आयोजनामुळेच माहिती अधिकारासंबंधात महाराष्ट्र राज्याचे काम देशातील अन्य राज्यांच्या तुलनेने जास्त उठावदार झालेले आहे.
माहिती अधिकाराच्या कायद्यात काही अशी कलमे आहेत ज्या अंतर्गत माहिती नाकारता येते. जी माहिती भारताची सुरक्षा, सार्वभौमत्व, आर्थिक सुरक्षा यासाठी गोपनीय असणे आवश्यक आहे, शिवाय पेटेंट ला पात्र असलेली संशोधने, शस्त्रास्त्र निर्मिती, अंतराळ आणि अणुअर्जा संबंधित आपल्या देशाचे कार्यक्रम ही माहिती नाकारली जाईल. तसेच मंत्रिमंडळाचे निर्णय होण्यापूर्वी झालेला खल, एखाद्या व्यक्तीची वैयक्तिक सुरक्षा जपणे इत्यादि कारणांसाठी माहिती नाकारण्यात येते. आजवर ज्या अर्जांना माहिती नाकारली त्यांची संख्या तुलनेने फार कमी आहे. त्यामुळे सध्या तरी माहिती अधिकाराचा कायदा प्रभावी ठरत आहे.
मी माझ्या देशाची लोकशाही पध्दत सुदृढ करण्यासाठी कांय छोटासा हातभार लाऊ शकते असा प्रश्न ज्या ज्या व्यक्तींच्या मनांत येत असेल त्यांना छान उत्तर आहे - माहिती अधिकाराखाली प्रश्न विचारा आणि त्यायोगे शासनाची कार्यक्षमता वाढवा.
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kept on chakori_....
(लोकमत दि 6 जुलै 2008 रविवार)
सुप्रशासन म्हणजे काय याचे उत्तर देताना कार्यक्षमता (Efficiency), उत्तरदायित्व (Responsible), पारदर्शकता (Transparent), संवेदनशीलता (Sensitiveness), दूरदृष्टी ( Vision) व सुयोग्य कार्यपध्दती (System & Procedure) हे आवश्यक गुण आहेत. यापैकी पारदर्शकता हा गुण शासनामध्ये अभावानेच आढळतो अशी गेल्या कित्येक काळापासून तक्रार होत होती. त्याचे निराकरण म्हणजे माहितीचा कायदा.
लोकशाही टिकविण्यासाठी व समृद्घ करण्यासाठी लोकांनी कायमपणे सतर्कता ठेवली पाहिजे. The cost of democracy is continuous vigilience असे अब्राहम लिंकन यांनी म्हटले होते. ही सतर्कता बाळगून लोकांची लोकांसाठी व ख-या अर्थाने लोकांनी चालविलेली शासन व्यवस्था अस्तित्वात यायची असेल तर लोकांनी सतत माहिती घेणे व त्या माहितीकडे सतर्कतेने पाहणे आवश्यक ठरते. यासाठी माहितीचा कायदा अस्तित्वात आणलेला आहे.
केंद्र शासनाचा माहिती अधिकाराचा कायदा दिनांक 12 ऑक्टोबर 2005 पासून लागू झाला. तत्पूर्वी महाराष्ट्र राज्याने व इतर काही राज्यांनी त्यांचा स्वत:चा माहिती अधिकार कायदा अंमलात आणला होता. महाराष्ट्राचा कायदा ऑगस्ट 2003 पासून अंमलात आला होता. परंतु केंद्राचा कायदा अस्तित्वात आल्यापासून महाराष्ट्राचा कायदा आपोआपच निरसित झाला.
महाराष्ट्राने आधी केलेल्या कायद्याच्या तुलनेत आणि केंद्र शासनाच्या कायद्यामध्ये महत्वाची सुधारणा अशी आहे की, केंद्र शासनाच्या कायद्याप्रमाणे माहिती अधिकाराखाली माहिती मागविताना अर्जदाराला कारणमिमांसा देण्याची गरज नाही. तसेच सदर माहितीचा व आपला काय संबंध आहे किंवा त्या माहितीचा काय वापर करुन घेणार आहोत हेही उघड करण्याची गरज नाही. आधी ही माहिती द्यावी लागत असे व तिचेच कारण पुढें करुन कित्येक वेळा माहिती देण्याचे नाकारले जात असे.
नव्या केंद्रीय माहिती अधिकाराच्या कायद्याखाली महाराष्ट्रात डिसेंबर 2007 पर्यंत सुमारे सव्वा दो¬न लाख अर्ज प्राप्त झाले असून, त्यापैकी दोन लाखापेक्षा जास्त अर्ज निकाली काढण्यात आले आहेत. ही टक्केवारी 95 इतकी आहे. यामध्ये महाराष्ट्राचे काम निश्चितच इतर सर्व राज्यांच्या तुलनेने उत्कृष्ट आहे असे म्हणावे लागेल.
माहितीचा कायदा आल्यानंतर सुरुवातीच्या काळात आपल्याकडील माहिती सुसूत्र ठेवण्यासाठी सर्वच कार्यालयांना प्रयत्न करावे लागले.
हा कायदा लागू झाल्याबरोबर सर्व कार्यालयांनी आपले सर्व अभिलेख सूचिबध्द करुन आणि ज्यांचे संगणकीकरण करणे योग्य आहे, अशा सर्व अभिलेखांचे संगणकीकरण करावे असे निर्देश आहेत. यासाठी 120 दिवसांची मुदत देण्यात आली. यासाठी साधनसामुग्री विशेषत: संगणक उपलब्ध करुन देण्याची जबाबदारी विभाग प्रमुखांवर आहे. शिवाय असे अभिलेख पाहणे सोयीचे व्हावे म्हणून संपूर्ण देशातील विविध प्रणालीमध्ये नेटवर्कमार्फत ते जोडले जात आहेत ना, याची खातरजमा विभाग प्रमुखांनी करणे क्रम प्राप्त ठरले आहे.
कायद्याच्या कलम 4 ख अन्वये संगणकावर एकूण 17 प्रकारची माहिती उपलब्ध करु¬न देण्याचे निर्देश आहेत. त्यामध्ये त्या त्या कार्यालयाची रचना आणि कार्यपध्दती, तिथ अधिका-यांची आणि कर्मचा-यांची निर्देशिका, त्यांना मिळणारे मासिक वेतन, अधिका-यांना वाटून दिलेले काम, निर्णय घेण्याची पध्दत, त्यांचे पर्यवेक्षण (Monitoring) आणि जबाबदारी , स्वत:च्या कामाच्या मोजमापाबद्दल कार्यालयाने ठरविलेली मानके, त्यासाठी तयार केलेली नियमपुस्तिका, त्यांच्याकडे असलेल्या दस्तऐवजांचे विवरण, त्यांच्या नियंत्रणाखालील मंडळे, परिषदा किंवा समित्यांचे विवरण, हा तपशील देण्याचा आहे.
त्याच प्रमाणे धोरण आखतांना व त्यांची अंमलबजावणी करताना लोकांशी विचारविनिमय करण्यासाठी अस्तित्वात असलेल्या व्यवस्थेचा तपशील, विभागाच्या नियमांमधे तरतूद केल्याप्रमाणे नागरिकांना नुकसान भरपाई देण्याची पध्दती, माहिती मिळविण्यासाठी नागरिकांना उपलब्ध असणा-या सुविधांचा तपशील व वेळापत्रक तसेच सार्वजनिक वापरासाठी चालविण्यात येत असलेल्या ग्रंथालयाच्या किंवा वाचनालयाच्या कामकाजाच्या वेळांचा तपशील आणि त्या कार्यालयाने ठरवलेली नागरिकांची सनद अर्थात् किती दिवसांत, कुठल्या अर्जाचे निराकरण होईल - कोणता फॉर्म भरुन द्यावा लागेल इत्यादी माहिती द्यायची आहे.
या शिवाय सर्व योजनांचा तपशील, आपल्या प्रत्येक कनिष्ठ कार्यालयाला नेमून दिलेला अर्थसंकल्प आणि त्यांना दिलेल्या रकमांचा अहवाल व त्यांनी केलेल्या खर्चाचा तपशील, कार्यक्रमाच्या अंमलबजावणीची पध्दत, रकमा आणि त्यातील लाभधिका-यांचा तपशील, ज्या व्यक्तींना सवलती, परवाने किंवा प्राधिकारपत्रे दिलेली आहेत, अशा व्यक्तींचा तपशील, या सर्व माहितीच्या संबंधातील तपशील इलेक्ट्रॉनिक स्वरूपात उपलब्ध करून देणे गरजेचे आहे.
सर्वात महत्त्वाचे म्हणजे प्रत्येक कार्यालयाने आपल्या जन माहिती अधिका-यांची नावे, पदनामे आणि इतर तपशील द्यायचा आहे. यासाठी कायदा अस्तित्वात आल्यापासून पहिल्या चार महिन्यांच्या कालावधीत शास¬नाच्या सर्व विभागांनी व संस्थांनी आपापल्या कार्यालयातील जनमाहिती अधिकारी (Public Information Officer) घोषित करावेत व त्यांचा हुद्दा प्रशासनातील कक्ष अधिका-यापेक्षा कमी असू नये. त्याचप्रमाणे सर्व विभागांनी प्रथम अपिलीय अधिकारी नेमावेत व त्यांचा हुद्दा उप सचिव श्रेणीच्या खालील असू नये. अशा घोषित अधिका-यांची नावे कार्यालयाच्या दर्शनी भागात ठळकपणे लावावी. त्याचप्रमाणे हे संगणकाचे व इंटरनेटचे युग आहे म्हणूनच ही माहिती वेबसाईटवर टाकावी. कलम 4 प्रमाणे जर एखाद्या खात्याने किंवा कार्यालयाने ही माहिती वेबसाईटवर टाकलेली नसेल किंवा वेळोवेळी अद्यावत केली नसेल तर थेट त्या खात्याविरूध्दच राज्य माहिती आयुक्तांकडे दाद मागता येते.
माहितीचा अधिकार कायद्याची अंमलबजावणी प्रभावीपणे व्हावी व त्यातील निकाल शीघ्रगतीने लागावे त्यासाठी महाराष्ट्र राज्य माहिती आयोगाची स्थापना करून मुख्य माहिती आयुक्त यांची नेमणूक करण्यात आलेली आहे. या खेरीज दुस-या अपिलाचे काम शीघ्रगतीने चालावे व लोकांना येण्याजाण्यामध्ये सोय व्हावी यासाठी महसूल विभागीय पातळीवर प्रत्येकी एक राज्य विभागीय माहिती आयुक्त यांची नेमणूक केलेली आहे. त्याशिवाय मुंबई शहराकरिता वा बृहन्मुंबई शहराकरिता एक अतिरिक्त राज्य माहिती आयुक्तांची नेमणूक करण्यात आलेली आहे. अशाप्रकारे महाराष्ट्रात एकूण आठ राज्य माहिती आयुक्त काम पाहतात.
माहितीच्या अधिकाराच्या कायद्याखाली एकूण दो¬न वेळा अपिल करता येते. यापैकी पहिले अपिल हे ज्या त्या विभागाच्या उप सचिव स्तरावरील अधिका-याकडेच करावयाचे असते व दुसरे अपिल मात्र राज्य मुख्य माहिती आयुक्त किंवा विभागीय पातळीवरील राज्य माहिती आयुक्त यांच्याकडे करण्यात येते. अपिलाच्या कारणामध्ये माहिती ¬नाकारणे याच बरोबर वेळेत माहिती न देणे, असमाधा¬नकारक माहिती देणे ही कारणे असू शकतात. महाराष्ट्रात आतापर्यंत 21,000 प्रथम अपिल दाखल झाली आहेत. त्यापैकी 20000 अपिले निकाली काढण्यात आली आहेत. हे प्रमाण देखिल 95% आहे. त्याचप्रमाणे 15,000 अर्जावर दुसरे अपिल करण्यात आले व त्यापैकी 3,124 निकाली काढण्यात आले.
माहितीचा अधिकार कायदा कोणाला लागू आहे
माहितीच्या अधिकाराचा कायदा महाराष्ट्र शास¬नाच्या सर्व विभागां¬ना लागू आहे. तसेच शासनाने निर्माण केलेल्या विविध शासकीय संस्था, महामंडळे, कंपन्या व स्वायत्त संस्था यांना देखील लागू आहे. कायद्यातील व्याख्येप्रमाणे जी संस्था राज्याच्या एकत्रित निधीतून ( Consolidated Fund ) अर्थ सहाय्य मिळवित असेल अशा सर्व संस्थांना हा कायदा लागू होतो. उदाहरणार्थ, ज्या शैक्षणिक संस्था शासनाकडून ग्रँट मिळवितात त्या सर्वांना हा कायदा लागू आहे.
याहूनही महत्वाचे असे की, जरी एखादी संस्था शासनाकडून ग्रँट घेत नसेल तरीही संस्थेची स्थापना जर शासन अध्यादेशाद्बारे झाली असेल उदा. नफ्यात चालणारी महामंडळे, विद्यापिठे, धर्मदाय आयुक्त अशा कित्येक संस्था आहेत ज्या त्यांच्या आर्थिक समृध्दीमुळे शासनाच्या अर्थसहाय्यावर अवलंबून नाहीत, परंतु त्यांची निर्मिती शासनाच्या अध्यादेशातून झाली आहे वा त्यांना शासनाचे संरक्षण कवच लाभलेले आहेत अशा सर्व संस्थांना देखील माहिती अधिकाराचा कायदा लागू होतो. याच कलमाचा वापर करून नुकतेच धर्मादाय आयुक्तांकडून एका प्रकरणी माहिती मागविल्यावर लक्षांत आले की, अद्यापही त्यांच्या कडील काही संस्थांच्या कागदपत्रांमध्ये महाराष्ट्रातील मुख्यमंत्र्यांचे नांव वसंतराव नाईक हेच कायम आहे व ते अद्यावत करुन घेतलेले नाही. माहिती अधिकाराच्या कायद्याखाली घडणा-या काही गंमती जमतीचा हा एक भाग म्हणायचा.
या सर्व आयोजनामुळेच माहिती अधिकारासंबंधात महाराष्ट्र राज्याचे काम देशातील अन्य राज्यांच्या तुलनेने जास्त उठावदार झालेले आहे.
माहिती अधिकाराच्या कायद्यात काही अशी कलमे आहेत ज्या अंतर्गत माहिती नाकारता येते. जी माहिती भारताची सुरक्षा, सार्वभौमत्व, आर्थिक सुरक्षा यासाठी गोपनीय असणे आवश्यक आहे, शिवाय पेटेंट ला पात्र असलेली संशोधने, शस्त्रास्त्र निर्मिती, अंतराळ आणि अणुअर्जा संबंधित आपल्या देशाचे कार्यक्रम ही माहिती नाकारली जाईल. तसेच मंत्रिमंडळाचे निर्णय होण्यापूर्वी झालेला खल, एखाद्या व्यक्तीची वैयक्तिक सुरक्षा जपणे इत्यादि कारणांसाठी माहिती नाकारण्यात येते. आजवर ज्या अर्जांना माहिती नाकारली त्यांची संख्या तुलनेने फार कमी आहे. त्यामुळे सध्या तरी माहिती अधिकाराचा कायदा प्रभावी ठरत आहे.
मी माझ्या देशाची लोकशाही पध्दत सुदृढ करण्यासाठी कांय छोटासा हातभार लाऊ शकते असा प्रश्न ज्या ज्या व्यक्तींच्या मनांत येत असेल त्यांना छान उत्तर आहे - माहिती अधिकाराखाली प्रश्न विचारा आणि त्यायोगे शासनाची कार्यक्षमता वाढवा.
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kept on chakori_....
निवडणूकीचे अर्थकारण आवाक्या पलीकडचे व व्यस्त त्यामुळे आपली लोकशाही धोक्यांत आहे कां ? मटा व डोंबिवली
निवडणूकीचे अर्थकारण आवाक्या पलीकडचे
व व्यस्त त्यामुळे आपली लोकशाही धोक्यांत आहे कां ?
मटा (अपूर्ण) व डोंबिवली
दै. मटा - १९९४ दि. ६-१०-९४ (४९)
विद्वान् राजाच्या पोषाखाची गोष्ट अशी सांगतात की त्याच्या आग्रहावरुन त्याच्यासाठी भारी किंमतीचा एक अदृश्य पोषाख बनवला. दरबारात तो त्याला समारंभपूर्वक चढवण्यात आला. विद्वान दरबारी पोषाखाची स्तुति करु लागले. तेवढयात कुठून कसे कोण जाणे, एक अजाण लहान मुलगा तिथे आला अन् राजाला पाहून ओरडला - अरे । राजा तर नागडाच आहे।
त्या अजाण बालकासारखीच अवस्था आज माझी पण झाली आहे. राज्याशास्त्र त्यांतल्या त्यात लोकशाही, व त्यातही निवडणुकीचे अर्थकारण हा धडा मला नाही म्हणजे नाहीच कळत।
निवडणुका सर्वच देशात होतात. कुढे चार तर कुठे पाच वर्षांनी कधी सरकार धाडधाड कोसळल्यामुळे भराभर तर कधी कुणालाच बहुमत न मिळाल्याने पुन्हापुन्हा। तर अशा निवडणुका भारतातही होतात. माझा प्रश्न मुख्यत भारताबद्दलच आहे. तसा तो इतर देशांबद्दलही आहे. पण इतरत्र कांही चांगल घडत असेल तरी ते उपयोगी ठरत नाही आणी इतरत्र कांही चांगल घडत असेल तर ते आपण उचलत नाही तोपर्यंत आपल्याला त्याचा कांय उपयोग म्हणून माझा अबोध, अजाण प्रश्न आपल्यापुरताच आहे.
प्रश्न असा की निवडणूक खर्चाच अर्थशास्त्र कस असत। निवडणूक ग्रामपंचायतीची असो किंवा जिल्हा परिवदेची, नगरपालिकेची असो वा लोकसभेची, कोणत्याही जिंकून येणा-या उमेदवाराचा खर्च कित्येक लाख ते कोटी रुपयांपेक्षा कमी असत नाही. तस पाहिल तर हरण-या उमेदवाराचा सुद्धा बराच खर्च होत असतो. दहा पंधरा लाखाची रक्कम कांही थोडीथोडकी नसते. स्वतचा पदरचा एवढा पैसा खर्च करुन जे लोक प्रमिनिधी निवडून येतात त्यांची पैशाची तूट कशी भरुन निघते।
यह article मेरे पास इतना ही है
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निवडणुकांचे व्यस्त अर्थकारण
त्यामुळे आपली लोकशाही धोक्यांत आहे कां?
प्रश्न 1 लोकशाही धोक्यात आली तर त्याचा त्रास अपल्या सर्वानाच आहे, नुकसान अपल्या सर्वांचेच होईल असे आपल्यापैकी सर्वांना वाटते का?
प्रश्न २ भ्रष्टाचारामुळे लोकशाहीला धोका अहे असे अपल्याला सर्वांना वाटते का?
प्रश्न ३ लोकशाही धोक्यात येऊ नये यासाठी प्रयत्न करणेची जवाबदारी आपल्या सर्वान्वी अहे असे अपल्याला वाटते का? ही जवाबदारी पेलतांना प्रत्येकजण नेतृत्व करु शकणार नाही. .या जवाबदारी साठी नेतृत्व नसले तरीही प्रसंगी चालेल मात्र प्रत्येक व्यक्ति नै व्यक्तिगत रीत्या आपापली जवाबदारी किम्बहूना आपापल्या जवाबदारी पेक्षा जास्त काहीतरी जवाबदारी पेलंणें गरजेचे आहे असे आपल्याला वाटते कां?
प्रश्न ४ आजचे निवडणूकीचे तंत्र भ्रष्टाचारासाठी मोठया प्रमाणावर कारण बनले आहे, हे आपल्याला पठते का?
प्रश्न ५ जो उमेदवार सुमारे एक कोटी रूपये खर्चा करून एमएलए किंवा एमपी म्हणून निवडून आला असेल तर पुढ़ील पांच वर्षात तो आपल्या रकमेची वसूली करण्याचा प्रयत्न करील का नाही? याबद्दल तुम्हाला काय वटते? सुमारे एक कोटी रूपये खर्च करून निवडणूक जिकंणा-या उमेदवाराला संघि मिळाल्यास पुढ़ील पांच वर्षात किती रकम गोळा करण्याचे टार्गेट त्याने आपल्या समोर ठेवलेले असते याची कुणाला कल्पना आहे का?
प्रश्न ६ ही कमाई त्यांना ठरलेल्या पगारा तून किंवा पगाराबरोबर सरकारकडून मिळणा-या इतर सुख सोई मधून पूर्ण होऊ शकत नाही हे आपलाल्या पटते का?
प्रश्न ७ तर मग असे एमएलए, असे निवडून आलेले उमेदवार काय करतात? हा प्रश्न आपण कधी विचारतो का? निवड़ून आल्यावर त्यांचे सर्वप्रमुख ध्येय आपण केलेला खर्च भरून काढण्याचे असेल तर अशा उमेदवाराकडून आपण भ्रष्टाचार न होण्याची मागणी करू शकतो कां ?
प्रश्न ८ येथे एक उदाहरण घेऊ या. समजा निवडून आलेल्या एखाद्या उमेदवाराने म्हणजे लोकप्रतिनिधि ने एखाद्या नोकर भरती साठी समजा कलार्क किंवां कांन्सटेबल च्या नोकर भरती साठी दर व्यक्ति मांगे पन्नास हजार रुपये गोळा करण्यास सुरूवात केली व अशा तर्हेने गोळा केलेले पैसे त्याने आपल्या
निवडणूक खर्चाची भरपाई म्हणून जस्टीफाय केले. आणी यापैकी काही जणांना त्याने नोकरीत चिकटवून देखील दिले तर याचा थेट संबंध तुमच्या आमच्याशी येतो की नाही ? कदाचित हे पन्नास हजार रूपये भरण्याची गरज तुमच्या मुलीला किंवां मुलाला असेल किंवां आपण असे म्हणू की तुमच्या शेजारील एक उमेदवार पन्नास हजार रूपये भरून एकाद्या पोलिस चौकीत कांन्सटेबल लागला. तो त्याची पगाराची जी छोटी कमाई आहे त्यामधून पन्नास हजार रूपये ची भरपाई करू शकत नाही अशा वेळी तो येणार्या तक्रारी मार्फत आपले पैसे वसूल करील की नाही ? अशी तक्रार तुम्ही घेऊन गेलात तर तो तुमचा कड़ून लाच मांगेल की नाही? याचा थेठ संबंध तुमच्या आमच्यावर पडतो की नाही? आता असाही विचार करू या की इतर ज्या प्रगत देशामधे लोकशाही आहे आणी तिथेही निवड़णूक लढवावी लागते तिथे काय परिस्थिति आहे? तिथे पहिली चांगली गोष्ट अशी की तिथे फार कमी पाटर्या असतात. तर मग आपल्या कड़े देखील किती पाटर्या असाव्यात आणीं त्याना जिल्हा किंवां राज्या किंवा देशाचा पातळीवर पार्टी म्हणून ओळख पत्र आणी निवड़णूक चिन्ह द्यावे का नाही या बाबत निवड़णूक आयोगाने काही तरी विचार करणे गरजेचे आहे
प्रश्न ९ आपल्या कडील निवड़णुका ज्या पीपलस रिप्रेझेन्टेशन एॅक्ट खाली घेतल्या जातात. आपल्या पैकी किती जणानी तो एॅक्ट वाचलेला आहे ? निवड़णुकीचा खर्च कमी करणे हा एक महत्वाचा मुद्दा आहे व त्याची जवाबदारी निवड़णूक आयोग हे सर्व पार्टींवर टाकू शकते की नाही? असे टाकले तर निवड़णूक खर्च कमी करण्याची जवाबदारी सर्व पाटर्यांवर येईल. त्याच बरोबर निवडणूकीत किती खर्च केला जातो याचा आहावाल घेण्या साठी निवड़णूक आयोग लक्षावधी रूपये खर्च करते. तर मग हा खर्च लगोलग वेबसाईटवर घालून लोकांना हा खर्च तपासा असे आवाहन केले तर लोक ते करणार नाहीत का? प्रगत देशामधील लोकशाहीचा दुसरा महत्वाचा भाग असा की सर्व व्यवहारांमधे मोठया प्रमाणावर पारदर्शिता असल्यामुळे भ्रष्टाचार लोकांपर्यंत पोचत नाही, त्याची धग लोकांना लागत नाही. नापसंतीच्या मतांची देखील मोजदाद व्हायला हवी आणी एक ठराविक प्रतिशत मते नापसंतीची असतील तर ती निवड़णूक रद्द ठरवणे हा अधिकार निवड़णूक आयोगाने घ्यावा अशी मागणिी आपण सर्वांनी करायला हवी.
- दिनांक १४ फरवरी २००५, डोंबिवलीत भाषणासाठी
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