जानने का हक
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मेरे सपनोंको जानने का हक रे
मेरे सपनोंको जानने का हक रे
क्यों सदियोंसे टूट रहे हैं
इन्हें सजने का नाम नही।
मेरे हाथोंको ये जानने का हक रे
मेरे हाथोंको ये जानने का हक रे
क्यों बरसोंसे खाली पडे हैं
इन्हें आज भी काम नही।
मेरे पैरोंको ये जानने का हक रे
मेरे पैरोंको ये जानने का हक रे
क्यों गाँव गाँव चलना पडे रे
क्यों बसका निशान नही।
मेरी भूखको ये जानने का हक रे
मेरी भूखको ये जानने का हक रे
क्यों गोदामोंमें सडते हैं दाने
मुझे मुट्ठी भर धान नही।
मेरी बूढी माँ को जानने का हक रे
मेरी बूढी माँ को जानने का हक रे
क्यों गोली नही सुई दवाखाने
पट्टी टाँके का सामान नही।
मेरे खेतोंको ये जानने का हक रे
मेरे खेतोंको ये जानने का हक रे
क्यों बाँध बने रे बडे बडे
तो भी फसलों में जान नही।
मेरे जंगलोंको जानने का हक रे
मेरे जंगलोंको जानने का हक रे
कहाँ डालियाँ वो, पत्ते, तने, मिट्टी
क्यों झरनों का नाम नही।
मेरी नदियोंको जानने का हक रे
मेरी नदियोंको जानने का हक रे
क्यों जहर मिलायें कारखाने
जैसे नदियोंमें जान नही।
मेरे गाँवको ये जानने का हक रे
मेरे गाँवको ये जानने का हक रे
क्यों बिजली न सडकें न पानी
खुली राशन की दुकान नही।
मेरे वोटोंको ये जानने का हक रे
मेरे वोटोंको ये जानने का हक रे
क्यों एक दिन बडे बडे वादे
फिर पाँच साल काम नही।
मेरे रामको ये जानने का हक रे
रहमान को ये जानने का हक रे
क्यों खून बहे रे सडकों पे
क्या सब इनसान नही।
मेरी जिंदगीको जीने का हक रे
मेरी जिंदगीको जीने का हक रे
अब हक के बिना भी क्या जीना
ये जीने के समान नही।
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Saturday, September 27, 2008
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2 comments:
कितना कडवा सच है ये.
नुकतच "नद्या आणि जनजीवन" हे संजय संगवई यांनी लिहीलेले पुस्तक वाचायला घेतले आहे. त्या पाश्वभुमीवर आपण लिहीले्ल्या या वेदना आणखीन जाणवल्या.
या पंक्ति माझ्या नाहीत. राजस्थान मधील एका ग्रुपने तयार केलेली वीडियो फिल्म आहे.
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