Saturday, June 05, 2021

हिंदू धर्म में संन्यास - महानगर 3 मई 1995

 

हिंदू धर्म में संन्यास (महानगर बुधवार 3 मई

1995)

पश्चिमी दुनियामें बहु-चर्चित जितनी भी आधुनिक मैनेजमेंट टेकनिककी किताबें हैं, उन सबमें एक सूत्र समान है, वह यह कि किसी उद्योग या व्यवसायमें सफल होनेके लिए मनुष्यका महत्वाकांक्षी होना आवश्यक है यही सूत्र वहांके वरिष्ठ प्रशासकीय अधिकारियों पर भी लागू किया जाता है और कई बार भारतीय अधिकारी भी इस सूत्र से प्रभावित हो ही जाते हैं। इसके बावजूद भारतीय प्रशासनमें कई ऐसे अधिकारी पाये जाते हैं जो अपनी कर्तव्यदक्षता, ईमानदारी और काममें अच्छा अंजाम देनेवाले हैं, जनसामान्यके प्रश्नोंके प्रति संवेदनशील हैं पर फिर भी उन्हें महत्वाकांक्षी नहीं कहा जा सकता। वे अपना काम अच्छी तरह निभा लेनेमें ही अपनी महानता समझते हैं और इस बातकी परवाह नहीं करते कि उन्हें अच्छा पद दिया जा रहा है या नहीं। थोडे शब्दोंमें कहा जाय तो उनके लिए उचित शब्द होगा अलमस्त या फक्कङ। इसीलिए एक दिन हमारी चर्चा मंडलीमें यह चर्चा चली कि हमारा आदर्श कौन है? एक अफसर जो बडा ही एफिशंट और बडा ही महत्वकांक्षी है, या वह जो कामका तो पक्का है लेकिन अपनी अलमस्तीमें खुश है, संतुष्ट है। अब यह भी तय है कि ऐसा प्रश्न किसी पश्चिमा चर्चा मंडलीमें तो उठेगा ही नहीं क्योंकि पश्चिमि सोसायटीमें महत्वाकांक्षी न होना अपने आपमें ही एक कमी या कमजोरी मानी जायेगी। लेकिन भारतीय संस्कृतिने संतोषको एक कमजोरी नहीं वरन गुण कहकर जाना है। जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान। अतः सवाल उठा कि क्या यह संतोषकी मानसिकता आजके युगमें भी कोई मायने रखती है, क्या यह भारतीय प्रशासनिक व्यवस्थामें खतरनाक हो सकती है? वहांसे फिर बात आयी धर्म पर और संन्यास पर.

हिंदू फिलोसफीमें चार पुरूषार्थ बताये गये हैं- वे भी एक नियम, एक क्रमसे। पहले मनुष्य धर्म नामक पुरूषार्थको हासिल करें, फिर अर्थको, फिर कामको और फिर मोक्षको। यहां अर्थ शब्दके माने है संपत्ति या संपन्नता- लेकिन वही संपत्ति जो धर्मका आचरण करते हुए मिली हो - अर्थात अपने श्रम, कार्य कुशलता और उत्पादकताके कारण मिली हो न कि चोरी, डकैती, छल- कपट, घूसखोरी या जुएबाजी से। तीसरा पुरूषार्थ है काम- या उपभोग अर्थात् जो धन कमाया है उसका उपभोग या योग्य कार्यमें उस धनका विनियोग करना यह योग्य उपभोग इसलिए आवश्यक है कि इससे जीवनमें एक प्रकारकी स्थिरता, सुरक्षितता आती है और ऐसा वातावरण तैयार होता है जिसमें स्वयंका ज्ञान और कला सुचारू ढंगसे पनप सकते हैं - बढ सकते हैं। साथ ही योग्य उपभोगको प्रश्रय देनेपर उन कलाकारों और कारीगरोंकी कलाको भी प्रश्रय मिलता है जिनकी आजीविका उसपर निर्भर है।

इन पुरूषार्थोंको जो हासिल कर लेता है- वही अगली सीढी अर्थात मोक्षके चौखट तक पहुंच सकता है और वहां पहुंचना हरेकके लिए वांछनीय बताया गया है। वहांसे अंदर जानेका उपाय बताया है संन्यास ग्रहण लेकिन संन्यासका अधिकार भी हर व्यक्तिको उपलब्ध नहीं है मनुष्य पहले ब्रह्मचर्य आश्रमका पालन करते हुए ज्ञान अर्जन करे- पढाई करे। फिर गृहस्थ आश्रमका पालन करते हुए अपनी कार्यकुशलतासे धन अर्जन करे। साथ ही धर्मका पालन भी करता रहे जिसकी रीति उसे ब्रहमचर्य आश्रममें सिखायी गयी है दोनों आश्रमोंके लिए पच्चीस- पच्चीस वर्षका काल उपयोगी बताया है इसी कालमें मनुष्य अपने धनका उपभोग भी करे- उसके माध्यमसे अपनी परिवारकी वृद्धि औ समृद्धी भी करे

फिर वह वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करे अर्थात् जिस व्यवसायको उसने गृहस्थ आश्रमके दौरान चलाया या बढाया- उसकी जिम्मेदारी बच्चोंको, नयी पीढीको सौंप दे, नयी पीढीको जिम्मेदारी उठानेके लिए सक्षम करे इस दौरान वह नयी पीढीके लिए दूरसे पथ- प्रदर्शकका काम करता रहे. कभी- कभार सलाह मशविरा दे दे यदि संभव हो तो स्वयं वनमें जाकर रहेसंकटकाल हो तो वापस आकर मदद करे लेकिन रोजाना कामकाजकी जिम्मेदारी और अधिकार दोनों ही नयी पीढीपर सौंप दे यदि संभव हो तो स्वयं वनमें जाकर रहे इसीलिए आयुकी इस अवस्थाका नाम है वानप्रस्थ आश्रम- अर्थात् वनकी ओर, प्रकृतिकी ओर,प्रस्थान करनेकी अवस्थावहां वनमें वह अपनी जरूरतोंको कमसे कम करता रहे साथ ही कुछ और ज्ञानार्जन भी करता रहे

इन सारे अनुभवोंसे गुजरने के बाद यदि वह अपने आपको योग्य और सक्षम समझे तो फिर किसी योग्य गुरूके परामर्शसे संन्यास आश्रमकी दीक्षा ले

इस प्रकार हम देखते हैं कि ब्रहमचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रमका विधान तो सबके लिए बताया गया है लेकिन संन्यास आश्रमका विधान सबके लिए नहीं है - यह केवल सुयोग्य और दृढ व्यक्तियोंके लिए है

यह इसलिए कि हिंदू दर्शनके अनुसार संन्यासीपर बडी जिम्मेदारी है समाजको रास्ता दिखाने की संन्यास लेने वाला मनुष्य अपना पहला नाम या परिवारके साथ जुडी हुई अपनी पहचानको छोड देता है फिर वह न किसीका पिता है न पुत्र, न किसीकी माता है ना बहन ना पत्नी इसका प्रतीक है मुंडन यहां उसका व्यक्तिगत जीवन समाप्त हो जाता है और सामाजिक जीवन प्रांरभ हो जाता है फिर वह केवल समाजके लिए ही जीता है- वह भी समाजसे न्यूनतम दानको स्वीकार करते हुए।

संन्यासीके लिए भिक्षाका विधान है- ताकि उसे हर पल यह भान रहे कि वह समाजके दातृत्व पर जी रहा है और इस दानको उसे चुकाना भी है बदलेमें समाजको ज्ञानदान देकर और सही रास्ता समझाकर उसके लिए विधान है कि वह पांचसे अधिक घरोंमें भिक्षा न मांगे जूठा या बासी अन्न भिक्षामें स्वीकार न करे इस नियममें कभी भूखा रहना पडे तो रह ले एक गांवमें तीन दिनसे अधिक दिनों तक न रहे केसरिया वस्त्र धारण करे और अपने सामानमें केवल एक कमंडल रखे यह कमंडल या तूंबा जंगली लाल कद्दूका बना होता है जिसमें दो खाने बने रहते हैं निचले खानेमें वह अपने लिए दूसरी जोडी वस्त्र रख सकता है ऊपरके खानेमें भिक्षाका अन्न, या पानी इसके सिवा वह और कुछ संग्रह नहीं कर सकता है

संन्यासी केसरिया रंगका वस्त्र ही धारणा कर सकता है इसका कारण है कि केसरिया रंगको त्याग, तपस्या, उत्सर्ग, बलिदान, वीरता, ज्ञान और संतोषका रंग माना गया है मानस शास्त्रमें रंगोंका मनपर पडने वाला प्रभाव जिस किसीने पढा होगा या प्रयोग किये होंगे वही बता सकता है कि केसरिया रंग इन गुणोंके साथ कैसे जुड गया भारतमें जो सब कुछ त्यागकर संन्यासी बन गया हो वह केसरिया वस्त्र पहनता है या फिर जो वीरमरणके लिए सारे मोहको त्याग चुका है वह केसरिया वस्त्र पहनता है साथ ही जो लंबी तीर्थयात्रा पर जा रहा है वह केसरिया पताका लिए चलता है क्योंकि केसरिया रंग सांसारिक मोहसे लग हटनेका प्रतीक तो है, लेकिन समाजसे दूर हटनेका प्रतीक नहीं हैं, बल्कि अपने आपको समाजके लिए उपलब्ध और उत्सर्ग करनेका प्रतीक है। यह तभी संभव है जब मनुष्यके पास संतोष हो एक संन्यासी संसारको तभी लीडरशीप दे सकता है यदि वह ज्ञानी हो, अपने काममें कार्यकुशल और प्रवीण रह चुका हो, जिसने अपने ज्ञानको खूब घिसकर और तपाकर सोनेकी तरह खरा कर लिया हो अब ऐसे संन्यासीको देखकर कोई आलसी आदमी सोच सकता है कि मैं भी केसरिया वस्त्र पहनकर भिक्षा मांगता चलूं तो बिना काम किये ही मेरा पेट भर सकता है लेकिन केवल केसरिया वस्त्र पहनकर एक आलसी आदमी एक ज्ञानी संन्यासीके समकक्ष नहीं हो सकता है

यही अंतर है संतोष या अलमस्तीके प्रसंगमें भीएक निखटटू और औसत काम करेवाला अफसर भी कहा सकता है कि भई मैं तो खुश हूं, संतुष्ट हूं, मुझे कोई ज्यादा काम नहीं करना पडता है और ज्यादा सिर भी नहीं खपाना पडता है पर उसकी संतुष्टि उसके आलसके कारण उपजी है और वह संतुष्टि किसी गुणका प्रतिक नही है उससे वह अफसर भला जो महत्वाकांक्षी है और अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करनेके लिए मेहनत और अच्छा काम करने को तत्पर है लेकीन उससे भी अच्छा वह अधिकारी है जो कर्तव्यतत्पर होते हुए भी अपने आपमें संतुष्ट है, परिपूर्ण है, अलमस्त है, इस या उस पोस्टके पीछे नहीं दौडता क्योंकी वह जानता है कि उसका बडप्पन उसक पोस्टपर निर्भर नहीं है वह तो उसका अपना अंदरूनी बडप्पन है क्योंकी अपना काम बेहतरसे बेहतर कर दिखानेकी धन उसकी खुदकी है एक बेहतर कामको कर निभानेका आनंद और उससे उपजी संतुष्टि उसके पास है

बेहतर कामसे एक अलग तरहका अहंकार भी उपज सकता है जो कार्यकुशलता के लिए घातक भी हो सकता है यह अंहकार भी महत्वाकांक्षाका दूसरा रूप है.लेकिन महत्वाकांक्षा और अहंकारसे ऊपर उठकर जिसने कार्यकुशलताके साथ संतोषकी अवस्था प्राप्त की है उसकी अवस्था उस ज्ञानी- संन्यासी जैसी है इस प्रकार हम देखते हैं कि सच्चा संतोष और आनंद तो कार्यकुशलताके कारण ही उपज सकता है लेकिन मूढ व्यक्ति अपने आलसको ही अपनी अलमस्ती बतायेगा, उसे संतोषका नाम देगा आलसमें और कार्यकुशलतासे उत्पन्न होने वाले संतोषमें फर्क कर सकें यह समझ मूढ व्यक्तिमें नही होगी परन्तु हमारे अंदर होनी चाहिए

और धर्म भी क्या है? धारयति इति धर्मः जो हमें अपने आपको धारण करनेकी, अर्थात् अपन आंतरिक दृढताको और साथ ही समाजकी आंतरिक समन्वयको बनाये रखनेकी सामर्थ्य देता है- वही धर्म है वह धर्म कार्यकुशलताके बगैर भी नहीं आता लेकिन संतोषके बगैर भी नहीं आता

कार्यकुशल व्यक्तिका महत्वाकांक्षी होना स्वाभाविक है पश्चिमी मैंनेजमेंट गुरू आज चीख चीखकर कहते हैं महत्वाकांक्षी बनो- क्योंकि महत्वाकांक्षा पूरी करनेके लिए ही सही- व्यक्तिको अपने काममें कुशलता लानी पडती है। लेकिन कार्यकुशलता और महत्वाकांक्षाके बाद तीसरी सीढी है संतोष जिसके बगैरे व्यक्ति या समाजका आंतरिक समन्वय अधिक दिन तक नहीं टिकेगा। इसीलीए चाहिए संन्यासी वृत्ति भी यहीं भारतीय मानसिकता पश्चिमी मैनेजमेंटसे अलग हो जाती है