FDI का जबर्दस्त जंजाल
लीना मेहेंदले
देशबन्धु दि 14-12-2012 (http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/3398/10/0)
खुदरा -विक्रीका क्षेत्र विदेशी निवेशक के लिये खुला करने के अर्थात उसमें FDI लानेके मुद्देपर राजकीय मत दो हिस्सोंमें बँटा है -- हर पार्टी में और सामान्य जनता में भी एक पक्ष कहता है कि यह विदेशी फाँसको आमंत्रण है और दूसरा पक्ष कहता है कि यही एकमेव उद्धारकर्ता है।
किसान कहता है -- हमें सदासे दबाया जा रहा है -- भाव नही मिल रहे - इसका उत्तर दो।
ग्राहक कहता है, जीनेके लिये भरपेट खाना अत्यावश्यक है, वह धन-धान्यादि कृषि-उत्पाद ही महँगा हुआ तो हम क्या करेंगे।
खुदरा विक्रेता कहता है -- हमारे 4 करोड परिवार आर्थात 16-20 करोड लोग इसी खुदरा विक्रीका रोजगार करके रोज अपना पेट भरते हैं, हमसे यह रोजी-रोटी मत छीनो ।
हर कोई कहता है कि दलाल और बिचौलिये सारी मलाई खा जाते हैं। खुदरा विक्रेता जो एक ठेलेवाला है या रास्तेपर सब्जी बेचनेवाला है -- वह कहता है -- देखो, मुझे दलालोंमें मत गिनो -- और वह सही है। यह दलाल हैं जो देशी पुंजी-निवेशक हैं या फिर विदेश से आ सकते हैं। ओर जरूरी नही कि वे सब मलाईखोर भ्रष्टाचारी हों।
इस प्रकार एक ओर यहां उत्पादक के सम्मुख ग्राहक है और खुदरा विक्रेता, राजनेताओं को अपनी पड़ी है कि उस खुदरा व्यवस्था को तोड़कर हम दूसरी लायेंगे तो हमें ये मिलेगा- लेकिन कहेंगे कि जनता को वो मिलेगा। फिर आयात-निर्यात की ऐसी गलत नीतियां बनायेंगे कि उत्पादक और ग्राहक दोनों में हाहाकार मचे और फिर ये कह सकें कि अब हम तुम्हारे भले के लिये देखो विदेशी मेहमानों को ले आये। फिर इसमें हमारी न्याय और दंड व्यवस्था भी कारगर नहीं रहेगी क्योंकि कानून ही ऐसे सुराखों वाले हैं। इसलिए पहले यह अंतर समझना होगा कि मलाई खाने वाले दलाल कौन हैं?
यहां भंडारण व्यवस्था का महत्व सामने आता है। बिना अच्छी भंडारण व्यवस्था के कोई भी दलाल या व्यापारी अपना काम नहीं कर सकता। इसलिए मुनाफाखोरी रोकनी हो तो पारदर्शक, और कार्यक्षम भंडारण व्यवस्थापन होना चाहिए साथ ही उसे मुनाफाखोरी से भी बचना पड़ेगा।ऐसी भंडारण व्यवस्था लाने के लिए सरकार ने कुछ प्रयास अवश्य किए। आज भी सर्वाधिक भंडारण सरकारी क्षेत्र में या सरकार की सहायता से होता है। उदाहरणस्वरूप फूड कार्पोरेशन ऑफ इंडिया है, या वेयर हाउसिंग कार्पोरेशंस हैं, या नाफेड है।
और ऐसा भी नहीं कि पहली बार-यह काम सरकारी क्षेत्र में हो रहा हो। सदियों से चली आ रही राज्य व्यवस्था में हर राजा का कर्तव्य होता था कि वह अपने राज्य के लिए अनाज के भंडार-घर बनवाए और कोषागार। पटना में आज भी एक अति विशाल 'गोलघर' मौजूद है। जहां कई सदियों पहले हजारों मन अनाज सुरक्षित रखने की व्यवस्था थी। बाजारों के लिए चबूतरे बनवाना और वहीं से थोक व खुदरा व्यापार की व्यवस्था करना भी अच्छे राज्य का प्रतीक माना जाता था। मुझे आज भी याद आते हैं बचपन में छोटे गांवों में देखे हुए साप्ताहिक बाजार। मेरे अपने जन्मगांव में ऐसे दो स्थान नियत थे। एक रोजाना बाजार के लिए जहां एक बड़े क्षेत्रफल में फर्श लगवाई हुई थी जाने किस जमाने से -- ताकि धान्य, अनाज, शाक, भाजी, फल इत्यादि सीधे उसी पर उड़ेल कर रखे जा सकें। दूसरी-जगह थी जहां साप्ताहिक बाजार के लिए दूर-दूर गांवों से लोग आते थे। यही दृश्य कमोबेश हर बड़े गांव में, तहसीलों में देखने को मिलता। फिर भी इन बाजारों में आने वाले नाशवंत वस्तुओं की बरबादी हो ही जाती थी। साथ ही किसान या अन्य उत्पादकों को बहुत घूमना पड़ता था।
उनके लिए दूसरा पर्याय यही होता कि अपना उत्पाद कम दाम पर ऐसे व्यापारी या आढ़तिया को बेचे जिसके पास भंडारण के संसाधन हों।यहां से हम आते हैं कृषि उत्पाद-बाजारों पर। महाराष्ट्र का उदाहरण देखें तो एमएपीएम(आर) एक्ट अर्थात् कृषि उत्पाद बाजार नियंत्रण का कानून 1963 में पारित हुआ और 1987 में इसमें कुछ बड़े संशोधन किए गए। आज की तारीख में ऐसे 295 मुख्य बाजार और 609 उप बाजार हैं, जिनमें से केवल 100 मुख्य बाजार ही ए श्रेणी में अर्थात् 1 करोड़ रुपए से अधिक का व्यापार (एक वर्ष में) करते हैं। साथ ही इन बाजारों की कार्यक्षमता, भ्रष्टाचार या ईमानदारी इत्यादि गुणात्मक विवेचना कभी भी नहीं हुई। यदि इन बाजारों की संरचना देखें तो हरेक बाजार के भौगोलिक क्षेत्र में बसने वाले सारे किसान, उस इलाके के पंचायत सदस्य और साथ ही जिन्हें एजेंसी बांटी गई, ऐसे सारे एजेंट इस बाजार के सदस्य माने जाते हैं। लेकिन प्रत्यक्षत: वस्तुस्थिति यही है कि पूरे एपीएमसी पर केवल एजेंटों का अर्थात् मुनाफाखोरों का वर्चस्व रहा है। और यह मुनाफाखोर व एजेंट भी अंतत: राजकीय नेताओं के पिछलग्गू ही रहे हैं। इस प्रकार अच्छे उद्देश्य से बने एपीएमसी भ्रष्टाचार के सत्ताकेन्द्र बन गए और किसान को उनसे वह सुविधा, फायदा और उचित दाम नहीं मिले जिसकी अपेक्षा इस कानून में की गई थी।
पिछले पचास वर्षों में सहकार क्षेत्र की महाराष्ट्र में दुर्गति हुई है। सत्तर और अस्सी के दशक में आश्वासक दिखने वाली सहकार नीति भ्रष्टाचार में ऐसी धंसी कि बड़ी-बड़ी संस्थाएं ध्वस्त हो गईं। महाराष्ट्र की प्राय: सभी सहकारी चीनी मिलें, सूत-और जिनिंग की मिलें, सहकारी बैंक और एपीएमसी जैसी संस्थाएं तेजी से बनीं, चलीं, विकास की आशा का निर्माण किया और भ्रष्टाचार के तूफान में दम तोड़ दिया। उधर सरकार की अपनी जो भंडारण और वितरण की व्यवस्था थी, अर्थात् वेअर हाउसिंग, एफसीआई या फिर रेशनिंग अर्थात् पब्लिक डिस्ट्रिब्यूशन सिस्टम, वहां भी जमकर भ्रष्टाचार हुआ। एफसीआई का गत दस वर्षों का इतिहास देखकर ऐसा लगता है मानो ये बियर कम्पनियों के लिए आरक्षित रखा गया हो। हजारों टन अन्न सड़ाया जाता है ताकि बियर और अन्य शराब बनाने वाली कम्पनियां इसे सस्ते में खरीद कर मुनाफा कमा सकें। ऐसे आर्थिक दुर्व्यवहार की न ही जल्दी कोई सुनवाई होती है और न ही उन्हें कोई कड़ी सजा देने का प्रावधान किसी कानून में है।
हाल ही में नीरा यादव जो कभी उत्तर प्रदेश की मुख्य सचिव रह चुकी हैं और जिनकी भ्रष्ट सम्पत्ति दो से तीन हजार करोड़ के घर में आंकी जाती है, उस पर भ्रष्टाचार का आरोप सिध्द हुआ तो सजा हुई केवल 3 वर्ष की। और यह भी कहीं न्यूज में नहीं आया कि उसकी संपत्ति का क्या हुआ! क्या उसे सरकारी खजाने में जमा कराया गया?
हमारे देश के किसान तीन प्रकार के हैं- अल्प-भू-धारक, अत्यल्प-भू-धारक और खेत-मजूरी करने वाले एक तरफ। मंझोले किसान जिनकी जमीन पांच एकड़ से पन्द्रह एकड़ के बीच है-जो खा-पीकर संतुष्ट हैं, लेकिन कृषि के चढ़ाव-उतार का असर भी झेलते हैं- वे एक तरफ। और बड़े किसान तीसरी तरफ।पहली व दूसरी श्रेणी के किसान ऐसे हैं जिन्हें अपने उत्पाद का उचित मूल्य तुरंत चाहिए होता है। उनकी ऐसी क्षमता नहीं होती कि उत्पाद को रोक कर रखे या बिक्री के बगैर भी महीनों तक काम चला ले। उनके पास बेचने लायक उत्पादन भी कम होता है। लेकिन जो भी है, वही उनकी पूरे वर्ष की पूंजी है। इसीलिए वह तत्काल मूल्य चाहता है और उचित मूल्य भी और वह दोनों का हकदार भी है। लेकिन उसे उचित मूल्य बिना देर के मिले इसके लिए आवश्यक है कि देश में पणन व्यवस्था का अच्छा-खासा विकेन्द्रीकरण हुआ हो। प्रोक्यूअरमेंट संबंधी नीतियां व खरीद की व्यवस्था कार्यक्षमता व पारदर्शिता के साथ हों। ऐसे विकेन्द्रीकरण में हम कहां किस कारण से असफल रहे हैं?
इसका एक उदाहरण मैं देना चाहती हूं। महाराष्ट्र में यदा-कदा नीति घोषित की जाती है कि इस वर्ष हम रेशम-व्यापार बढ़ाने के लिए कुछ करेंगे। इसमें किसान की एक अहम् भूमिका होती है। अब यदि महाराष्ट्र में सरकार चाहती है कि किसान रेशम कोष की पैदावार करे तो दो प्रमुख काम करने पड़ेंगे। किसान से रेशम कोष खरीद के जो केन्द्र खोजे जाएं वहां तत्काल भुगतान की व्यवस्था हो- वर्तमान में फाइलों को घूम-फिरकर आने में तीन महीने लग जाते हैं। दूसरी आवश्यक बात यह कि ऐसे खरीद-केन्द्र पर छोटी क्वेंचिंग मशीन भी रखी जाए और उसी केन्द्र के कर्मचारियों को जरा सी ट्रेनिंग देने की आवश्यकता होती है कि ठीक तरह से रेशम कोष को कैसे पकाते हैं- वह ट्रेनिंग दी जाए। इसी प्रकार मैंने देखा कि जहां भी विकेन्द्रीकरण की बात आती है, वहां थोड़ी सी नई तकनीक, थोड़ा सा नया ट्रेनिंग और व्यवस्थापन की अच्छी प्रणाली (इस उदाहरण में तत्काल भुगतान के अधिकार खरीद-केन्द्र-प्रमुख को देने की व्यवस्था) आवश्यक होती है। सरकार विकेन्द्रीकरण की बात तो करती है। लेकिन इन तीन आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं देती और विकेन्द्रीकरण फेल हो जाता है।
दूसरे भी कई क्षेत्रों में जहां सिंगल विण्डो सिस्टम की बड़ाई गाई जाती है और सिर धुना जाता है कि क्यों हमारे यहां सिंगल विण्डो सिस्टम नहीं है, वहां भी इन्हीं तीन बातों की कमी अक्सर देखी गई है। पणन व्यवस्था के विकेन्द्रीकरण में यह कमी भी रही। अर्थात् दो कमियां- व्यवस्था न बना पाने की एक कमी और नियत में खोट की दूसरी कमी (मसलन एफसीआई द्वारा अनाज सड़ाया जाना)। एमपीएमसी के व्यवस्थापन में भी यही कमियां रहीं और सरकार ने उन्हें सुधारने का कोई प्रयास नहीं किया। उलटे महाराष्ट्र में तो कई वर्षों तक एकाधिकार खरीद की व्यवस्था चलवाई।
0 कपास-एकाधिकार खरीद- किसान सरकार के अलावा अन्य को कपास नहीं बेच सकता।
0 वनोपज-एकाधिकार खरीद- आदिवासी अपने वनोपज ट्रायफेड के सिवा किसी और की नहीं बेच सकता।
0 गन्ना-एकाधिकार खरीद- किसान अपना गन्ना केवल उस चीनी-मिल को बचे सकता है जो उस गांव के गन्ने के लिए नीयत हो।
0 एपीएमसी किसान अपनी खेती उत्पाद केवल उन्हीं दलालों को बेच सकता है जिन्हें एमपीएमसी के क्षेत्र में आढ़त लगाने का ठेका मिला हो।
इन सबसे अलग-थलग एक सफल प्रयोग मैंने देखा कर्नाटक सिल्क एक्सचेंज का। जहां सदियों से चली आ रही दलालों की लूट को एकाधिकार के तहत रोका गया- लेकिन सूझबूझ के साथ। यहां एकाधिकार का अर्थ बहुत संकुचित रूप में अपनाया गया- बस इतना ही कि रेशम कोष की हर उपज और काते हुए रेशम सूत की हर खेप केवल और केवल सिल्क एक्सचेंज में ही बेची जा सकती है। लेकिन वहां खरीद का हक केवल सरकारी मोनोपोली नहीं होगा जैसा महाराष्ट्र कॉटन मोनोपोली पर्चेस एक्ट में था, या जैसा ट्रायफेड का एकाधिकार वनोपज के लिए है। यहां भी एपीएमसी की तरह बाहरी व्यापारी नीलामी में बोली लगा सकता है। लेकिन एपीएमसी की तुलना में दो बातें अलग हैं- पहली यह कि इनमें से कोई व्यापारी आढ़तिया या परमानेंट लाइसेंसी नहीं है जैसा एपीएमसी में होता है। किसी भी नए व्यापारी को छोटी फीस वाली टेम्पररी मेंबरशिप लेकर उस-उस दिन की नीलामी में खरीदारी का हक होता है। दूसरी अलग बात यह है कि हर दिन की नीलामी में सरकार कार्पोरेशन केएसआईसी पहली बोली लगाएगा जो सपोर्ट प्राइज की तरह काम करता है और हर दिन आने वाली उपज का पन्द्रह से चालीस प्रतिशत उपज केएसआईसी द्वारा खरीदी जाती है। इसका अर्थ हुआ कि सरकारी कॉम्पिटीशन द्वारा दलालों का बैलेंस किया जाता है। साथ ही उपज लाने वाले किसान या कारीगर को नाममात्र शुल्क पर पणन की सुविधा और नाममात्र ब्याज पर ऋण की तत्काल सुविधा भी है ताकि किसान दो-तीन दिन इंतजार कर सके। अर्थात् जब सरकार ने मोनोपोली भी नहीं चलाई और ठेकेदारों की भी न चलने दी और पणन से संबंधित कई सुविधाएं उत्पादक को दीं- तब जाकर सिल्क एक्सचेंज की कल्पना ऐसी सफल रही कि पिछले तीस वर्षों में उसने बंगलोर को विश्व का सबसे बड़ा और उत्तम सिल्क-केन्द्र बना दिया है।
इस प्रकार मैं देखती हूं कि एपीएमसी की दुर्दशा रोकने के लिए ऐसे उपाय किए जा सकते हैं। लेकिन वास्तव में नहीं किए जाते। इसी कारण किसान की भावना है कि एपीएमसी में भी उसे उचित न्याय-उचित मूल्य नहीं मिलता। फिर वह इस एपीएमसी एक्ट से बचकर निकल भागने का प्रयास करता है। यही कारण था कि अभी छ:-आठ महीने पहले महाराष्ट्र सरकार को एक नोटिफिकेशन के जरिए करीब 30 प्रकार के कृषि-उत्पादों को एपीएमसी की सूची से हटाना पड़ा। कुल मिलाकर चित्र यही निकलता है कि विकेन्द्रीकरण के लिए आवश्यक तीन बातों का प्रबंध न कर पाना, पणन-भण्डारण में भ्रष्टाचार, और सारी व्यवस्था पर दलालों के माध्यम से नेताओं का कब्जा, सहकारिता क्षेत्र में नेताओं का भ्रष्टाचार- ऐसे कुछ कारण हैं जिनसे किसान को राहत देने में सरकार असफल रही।
पिछले साठ वर्षों में इन बातों को दुरुस्त करने के लिए सरकार कम पड़ गई। और इसका उपाय ढूंढा गया-विदेशी पूंजी। विदेशी व्यापारियों को सहूलियत देकर यहां बसाओ और उन्हें बड़ा सत्ता-केन्द्र बनने दो। फिर चूंकि वे अत्यंत ईमानदार और कार्यक्षम होते हैं- अतएव हमारे देश में भी खुशहाली आएगी। यह है सरकारी तर्क। इस तर्क में चार अहम मुद्दे हैं और मुझे वे चारों गलत दिखते हैं। पहला मुद्दा है- चूंकि रिटेल व्यापार के मार्फत उत्पादक और ग्राहक के बीच की दूरी को कम करने में सरकार व दलाल दोनों कम पड़ गए, सो विदेशी, पूंजी लाओ यही तर्क अपनाया तो जो मैं पिछले कई वर्षों से बुजुर्गों के मुंह से सुनती आ रही हूं उसे सही मानना पड़ेगा। वे कहते थे कि इनसे तो अंग्रेज सरकार अच्छी थी। क्यों न उन्हीं को वापस बुलाया जाय?
दूसरा मुद्दा है कि हम फिर से विकेंद्रीकरण समाप्त कर रहे हैं और केन्द्रीकृत व्यवस्था ला रहे हैं, साथ ही इस केन्द्रीकृत व्यवस्था के सत्ता केन्द्रों पर विदेशियों को विराजमान कर रहे हैं।तीसरा मुद्दा यह है कि जो विदेशी पूंजी निवेशक यूरोप-अमरीका में बडी ईमानदारी दिखाते हैं, वे यहां आकर वैसा नहीं करते क्यों कि हमारे कानून अक्सर उनके विरूध्द निष्प्रभ हो जाते हैं। यहां आकर चाहे जितनी गलती, लूट, मनमानी वे कर लें- हम उन्हें सजा नहीं दिलवाते, पकड़ नहीं पाते, इसके उदाहरण हैं एनरॉन, भोपाल गैस कांड वाले यूनियन कार्बाइड, सिटी बैंक द्वारा जबरन ऋण वसूली के मामले इत्यादि। इसलिए उनके द्वारा हमारे साथ बेईमानी खिलवाड़ और शोषण नहीं होगा इसकी कोई गारंटी नहीं है। सरकार कहती है कि हमारे पास कारगर उपाय हैं- तो क्यों नहीं अब तक भोपाल गैस कांड में सजा हुई? क्यों मुआवजा नहीं दिया गया?
अब तो यह बात भी खुलकर सामने आ गई है कि वॉलमार्ट या एनरॉन जैसी कम्पनियों को घूस से कोई परहेज नहीं है। केवल उसे नाम कुछ अच्छा सा दिया जाना चाहिए-- बस! सो उसे घूस नहीं, बल्कि मत परिवर्तन कहते हैं। इसके अंतर्गत वॉलमार्ट ने खुद अमरीकी सीनेट की कमिटी के सामने कबूल किया कि भारतीय राजकीय नेताओं का मत परिवर्तन करने के लिए पिछले चार वर्षों में 125 करोड़ रुपए खर्च हुए। इसके कुछ दस वर्ष पहले एनरॉन के विरूध्द एक मामला अमरीका कोर्ट में चला जिसमें आरोप था कि उन्होंने अपने अमरीकी शेयर होल्डरों के साथ धोखाधड़ी की थी। उसकी सुनवाई के समय एनरॉन के भारतीय प्रोजेक्ट की कर्ता-धर्ता रेबेका मार्क ने अमरीकी कोर्ट को बताया कि भारत के उच्च पदस्थ नौकरशाह व मंत्रियों के प्रबोधन के लिए 800 करोड़ के आसपास खर्च किया है।अब मान लो हमारी सरकार घूस के खिलाफ कड़ा कानून करती है और वे कहते हैं- हमने तो 'उनका जीवन स्तर बढ़ाने पर खर्च किया है' तो फिर तो हमारी सरकार उन पर मुकदमा भी नहीं करेगी।
यदि क्षमता है तो आज ही की तारीख में वॉलमार्ट को बाहर का रास्ता दिखाइए-और यह भी बताइए कि किस-किस का मत परिवर्तन इन चार वर्षों में हुआ। अर्थात् सरकार का यह कहना कि हम कड़े कानूनों द्वारा अपने हितों की रक्षा करेंगे-यह एक ढकोसला है। ऊपर से तुर्रा यह कि केवल वॉलमार्ट ही नहीं, हमारे प्रधानमंत्री तो चीन को भी कह आए कि आपके देश का पूंजी निवेश हमारे देश में बहुत कम है, सो आइए और अपनी पूंजी लगाइए। उधर रक्षा-सलाहकार भले ही चीखते रहें कि अपना ओएफसी का जाल बिछाने का काम चीनियों को न सौंपा जाए- लेकिन विदेशी पूंजी के लिए उसे भी अनसुना किया जा सकता है।
चौथा मुद्दा भी सोचने लायक है। कहीं यह विदेश पूंजी बनाम स्वदेशी पूंजी का झगड़ा तो नहीं है? नहीं- इसे पूंजी बनाम विकेन्द्रीकरण के रूप में देखना होगा। यदि विदेशी वॉलमार्ट अच्छा नहीं है तो क्या रिलायंस फ्रेश अच्छा है? दोनों स्थितियों में सत्ता केन्द्र बनने का मामला है जो अंतत: शोषण की ओर ले जाता है।
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