Friday, August 22, 2014

प्रस्तावना -- प्रशासनाकडे वळून बघताना साठी

प्रस्तावना -- प्रशासनाकडे वळून बघताना साठी 



वित्त मंत्रालयातील घोटाळे तरुण भारत


Friday, May 23, 2014

FDI का जबर्दस्त जंजाल

FDI का जबर्दस्त जंजाल 
लीना मेहेंदले
देशबन्धु दि 14-12-2012 (http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/3398/10/0)



खुदरा -विक्रीका क्षेत्र विदेशी निवेशक के लिये खुला करने के अर्थात उसमें FDI लानेके मुद्देपर राजकीय मत दो हिस्सोंमें बँटा है -- हर पार्टी में और सामान्य जनता में भी एक पक्ष कहता है कि यह विदेशी फाँसको आमंत्रण है और दूसरा पक्ष कहता है कि यही एकमेव उद्धारकर्ता है।
किसान कहता है -- हमें सदासे दबाया जा रहा है -- भाव नही मिल रहे - इसका उत्तर दो।
ग्राहक कहता है, जीनेके लिये भरपेट खाना अत्यावश्यक है, वह धन-धान्यादि कृषि-उत्पाद ही महँगा हुआ तो हम क्या करेंगे।
खुदरा विक्रेता कहता है -- हमारे 4 करोड परिवार आर्थात  16-20 करोड लोग इसी खुदरा विक्रीका रोजगार करके रोज अपना पेट भरते हैं, हमसे यह रोजी-रोटी मत छीनो ।
हर कोई कहता है कि दलाल और बिचौलिये सारी मलाई खा जाते हैं। खुदरा विक्रेता जो एक ठेलेवाला है या रास्तेपर सब्जी बेचनेवाला है -- वह कहता है -- देखो, मुझे दलालोंमें मत गिनो -- और वह सही है। यह दलाल हैं जो देशी पुंजी-निवेशक हैं या फिर विदेश से आ सकते हैं। ओर जरूरी नही कि वे सब मलाईखोर भ्रष्टाचारी हों। 

इस प्रकार एक ओर यहां उत्पादक के सम्मुख ग्राहक है और खुदरा विक्रेता, राजनेताओं को अपनी पड़ी है कि उस खुदरा व्यवस्था को तोड़कर हम दूसरी लायेंगे तो हमें ये मिलेगा- लेकिन कहेंगे कि जनता को वो मिलेगा। फिर आयात-निर्यात की ऐसी गलत नीतियां बनायेंगे कि उत्पादक और ग्राहक दोनों में हाहाकार मचे और फिर ये कह सकें कि अब हम तुम्हारे भले के लिये देखो विदेशी मेहमानों को ले आये। फिर इसमें हमारी न्याय और दंड व्यवस्था भी कारगर नहीं रहेगी क्योंकि कानून ही ऐसे सुराखों वाले हैं। इसलिए पहले यह अंतर समझना होगा कि मलाई खाने वाले दलाल कौन हैं?

यहां भंडारण व्यवस्था का महत्व सामने आता है। बिना अच्छी भंडारण व्यवस्था के कोई भी दलाल या व्यापारी अपना काम नहीं कर सकता। इसलिए मुनाफाखोरी रोकनी हो तो पारदर्शक, और कार्यक्षम भंडारण व्यवस्थापन होना चाहिए साथ ही उसे मुनाफाखोरी से भी बचना पड़ेगा।ऐसी भंडारण व्यवस्था लाने के लिए सरकार ने कुछ प्रयास अवश्य किए। आज भी सर्वाधिक भंडारण सरकारी क्षेत्र में या सरकार की सहायता से होता है। उदाहरणस्वरूप फूड कार्पोरेशन ऑफ इंडिया है, या वेयर हाउसिंग कार्पोरेशंस हैं, या नाफेड है।

और ऐसा भी नहीं कि पहली बार-यह काम सरकारी क्षेत्र में हो रहा हो। सदियों से चली आ रही राज्य व्यवस्था में हर राजा का कर्तव्य होता था कि वह अपने राज्य के लिए अनाज के भंडार-घर बनवाए और कोषागार। पटना में आज भी एक अति विशाल 'गोलघर' मौजूद है। जहां कई सदियों पहले हजारों मन अनाज सुरक्षित रखने की व्यवस्था थी। बाजारों के लिए चबूतरे बनवाना और वहीं से थोक व खुदरा व्यापार की व्यवस्था करना भी अच्छे राज्य का प्रतीक माना जाता था।  मुझे आज भी याद आते हैं बचपन में छोटे गांवों में देखे हुए साप्ताहिक बाजार। मेरे अपने जन्मगांव में ऐसे दो स्थान नियत थे। एक रोजाना बाजार के लिए जहां एक बड़े क्षेत्रफल में फर्श लगवाई हुई थी जाने किस जमाने से -- ताकि धान्य, अनाज, शाक, भाजी, फल इत्यादि सीधे उसी पर उड़ेल कर रखे जा सकें। दूसरी-जगह थी जहां साप्ताहिक बाजार के लिए दूर-दूर गांवों से लोग आते थे। यही दृश्य कमोबेश हर बड़े गांव में, तहसीलों में देखने को मिलता। फिर भी इन बाजारों में आने वाले नाशवंत वस्तुओं की बरबादी हो ही जाती थी। साथ ही किसान या अन्य उत्पादकों को बहुत घूमना पड़ता था।

उनके लिए दूसरा पर्याय यही होता कि अपना उत्पाद कम दाम पर ऐसे व्यापारी या आढ़तिया को बेचे जिसके पास भंडारण के संसाधन हों।यहां से हम आते हैं कृषि उत्पाद-बाजारों पर। महाराष्ट्र का उदाहरण देखें तो एमएपीएम(आर) एक्ट अर्थात् कृषि उत्पाद बाजार नियंत्रण का कानून 1963 में पारित हुआ और 1987 में इसमें कुछ बड़े संशोधन किए गए। आज की तारीख में ऐसे 295 मुख्य बाजार और 609 उप बाजार हैं, जिनमें से केवल 100 मुख्य बाजार ही ए श्रेणी में अर्थात् 1 करोड़ रुपए से अधिक का व्यापार (एक वर्ष में) करते हैं। साथ ही इन बाजारों की कार्यक्षमता, भ्रष्टाचार या ईमानदारी इत्यादि गुणात्मक विवेचना कभी भी नहीं हुई। यदि इन बाजारों की संरचना देखें तो हरेक बाजार के भौगोलिक क्षेत्र में बसने वाले सारे किसान, उस इलाके के पंचायत सदस्य और साथ ही जिन्हें एजेंसी बांटी गई, ऐसे सारे एजेंट इस बाजार के सदस्य माने जाते हैं। लेकिन प्रत्यक्षत: वस्तुस्थिति यही है कि पूरे एपीएमसी पर केवल एजेंटों का अर्थात् मुनाफाखोरों का वर्चस्व रहा है। और यह मुनाफाखोर व एजेंट भी अंतत: राजकीय नेताओं के पिछलग्गू ही रहे हैं। इस प्रकार अच्छे उद्देश्य से बने एपीएमसी भ्रष्टाचार के सत्ताकेन्द्र बन गए और किसान को उनसे वह सुविधा, फायदा और उचित दाम नहीं मिले जिसकी अपेक्षा इस कानून में की गई थी।

पिछले पचास वर्षों में सहकार क्षेत्र की महाराष्ट्र में दुर्गति हुई है। सत्तर और अस्सी के दशक में आश्वासक दिखने वाली सहकार नीति भ्रष्टाचार में ऐसी धंसी कि बड़ी-बड़ी संस्थाएं ध्वस्त हो गईं। महाराष्ट्र की प्राय: सभी सहकारी चीनी मिलें, सूत-और जिनिंग की मिलें, सहकारी बैंक और एपीएमसी जैसी संस्थाएं तेजी से बनीं, चलीं, विकास की आशा का निर्माण किया और भ्रष्टाचार के तूफान में दम तोड़ दिया। उधर सरकार की अपनी जो भंडारण और वितरण की व्यवस्था थी, अर्थात् वेअर हाउसिंग, एफसीआई या फिर रेशनिंग अर्थात् पब्लिक डिस्ट्रिब्यूशन सिस्टम, वहां भी जमकर भ्रष्टाचार हुआ। एफसीआई का गत दस वर्षों का इतिहास देखकर ऐसा लगता है मानो ये बियर कम्पनियों के लिए आरक्षित रखा गया हो। हजारों टन अन्न सड़ाया जाता है ताकि बियर और अन्य शराब बनाने वाली कम्पनियां इसे सस्ते में खरीद कर मुनाफा कमा सकें। ऐसे आर्थिक दुर्व्यवहार की न ही जल्दी कोई सुनवाई होती है और न ही उन्हें कोई कड़ी सजा देने का प्रावधान किसी कानून में है।

हाल ही में नीरा यादव जो कभी उत्तर प्रदेश की मुख्य सचिव रह चुकी हैं और जिनकी भ्रष्ट सम्पत्ति दो से तीन हजार करोड़ के घर में आंकी जाती है, उस पर भ्रष्टाचार का आरोप सिध्द हुआ तो सजा हुई केवल 3 वर्ष की। और यह भी कहीं न्यूज में नहीं आया कि उसकी संपत्ति का क्या हुआ! क्या उसे सरकारी खजाने में जमा कराया गया? 

हमारे देश के किसान तीन प्रकार के हैं- अल्प-भू-धारक, अत्यल्प-भू-धारक और खेत-मजूरी करने वाले एक तरफ। मंझोले किसान जिनकी जमीन पांच एकड़ से पन्द्रह एकड़ के बीच है-जो खा-पीकर संतुष्ट हैं, लेकिन कृषि के चढ़ाव-उतार का असर भी झेलते हैं- वे एक तरफ। और बड़े किसान तीसरी तरफ।पहली व दूसरी श्रेणी के किसान ऐसे हैं जिन्हें अपने उत्पाद का उचित मूल्य तुरंत चाहिए होता है। उनकी ऐसी क्षमता नहीं होती कि उत्पाद को रोक कर रखे या बिक्री के बगैर भी महीनों तक काम चला ले। उनके पास बेचने लायक उत्पादन भी कम होता है। लेकिन जो भी है, वही उनकी पूरे वर्ष की पूंजी है। इसीलिए वह तत्काल मूल्य चाहता है और उचित मूल्य भी और वह दोनों का हकदार भी है। लेकिन उसे उचित मूल्य बिना देर के मिले इसके लिए आवश्यक है कि देश में पणन व्यवस्था का अच्छा-खासा विकेन्द्रीकरण हुआ हो। प्रोक्यूअरमेंट संबंधी नीतियां व खरीद की व्यवस्था कार्यक्षमता व पारदर्शिता के साथ हों। ऐसे विकेन्द्रीकरण में हम कहां किस कारण से असफल रहे हैं?

इसका एक उदाहरण मैं देना चाहती हूं। महाराष्ट्र में यदा-कदा नीति घोषित की जाती है कि इस वर्ष हम रेशम-व्यापार बढ़ाने के लिए कुछ करेंगे। इसमें किसान की एक अहम् भूमिका होती है। अब यदि महाराष्ट्र में सरकार चाहती है कि किसान रेशम कोष की पैदावार करे तो दो प्रमुख काम करने पड़ेंगे। किसान से रेशम कोष खरीद के जो केन्द्र खोजे जाएं वहां तत्काल भुगतान की व्यवस्था हो- वर्तमान में फाइलों को घूम-फिरकर आने में तीन महीने लग जाते हैं। दूसरी आवश्यक बात यह कि ऐसे खरीद-केन्द्र पर छोटी क्वेंचिंग मशीन भी रखी जाए और उसी केन्द्र के कर्मचारियों को जरा सी ट्रेनिंग देने की आवश्यकता होती है कि ठीक तरह से रेशम कोष को कैसे पकाते हैं- वह ट्रेनिंग दी जाए। इसी प्रकार मैंने देखा कि जहां भी विकेन्द्रीकरण की बात आती है, वहां थोड़ी सी नई तकनीक, थोड़ा सा नया ट्रेनिंग और व्यवस्थापन की अच्छी प्रणाली (इस उदाहरण में तत्काल भुगतान के अधिकार खरीद-केन्द्र-प्रमुख को देने की व्यवस्था) आवश्यक होती है। सरकार विकेन्द्रीकरण की बात तो करती है। लेकिन इन तीन आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं देती और विकेन्द्रीकरण फेल हो जाता है।

दूसरे भी कई क्षेत्रों में जहां सिंगल विण्डो सिस्टम की बड़ाई गाई जाती है और सिर धुना जाता है कि क्यों हमारे यहां सिंगल विण्डो सिस्टम नहीं है, वहां भी इन्हीं तीन बातों की कमी अक्सर देखी गई है। पणन व्यवस्था के विकेन्द्रीकरण में यह कमी भी रही। अर्थात् दो कमियां- व्यवस्था न बना पाने की एक कमी और नियत में खोट की दूसरी कमी (मसलन एफसीआई द्वारा अनाज सड़ाया जाना)। एमपीएमसी के व्यवस्थापन में भी यही कमियां रहीं और सरकार ने उन्हें सुधारने का कोई प्रयास नहीं किया। उलटे महाराष्ट्र में तो कई वर्षों तक एकाधिकार खरीद की व्यवस्था चलवाई।
 0 कपास-एकाधिकार खरीद- किसान सरकार के अलावा अन्य को कपास नहीं बेच सकता।
0 वनोपज-एकाधिकार खरीद- आदिवासी अपने वनोपज ट्रायफेड के सिवा किसी और की नहीं बेच सकता।
0 गन्ना-एकाधिकार खरीद- किसान अपना गन्ना केवल उस चीनी-मिल को बचे सकता है जो उस गांव के गन्ने के लिए नीयत हो।
0 एपीएमसी किसान अपनी खेती उत्पाद केवल उन्हीं दलालों को बेच सकता है जिन्हें एमपीएमसी के क्षेत्र में आढ़त लगाने का ठेका मिला हो।

इन सबसे अलग-थलग एक सफल प्रयोग मैंने देखा कर्नाटक सिल्क एक्सचेंज का। जहां सदियों से चली आ रही दलालों की लूट को एकाधिकार के तहत रोका गया- लेकिन सूझबूझ के साथ। यहां एकाधिकार का अर्थ बहुत संकुचित रूप में अपनाया गया- बस इतना ही कि रेशम कोष की हर उपज और काते हुए रेशम सूत की हर खेप केवल और केवल सिल्क एक्सचेंज में ही बेची जा सकती है। लेकिन वहां खरीद का हक केवल सरकारी मोनोपोली नहीं होगा जैसा महाराष्ट्र कॉटन मोनोपोली पर्चेस एक्ट में था, या जैसा ट्रायफेड का एकाधिकार वनोपज के लिए है। यहां भी एपीएमसी की तरह बाहरी व्यापारी नीलामी में बोली लगा सकता है। लेकिन एपीएमसी की तुलना में दो बातें अलग हैं- पहली यह कि इनमें से कोई व्यापारी आढ़तिया या परमानेंट लाइसेंसी नहीं है जैसा एपीएमसी में होता है। किसी भी नए व्यापारी को छोटी फीस वाली टेम्पररी मेंबरशिप लेकर उस-उस दिन की नीलामी में खरीदारी का हक होता है। दूसरी अलग बात यह है कि हर दिन की नीलामी में सरकार कार्पोरेशन केएसआईसी पहली बोली लगाएगा जो सपोर्ट प्राइज की तरह काम करता है और हर दिन आने वाली उपज का पन्द्रह से चालीस प्रतिशत उपज केएसआईसी द्वारा खरीदी जाती है। इसका अर्थ हुआ कि सरकारी कॉम्पिटीशन द्वारा दलालों का बैलेंस किया जाता है। साथ ही उपज लाने वाले किसान या कारीगर को नाममात्र शुल्क पर पणन की सुविधा और नाममात्र ब्याज पर ऋण की तत्काल सुविधा भी है ताकि किसान दो-तीन दिन इंतजार कर सके। अर्थात् जब सरकार ने मोनोपोली भी नहीं चलाई और ठेकेदारों की भी न चलने दी और पणन से संबंधित कई सुविधाएं उत्पादक को दीं- तब जाकर सिल्क एक्सचेंज की कल्पना ऐसी सफल रही कि पिछले तीस वर्षों में उसने बंगलोर को विश्व का सबसे बड़ा और उत्तम सिल्क-केन्द्र बना दिया है।

इस प्रकार मैं देखती हूं कि एपीएमसी की दुर्दशा रोकने के लिए ऐसे उपाय किए जा सकते हैं। लेकिन वास्तव में नहीं किए जाते। इसी कारण किसान की भावना है कि एपीएमसी में भी उसे उचित न्याय-उचित मूल्य नहीं मिलता। फिर वह इस एपीएमसी एक्ट से बचकर निकल भागने का प्रयास करता है। यही कारण था कि अभी छ:-आठ महीने पहले महाराष्ट्र सरकार को एक नोटिफिकेशन के जरिए करीब 30 प्रकार के कृषि-उत्पादों को एपीएमसी की सूची से हटाना पड़ा। कुल मिलाकर चित्र यही निकलता है कि विकेन्द्रीकरण के लिए आवश्यक तीन बातों का प्रबंध न कर पाना, पणन-भण्डारण में भ्रष्टाचार, और सारी व्यवस्था पर दलालों के माध्यम से नेताओं का कब्जा, सहकारिता क्षेत्र में नेताओं का भ्रष्टाचार- ऐसे कुछ कारण हैं जिनसे किसान को राहत देने में सरकार असफल रही।

पिछले साठ वर्षों में इन बातों को दुरुस्त करने के लिए सरकार कम पड़ गई। और इसका उपाय ढूंढा गया-विदेशी पूंजी। विदेशी व्यापारियों को सहूलियत देकर यहां बसाओ और उन्हें बड़ा सत्ता-केन्द्र बनने दो। फिर चूंकि वे अत्यंत ईमानदार और कार्यक्षम होते हैं- अतएव हमारे देश में भी खुशहाली आएगी। यह है सरकारी तर्क। इस तर्क में चार अहम मुद्दे हैं और मुझे वे चारों गलत दिखते हैं। पहला मुद्दा है- चूंकि रिटेल व्यापार के मार्फत उत्पादक और ग्राहक के बीच की दूरी को कम करने में सरकार व दलाल दोनों कम पड़ गए, सो विदेशी, पूंजी लाओ यही तर्क अपनाया तो जो मैं पिछले कई वर्षों से बुजुर्गों के मुंह से सुनती आ रही हूं उसे सही मानना पड़ेगा। वे कहते थे कि इनसे तो अंग्रेज सरकार अच्छी थी। क्यों न उन्हीं को वापस बुलाया जाय?

दूसरा मुद्दा है कि हम फिर से विकेंद्रीकरण समाप्त कर रहे हैं और केन्द्रीकृत व्यवस्था ला रहे हैं, साथ ही इस केन्द्रीकृत व्यवस्था के सत्ता केन्द्रों पर विदेशियों को विराजमान कर रहे हैं।तीसरा मुद्दा यह है कि जो विदेशी पूंजी निवेशक यूरोप-अमरीका में बडी ईमानदारी दिखाते हैं, वे यहां आकर वैसा नहीं करते क्यों कि हमारे कानून अक्सर उनके विरूध्द निष्प्रभ हो जाते हैं। यहां आकर चाहे जितनी गलती, लूट, मनमानी वे कर लें- हम उन्हें सजा नहीं दिलवाते, पकड़ नहीं पाते, इसके उदाहरण हैं एनरॉन, भोपाल गैस कांड वाले यूनियन कार्बाइड, सिटी बैंक द्वारा जबरन ऋण वसूली के मामले इत्यादि। इसलिए उनके द्वारा हमारे साथ बेईमानी खिलवाड़ और शोषण नहीं होगा इसकी कोई गारंटी नहीं है। सरकार कहती है कि हमारे पास कारगर उपाय हैं- तो क्यों नहीं अब तक भोपाल गैस कांड में सजा हुई? क्यों मुआवजा नहीं दिया गया?

अब तो यह बात भी खुलकर सामने आ गई है कि वॉलमार्ट या एनरॉन जैसी कम्पनियों को घूस से कोई परहेज नहीं है। केवल उसे नाम कुछ अच्छा सा दिया जाना चाहिए-- बस! सो उसे घूस नहीं, बल्कि मत परिवर्तन कहते हैं। इसके अंतर्गत वॉलमार्ट ने खुद अमरीकी सीनेट की कमिटी के सामने कबूल किया कि भारतीय राजकीय नेताओं का मत परिवर्तन करने के लिए पिछले चार वर्षों में 125 करोड़ रुपए खर्च हुए। इसके कुछ दस वर्ष पहले एनरॉन के विरूध्द एक मामला अमरीका कोर्ट में चला जिसमें आरोप था कि उन्होंने अपने अमरीकी शेयर होल्डरों के साथ धोखाधड़ी की थी। उसकी सुनवाई के समय एनरॉन के भारतीय प्रोजेक्ट की कर्ता-धर्ता रेबेका मार्क ने अमरीकी कोर्ट को बताया कि भारत के उच्च पदस्थ नौकरशाह व मंत्रियों के प्रबोधन के लिए 800 करोड़ के आसपास खर्च किया है।अब मान लो हमारी सरकार घूस के खिलाफ कड़ा कानून करती है और वे कहते हैं- हमने तो 'उनका जीवन स्तर बढ़ाने पर खर्च किया है' तो फिर तो हमारी सरकार उन पर मुकदमा भी नहीं करेगी।

यदि क्षमता है तो आज ही की तारीख में वॉलमार्ट को बाहर का रास्ता दिखाइए-और यह भी बताइए कि किस-किस का मत परिवर्तन इन चार वर्षों में हुआ। अर्थात् सरकार का यह कहना कि हम कड़े कानूनों द्वारा अपने हितों की रक्षा करेंगे-यह एक ढकोसला है। ऊपर से तुर्रा यह कि केवल वॉलमार्ट ही नहीं, हमारे प्रधानमंत्री तो चीन को भी कह आए कि आपके देश का पूंजी निवेश हमारे देश में बहुत कम है, सो आइए और अपनी पूंजी लगाइए। उधर रक्षा-सलाहकार भले ही चीखते रहें कि अपना ओएफसी का जाल बिछाने का काम चीनियों को न सौंपा जाए- लेकिन विदेशी पूंजी के लिए उसे भी अनसुना किया जा सकता है।

चौथा मुद्दा भी सोचने लायक है। कहीं यह विदेश पूंजी बनाम स्वदेशी पूंजी का झगड़ा तो नहीं है? नहीं- इसे पूंजी बनाम विकेन्द्रीकरण के रूप में देखना होगा। यदि विदेशी वॉलमार्ट अच्छा नहीं है तो क्या रिलायंस फ्रेश अच्छा है? दोनों स्थितियों में सत्ता केन्द्र बनने का मामला है जो अंतत: शोषण की ओर ले जाता है।
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Friday, February 07, 2014

व्यवस्था सुधारल्यास माझे काय होणार?

व्यवस्था सुधारल्यास माझे काय होणार?

७ फेब्रु. २०१४, तरुण भारत (All) editions
(माझे पान १, २ व १० संपादकीय काटकसरीमुळे राहून गेले होते त्यांसकट)

पान १

पान २


अशा छोटय़ा छोटय़ा चर्चेच्या मुद्यांमधून क्रमशः एक मोठा मुद्दा उलगडत जातो व तो असतो समाजाच्या जडणघडणीचा. आजच्या समाजाची घडण व मनःस्थिती अशी होत चाललेली आहे की, चांगल्या व्यवस्था बुडीत निघण्यावरच खूप जणांचा नफा, सत्ता व अधिकार टिकून आहेत. खूप लोकांना त्रास होत असणारी व्यवस्था असेल तरच त्यामध्ये त्रासापासून वाचवण्याची फी वसूल करता येते. बंदुकीच्या धाकावर ही फी वसूल करतात, तेव्हा त्याला रंगदारी असे नाव बिहार, युपी सारख्या राज्यात दिले जाते. पण अगदी वेगळय़ा प्रकारे व्यवस्थेतील आळस आणि मरगळ तसेच ठेऊनही चांगला रिझल्ट देण्याच्या नावाखाली अशी फी वसूल केली जाते. तेव्हा त्यावर रंगदारीचा ठपकासुद्धा येत नाही, किंबहुना अशी काही फी वसुली होत आहे, याची जाणीवही वसुली घेणाऱया किंवा देणाऱया दोघांनाही नसते. कारण यातील पैसा खर्च करणारी कोणी व्यक्ती नसून, सरकार किंवा समाजाचा पैसा खर्च होत असतो.
एक अगदी अलीकडचे उदाहरण पाहू या. सर्व सरकारी कार्यालयांमध्ये एक मस्टर रजिस्टर असते. पूर्वीच्या काळात त्याचे परीक्षण दररोज केले जाई, अशा तऱहेने वरिष्ठ अधिकारी गैरहजर किंवा उशिरा येणाऱया कर्मचाऱयांची नोंद घेत. त्यांना काय तो उपदेश किंवा जाणीव किंवा इशारा देत. पण पुढे ही व्यवस्था ढासळली. का? तर वरिष्ठ अधिकारी हे परीक्षण करीनासे झाले व चुकणाऱयांना इशारे मिळणे बंद झाले. मग उत्तर निघाले ते बायोमेट्रिक स्टिममध्ये. तो बसवण्याचा खर्च समाजाचा. पण त्यामुळे व्यवस्था सुधारली नाही, मात्र एक मोठे बजेट खर्च केल्याचे श्रेय शासनाला मिळाले, बायोमेट्रिक योजना राबवणाऱया खात्याच्या सचिवाला मिळाले. आता इतरही लहान मोठय़ा कार्यालयांमध्ये जर चर्चा केली की, पूर्वीची मस्टर व त्याची योग्य दखल घेण्याची सवय बाणवूया तर त्यावर उत्तर असते, नको, नको. बायोमेट्रिकच आणूया. ते आणलेही जाते. कर्मचारी अंगुठा दाखवून पुन्हा पळ काढतात, कारण वरिष्ठांचे सुपरव्हिजन नाही. ही खात्री त्यांनाही असते. 

याचे उदाहरण रोजच्या व्यवहारात डॉक्टर व वकील या दोन पेशांमध्ये दिसून येते. डायबिटीज, एचआयव्ही आणि स्वाईन फ्लूची औषधे निर्माण करणाऱया कंपन्या पहा. लोकांना हे आजार होतात म्हणून त्यांचा धंदा चालतो. त्याऐवजी कुणी म्हटले की, या रोगांवर निसर्गोपचार, योग, आयुर्वेद या पद्धतीमध्ये उत्तम उपाय आहेत तर त्यांना डावलले जाते. त्यांच्यावर अशिक्षित आणि बुरसटलेपणाचा ठपका ठेवला जातो. इतर  खासगी डॉक्टरांची गोष्ट सोडून देऊ या, पण सरकारी दवाखान्यांचे काय? तिथले ऍलोपॅथीचे डॉक्टरही `आम्ही त्यातले नाही. शिकलेलो नाही. ते उपचार देऊ शकत नाही.’ असेच म्हणतात. पण जे सरकार या दवाखान्यांवर कोटय़वधी खर्च करते, त्या सरकारने प्रयोगशील का असू नये? ऍलोपॅथी व आयुर्वेदाचे तज्ञ एकत्रित येऊन उपचार करतील, करू शकतील, अशी व्यवस्था का आणू नये? पण तसे केले तर आज या रोगांच्या कंट्रोलसाठी मिळणारे कोट्य़ावधीचे बजेट बुडेल. मग कोट्यावधी रु. खर्च  केल्याचे आपले श्रेयही बुडेल, अशी भीती वाटते.
आज मोठमोठय़ा हॉस्पिटल्समध्ये डॉक्टरांपेक्षा मॅनेजमेंट टीमला जास्त अधिकार असलेले सर्रास आढळते. ही टीम ऍनॅलिसिस करते. आपल्याकडील एकूण सोनोग्राफी मशिन्समधून दिवसाकाठी किती नफा वसूल झाला पाहिजे? दुपारपर्यंत आलेल्या पेशंटचा आकडा त्या मानाने कमी भरत असला तर सर्व डॉक्टर्सना सूचना जातात. प्रत्येक पेशंटला सोनोग्राफी प्रिस्क्राइब करा. आजचे टार्गेट अजून इतके कमी आहे. येणारा पेशंट जर म्हणू लागला की, अहो मला सोनोग्राफी टेस्ट करवून घेण्याची गरज नाही, तर यांचा नफा बुडेल. कन्सल्टंटना मिळणारा पगार बुडेल. एकूण काय तर सोनोग्राफीची गरज पेशंटना आहे म्हणून किंवा तशी गरज भासवता येते म्हणून त्यांचा नफा टिकतो. पण यांच्यात असा एखादा डॉक्टर निघाला जो फक्त खरी गरज असलेल्यालाच टेस्ट प्रिस्क्राइब करेल तर त्या टेस्टिंगच्या जीवावर नफा मिळविणाऱ्यांचे कसे होईल?
मी सेंट्रल ऍडमिनिस्ट्रेटिव्ह ट्रिब्युनलमध्ये असताना ही चर्चा वारंवार होई. येणाऱया केसेस पटापट निकालात निघाल्या तर सरकार म्हणेल, तुमची पेंडेन्सी कमी आहे तर एखादे बेंच बंद करा. स्टाफ कमी करा. त्यापेक्षा पेंडेन्सी राहू दे. वकिलांमध्ये तर हा दोष अजूनही मोठय़ा प्रमाणात दिसला. केसेस सेटल झाल्या किंवा आपसी समझोत्यामुळे सुटल्या तर आपले काय? त्यामुळे तारीख पे तारीख पे तारीख  हेच वातावरण त्यांना योग्य वाटेल. व्यवस्था सुधारली तर आपले काय होणार?
अगदी आदर्श घोटाळय़ाचा नमुनाच पाहूया. व्यवस्था उत्तम राहिली असती, नियमांचा भंग होऊ शकणार नाही, याची खात्री असती तर आज ज्यांनी त्यामध्ये घरे लाटली त्यांचे काय झाले असते?
स्वातंत्र्यानंतर मोठय़ा प्रमाणात सरकारी शाळा, कॉलेजेस निघाली. अजूनही ती आहेत. पण ती चांगली चालली तर खासगी शिक्षण सम्राटांच्या साम्राज्याचे व नफ्याचे काय होणार?

पान १०



पाण्याच्या टँकर्सच्या व कचरा  वाहतुकीच्या ट्रकच्या धंद्यांचा उगम कुठे आहे? सुरुवातीला तात्पुरते सोल्यूशन असलेले हे दोन्ही धंदे एवढे तेजीत आले की आज खेडोपाडी चांगली पाणी पुरवठा योजना येऊ दिली जात नाही किंवा कचऱयाचेही विकेंद्रित व सुव्यवस्थित नियोजन होऊ दिले जात नाही. मोठय़ा शहरांमध्ये पूर्वी पाणपोई असत. बहुधा धर्मादाय. पण त्या नीट चालल्या तर बाटलीबंद पाणी विकणाऱयांचे काय? निर्व्यसनी समाज निर्माण झाला तर बियर कंपन्यांचे काय? त्यामुळे शहरातील दारूविक्रीच्या प्रमाणात स्त्रियांवरील अत्याचार वाढतात, हे दिसत असूनही शाळकरी मुलांपर्यंत दारूचे व्यसन पोचवण्याचे काम दारू कंपन्या करताना दिसतात.  याचसाठी आज प्रशासनामध्ये आणि खासगी व्यवहारांमध्येही दिसून येते की, अव्यवस्था चांगली आहे. ती राहू द्या. तर पुष्कळांचा फायदा होतो. `दाग अच्छे है…’ त्यामुळे साबण कंपन्यांचा फायदा होतो. `अव्यवस्था अच्छी है’, कारण त्यामुळे ज्यांना व्यवस्था सुधारणेचे कंत्राट मिळते त्यांना नफा कमावता येतो. 

प्रशासनात सोपेपणा, सुटसुटीत नियम, नियम पालन, प्रोत्साहन, प्रशिक्षण, कर्मचाऱयांचा आत्मविश्वास आणि कामाप्रती श्रद्धा या गोष्टी नको आहेत. कारण त्या आणायला लागणारी दूरदर्शिता आणि परिश्रम हे वरिष्ठांना नको आहेत. त्याऐवजी `सोल्यूशन प्रोव्हायडर’ चा धंदा आणि नफा चालू राहावा. आपणही सुव्यवस्थेसाठी सत्ता न राबवता अव्यवस्थेवरील सोल्यूशन प्रोव्हायडरचा रोल मिळवून देण्यासाठी सत्ता राबवायची अशी मनोवृत्ती आहे. त्यामुळे सुव्यवस्था आल्यास. मी कुठे जाईन या प्रश्नाने आज नोकरशाहीला घेरलेले आहे.
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Friday, January 03, 2014

सनदी अधिकार्‍यांच्या बदल्यां


देशातील 60 टक्के सनदी अधिकार्‍यांच्या बदल्या 18 महिने किंवा त्याहून कमी कालावधीत होतात सनदी अधिकार्‍यांची नियुक्ती, बढती आणि बदल्यांची नोंद असणार्‍या एक्झिक्यूटिव्ह रेकॉर्ड शीटनुसार प्रशासकीय सेवेत आलेल्या आणि दहा वर्षांचा कार्यकाल पूर्ण केलेल्या सनदी अधिकार्‍यांपैकी 2,139 अधिकार्‍यांना जास्त काळ एका जागी काम करण्याची संधी मिळू शकली नाही. अधिकार्‍यांच्या कामकाजात आणि त्यांच्या बदली-बढतीत राजकारण्यांचा हस्तक्षेप नेहमीच चर्चेचा विषय ठरलेला आहे. बदल्यांचे शु्क्लकाष्ट आपल्या पाठीशी लागू नये म्हणून अनेक सनदी अधिकारी राजकारण्यांशी जुळवून घेण्याचे धोरण अवलंबतात. कायद्यात न बसणारी कामे करण्याचा दबाव अधिकार्‍यांवर आणण्यात राजकारण्यांचा हातखंडा आहे. त्यानंतरच्या न्यायालयीन चौकशा आणि कारवायांना अधिकार्‍यांना सामोरे जावे लागते. त्याला कंटाळलेले अनेक सनदी अधिकारी स्वेच्छानिवृत्तीचा विचार करीत आहेत. खासगी उद्योगांकडून सनदी अधिकार्‍यांना गलेलठ्ठ पगार आणि सोयी-सुविधांची आमिषे दाखवली जात आहेत. याचवेळी सनदी अधिकार्‍यांना काम करू द्यायचे नाही असा निर्धार राजकारण्यांनी केलेला दिसतो. त्यामुळेच बदल्यांचे हत्यार वापरून त्यांची उचलबांगडी करण्याच्या कसरती सुरू आहेत. देशाच्या भवितव्याच्या दृष्टीने हे चित्र चांगले नाही. हा धोका वेळीच ओळखला पाहिजे.