लीना मेहेंदले
स्विस बैंक का पैसा कहां जाता है?
देशबन्धु 12, Oct, 2012, Friday
भारत के भ्रष्ट नेताओं का पैसा स्विस बैंक में जाता है यह ज्ञान तो देश की जनता को बहुत पहले से है, प्रश्न यह है कि आगे उस पैसे का क्या होता है?
यह सर्वविदित है कि बैंक के पास आने वाला पैसा तिजोरी में बंद पड़ा नहीं रह सकता। उसका कहीं न कहीं उपयोग किया जाता है। कहां करना है यह बैंकों पर ही निर्भर है। स्विस बैंक का पैसा भी मेरे विचार में मोटा-मोटी तीन प्रकार से उपयोग में लाया गया।
विश्व युध्द समाप्त हुआ 1945 में और भारत ने स्वतंत्रता पाई 1947 में। इस विश्वयुध्द में स्विट्जरलैण्ड छोड़ पूरा यूरोप और अमेरिका शामिल थे। और उन सभी देशों में बड़े पैमाने पर वित्त-हानि हुई। परिवारों के आर्थिक संसाधनों के स्रोत भी नष्ट हुए। वैचारिक रूप से भी यूरोप का बंटवारा दो खेमों में हो गया- कम्युनिस्ट और गैर-कम्युनिस्ट। दोनों के सामने चैलेंज था कि अपने-अपने नागरिकों को तत्काल सोशल सिक्युरिटी उपलब्ध कराई जाए। अन्यान्य देशों से भ्रष्ट नेताओं के पैसे स्विस बैंकों में आना आरंभ हो चुका था क्योंकि पिछले सौ वर्षों की अथक मेहनत से और कड़े नियमों का पालन करते हुए उन्होंने यह विश्वासनीयता कमाई थी कि किसी के पैसों का ब्यौरा अन्य व्यक्तियों को नहीं मिल सकता था। इसी प्रकार अन्य देशों में भी कुछ टैक्स हेवन खुल गए, अर्थात् यदि आपने अपना कारोबार कहीं भी किया लेकिन कागज पर दर्शाया बैंक रजिस्टर्ड ऑफिस उस देश में है और आपका मुनाफा वहां के बैंक में जमा करवाया, तो वह देश आपको टैक्स में पूरी छूट देगा। तो इस प्रकार भ्रष्टाचार के पैसों को देशवासियों की नजरों से बचाने की कानून व्यवस्था भी हो गई।
सन् 1947 में देश स्वतंत्र होने के बाद यहां नेताओं में भ्रष्टाचार बिलकुल ही न रहा हो ऐसा नहीं है। लेकिन वह ग्राफ काफी धीमी गति से बढ़ रहा था। तब यदि नेताओं के भ्रष्टाचार की छिटपुट खबरें आती थीं। तो लोग यह सोचकर अपने को समझा लेते थे कि अगले चुनाव में जनता खुद ही इस प्रकार भ्रष्ट नेताओं को नकार देगी और आने वाला नया नेता स्वच्छ प्रशासन देगा। सत्तर के दशक में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जो राजनैतिक भूचाल आया। इसका आरंभ भी गुजरात और बिहार रायों में भ्रष्टाचार के विरोध से ही हुआ। लेकिन वहां भी देखा गया कि चुनकर आने वाला नेता चाहे किसी पक्ष का हो, शीघ्रता से भ्रष्टाचार के रंग में रंग जाता है। आयाराम-गयाराम जैसे नए शब्द भाषाई शब्दकोशों में जुड़ते गए। फिर भी इस सारे भ्रष्टाचार की व्याप्ति, और उससे की जाने वाली लूट देश में ही कहीं न कहीं जमा हो रही थी।
लेकिन देशव्यापी स्तर पर एक बार चुनावी लड़ाई में करारी हार खाने के बाद कांग्रेस का और अन्य पक्षों की राजनीति को देखने का नजरिया ही बदल गया। अब अधिकाधिक राजनेता भ्रष्टाचार की मनोवृत्ति में आने लगे। उनका स्केल ऑफ ऑपरेशन भी कई गुना बढ़ गया। वे स्विस बैंक और दूसरे टैक्स हेवन देशों के अस्तित्व के प्रति सजग हो गए। चुनावों में मनी और मसल-पॉवर ही सर्वोपरि होने लगा। वंशवाद का विस्तार भी इस दौरान धड़ल्ले से हुआ। अर्थात् 1960 और 1970 के दशक के भ्रष्टाचार को देखें तो उसमें बड़ा अंतर आ गया- व्याप्ति अधिक हो गई और तरीके बदल गए। अब यह भारी मात्रा में कमाया पैसा तेजी से स्विस बैंकों में जमा होने लगा। उनकी तिजोरियां भरने लगीं।
जैसा मैंने आरंभ में कहा- वह पैसा कुछ अंशाें में सोशल सिक्युरिटी के काम आया। इस प्रकार हमारे देश को गरीब बनाकर यूरोपीय देशों का समाज जीवन विकसित होता रहा- और यह सब उनकी किसी कूटनीति से नहीं, बल्कि हमारे नेताओं की बद-दिमागी और लालच के कारण हुआ। यूरोप और अमरीकी समाज व्यवस्था अधिकाधिक स्वस्थ, सुरक्षित, सुशिक्षित, सुघड़ और आकर्षक होती चली गई। हमारी युवा पीढ़ी को आकृष्ट करने लगी। इधर हम ब्रेन-डे्रन का रोना रोने लगे। लेकिन वह सब एक अलग कहानी है।
लेकिन सन् 2000 के आते-आते विश्व व्यवस्था में दो बड़े परिवर्तन आए। यूनियन ऑफ सोवियत रूस में बिखराव आया। कई छोटे देशों का जन्म हुआ और अमरीका निर्विवाद रूप से विश्व की सबसे बड़ी महासत्ता बन गया। लेकिन दूसरा परिवर्तन था आतंकवाद की बढ़ोतरी। जब अमरीका खुद इसका शिकार बना, और न्यूयार्क और वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के विध्वंस के रूप में आतंकवाद का भयावह चेहरा सामने आया तो अमरीका ने खोजबीन आरंभ की। कौन है जो आतंकवाद को पोस रहा है- उनकी नेटवर्किंग के लिए पैसे कहां से आ रहे हैं? और तब यह बात स्पष्ट हुई कि भ्रष्टाचार का जो पैसा स्विस बैंकों में जमा था वह 1990 का दशक आते-आते यूरोप के सामाजिक विकास से हटकर आतंकवाद को पालने-पोसने में खर्च हो रहा था। फिर अमरीका ने स्विस बैंकों पर दबाव बढ़ाना आरंभ किया कि उन खातों की जानकारी उजागर करें जिनके लिए उस देश की सरकार ने दावा किया हो कि वह पैसा भ्रष्टाचार के माध्यम से जमा किया हुआ है। मन्तव्य है कि अमरीकी दबाव से पहले भी थाईलैंड, इंडोनेशिया जैसे देशों अपने पुराने शासकों द्वारा स्विस बैंकों में जमा किया पैसा प्रत्यावर्तित करा लिया था। लेकिन हमारी सरकार ने ऐसा कोई भी कदम उठाने में निरूत्साह ही दिखाया। अब स्विस बैंक में दिन दुगुने रात चौगुने दर से जमा होने वाला पैसा बढ़ने लगा था। लेकिन एक ओर सोशल सिक्युरिटी के खर्च की आवश्यकता कम हुई- दूसरी ओर अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ा कि यह पैसा आतंकवाद के लिए उपलब्ध नहीं होना चाहिए।
तो अब तीसरा रास्ता सामने आया कि इसे कर्जे के रूप में यूरोपीय निवेशकों को उपलब्ध कराओ ताकि वे विकासशील देशों में- खासकर भारत जैसे बड़े देशों में अपना व्यवसाय बढ़ा सकें। लेकिन इसके लिए यह भी आवश्यक है कि भारत में उन्हें निवेश के लिए अनुमति मिले। यूनीनॉर का उदाहरण देखते हैं- उसके प्रमुख ने एक इन्टरव्यू में कहा कि उसकी कंपनी ने बैंक से कर्जा लेकर भारत का 2जी स्पेक्ट्रम खरीदा। अब वह दुबारा उसे नीलामी में खरीदने का प्रयास करेगा जिसके लिए उसे अतिरिक्त कर्जा भी मिलेगा लेकिन यदि नीलामी में 2जी नहीं खरीद पाया तो उसे पहला आबंटन रद्द के मुद्दे पर भारत सरकार के विरूध्द अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट में दावा ठोंकना पड़ेगा।
यह कानूनी पेंच भी समझने लायक है कि अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट में वह जीते इसके लिए एक महत्व की शर्त है कि भारत सरकार ए. राजा की करतूत को फ्रॉड, या करप्शन या मिस ऍप्रोप्रिएशन न कह सके। तो क्या इसीलिए ए.राजा को संसदीय समिति में वापस लिया जा रहा है ताकि अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट के सामने सरकार उसे फ्रॉड या चीट न कह सकें? खैर, वह भी एक अलग कहानी होगी।
लेकिन इससे एक बात समझ में आती है कि भारत में एफडीआई खुले इसकी आवश्यकता अपने देश को चाहे हो या न हो, उन बैंकों को जरूर है जहां हमारे नेताओं ने देश से हड़पा हुआ पैसा जमा कर रखा है। पैसा निवेश में लगता रहे तभी उसकी वैल्यू होती है या बढ़ती है। स्विस बैंकों के पास निवेश के लिए पहले अमरीका और यूरोपीय देशों में सोशल सेक्युरिटी का रास्ता था जिससे वहां का सामाजिक जीवन तनाव रहित और खुशहाल रहा। फिर उसका निवेश हुआ आतंकवाद के लिए। यह तो हम भारतीय ही समझ सकते हैं कि आतंकवाद के कारण जितना नुकसान अमरीका का हुआ है उससे कई गुना अधिक हमारा हुआ है और आगे भी चलने वाला है। इसके बावजूद सरकार उस काले धन की स्विस तिजोरियों को समाप्त नहीं कर रही जहां से पोषित होकर वह आतंकवाद हम पर हावी हो जाता है।
और अब चूंकि अंतर्राष्ट्रीय दबाव है उन बैंकों पर, तो तिजोरियों में रखा पैसा निवेश के लिए लगाना पड़ेगा। और यह निवेश भारत में ही किया जाए तो एक बड़ा बाजार हाथ लगेगा। तो बस, जोर आजमाओ भारत सरकार पर और खुला करवाओ एफडीआई ताकि वे निवेशक यहां पूरी तरह मालिक बनकर ही आ सकें।
इस प्रकार एक दुष्टचक्र पूरा होना है। पहले जनता का पैसा भ्रष्टाचार से लूटा जाता है, फिर तमाम कानूनों के बावजूद उसे आराम से स्विस बैंकों में जमा करवाया जाता है, फिर गरीबी के सारे आक्रोश के बावजूद उसे वापस पाने के लिए जो कानूनी मुद्दे पूरे करने पडते हैं उनमें ढिलाई बरती जाती है, और फिर वही पैसा जनता पर जुल्म ढाता है। चाहे आतंकवाद के रूप में या फिर उस पैसे की बदौलत इस देश के व्यापार उद्यम की मिल्कियत किसी और के हाथ में देकर।
आश्चर्य कि ऐसी अर्थनीति चलाने वालों को हम अर्थशास्त्री क्यों कहते हैं? क्या वे नहीं समझते कि भ्रष्टाचार का रास्ता देश की गुलामी लाता है?
political thoughts dealing with society, democracy, governance etc. These articles are in Hindi Marathi and English. Other blogs 'Ithe Vicharana vav ahe', 'Janta ki Ray', 'Hai Koi Vakeel' and 'Prashasanakade Valun Baghtana' contain more essays published as books.
Friday, October 19, 2012
Monday, October 15, 2012
भ्रष्टाचारमुक्त कारगर प्रशासनका पंचशील -- कालनिर्णय
भ्रष्टाचारमुक्त कारगर प्रशासनका पंचशील
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------