एफडीआई की उतावली |
देशबन्धु 24, Sep, 2012, Monday |
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लीना मेहेंदले लगभग डेढ़ सौ वर्षों की गुलामी के बाद देश को स्वतंत्रता मिलने की घटना को बस पैंसठ वर्ष पूरे हुए हैं और हम इस स्वतंत्रता को फिर से गंवाने की कगार पर हैं और सच कहूं तो कहीं न कहीं यह डर भी है कि क्या हम इसे गंवा चुके हैं? लड़ाई, हार, गुलामी, स्वतंत्रता इन शब्दों का सटीक अर्थ समझने के लिए थोड़ा सा इतिहास में झांकना उचित रहेगा। सन् 1756 की प्लासी की लड़ाई एक युध्द की तरह लडी ग़ई और हम हार गए। युध्द अर्थात् रूढ़ अर्थों वाला युध्द जिसमें शस्त्र चले तलवार, भाले, बन्दूक, तोप, घोड़े इत्यादि। लोग मरे और लोगों ने मारा भी। लेकिन वह जमाना वैसे ही युध्द लड़ने का जमाना था। आज ढाई सौ वर्षों के बाद जो जमाना चल रहा है, उसकी लड़ाईयां युध्द की मार्फत कम और आर्थिक मोहरों की मार्फत अधिक लड़ी जाती हैं। जिसकी अर्थनीति चूंकि वह लड़ाई हारेगा। लेकिन लड़ाई हारने का अर्थ जो तब था, वही आज भी है और आगे भी रहेगा। लड़ाई हारने का अर्थ है कि हमारी अर्थव्यवस्था हमेशा उनकी अर्थव्यवस्था से कमजोर होगी। हम हमेशा कच्चा माल बेचते रहेंगे और पक्का माल खरीदते रहेंगे, जिससे समय-दर-समय हमारी पर्चेसिंग पॉवर या अर्थसत्ता कमजोर होती चलेगी। हम शोषण के पात्र और शोषित होते चलेंगे और जिस दिन हमारा कच्चा माल खत्म हुआ कि हम अभाव में जीने के लिए छोड़ दिए जाएंगे। तो पहला मुद्दा हुआ कि आज की लड़ाईयां शस्त्रों की अपेक्षा अर्थनीति से लड़ी जाती हैं, और हमारी अर्थनीति को हार से बचाना आवश्यक है। दूसरा मुद्दा आर्थिक दोहन का। यदि हम कच्चा माल बेचते चलेंगे और पक्का माल खरीदते चलेंगे और इस दौरान पक्का माल बेचने वाली परदेसी कम्पनियां अपना प्रॉफिट-नफा यहां से अपने-अपने देश ले जाएंगे तो तीव्र गति से कैपिटल फ्लाइट जारी रहेगा और वह लीगल भी कहलाएगा। तीसरे मुद्दे पर आने से पहले फिर एक बार स्वतंत्रता की लड़ाई के इतिहास में झांकते हैं। उस जमाने में (सन् 1910 से 1949 का कालखंड) एक इंडियन नेशनल कांग्रेस नामक पार्टी हुआ करती थीं जिसके अहम् नेता बने महात्मा गांधी। गांधीजी ने सबको यही अर्थनीति समझाई और स्वदेशी का मंत्र दिया। मिल के कपड़े सस्ते थे, सुन्दर और लुभावने थे, देशी बुने हुए कपड़े मोटे-खुरदुरे और महंगे भी थे। फिर भी स्वदेशी का मंत्र प्रमाण मानकर कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता विदेशी कपड़ों की होली जलाने का आयोजन करते थे। गांधीजी की स्वदेशी आने से पहले अंग्रेजों ने भी इस बात को समझा था- इसीलिए जुलाहों के अंगूठे कटवाए थे, इसीलिए चेचक को रोकने वाली इम्युनायझेशन की पध्दति, जो पंद्रहवीं (या शायद उससे भी पहले) सदी से चली आ रही थी, उसे गुनाह करार दिया, आयुर्वेद जो खूबसूरती से विकेन्द्रित हुआ था, उसे तहस-नहस करने के लिए सारे सम्मान ऍलोपथी की ओर बढ़ा दिए... वगैरह-वगैरह। कहने का अर्थ इस बात को गांधीजी ने समझा उससे पहले अंग्रेजों ने समझा था। अब तीसरा मुद्दा किसी देश की सम्पत्ति या समृध्दि जीडीपी से नहीं, बल्कि जीएनपी से बढ़ती है। जीडीपी का अर्थ हुआ ग्रॉस डोमेस्टिक प्रॉडक्ट आपके देश की भौगोलिक सीमाओं के अंदर होने वाला कुल प्रॉडक्शन। फिर भले ही एक्साइड जैसी कम्पनियां प्रॉडक्शन यहां करती हों और मुनाफा अपने देश में ले जाती हों, और भोपाल गैस कांड की जिम्मेदारी से बच निकलती हों- लेकिन जीडीपी की ओर टकटकी लगाने वाले अर्थवेत्ता इसी को विकास कहते हैं। इससे उल्टा जीएनपी का शास्त्र है। ग्रॉस नेशनल प्रॉडक्ट मापते समय दूसरे देश के आए इन्वेस्टर ने कितनी लागत आपके देश में लगाई उसे नहीं जोड़ने बल्कि जो मुनाफा वे अपने दशे में ले गए थे उसे घटाते हैं और आप के देश के नागरिकों ने यदि विदेशों में इन्वेस्ट (निवेश) किया है और मुनाफा कमाकर देश में भेजा है, तो उसे जोड़ते हैं। इस प्रकार आपकी आर्थिक क्षमता की असली पहचान बनाता है जीएनपी न कि जीडीपी। फिर भी हमारी रिजर्व बैंक, हमारे सारे अर्थशास्त्री और हमारी सरकार हमें जीडीपी का गाजर क्यों दिखाती है? क्योंकि बेसिंग वाले प्राणी को ही गाजर दिखाया जाता है। अब आते हैं सबसे प्रमुख मुद्दे पर। देश का दोहन करने वाले इस एफडीआई की आवश्यकता क्यों पड़ी? क्योंकि देश के पास निवेश करने के लिए पैसा नहीं है। अर्थात् पहले देश का पैसा भ्रष्टाचार में लूटा। फिर उसे स्विस बैंक में जमा कराओ- फिर कहो, देश को पैसा और निवेश की आवश्यकता है। उधर स्विस बैंकों से कर्जे लेकर कई विदेशी इन्वेस्टर आपके यहां निवेश करेंगे। अर्थात् हमारे ही पैसे लेकिन नाम उनका। क्या गारंटी है कि इन निवेशकों के साथ स्विस बैंक के भारतीय खातेदारों की छिपी शेयर होल्डिंग नहीं है? क्या इसे हम कभी भी समय रहते उजागर कर पाएंगे? महाभारत के एक प्रसंग में भीष्म से पूछा जाता है कि यद्यपि पांडव आपके प्रिय हैं और आपको ज्ञात है कि उन्हीं का पक्ष सही है, फिर भी आप युध्द में कौरवों का साथ क्यों दे रहे हैं। तब भीष्म ने कहा था कि जिसका अन्न खाया हो उसका विरोध करने का सामर्थ्य और हिम्मत जुटा पाना कठिन है। हमारे भी जाने-माने कई अर्थवेत्ता वर्ल्ड बैंक का अन्न खाते रहे हैं। जो हालत भीष्म की हुई, वही उनकी भी है। भीष्म कौरवों की ओर से लड़ने के लिए मजबूर थे- ये भी वर्ल्ड बैंक से संचालित होने के लिए मजबूर हैं। विश्व के महान मैगजीन वाशिंगटन पोस्ट जैसी पत्रिका जब हमारे प्रधानमंत्री को दुर्बल बनाती है, तब क्या ऐसा नहीं लगता कि उन्हें हिंट दिया जा रहा हो कि जब तक आप हमारे निवेश का रास्ता नहीं खोलेंगे, तब तक ऐसे ही लताड़े जाएंगे? बात केवल मनमोहनजी के स्वाभिमान की नहीं है- यह देश के स्वाभिमान की और प्रधानमंत्री के पद की गरिमा की भी बात है। लेकिन हम किस मुंह से कह सकते हैं कि नहीं चाहिए तुम्हारा एफडीआई का निवेश? जब निवेश लायक पैसा आपने पहले ही और अपनी मर्जी से, अपने भ्रष्टाचार के माध्यम से उनकी जेबों में भर रखा हो? हमारे देश में एक और राजकीय पक्ष है बीजेपी जो कई बार स्वदेशी का नारा लगाते हैं। एक बार खादी की बाबत उनसे चर्चा हुई। मैंने कहा गांधीजी ने खादी को अपनाते हुए एक नहीं, दो फलसफे बताए थे। पहला तो था कि विदेशी मिलों का मुनाफा तोड़ो- दूसरा था कि हमारे गरीब बुनकर के पास जीने का कोई साधन रहने दो- जो इस विकेन्द्रित प्रणाली में ही संभव है- इसीलिए खादी का प्रयोग है। लेकिन बीजेपी मित्रों ने फरमाया कि गांधीजी दूसरे मुद्दे में गलत थे। गरीब बुनकर की अकार्यक्षमता (मशीन के बजाय हाथ से काम करने के कारण) की बड़ाई क्यों करे? भले ही इससे उसकी रूखी-सूखी रोटी चलती हो, लेकिन है तो वह अकार्यक्षम ही। हमारी स्वदेशी की व्याख्या यों है कि यदि कपड़ा मिलें हमारे देश के नागरिकों की मिल्कियत हो, तो वे स्वदेशी मिलें होंगी। गरीब जाकर मिल में काम करें। उसे भी अधिक आमदनी मिलेगी। केन्द्रीकरण, मिलें, यही उचित अर्थनीति है, न कि विकेन्द्रीकरण। क्यों कि केन्द्रीकरण से गरीब बुनकर भी जल्दी से जल्दी अपनी दरिद्रता से मुक्ति पा सकता है। इस अर्थशास्त्र को थोड़ा रूककर अर्थात कार्यक्षमता बढ़ेगी। समझने की आवश्यकता है क्योंकि रिटेल चेन के सभी चहेते यही कहेंगे कि फुटकर विक्रेता की अपेक्षा रिटेल चेन चलाने से अच्छा, ताजा माल मिलेगा जो सस्ता भी होगा। लेकिन मिल वाले और इस गणित में भी एक बात का गुणा-भाग जोड़-घटा अभी किसी ने नहीं किया है। विकेन्द्रित प्रॉडक्शन करने वाला बुनकर हो या विकेन्द्रित सर्विस सेक्टर का सब्जी बेचने वाला हो यदि आज उनकी संख्या एक सौ है, तो कल आने वाली केन्द्रित व्यवस्था में (चाहे मिल हो या रिटेल-चेन के मालिक) केवल पांच या दस का समावेश हो सकेगा- जो निश्चित ही आज की अपेक्षा अधिक कमाई करेंगे। लेकिन बाकी नब्बे तो निठल्ले हो जाएंगे। उनकी रोजी-रोटी कहां से आएगी? अमरीका या प्रगत यूरोपीय देशों में ऐसे लोगों के लिए भारी पैमाने पर सोशल सिक्युरिटी सिस्टम चलाई जाती है लेकिन वैसी अपने देश में चलाने लायक आर्थिक क्षमता तो हमारी नहीं है, फिर इनका क्या होगा? नक्सलवाद? आत्महत्या? कुछ और? यह गणित मुझे झझकोरता है क्योंकि मैं अर्थव्यवस्था नहीं हूं, लेकिन इसका तर्कसंगत उत्तर मुझे अब तक किसी से मिला नहीं है। यदि किसी के पास आंकड़ों समेत उत्तर है तो वह भी देश का बनाया जाए। मैं नहीं मानती कि विकेन्द्रीकरण सर्वथा गलत है और विकेन्द्रीकरण ही हर मर्ज की दवा है। लेकिन फिर सारे अर्थशास्त्री आज महिला-अल्प-बचत-गुटों की ओर आशाभरी नजरों से क्यों देख रहे हैं? केन्द्रीकृत बैंकिंग व्यवस्था में ये अल्प-बचत गुट ही तो विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं। और तमाम अर्थशास्त्री इन्हें संकटमोचक मानते हैं। तो फिर वही विकेन्द्रित व्यवस्था फुटकर विक्रेताओं के हाथ से छीनकर रिटेल चेन वालों के हाथ क्यों सौंपी जा रही है? और वह भी विदेशी निवेशकों के हाथ क्यों? ये सारे प्रश्न और सरकार की सारी उतावली गतिविधियां कहीं न कहीं तो इशारा करती हैं कि हो सकता है कि हम भारतीय आज के युग की रणनीति में हार चुके हैं, या हार रहे हैं। अर्थशास्त्र की समझ न रखने वाला व्यक्ति आज भले ही सामान्य कहलाता हो, लेकिन महंगाई की मार वही झेल रहा है। ------------------------------------------------------------------------------------------------------ |
political thoughts dealing with society, democracy, governance etc. These articles are in Hindi Marathi and English. Other blogs 'Ithe Vicharana vav ahe', 'Janta ki Ray', 'Hai Koi Vakeel' and 'Prashasanakade Valun Baghtana' contain more essays published as books.
Monday, September 24, 2012
एफडीआई की उतावली -- देशबन्धु 24, Sep
Wednesday, September 19, 2012
सारणी आखून कामे करणे -- सुप्रशासनातील महत्वाचे अंग
काल मी व रवि खेबुडकरने (उप जिल्हाधिकारी सांगली) निश्चयाने एका नवीन कामाला सुरुवात केली त्यामागची भूमिका --
सरकारी कामांमधली चाळीस टक्के कामं सारणी तयार करणे व त्या आधाराने निष्कर्ष काढणे यामधे जातो. यासाठी सतत सारण्या आखून दिल्या जातात व कर्मचारी सतत माहिती भरत असतात. पण त्या आधाराने निष्कर्ष काढण्याकडे कुणी जात नाही कारण ते काम सोपे करायची गरज आहे. आणि संगणकामुळे हे सहज शक्य आहे.
तसेच या सारण्या मॉड्यूलर असल्या म्हणजे छोट्या छोट्या व एकात एक बसवता येऊन बेरीज करता येईल अशा -- तर त्यातून सामान्य माणूसही खूप काही समजू शकतो. या संदर्भात माझा लेख नुकताच देशबंधु दैनिकाने छापला त्याची लिंक -- http://rajkeeya-chintan.blogspot.in/2012/08/1.html
अशा मॉड्यूलर सारण्या छोट्या असाव्यात आणि पूर्वीचे द्विमितीय रूप टाकून त्यांना त्रिमितीय रूप देणे गरजेचे आहे. पूर्वी समजा सांगलीतील सर्व तालुक्यातील पावसाबद्दलची माहिती हवी असेल तर सारणीतील पहिल्या स्तंभात अनुक्रमांक व लगेच दुस-यांत आपण तालुक्यांची नावं टाकत होतो. ही झाली द्विमितीय पद्धत. त्यानंतर पावसाची माहिती वेगवेगळ्या
त-हेने घेण्याठी पुढे खूप स्तंभ आखून देत होतो व त्यांत माहिती भरणे जिकिरीचे होऊन जायचे. पण त्रिमितीय रूप समजून घेण्यासाठी आपण एका जाड वहीची कल्पना करू या. ती उघडली तर आपल्या लक्षांत येते कि हिला एक डावी बाजू आहे -- एक उजवी बाजू आहे, तसेच मधे जोडणारी एक जाड बाजू पण आहे. पुस्तक प्रकाशनांत हिला स्पाइन म्हणजे कणा असे नांव आहे व त्यावर पुस्तकाचे, लेखकाचे व प्रकाशकाचे नांव टाकण्यासाठी त्या जागेचा वापर केला जातो. आपल्या त्रिमितीय सारणीमधे या स्पाइनचा चांगला वापर आपण करून घेणार आहोत.
सांगली जिल्हा सध्या दुष्काळांत आहे. येथील पाऊस व चाराछावण्याची माहिती कशी घेता येईल ते आपण पाहू ----
आपण असे 11 स्तंभ-शीर्षक लिहू या --
- गेल्या 5 वर्षातील सरासरी वार्षिक पाऊस
- गेल्या वर्षातील एकूण पाऊस
- गेल्या वर्षी 4 पावसाळी महिन्यांतील (जूनपासून) पाऊस
- गेल्या वर्षी चालू महिन्यांतील पाऊस
- या वर्षी 1 जून ते आतापर्यंत पाऊस
- या महिन्यातील 1 ते आतापर्यंत पाऊस
- सब-डिविजन (किंवा तालुका)
- गेल्या 5 वर्षाचा चारा छावण्याचा खर्च
- गेल्या वर्षाचा चारा छावण्यांचा खर्च
- या वर्षी एप्रिल-जून मधील चाराखर्च
- या वर्षी ऑक्टो ते आतापर्यंत चाराखर्च
यामधील सब-डिविजन (किंवा तालुका ) हा स्पाइनचा स्तंभ आहे. तिथे आपण सर्कल किंवा गांवापर्यंत जाऊ शकतो . किंवा जिल्हा, रेवेन्यू डिविजन, राज्य, झोन आणि देश इथपर्यंत जाऊ शकतो.
चांगल्या मॉड्यूलर सारणीमधे कण्याच्या डावीकडे पाच व उजवीकडे पाच यापेक्षा अधिक स्तंभ शक्यतो नसावेत. मात्र एका स्तंभाची सविस्तर माहिती उपसारणी मधे देता येते. उदा. डावीकडील 6 स्तंभ-शीर्षके काढून तिथे 5 स्तंभ ठेवायचे. पैकी चारांमधे फक्त गेल्या वर्षी 4 पावसाळी महिन्यांतील (जूनपासून) पावसाची माहिती माहवार लिहिणे व पाचव्यामधे एकूण लिहिणे जेणेकरून त्या उपसारणीमधील माहिती मुख्य सारणीसाठी तत्काळ वापरता यावी.
याच सारणीमधे उजवीकडे चाराछावणीऐवजी रोजगार-हमी कामांची माहिती किंवा पीक-पेरणीची माहिती दिल्यास त्यांची तुलना तत्काळपणे पावसाच्या लहरीपणाशी करता येते. डावीकडील स्तंभ हे कारण आहेत -- पाऊस हा कारण. त्याचा परिणाम टँकर खर्चावर, पीक-पेरणीवर, गुन्हेगारीत वाढ, शहराकडे पलायन अशा कित्येक गोष्टींवर होत असतो. मॉड्यूलर सारणी केल्याने या परिणामांची आपापसांत तुलना करता येते.
तरच वरिष्ठ अधिका-यांना उचित निर्णय घेता येतात -- त्यांची कार्यक्षमता वाढते -- तरच जनतेला स्वतः परिस्थितीचे विश्लेषण करता येते आणि चांगल्या निर्णयाचे जागरूक स्वागत आणि चुकीच्या निर्णयातील नेमकी चूक दाखवणे या दोन्ही गोष्टी करता येतात.
Saturday, September 15, 2012
व्यवस्था परिवर्तन -- अपराध दर्ज ..देशबन्धु 15 सित.
व्यवस्था परिवर्तन -- अपराध दर्ज कराने व उसकी छानबीन बाबत सुधार
--लीना मेहेंदळे
--लीना मेहेंदळे
देशबन्धु दि 15 सित. 2012 में प्रकाशित
व्यवस्था परिवर्तन के लिए आवश्यक कई महत्वपूर्ण सूत्र हैं। आखिर हम व्यवस्था समाप्ति की नहीं, बल्कि व्यवस्था परिवर्तन की बात कर रहे हैं। इसका अर्थ हुआ कि जब हम अपने उद्देश्य में सफल होंगे तब हमें व्यवस्था की अवधारणा से मुक्ति लेकर संपूर्णतया अव्यवस्था की ओर नहीं जाना है, बल्कि कोई न कोई व्यवस्था हमें तब भी चाहिए होगी और उस व्यवस्था का निर्वहन करनेवाले लोग भी चाहिए होंगे। आज उन लोगों को हम नौकरशाही (या अफसरशाही) कहते हैं- कल शायद कोई और नाम देंगे। लेकिन एक नई या परिवर्तित व्यवस्था भी रहनेवाली है और उसका निर्वहन या अनुपालन करवाने वाले लोग भी रहने वाले हैं। इसीलिए हम उन सूत्रों का अन्वेषण कर रहे हैं जो हमारी नई व्यवस्था के मार्गदर्शक सूत्र होंगे। आज मैं एक दूसरे सिध्दांत की ओर अंगुली निर्देश कर रही हूं- वह है सरल एवं प्रभावी अनुपालन और उसके एक छोटे पहलू का जिक्र मैं करने जा रही हूं। यह पहलू हमारे अपराधी कानून से संबंधित है। अपराधी कानून के तीन विषय या तीन पलड़े हैं- सीपीसी (क्रिमिनल प्रोसेडयूर कोड), आईपीसी (भारतीय दंड संहिता) तथा आईईए (इंडियन एविडेंस एक्ट) ये तीनों आपस में पूरक हैं। इन तीनों कानूनों की सारी नियमावली में से मैं केवल दो सेक्शनों की चर्चा यहां उपस्थित कर रही हूं वह है- सेक्शन 154 व 156। सेक्शन 154 हमें बताता है- अपराध दर्ज कराने व उसकी छानबीन की बाबत। इस सेक्शन की चर्चा क्यों आवश्यक है और किस तरह का परिवर्तन हमें चाहिए? यह जानने के लिए पहले 156 व दो-तीन और सेक्शन्स को समझते हैं, और उससे भी पहले समझते हैं कि सैध्दांतिक रूप से सामान्य नागरिक का कर्तव्य और अधिकार क्या हैं। सामान्य नागरिक के कर्तव्य और अधिकार का वर्णन एक शब्द में किया जा सकता है- जिजीविषा अर्थात् बुराई से लड़ने का जोश। यदि आपके सामने कोई चोर-चोरी करके भाग रहा है तो स्वाभाविक रूप से आप उसे पकड़ने के लिए दौड़ते हैं, क्योंकि मन में कहीं न कहीं यह अवधारणा है कि यदि यह आदमी आज किसी और का नुकसान कर रहा है जो कल मेरा भी कर सकता है। इसलिए मैं आज ही इसे रोकूं। लेकिन इस स्वाभाविक कर्तव्य और अधिकार इस जिजीविषा के आड़े आता है कानून का यह सेक्शन 154 जो कहता है कि ऐसे अपराधी को आप पकड़ भले ही लें- पर उसके बाद उसे व्यवस्था को सौंप दीजिए अर्थात् पुलिस के हवाले करिए, और फिर जब पुलिस अपने नियम-कानून के अनुसार उस अपराधी की जांच कर लेगी, तभी उस पर चार्जशीट दायर की जाएगी और वह अपराधी जब न्यायालय में लाया जाएगा, तब आप होंगे केवल एक साक्ष्य देने वाले उससे अधिक कुछ नहीं। ऐसी कानूनी व्यवस्था के दो पक्ष होते हैं- समर्थन का पक्ष कहता है कि किसी अपराधी के अपराध की जांच का एक सूत्रबध्द तरीका होता है, खास कर साक्ष्य जुटाने का और साक्ष्य को नष्ट होने से बचाने का और पुलिस ही ऐसी प्रशिक्षित व प्रोफेशनल संस्था है जो इस जांच के काम को ठीक से अंजाम देकर अपनी मंजिल तक अर्थात् न्यायालय के चौखट तक पहुंचा सकती है। इसका विरोधी पक्ष कहता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के 65 वर्षों के बाद हमने देख लिया कि ऐसे सारे अपराधों में पुलिस इन्वेस्टीगेशन और चार्जशीट दाखिल होने में कई वर्ष लग जाते हैं। अत: यह तरीका प्रभावहीन होता दिखता है।मजे की बात यह है कि समर्थक और विरोधी दोनों पक्षों में गलत कोई नहीं। दोनों पक्षों में गलत कोई नहीं- दोनों अपनी-अपनी जगह सही हैं। एक तीसरा पक्ष है जो आज इन दोनों से बड़ा हो गया है और उसी की चर्चा मेरे व्यवस्था परिवर्तन के सूत्र की आज की चर्चा है। वह तीसरा पक्ष निकलता है सेक्शन 156 से। यह हमें बताता है कि जब एक सामान्य व्यक्ति सोचे कि कहीं कोई अपराध घटा है। लेकिन पुलिस उसकी छानबीन नहीं कर रही है या नहीं कर पाई है तो वह सामान्य व्यक्ति कोर्ट में गुहार लगा सकता है कि ऐसी छानबीन हो और यदि कोर्ट यह समझे कि हां, ऐसी छानबीन होनी चाहिए तो वह पुलिस को निर्देश देकर छानबीन करवा सकती है। ऐसी हालात में उस सामान्य व्यक्ति से जो भी सबूत या रिकार्ड इकट्ठा किया हो (जैसा कि कई स्टिंग ऑपरेशनों में हुआ है।) वह सारा रिकार्ड फिर से पुलिस के पास लाया जाता है। पुलिस फिर से अपने हिसाब से उसकी जांच पड़ताल करती है और फिर उसे न्यायालय तक पहुंचाने का जिम्मा दुबारा पुलिस का ही है। इसी प्रावधान के अंतर्गत सुब्रह्मण्यम स्वामी ने मांग की थी कि राजा ने अपराध किया है और उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया जाए और जब कोर्ट को लगा कि इस बात में प्राथमिक तौर पर कोई दम नजर आता है तब कोर्ट ने मामले को सीबीआई को सौंपी और फिर ए. राजा पर एफआईआर दर्ज हुआ। इसकी जांच फिर से सीबीआई ने की और जब कोर्ट में यह माामला उठाया जाएगा तो आईपीओ की जिम्मेदारी फिर से पुलिस या सीबीआई का ही कोई अफसर उठाएगा। अब एक प्रैक्टीकल बात देखते हैं- पुलिस के अलावा सरकार के कई कानूनों के अंतर्गत कई विभाग हैं और उनके विभागीय अधिकारी जो अपराधिक जांच करते हैं उसमें उन्हें सबूत जुटाने का और समन जाने का अधिकार प्राप्त है। यथा फूड एंड ड्रग ऍडल्टरेशन कंट्रोल एक्ट के अंतर्गत या फिर जब किसी फैक्ट्री से प्रदूषण होता है तब पॉल्यूशन कंट्रोल एक्ट के अंतर्गत उन विभागोें के अधिकारी यह जांच कर सकते हैं। हम एक उदाहरण देख सकते हैं कि फूड एंड ड्रग ऍडल्टरेशन एक्ट के अंतर्गत कई मामले सामने आते हैं लेकिन कोई बड़ी कार्रवाई हुई हो, ऐसा बहुत कम होता है। हम छापे मारे जाने की खबरें तो पढ़ते हैं लेकिन किसी बड़ी गैंग को बड़ी सजा हुई हो ऐसी खबरें अधिक पढ़ने में नहीं आतीं। इसका कारण है उनमें लगने वाली देर और कई बार लम्बी कानूनी प्रक्रिया। इसलिए कि जब वे अधिकारी जांच करते हैं और सबूत इकट्ठा करते हैं और पंचनामा इत्यादि करते हैं, तब उन्हें दो अधिकार नहीं दिये गए हैं। पहले तो उन्हें अपराधी को गिरफ्तार करने का अधिकार नहीं है, दूसरा उन्हें चार्जशीट दाखिल करने का अधिकार नहीं है। उनका दर्जा पुलिस के इन्वेस्टीगेशन ऑफिसर का नहीं है। उसका दर्जा महज शिकायत करने वाले सामान्य नागरिक का दर्जा है। अतएव या तो उसे सामान्य व्यक्ति की तरह किसी पुलिस थाने जाकर एफआईआर लिखवाना पड़ेगा ताकि पुलिस यदि माने तो अपराधी तो गिरफ्तार करे या फिर उसे कोर्ट में जाकर एक प्रायवेट शिकायत लिखवानी पडेग़ी जिसमें कोर्ट संबंधित दर्ुव्यवहारी व्यक्ति को नोटिस देकर बुलाएंगे और उनका बयान दर्ज करने पर यदि लगा कि प्राथमिकी तौर पर अपराध होने की संभावना दिखती है, तो किसी पुलिस थाने को दुबारा पूरी जांच-पड़ताल करने को कहा जाएगा। उस दुबारा जांच में कई तथ्य उलटफेर कर दिए जाते हैं। कई कागजात गायब हो जाते हैं और अन्य सबूत नष्ट होते हैं। सबसे महत्व की बात कि समय नष्ट हो जाता है। और विभाग के जिस अधिकारी ने छानबीन की उसका हौसला भी। इसीलिए यह आवश्यक सुधार हमें लाना होगा कि जो इस तरह के संबंधित अधिकारी हैं, उन्हें आईओ का दर्जा दिया जाए और उनके द्वारा की गई जांच को एफआईआर में की गई जांच का दर्जा मिले और कोर्ट में ले जाने पर उन केसों की सुनवाई तुरंत आरंभ हो। इस प्रकार हमारा पुलिस विभाग अपने मुख्य काम के लिए अर्थात् आतंकवाद-गैंगवार इत्यादि 'ऑर्गेनाइड क्राइम' की ओर अधिक ध्यान दें।
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